बिखरे मोती/मछुए की बेटी

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बिखरे मोती  (1932) 
द्वारा सुभद्रा कुमारी चौहान
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मछुए की बेटी

[ १ ]

चौधरी और चौधराइन के लाड़ प्यार ने तिन्नी को बड़ी ही स्वच्छंद और उच्छृंखल बना दिया था। वह बड़ी ही निडर और कौतूहल-प्रिय थी। आधीरात पिछली पहर, जब तिन्नी की इच्छा होती वह नदी पर जा कर नाव खोल कर जल विहार करती और स्वच्छ लहरों पर खेलती हुई चन्द्र किरणों की अठखेलियां देखती।

यही फन्या चौधरी की सब कुछ थी; किन्तु फिर भी आज तक चौधरी उसका विवाह न कर सके थे; क्योंकि कन्या के योग्य कोई वर चौधरी को अपनी जात में न देख पड़ता था। इसलिए तिन्नी अभी तक कॉरी ही थी। [ १०५ ]नदी के पार, और उस पार से इस पार लाने का चौधरी ने ठेका ले रक्खा था । चौधरी की अनुप- स्थिति में तिन्नी अपने पिता का काम बड़ी योग्यता से करती थी ।

[ २ ]

“आज इतनी जल्दी कहाँ जा रही हो तिन्नी’ ?

क्या तुम नहीं जानते ?”

“क्या ?'

“यही कि राजा साहब आज उस पर जायंगे"?

"कौन राजा साहब "?

“तुम्हें यह भी नहीं मालूम ?”

“मैं आज ही तो यहाँ आया हूँ ।

"और अब तक कहाँ थे ?”

"अपने घर"।

"तो जैसे मैं रात-दिन घाट पर ही तो बनी रहती हूँ न ? इसलिए मुझे सब कुछ जानना चाहिए और तुम्हें कुछ भी नहीं । तुम मुझे वैसे ही तंग किया करते हो । जाओ, अब मैं तुमसे बात भी न करूगी ।

तिन्नी को चिढ़ाकर उसकी क्रोधित मुद्रा को देखने
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में युवक को विशेष आनन्द आता था । इसलिए वह प्राय: इसी प्रकार के बेसिर-पैर के प्रश्न करके उसे चिढ़ा दिया करता था। किन्तु आज तो बात जरा टेढी़ हो गई थी। तिन्ना ने क्रोधावेश में यह प्रतिज्ञा कर ली थी कि अब वह युवक से बोलेगी ही नहीं; इसलिए मुँँह फेरकर वह तेजी से घाट की ओर चल दी । युवक ने तिन्नी का रास्ता रोक लिया और बड़े विनीत और नम्र भाव से बोला-

“तिन्नी! सच बता दे मेरी तिन्नी ! मैं तेरा डाँड़ चला दूंगा, तेरा आधा काम कर दूंगा ।

तिन्नी के क्रोधित मुख पर हंसी नाच गई। युवक उसके साथ डांड़ चला देगा; उसे एक साथी मिल जावेगा; इस बात को सोचकर उसे बड़ी प्रसन्नता हुई। वह बोली-- सच कहते हो ? मेरे साथ तुम डांड़ चलाओगे ? देखो, बापू नहीं हैं; मैं अकेली हूँ। यदि तुम सचमुच मेरे साथ डांड़ चलाने को कहो, तो फिर में बताती हूँ।,

"सच नहीं तो क्या झूठ ? में डाँड़ जरूर चलाऊंगा; पर पहिले तुझे बताना पड़ेगा ", युवक ने कहा।

"इधर अपने पास ही कोई रियासत है न ? वहीं के राजा साहब नदी के उस पार शिकार खेलने
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जायंगे । महीना, पन्द्रह दिन का काम है मनोहर ! खूब अच्छा रहेगा । खूब पैसे भी मिलेंगे। मैं तुम्हें भी दिया करूंगी; पर इतना वादा करो कि जब तक बापू न लौट करे आवे; तुम रोज मेरे साथ डाँड़ चलायो करो ।

——" यह कौन सी बड़ी बात है तिन्नी ? यदि तू मान जा तो मैं तो तेरे साथ जीवन भर डांड़ चलाने को तैयार हूँ।”

"तो जैसे मैंने कभी इन्कार किया हो, नेकी और पूछ पूछ-? तुम मेरा डाँड़ चलाओ और मैं इन्कार कर दूंगी”

——"तो, तिन्नी तु मुझसे विवाह क्यों नहीं कर लेती ? फिर हम दोनों जीवन भर साथ-सथ डांड़ चलाते रहेंगे।

क्षणभर के लिए तिन्नी के चेहरे पर लज्जा की लाली दौड़ गई। किन्तु तुरंत ही वह सम्हल कर बोली——कहने के लिए तो कह गये मनोहर ! किन्तु आज मैं विवाह के लिए तैयार हो जाऊँ तो ?

