बिल्लेसुर बकरिहा/१

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बिल्लेसुर बकरिहा  (1941) 
द्वारा सूर्यकान्त त्रिपाठी 'निराला'

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बिल्लेसुर बकरिहा
(१)

बिल्लेसुर'—नाम का शुद्ध रूप बड़े पते से मालूम हुआ—'विल्वेश्वर' है। पुरवा डिवीज़न में, जहाँ का नाम है, लोकमत बिल्लेसुर-शब्द की ओर है। कारण, पुरवा में उक्त नाम के प्रतिष्ठित शिव हैं। अन्यत्र यह नाम न मिलेगा, इसलिए भाषातत्त्व की दृष्टि से गौरवपूर्ण है। 'बकरिहा' जहाँ का शब्द है, वहाँ 'बोकरिहा' कहते हैं। वहाँ 'बकरी' को 'बोकरी' कहते हैं। मैंने इसका हिन्दुस्तानी रूप निकाला है। 'हा' का प्रयोग हनन के अर्थ में नहीं, पालन के अर्थ में है।

बिल्लेसुर जाति के ब्राह्मण, 'तरी' के सुकुल हैं, खेमेवाले के पुत्र ख़ैयाम की तरह किसी बकरीवाले के पुत्र बकरिहा नहीं। लेकिन तरी के सुकुल को संसार पार करने की तरी नहीं मिली तब बकरी पालने का कारोबार किया। गाँववाले उक्त पदवी से अभिहित करने लगे।

हिन्दी-भाषा-साहित्य में रस का अकाल है, पर हिन्दी बोलनेवालों में नहीं; उनके जीवन में रस की गंगा-जमुना बहती है; बीसवीं-सदी साहित्य की धारा उनके पुराने जीवन में मिलती है। उदाहरण के लिए अकेला बिल्लेसुर का घराना काफ़ी है। बिल्लेसुर चार भाई आधुनिक साहित्य के चारों चरण पूरे कर देते हैं।

बिल्लेसुर के पिता का नाम मुक्ताप्रसाद था; क्यों इतना शुद्ध नाम था, मालूम नहीं; उनके पिता पंडित नहीं थे। मुक्ताप्रसाद के चार [  ]लड़के हुए—मन्नी, ललई, बिल्लेसुर, दुलारे। नाम उन्होंने स्वयं रक्खे, पर ये शुद्ध नाम हैं। उनके पुकारने के नाम गुणानुसार और और हैं। मन्नी पैदा होकर साल भर के हुए, पिता ने बच्चे को गर्दन उठाये बैठा झपकता देखा तो 'गपुआ' कहकर पुकारना शुरू किया, आदर में 'गप्पू'। दूसरे लड़के ललई की गोराई रोयों में निखर आई थी, आँखें भी कञ्जलोचन, स्वभाव में बदले-बदले, पिता ने नाम रक्खा 'भर्रा' आदर में 'भूरू'। बिल्लेसुर के नाम में ही गुण था; पिता 'बिलुआ' आदर में 'बिल्लू' कहने लगे। दुलारे अपना ईश्वर के यहाँ से ख़तना कराकर आये थे, पिता को नामकरण में आसानी हुई, 'कटुआ' कहकर पुकारने लगे, आदर में 'कट्टू'।

अभाग्यवश पुत्रों का विकास देखने से पहले मुक्ताप्रसाद संसारबन्धन से मुक्त हो गये। उनकी पत्नी देख-रेख करती रहीं। पर वे भी, पीसकर, चौका-टहल कर, कंडे पाथकर, ढोर छोड़कर, रोटी पकाकर, छोटे से बाग़ के आम-महुए बीनकर, लड़कों को किसानी के काम में लगाकर ईश्वर के यहाँ चली गईं। उनके न रहने पर चारों भाइयों की एक राय नहीं रही। विवाद काम में विघ्न पैदा करता है। फलतः चार भाई की दो टोलियाँ हुईं। मन्नी और बिल्लेसुर एक तरफ़ हुए, ललई और दुलारे एक तरफ़, जैसे सनातनधर्मी और आर्यसमाजी। कुछ दिन इसी तरह चला। फिर इनमें भी शाखें फूटीं जैसे वैष्णव और शाक्त, वैदिक और वितण्डावादी। फिर सबकी अपनी डफली और अपना राग रहा।

