बिल्लेसुर बकरिहा/१०
(१०)
बिल्लेसुर, जैसा लिख चुके हैं, दुख का मुँह देखते-देखते उसकी डरावनी सूरत को बार-बार चुनौती दे चुके थे। कभी हार नहीं खाई। आजकल शहरों में महात्मा गान्धी के बकरी का दूध पीने के कारण, दूध बकरी की बड़ी खपत है, इसलिए गाय के दूध से उसका भाव भी तेज़ है; मुमकिन, देहात में भी यह प्रचलन बढ़ा हो; पर बिल्लेसुर के समय सारा संसार बकरी के दूध से घृणा करता था; जो बहुत बीमार पड़ते थे, जिनके लिये गाय का दूध भी मना था, उन्हें बकरी के दूध की व्यवस्था दी जाती थी। बिल्लेसुर के गाँव में ऐसा एक भी मरीज़ नहीं आया। जब दूध बेचा नहीं बिका, किसी को कृपापात्र बनवाये रहने के लिए व्यवहार में देने पर मुँह बनाने लगा, तब बिल्लेसुर ने खोया बनाना शुरू किया। बकरी के दूध का खोया बनाने में पहले प्रकृति बाधक हुई; बकरी के दूध में पानी का हिस्सा बहुत रहता है; बड़ी लकड़ी लगानी पड़ी; बड़ी देर तक चूल्हे के किनारे बैठ रहना पड़ा; बड़ी मिहनत; पहाड़ खोदने के बाद जब चुहिया निकली––खोये का छोटा-सा गोला बना, तब मन भी छोटा पड़ गया। भैंस के दूध के सेर भर में पाव भर का आधा भी नहीं होता था। धीरज बाँधकर बेचने गये, भजना हलवाई जोतपुरवाले के यहाँ, वह गट्टे काट रहा था, जल्दी में उसने देखा नहीं, तोलकर दाम दे दिये; दूसरे दिन गये तो तोलकर रख लिया। बिल्लेसुर ने पूछा, "दाम?" उसने कहा, "दाम कल दे चुका हूँ, मैं समझा था भैंस का खोया है, यह बकरी का खोया है, बकरी के खोये के आधे दाम भी बहुत हैं, मैं बकरी का खोया नहीं लेता, अब न ले आना, सारी मिठाई बरबाद हो जाती है, गाहक गाली देते हैं; न घी है, न स्वाद; जो कुछ थोड़ा-सा घी निकलता है, वह दूसरे घी में मिलाया नहीं जा सकता––कुल घी बदबू छोड़ने लगता है।" बिल्लेसुर सर झुकाकर चुपचाप चले आये। माल है, पर बिकता नहीं। तब तरकीब निकाली। इसमें खोया बनाने से कम मिहनत पड़ती है। कन्डे की आग परचाकर हन्डी में दूध रख देने लगे, अपना काम भी करते थे, दूध गर्म हो जाने पर ठंढा करके जमा देते थे, दूसरे दिन मथकर मक्खन निकाल लेते थे। मट्ठा खुद भी पीते थे, बच्चों को भी पिलाते थे। मक्खन का घी बनाकर उसमें चौथाई हिस्सा भैंस का घी ख़रीदकर मिला देते थे, और छटाक आधपाव सस्ते भाव में बाज़ार जाकर बेच आते थे। देहात में गाय, भैंस और बकरी का मिला घी भी बिकता है। जिनके यहाँ जानवरों की दोनों या तीनों क़िस्में हैं, वे दूध अलग-अलग नहीं जमाते। बिल्लेसुर का काम चल निकला। बकरे के मारे जाने को उन्होंने हानि-लाभ जीवन-मरण की फिलासफ़ी में शुमार कर अपने भविष्य की ओर देखा। उन्होंने निश्चय किया, बकरियों को हार में चराने न ले जायँगे, घर में ही खिलाएँगे; जब तक खेत तैयार न हो जाय और शकरकन्द की बौंड़ी न लग जाय। सबेरा होते ही बिल्लेसुर फावड़ा लेकर खेत में जुटे। रात को इतनी पत्ती काट लाये थे कि आज दिन भर के लिये बकरियों का काफ़ी चारा था। बकरियाँ और बच्चे उसी तरह कोठरी और दहलीज में बन्द थे। फावड़े से खेत गोड़ते देखकर गाँव के लोग मज़ाक करने लगे, लेकिन बिल्लेसुर बोले नहीं, काम में जुटे रहे। दुपहर होते-होते काफ़ी जगह गोड़ डाली। देखकर छाती ठंढी हो गई। दिल को भरोसा हुआ कि छः-सात दिन में अपनी मिहनत से बकरे का घाटा पूरा कर लेंगे। दुपहर होने पर घर आये, नहाकर लप्सी बनाई और खाकर कुछ देर आराम किया। दुपहर अच्छी तरह ढल गई, तीसरा पहर पूरा नहीं हुआ था, उठकर फिर खेत गोड़ने चले। शाम तक खेत गोड़कर बकरियों के लिये पत्ते काटकर पहर भर रात होते घर आये। सात दिन की जगह पाँच ही दिन में बिल्लेसुर ने खेत का वह हिस्सा गोड़ डाला। खेत से एक पाटी निकाल ली। लोग पूछते थे, क्या बोने का इरादा है बिल्लेसुर? बिल्लेसुर कहते थे, भंग। देहात में कोई किसी को मन नहीं देता, यों कहीं भी नहीं देता। बिल्लेसुर पता लगाकर शकरकंद की बौंड़ी ले आये। एक दिन लोगों ने देखा, बिल्लेसुर शकरकन्द लगा रहे है। पानी बरसने और शकरकन्द की बौंड़ी के फैलने के साथ बिल्लेसुर बालू-की-जैसी मेड़ों पर मिट्टी चढ़ाने लगे।