——"तो मैं खुशी के मारे पागल हो जाऊँ ।” ——"फिर उसके बाद ?" [ १०८ ]-“फिर मैं तुम्हें रानी बना कर अपने आपको दुनिया का बादशाह समझूं ।"

―"अपने आपको बादशाह समझोगे, क्यों मनोहर ? और मैं बनूंँगी रानी । पर मैं रानी बनने के बाद डांड़ तो न चलाऊँगी, अभी से कहे देती हूँ ।

―“तब मैं ही क्यों डांड़ चलाने लगा। मैं बनूंगा राजा। और तुम बनोगी मेरी रानी, फिर डांड़ चलाएंगे हमारे- तुम्हारे नौकर ।”

“अच्छा, यह बात है !" कह कर तिन्नी खिलखिला कर हँस पड़ी और दोनों हँसते हुए घाट की तरफ चले गये।

[ ३ ]

एक बड़ी नाव पर राजा साहब और उनके पुत्र कृष्णदेव अपने कई मुसाहिबो के साथ उस पार जाने के लिए बैठे। तिन्नी कई मछुओ और मनोहर के साथ डांड चलाने लगी । तिन्नी नाव भी खेती जाती थी और साथ ही मनोहर से हंँस-हँस कर बातें भी करती जाती थी । वायु के झोको के साथ उड़ते हुए उसके काले घुंघराले बाल उसकी सुन्दर मुखाकृति को और भी मोहक बना रहे थे । कृष्णदेव उसके मुंँह की ओर किन स्थिरता के साथ देख रहे हैं ; [ १०९ ]
इस ओर तिन्नी का ध्यान ही न था । किन्तु राजा साहब से पुत्र की मानसिक अवस्था छिपी न रही। युवा काल में उनके जीवन में भी कई बार ऐसे मौके आ चुके थे।

अब कृष्णदेव प्रायः प्रति दिन ही जल-विहार के लिए नौका पर आते और डांड चलाने का काम बहुधा तिन्नी ही किया करती है। कृष्णदेव के मूक प्रेम और आकर्षण ने तिन्नी को भी उनकी तरफ बहुत कुछ आकर्षित कर लिया था। जिस समय कृष्णदेव नौका पर आते, उस समय अन्य मछुओं के रहते हुए भी तिन्नी स्वयं ही नौका चलाती ।

राजा साहब से कुछ छिपा न था। कुमार रोज जल-विहार के लिए जाते हैं, और तिन्नी ही नाव चलाया करती है, यह राजा साहब ने सुन लिया था। अतएव बात को इससे अधिक न बढ़ने देने के अभिप्राय से राजा साहब बिना शिकार खेले ही एक दिन अपनी रियासत को लौट गये । जाने को तो पिता के साथ कृष्णदेव भी गये; किन्तु उनका हृदय मछुए के झोपड़े में तिन्नी के ही पास छूट गया था। रियासत पहुँच कर कृष्णदेव सदा उदास और न जाने किन विचारों में निमग्न करते । शायद
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उन्हें रह रह कर मनोहर के भाग्य पर ईर्षा होती थी। वह सोचते मनोहर किस प्रकार तिन्नी के पास बैठकर नाव चलाया करता था । तिनी कैसी घुल-मिलकर हंसती हुई उससे बातें किया करती थी। एक मामूली आदमी हो कर भी मनोहर कितना सुखी है। काश ! मैं भी एक मछुआ होता और तिन्नी के पास बैठकर नाव चला सकता; तो कितना सुखी न होता ?

किन्तु वे कभी किसी से कुछ भी न कहते । हां! अब उन्हें आखेट से रुचि न थी । शतरंज के वे बहुत अच्छे खिलाड़ी थे; किन्तु अब मुहरों की ओर उनसे आँख उठाकर देखा भी न जाता । अध्ययन से भी उन्हें बड़ा प्रेम था। उनकी लायब्रेरी में विद्वान लेखकों की अच्छी से अच्छी पुस्तकें थीं; किन्तु उन पर अब इंचों धूल जम रही थी।

