बिल्लेसुर बकरिहा/२

विकिस्रोत से
बिल्लेसुर बकरिहा  (1941) 
द्वारा सूर्यकान्त त्रिपाठी 'निराला'

[  ]

(२)

मन्नी मार्ग दिखा गये थे, बिल्लेसुर पीछे-पीछे चले। गाँव में [  ]सुना था, बङ्गाल का पैसा टिकता है, बम्बई का नहीं, इसलिये बङ्गाल की तरफ़ देखा। पास के गाँवों के कुछ लोग बर्दवान के महाराज के यहाँ थे सिपाही, अर्दली, जमादार। बिल्लेसुर ने साँस रोककर निश्चय किया, बर्दवान चलेंगे। लेकिन ख़र्च न था। पर प्रगतिशील को कौन रोकता है? यद्यपि उस समय बोल्शेविज़्म का कुछ ही लोगों ने नाम सुना था, बिल्लेसुर को आज भी नहीं मालूम, फिर भी आइंडिया अपने आप बिल्लेसुर के मस्तिष्क में आ गई। वे उसी फटे हाल कानपुर गये। बिना टिकट कटाये कलकत्तेवाली गाड़ी पर बैठ गये। इलाहाबाद पहुँचते-पहुँचते चेकर ने कान पकड़कर गाड़ी से उतार दिया। बिल्लेसुर हिन्दुस्तान के जलवायु के अनुसार सविनय क़ानून-भङ्ग कर रहे थे, कुछ बोले नहीं, चुपचाप उतर आये; लेकिन सिद्धान्त नहीं छोड़ा। प्लैटफ़ार्म पर चलते फिरते समझते-बूझते रहे। जब पूरब जाने वाली दूसरी गाड़ी आई, बैठ गये। मोगलसराय तक फिर उतारे गये; लेकिन, दो-तीन दिन में, चढ़ते-उतरते, बर्दवान पहुँच गये।

पं॰ सत्तीदीन सुकुल, महाराज, बर्दवान के, यहाँ जमादार थे। यद्यपि बङ्गालियों को 'सत्तीदीन' शब्द के उच्चारण में अड़चन थी, वे 'सत्यदीन' या 'सतीदीन' कहते थे, फिर भी 'सत्तीदीन' की उन्नति में वे कोई बाधा नहीं पहुँचा सके। अपनी अपार मूर्खता के कारण सत्तीदीन महाराज के ख़ज़ाञ्ची हो गये, आधे; आधे इसलिये कि ताली सत्तीदीन के पास रहती थी, खाता एक दूसरे बाबू लिखते थे। सत्तीदीन इसे अपने एकान्त विश्वासी होने का कारण समझते थे। दूसरे हिन्दोस्तानियों पर भी इस मर्यादा का प्रभाव पड़ा। बिल्लेसुर समझ-बूझकर इनकी शरण में गये। सत्तीदीन सस्त्रीक [  ]रहते थे। दो-तीन गायें पाल रक्खी थीं। स्त्री 'शिखरिदशना' थीं यानी सामने के दो दांत आवश्यकता से अधिक बड़े थे। होठों से कोशिश करने पर भी न बन्द होते थे। पैकू के सुकुल। कनवजियापन में बिल्लेसुर से बहुत बड़े। फलतः बिल्लेसुर को यहाँ सब तरह अपनी रक्षा देख पड़ी।

बिल्लेसुर सत्तीदीन के यहाँ रहने लगे। ऐसी हालत में ग़रीब की तहज़ीब जैसी, दबे पाँव, पेट खिलाये, रीड़ झुकाये, आँखें नीची किये आते जाते रहे। उठते जोबन में सत्तीदीन की स्त्री को एक सुहलानेवाला मिला। दो-तीन दिन तक भोजन न खला। एक दिन औरत वाले कोठे जी गया। नक्की सुरों में बोलीं, "मैं कहती हूँ, बिल्लेसुर, तुम तो आ ही गये हो, और अभी हो ही, इस चरवाहे को विदा क्यों न कर दूँ? हराम का पैसा खाता है। कोई काम है? घास खड़ी है, दो बोझ काट लानी है; नहीं, पैरे की बँधी मूठें हैं––यहाँ वहाँ का जैसा धान का पैरा नहीं––बड़ा बड़ा कतर देता है और थोड़ी सी सानी कर देनी है; देश में जैसे डंडा लिये यहाँ ढोरों के पीछे नहीं पड़ा रहना पड़ता, लम्बी लम्बी रस्सियाँ हैं, तीन गायें है, घास खड़ी है, बस ले गये और खूँटा गाड़कर बाँध दिया, गायें चरती रहीं, शाम को बाबू की तरह टहलते हुए गये और ले आये, दूध दुह लिया रात को मच्छड़ लगते हैं, गीले पैरे का धुवाँ दे दिया; कहने में तो देर भी लगी।' कहकर सत्तीदीन की स्त्री ने कनपटी घुमाई और दोनों होंठ सटाने शुरू किये।