सनातनधर्मानुसार मन्नी दुखी हुए कि तरी के सुकुल होने के कारण कोई लड़की नहीं ब्याह रहा। पर विवाह आवश्यक है, इस लोक के लिये भी और परलोक के लिये भी। माता-पिता गुज़र गये [  ]हैं, पानी तो उन्हें मिल जाता है, पर माता जी को बड़ियाँ नहीं मिलतीं। बिना गृहिणी के घर में भूत डेरा डालते हैं। विचार के अनुसार मन्नी बातचीत करते और जहाँ कहीं अनाथ की लड़की देखते थे, डोरे डालते थे। एक जगह लासा लग गया। कहना न होगा, ऐसे विवाह की बातचीत में अत्युक्ति ही प्रधान होता है, अर्थात् झूठ ही अधिक यानी एक पैसे की हैसियत एक लाख की बताई जाती है। मन्नी के विवाह में ऐसा ही हुआ। लड़की ने माँ का दूध छोड़ा ही था, माँ बेवा थीं, कहा गया, रुपये दो-तीन सौ लेकर क्या करोगी जबकि लड़की को अभी दस साल पालना-पोसना हैं,––वहीं चलकर रहो, घी-दूध खाओ और रानी की तरह रहकर लड़की की परवरिश करो। बात माँ के दिल में बैठ गई। मन्नी तब तीस साल के थे; पर चूँकि नाटे क़द के थे, इसलिए अट्ठारह-उन्नीस की उम्र बतलाई गई। मूछों की वैसी बला न थी। बात खप गई।

मन्नी के खेतों के पास एक झाड़ी है; कहते हैं, वहाँ देवता झाड़खण्डेश्वर रहते हैं। एक दिन शाम को मन्नी धूप-दीप, अक्षत-चन्दन, फूल-फल जल लेकर गये और उकड़ूँ बैठकर उनकी पूजा करते न जाने क्या-क्या कहते रहे। फिर लौटकर प्रसाद पाकर लेटे और पहर रात रहते पुरवा की तरफ़ चल दिये। एक हफ़्ते बाद, बैंगनी साफ़ा बाँधे, एक बेवा और उसकी लड़की को लेकर लौटे। रास्ते में ज़मींदार का खलिहान लगा था, दिखाकर कहा––सब अपनी ही रब्बी है। सासुजी ने मुश्किल से आनन्दातिरेक को रोका। गाँव के बाग़ात देख पड़े। मन्नी ने हाथ उठाकर बताया––वहाँ से वहाँ तक सब अपनी ही बागें हैं। सासुजी को सन्देह न रहा कि मन्नी मालदार आदमी है। घर टूटा था। भाइयों से जुदा होकर एक खंडहर [  ]में रहे थे; लेकिन वाग्देवी प्रचण्ड थीं, खण्डहर को भी खिला दिया। पहुँचने से पहले रास्ते में ज़मीदार की हवेली दिखाकर बोले––हमारा असली मकान यह है, लेकिन यहाँ भाई लोग हैं, आपको एकान्त में ले चलते हैं, वहाँ आराम रहेगा, यहाँ आपकी इज्जत न होगी, फिर उसी को हवेली बना लेंगे। सासु ने श्रद्धापूर्वक कहा––हाँ, भय्या, ठीक है, बाहरी आदमियों में रहना अच्छा नहीं। मन्नी खण्डहर में ले गये। इस दिन पसेरी भर दूध ले आये। सासुजी लज्जित होकर बोलीं––ऐ, इतना दूध कौन पियेगा? मन्नी ने गम्भीरता से उत्तर दिया––औटने पर थोड़ा रह जायगा, तीन आदमी हैं, ज़्यादा नहीं; फिर अभी कुछ दूध-चीनी शरबत के तौर पर पियेंगे। सासु ने आराम की साँस ली। मन्नी भङ्ग छानते थे। ठाकुरद्वारे में एक गोला पीसकर तैयार किया और चुपचाप ले आये। दूध में शकर मिलाकर गोला घोल दिया। भङ्ग में बादाम की मात्रा काफ़ी थी, सासुजी को अमृत का स्वाद आया, एक साँस में पी गईं। मन्नी ने थोड़ी सी अपनी भावी पत्नी को पिलाई, फिर खुद पी। सासुजी हाथ-पैर धोकर बैठीं, मन्नी पूड़ी निकालने लगे। जब तक नशा चढ़े-चढ़े तब तक काम कर लिया। पूड़ी-तरकारी दूध-शकर मिठाई-खटाई बड़ी तत्परता से सासुजी को परोसा। सासुजी को मालूम दिया, मन्नी बड़ी तपस्या के फल मिले। खूब खाया। मन्नी ने पलंग बिछा दिया था, माँ-बेटी लेटीं। मन्नी भोजन करके ईश्वर-स्मरण करने लगे। आधी रात को ज़ोर से गला झाड़ा, पर सासुजी बेख़बर रहीं। फिर दरवाज़े पर हाथ दे-दे मारा, पर उन्होंने करवट भी न ली। मन्नी समझ गये कि सुबह से पहले आंखें न खोलेंगी। बस, अपनी भावी पत्नी को गले लगाया और भगवान बुद्ध की तरह घर त्यागकर चल [  ]दिये। पत्नी गले लगी सोती रही। सुबह होते-होते मन्नी ने सात कोस का फ़ासला तै किया। जहाँ पहुँचे वहाँ रिश्तादारी थी। लोग सध गये। सासुजी ने सबेरे हल्ला मचाया। बात खुली। पर चिड़िया उड़ चुकी थी। वे रो-पीटकर शाप देती हुई कि तू मर जा––तेरी चारपाई गङ्गाजी जाय, घर चली गईं। मन्नी शुभ दिन देखकर चुपचाप विवाह कर पत्नी को साथ लेकर परदेश चले गये। पत्नी की दस बारह साल सेवा की। अब, धर्म की रक्षा करते हुए, बीस साल की अकेली, उसकी माँ की गोद में जैसे एक कन्या छोड़कर स्वर्ग सिधार गये है। मन्नी कट्टर सनातनधर्मी थे।