यार दोस्त आते; घंटों छेड़छाड़ करते; किन्तु कृष्णदेव में तिल-भर का भी परिवर्तन में होता । उनके अन्तर- ‘जगत में कितना भयंकर तूफान उठ रहा था, यह किसे मालूम था। कृष्णदेव अपनी वेदना चुपचाप पी रहे थे। किन्तु उनकी आंतरिक पीड़ा को उनकी शारीरिक अवस्था
[ १११ ]बतला रही थी। उनका स्वास्थ्य दिनों-दिन गिरता जा रहा था।

पिता से पुत्र की बीमारी छिपी न थी। वे सब जानते थे; किन्तु वे चाहते यह थे कि बात किसी प्रकार दबी की दबी ही रह जाय; उन्हें बीच में न पड़ना पड़े। कृष्णदेव उनका इकलौता पुत्र था। पुत्र की चिन्ता उन्हें रात-दिन बनी रहती थी । तिन्नी के अनिन्दनीय रूप और चातुर्य ने राजा साहब को आकर्षित न किया हो, सो बात न थी। किन्तु थी तो वह आखिर मछुए की ही बेटी । राजा साहब उससे कृष्णदेव का विवाह करते भी तो कैसे ?

एक दिन राजा साहब कृष्णदेव के कमरे में गये । उस समय वह सोए हुए थे। आँखों के पास जैसे रोते-रोते गड़े से पड़ गये थे। चेहरा पीला-पीला और शरीर सूख कर जैसे काँटा सा हो रहा था । जमीन पर ही एक चटाई के ऊपर बिना तकिए के मखमली बिछौनों पर सोने

वाला उनका दुलारा कृष्णदेव न जाने किस चिन्ता में पड़ा- पड़ा सो गया था। राजा साहब की आँखो में आँसू आ गये थे । वे कुछ न बोलकर चुपचाप कृष्णदेव के कमरे से बाहर निकल आए । [ ११२ ]

[ ४ ]


दूसरे ही दिन रियासत से तिन्नी समेत चौधरो का बुलौआ हुआ । उन्हें शीघ्र से शीघ्र उपस्थित होने की आज्ञा थी और साथ ही उन्हें लेने के लिए सवारी भी आई थी। इस घटना ने मुहल्ले भर में हलचल मचा दी। चौधरी बहुत घबराए । सोचा "अवश्य ही मेरी अनुपस्थिति में इस उद्ंदड लड़की ने कोई अनुचित व्यवहार कर दिया होगा । राजा साहब जरूर नाराज हैं; नहीं तो तिन्नी समेत बुलाए जाने का और कारण ही क्या हो सकता है। मुहल्ले वाले सभी चौधरी को समयोचित सीख देने आए। अपनी अपनी समझ के अनुसार किसी ने कुछ कहा, किसी ने कुछ । किन्तु तिन्नी का हृदय कुछ और ही चल रहा था । तिन्नी पिता के पास मोटर पर बैठने ही वाली थी; मनोहर ने आकर धीरे से तिन्नी से कहा-

मनोहर-तिन्नी !कहीं राजकुमार ने तुम्हें अपनी रानी बनाने को बुलाया हो तो?

तिन्नी-कुछ तुम मुझे अपनी रानी बनाते थे, कुछ राजकुमार बनाएंगे ?

मनोहर-तिन्नी । तुम तो सदा ही मेरे हृदय की रानी
[ ११३ ]रही हो और रहोगी । आज ऐसी बात क्यों करती हो ?

“सो कैसे ? बिना विवाह हुए ही मैं तुम्हारी या तुम्हारे हृदय की रानी कैसे बन सकती हूँ ?"तिश्नी ने रुखाई से पूंछा ।


मनोहर-तिन्नी ! रानी बनने के लिए विवाह ही थोड़े जरूरी है; जिसे हम प्यार करें वही हमारी रानी ।

तिन्नी का चहरा तमतमा गया; बोली धत् ! मैं ऐसी रानी नहीं बनना चाहती; ऐसी रानी से तो मछुए की बेटी ही भली । और मनोहर के उत्तर की प्रतीक्षा न करके पिता के पास जाकर मोटर पर बैठ गई । मोटर स्टार्ट हो गई।

जब यह लोग रियासत में राजा साहब के महल के, सामने पहुँचे तब कुछ अंधेरा हो चला था । इनके पहुँचने की सूचना राजा साहब को दी गई। चौधरी पुत्री समेत महल के एक सूने कमरे में बुलाए गए। कमरे में राजा साहव और कृष्णदेव को छोड़ कर कोई न था । डर के मारे चौधरी की तो हुलिया बिगड़ रही थी। किन्तु तिन्नी मन ही मन मुस्कुरा रही थी। पिता-पुत्री का उचित
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सम्मान करने के उपरान्त राजा साहब ने मछुए को सम्बोधन करके कहा-चौधरी हमने तुम्हें किसलिए बुलाया है कदाचित् तुम नहीं जानते ।