बिल्लेसुर चौकन्ने। ढोर चराने के लिये समन्दर पार नहीं किया। यह काम गाँव में भी था। लेकिन परदेश है। अपना कोई नहीं। दूसरे के सहारे पार लगना है। सोचा, [  ]तब तक कर लें; नौकरी न लगी तो घर का रास्ता नापेंगे।

बिल्लेसुर को जवाब देते देर हुई। सत्तीदीन की स्त्री ने कनपटी घुमाई कि बिल्लेसुर बोले––'कौन बड़ा काम है? काम के लिए ही तो आया हूँ सात सौ कोस––देस सात सौ कोस तो होगा?'

बिल्लेसुर के निश्चय पर जमकर सत्तीदीन की स्त्री ने कहा, 'ज़्यादा होगा'। कानपुर की बर्दवान की दूरी। सोचकर बोली, 'जमादार आयेंगे तो पूछूँगी, उनकी किताब में सब लिखा है।'

बिल्लेसुर ख़ामोश रहे। मन में क़िस्मत को भला बुरा कहते रहे।

शाम को जमादार आये। भोजन तैयार था। स्त्री ने पैर धुला दिये। जमादार पाटे पर बैठे। स्त्री दिन को मक्खियाँ उड़ाती हैं, रात को सामने बैठी रहती है। जमादार भोजन करने लगे। स्त्री ने कहा 'जमादार, बिल्लेसुर कहते हैं, अपना देस यहाँ से सात सौ कोस है, मैं कहती हूँ, और होगा। तुम्हारी किताब में तो सब कुछ लिखा है?'

सत्तीदीन को एक डाइरी मिली थी। डाइरी भी वही बाबू लिखता था। लिखने के विषय के अलावा और क्या क्या उसमें लिखा है, सत्तीदीन उस बाबू से कभी कभी पढ़ाकर समझते थे। सत्तीदीन ने सोचा, महाराज ने ऊँचा पद तो दिया ही है, संसार को भी उनकी मुट्ठी में बेर की तरह डाल दिया है। कई रोज़ वह किताब घर ले आये थे, और वहाँ जो कुछ सुना था, जितना याद था, ज़बानी स्त्री को सुनाया था।

बायें हाथ से मूछों पर ताव देते हुए, मुँह का नेवाला निगलकर [ १० ]सत्तीदीन ने कहा, 'सात सौ कोस इलाहाबाद तक पूरा हो जाता है।' उनकी स्त्री चमकती आँखों से बिल्लेसुर को देखाने लगीं। बिल्लेसुर हार मानकर बोले––'जब किताब में लिखा है तो यही ठीक होगा।'

पति को प्रसन्न देखकर पत्नी ने अर्ज़ी पेश की जिस तरह पहले बड़े आदमियों का मिज़ाज परखा जाता था, फिर बात कही जाती थी। बिल्लेसुर ग़र्ज़मन्द की बावली निगाह सा देखते रहे। सत्तीदीन ने उसमें एक सुधार की जगह निकाली, कहा 'बिल्लेसुर अपने आदमी है इसमें शक नहीं, लेकिन इसमें भी शक नहीं कि उस छोकड़े से ज़्यादा खायेंगे। हम तनख़्वाह न देंगे। दोनों वक़्त खा लें। तनख़्वाह की जगह हम तहसील के जमादार से कह देंगे, वे इन्हें गुमाश्तों के नाम तहसील की चिट्टियाँ देते रहें, ये चार-पाँच घन्टे में लगा आयेंगे, इन्हें चार-पाँच रुपये महीने मिल जाया करेंगे, हमारा काम भी करते रहेंगे।'

सत्तीदीन की स्त्री ने किये उपकार की निगाह से बिल्लेसुर को देखा। बिल्लेसुर ख़ुराक और चार-पाँच का महीना सोचकर अपने धनत्व को दबा रहे थे, इतने से आगे बहुत कुछ करेंगे। सोचते हुए उन्होंने सत्तीदीन की स्त्री से हामी की आँख मिलाई।

जमादार गम्भीर भाव से उठकर हाथ-मुँह धोने लगे।