ललई का दूसरा हाल है। पहले ये भी कलकत्ता बम्बई की ख़ाक छानते फिरे, अन्त में रतलाम में आकर डेरा जमाया। यहाँ एक आदमी से दोस्ती हो गई। कहते हैं, ये गुजराती ब्राह्मण थे। ईश्वर की इच्छा, कुछ दिनों में दोस्त ने सदा के लिये आँखें मूँदीं। लाचार, दोस्त के घर का कुल भार ललई ने उठाया। दोस्त का एक परिवार था। पत्नी, दो बेटे, बड़े बेटे की स्त्री। इन सबसे ललई का वही रिश्ता हुआ जो इनके दोस्त का था। इस परिवार में कुछ माल भी था, इसलिये ललई ने परदेश रहने से देश रहना आवश्यक समझा। चूँकि अपने धर्म-कर्म में दृढ़ थे इसलिये लोकनिन्दा और यशःकथा को एकसा समझते थे। अस्तु इन सबको गाँव ले आये। एक साथ पत्नी, दो-दो पुत्र और पुत्रवधू को देखकर लोग एकटक रह गये। इतना बड़ा चमत्कार उन्होंने कभी नहीं देखा था। कहीं सुना भी नहीं था। गाँववालों की दृष्टि ललई पहले ही समझ चुके थे, जानते थे, जिस पर पड़ती है, उसका जल्द निस्तार नहीं होता, इसलिये निस्तार की आशा छोड़कर ही आये थे। गाँव वालों ने [  ]ललई का पान-पानी बन्द किया। ललई ने सोचा, एक ख़र्च बचा। गाँववाले भी समझे, इसने बेवकूफ़ बनाया, माल ले आया है जिसका कुछ भी ख़र्च न कराया गया। ललई निर्विकार चित्त से अपने रास्ते आते जाते रहे। मौक़े की ताक में थे। इसी समय आन्दोलन चला। ललई देश के उद्धार में लगे। बड़ा लड़का गुजरात में कहीं नौकर था, ख़र्चा भेजता रहा। गाँववाले प्रभाव में आ गये। ललई की लाली के आगे उनका असहयोग न टिका। अब मिलने की बातें कर रहे हैं ललई राजनीतिक सुधारक सामाजिक आदमी हैं।

बिल्लेसुर का हाल आगे लिखा जायगा। इनमें बिल और ईश्वर दोनों के भाव साथ साथ रहे।

दुलारे आर्यसमाजी थे। वस्तीदीन सुकुल पचास साल की उम्र में एक बेवा ले आये थे। लाने के साल ही भर में उनकी मृत्यु हो गई। दुलारे ने उस बेवा को समझाया, पति के रहते भी तीन साल या तीन महीने खबर न लेने पर पत्नी को दूसरा पति चुनने का अधिकार है। फिर जब वस्तीदीन नहीं रहे तब तीसरे पति के निर्वाचन की उन्हें पूरी स्वतन्त्रता है, और दुलारे उनकी सब तरह सेवा करने को तैयार हैं। स्त्री को एक अवलम्ब चाहिये। वह राज़ी हो गई। लेकिन दुलारे भी साल भर के अन्दर संसार छोड़कर परलोक सिधार गये। पत्नी को हमल रह गया था, बच्चा हुआ। अब वह नारद की तरह ललई के दरवाज़े बैठा खेला करता है। माँ नहीं रही।