चौधरी भय से कांप उठे; हाथ जोड़कर बोले-मैं तो महाराज का गुलाम हैं, सदा............।राजा साहब बात काटते हुए बोले-हम तुम्हारी इस कन्या को राजकुमार के लिए चाहते हैं।

तिन्नी ओठों के भीतर मुरकुराई, और चौधरी आश्चर्य से चकित हो गये । एक बार राजा साहब की ओर और फिर उन्होंने तिन्नी की ओर देखा । सहसा चौधरी को इस बात पर विश्वास न हुआ । कहाँ में एक साधारण मछुआ और कहाँ वे एक रियासत के राजा ! हमारे बीच में कभी रिश्तेदारी भी हो सकती है ? फिर न जाने क्या सोचकर भय-विह्वल चौधरी ने हाथ जोड़ कर कहा-महाराज यह कन्या मेरी नहीं है।

राजा साहब चौंक उठे; आश्चर्य से उन्होंने चौधरी से पुछा-फिर यह किसी लड़की है ?

हाथ जोड़े ही जाड़े चौधरी बोले-महाराज पन्द्रह साल पहले की बात हैं; नदी में बहुत बाढ़ आई थी । उसी बाढ़ में, मेरे बुढ़ापे की लकड़ी, यह कन्या मुझे मिली थी। [ ११५ ]
यह एक खाट पर बहती हुई आई थी और इसके गले में एक छोटी सी सोने की ताबीज़ थी ।

ताबीज का नाम सुनते ही राजा साहब को ताबीज देखने की उत्सुकता हुई। उनके मस्तिष्क में किसी ताबीज की धुंधली-सी स्मृति छा गई । पिता के आदेश से तिन्नी गले से ताबीज निकालने के लिए ताबीज के धागे की गाँठ खोलने लगी ।

मछुए ने फिर कहना शुरू किया-‘महराज ! इस ताबीज़ का भी बड़ा विचित्र किस्सा है। एक बार ताबीज का धागा टूट गया, कई दिनों तक याद न रहने के कारण यह ताबीज इसे न पहनाई जा सकी। बस महाराज यह तो इतनी ज्यादः बीमार पड़ी कि मरने-जीने की नौबत आ गई । और फिर ताबीज पहिनाते ही बिना दवा-दारू के ही चंगी भी हो गई । तब से ताबीज़ आज तक उसके गले में ही पड़ी है।

राजा साहब को स्मरण हो आया कि पन्द्रह साल पहिले उनकी लड़की भी टेन्ट के अन्दर से बाढ़ में बह गई थी। जिसके गले में उन्होंने भी एक ज्योतिषी के आदेशानुसार ताबीज़ पहनाई थी। उन्होंने एक बार कृष्णदेव, फिर तिन्नी के मुंह की तरफ़ देखा। उन्हें उनके मुंह में बहुत
[ ११६ ] कुछ समानता देख पड़ी । तब तक तिन्नी ने गले से ताबीज़ निकाल कर राजा साहब के सामने कर दिया। राजकुमार का हृदय बड़े वेग से धडक रहा था । तावीज़ हाथ में लेते ही राजा साहब ने 'मेरी कान्ती' कहते हुए तिन्नी को छाती से लगा लिया । यह वही तावीज़ थी जिसे ज्योतिषी के आदेश से राजा साहब ने पुत्री के गले में पहिनाया था।

पिता-पुत्री और भाई-बहिन का यह अपूर्व सम्मिलन था। सब की आँखों में प्रेम के आँसू उमड़ आए ।

[ ५ ]

अब महल के पास ही चौधरी के रहने के लिए पक्का मकान बन गया है। चौधरी अपनी स्त्री समेत वहीं रहते हैं । अब उन्हें नाव नहीं चलानी पड़ती, रियासत की ओर से उनकी जीविका के लिए अच्छी रक़म बाँध दी गई है। राज-महल में रहती हुई भी कान्ती चौधरी के घर जाकर तिन्नी हो जाती हैं। अब भी वह चौधरी के साथ उनकी थाली में बैठकर चौधराइन के हाथ की मोटी-मोटी रोटियाँ खा जाती है।

तिन्नी को बहिन के रूप में पाकर कृष्णदेव को कम प्रसन्नता न थी। वे तिन्नी को साथ चाहते थे-चाहे वह पत्नी के रूप में हो या बहिन के।