(२)

मन्नी मार्ग दिखा गये थे, बिल्लेसुर पीछे-पीछे चले। गाँव में [  ]सुना था, बङ्गाल का पैसा टिकता है, बम्बई का नहीं, इसलिये बङ्गाल की तरफ़ देखा। पास के गाँवों के कुछ लोग बर्दवान के महाराज के यहाँ थे सिपाही, अर्दली, जमादार। बिल्लेसुर ने साँस रोककर निश्चय किया, बर्दवान चलेंगे। लेकिन ख़र्च न था। पर प्रगतिशील को कौन रोकता है? यद्यपि उस समय बोल्शेविज़्म का कुछ ही लोगों ने नाम सुना था, बिल्लेसुर को आज भी नहीं मालूम, फिर भी आइंडिया अपने आप बिल्लेसुर के मस्तिष्क में आ गई। वे उसी फटे हाल कानपुर गये। बिना टिकट कटाये कलकत्तेवाली गाड़ी पर बैठ गये। इलाहाबाद पहुँचते-पहुँचते चेकर ने कान पकड़कर गाड़ी से उतार दिया। बिल्लेसुर हिन्दुस्तान के जलवायु के अनुसार सविनय क़ानून-भङ्ग कर रहे थे, कुछ बोले नहीं, चुपचाप उतर आये; लेकिन सिद्धान्त नहीं छोड़ा। प्लैटफ़ार्म पर चलते फिरते समझते-बूझते रहे। जब पूरब जाने वाली दूसरी गाड़ी आई, बैठ गये। मोगलसराय तक फिर उतारे गये; लेकिन, दो-तीन दिन में, चढ़ते-उतरते, बर्दवान पहुँच गये।

पं॰ सत्तीदीन सुकुल, महाराज, बर्दवान के, यहाँ जमादार थे। यद्यपि बङ्गालियों को 'सत्तीदीन' शब्द के उच्चारण में अड़चन थी, वे 'सत्यदीन' या 'सतीदीन' कहते थे, फिर भी 'सत्तीदीन' की उन्नति में वे कोई बाधा नहीं पहुँचा सके। अपनी अपार मूर्खता के कारण सत्तीदीन महाराज के ख़ज़ाञ्ची हो गये, आधे; आधे इसलिये कि ताली सत्तीदीन के पास रहती थी, खाता एक दूसरे बाबू लिखते थे। सत्तीदीन इसे अपने एकान्त विश्वासी होने का कारण समझते थे। दूसरे हिन्दोस्तानियों पर भी इस मर्यादा का प्रभाव पड़ा। बिल्लेसुर समझ-बूझकर इनकी शरण में गये। सत्तीदीन सस्त्रीक [  ]रहते थे। दो-तीन गायें पाल रक्खी थीं। स्त्री 'शिखरिदशना' थीं यानी सामने के दो दांत आवश्यकता से अधिक बड़े थे। होठों से कोशिश करने पर भी न बन्द होते थे। पैकू के सुकुल। कनवजियापन में बिल्लेसुर से बहुत बड़े। फलतः बिल्लेसुर को यहाँ सब तरह अपनी रक्षा देख पड़ी।

बिल्लेसुर सत्तीदीन के यहाँ रहने लगे। ऐसी हालत में ग़रीब की तहज़ीब जैसी, दबे पाँव, पेट खिलाये, रीड़ झुकाये, आँखें नीची किये आते जाते रहे। उठते जोबन में सत्तीदीन की स्त्री को एक सुहलानेवाला मिला। दो-तीन दिन तक भोजन न खला। एक दिन औरत वाले कोठे जी गया। नक्की सुरों में बोलीं, "मैं कहती हूँ, बिल्लेसुर, तुम तो आ ही गये हो, और अभी हो ही, इस चरवाहे को विदा क्यों न कर दूँ? हराम का पैसा खाता है। कोई काम है? घास खड़ी है, दो बोझ काट लानी है; नहीं, पैरे की बँधी मूठें हैं––यहाँ वहाँ का जैसा धान का पैरा नहीं––बड़ा बड़ा कतर देता है और थोड़ी सी सानी कर देनी है; देश में जैसे डंडा लिये यहाँ ढोरों के पीछे नहीं पड़ा रहना पड़ता, लम्बी लम्बी रस्सियाँ हैं, तीन गायें है, घास खड़ी है, बस ले गये और खूँटा गाड़कर बाँध दिया, गायें चरती रहीं, शाम को बाबू की तरह टहलते हुए गये और ले आये, दूध दुह लिया रात को मच्छड़ लगते हैं, गीले पैरे का धुवाँ दे दिया; कहने में तो देर भी लगी।' कहकर सत्तीदीन की स्त्री ने कनपटी घुमाई और दोनों होंठ सटाने शुरू किये।

बिल्लेसुर चौकन्ने। ढोर चराने के लिये समन्दर पार नहीं किया। यह काम गाँव में भी था। लेकिन परदेश है। अपना कोई नहीं। दूसरे के सहारे पार लगना है। सोचा, [  ]तब तक कर लें; नौकरी न लगी तो घर का रास्ता नापेंगे।

बिल्लेसुर को जवाब देते देर हुई। सत्तीदीन की स्त्री ने कनपटी घुमाई कि बिल्लेसुर बोले––'कौन बड़ा काम है? काम के लिए ही तो आया हूँ सात सौ कोस––देस सात सौ कोस तो होगा?'

बिल्लेसुर के निश्चय पर जमकर सत्तीदीन की स्त्री ने कहा, 'ज़्यादा होगा'। कानपुर की बर्दवान की दूरी। सोचकर बोली, 'जमादार आयेंगे तो पूछूँगी, उनकी किताब में सब लिखा है।'

बिल्लेसुर ख़ामोश रहे। मन में क़िस्मत को भला बुरा कहते रहे।

शाम को जमादार आये। भोजन तैयार था। स्त्री ने पैर धुला दिये। जमादार पाटे पर बैठे। स्त्री दिन को मक्खियाँ उड़ाती हैं, रात को सामने बैठी रहती है। जमादार भोजन करने लगे। स्त्री ने कहा 'जमादार, बिल्लेसुर कहते हैं, अपना देस यहाँ से सात सौ कोस है, मैं कहती हूँ, और होगा। तुम्हारी किताब में तो सब कुछ लिखा है?'

सत्तीदीन को एक डाइरी मिली थी। डाइरी भी वही बाबू लिखता था। लिखने के विषय के अलावा और क्या क्या उसमें लिखा है, सत्तीदीन उस बाबू से कभी कभी पढ़ाकर समझते थे। सत्तीदीन ने सोचा, महाराज ने ऊँचा पद तो दिया ही है, संसार को भी उनकी मुट्ठी में बेर की तरह डाल दिया है। कई रोज़ वह किताब घर ले आये थे, और वहाँ जो कुछ सुना था, जितना याद था, ज़बानी स्त्री को सुनाया था।

बायें हाथ से मूछों पर ताव देते हुए, मुँह का नेवाला निगलकर [ १० ]सत्तीदीन ने कहा, 'सात सौ कोस इलाहाबाद तक पूरा हो जाता है।' उनकी स्त्री चमकती आँखों से बिल्लेसुर को देखाने लगीं। बिल्लेसुर हार मानकर बोले––'जब किताब में लिखा है तो यही ठीक होगा।'

पति को प्रसन्न देखकर पत्नी ने अर्ज़ी पेश की जिस तरह पहले बड़े आदमियों का मिज़ाज परखा जाता था, फिर बात कही जाती थी। बिल्लेसुर ग़र्ज़मन्द की बावली निगाह सा देखते रहे। सत्तीदीन ने उसमें एक सुधार की जगह निकाली, कहा 'बिल्लेसुर अपने आदमी है इसमें शक नहीं, लेकिन इसमें भी शक नहीं कि उस छोकड़े से ज़्यादा खायेंगे। हम तनख़्वाह न देंगे। दोनों वक़्त खा लें। तनख़्वाह की जगह हम तहसील के जमादार से कह देंगे, वे इन्हें गुमाश्तों के नाम तहसील की चिट्टियाँ देते रहें, ये चार-पाँच घन्टे में लगा आयेंगे, इन्हें चार-पाँच रुपये महीने मिल जाया करेंगे, हमारा काम भी करते रहेंगे।'

सत्तीदीन की स्त्री ने किये उपकार की निगाह से बिल्लेसुर को देखा। बिल्लेसुर ख़ुराक और चार-पाँच का महीना सोचकर अपने धनत्व को दबा रहे थे, इतने से आगे बहुत कुछ करेंगे। सोचते हुए उन्होंने सत्तीदीन की स्त्री से हामी की आँख मिलाई।

जमादार गम्भीर भाव से उठकर हाथ-मुँह धोने लगे।