बिल्लेसुर बकरिहा/९

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बिल्लेसुर बकरिहा  (1941) 
द्वारा सूर्यकान्त त्रिपाठी 'निराला'

[ २७ ]

(९)

नहाकर, रोटी पका-खाकर, शाम के लिए रखकर, बिल्लेसुर बकरियों को लेकर निकले। कन्धे में वही लग्गा पड़ा हुआ। जामुन पक रही थी। एक डाल में लग्गा लगाकर हिलाया। लग्गे के एक तरफ़ हँसिया, दूसरी तरफ़ लगुसी बँधी थी। फरेंदे गिराकर बिनकर अँगोछे में ले लिये और ख़ाते हुए गलियारे से चले। आगे महावीर जी वाला मन्दिर मिला। चढ़ गये और चबूतरे के ऊपर से मुँह की गुठली नीचे फेंककर महावीर जी के पैर छुर और रोज़ की तरह कहा, मेरी बकरियों की रखवाली किये रहना। तुलसीदास जी या सीताजी की जैसी अन्तर्दृष्टि न थी; होती, तो देखते, मूर्ति मुस्कराई। जल्दी-जल्दी पैर छूकर और कहकर मन्दिर के चबूतरे से नीचे उतरे। बकरियों को लेकर गलियारे से होते हुए बाग़ की ओर चले। दुपहर हो रही थी। पानी का गहरा दौंगरा गिर चुका था। ज़मीन गीली हो गई थी। ताल-तलैयाँ, गड़ही-गढ़े बहुत-कुछ भर चुके थे। कपास, धान, अगमन ज्वार-बाजरे, अरहर, सनई, सन, लोबिया, ककड़ी-खीरे, मक्की, उर्द आदि बोने के लोभी किसान तेज़ी से हल चला रहे थे। किसानी के तन्त्र के [ २८ ]जानकार बिल्लेसुर पहली वर्षा की मटैली सुगन्ध से मस्त होते हुए मौलिक किसानी करने की सोचते अपनी इसी धुन में बकरियों को लिये चले जा रहे थे। उन बँटाई उठाये खेतों में एक खेत ख़ूद-काश्त के लिए ले लिया था। बरसातवाली किसानी में मिहनत ज़्यादा नहीं पड़ती। एक बाह दो बाह करके बीज डाल दिया जाता है। वर्षा के पानी से खेती फूलती-फलती है। बैल नहीं हैं, अगमन जोतने-बोने के लिए कोई माँगे न देगा। बिल्लेसुर ने निश्चय किया कि छः सात दिन में अपने काम भर को ज़मीन वे फावड़े से गोड़ डालेंगे। गाँव के लोग और सब खेती करते है, शकरकन्द नहीं लगाते। इसमें काफ़ी फ़ायदा होगा। फिर अगहन में उसी खेत में मटर वो देंगे। जब शकरकन्द बैठेंगी, रात को ताकना होगा, तब किसा को कुछ देकर रात को तका लेंगे। एक अच्छी रक़म हाथ लग जायगी।

निश्चय के बाद जब बिल्लेसुर इस दुनिया में आये तब देखा, वे बहुत दूर बढ़ आये हैं। आग्रह और उतावली से जाँच की निगाह बकरियाँ पर डाली––गंगा, जमुना, सरजू, पारवती हैं, सेखाइन, जमीला, गुलबिया, सितबिया है; रमुआ, स्यमुआ, भगवतिया, परभुआ है, टुरुई है, और दिनवा? बिल्लेसुर चौकन्ने होकर देखने लगे, पीछे दूर तक निगाह दौड़ाई दीनानाथ न दिखे। कलेजा धक्-स हुआ। दीनानाथ सबसे तगड़े थे, वहा पिछड़ गये, या कहाँ गये। बुलाने लगे। "उर् र् र्, उर् र् र् दिनवा! अ ले––अ ले––उर् र् र् र्! आव-आव, दिनवा! उर् र् र्, उर् र् र्; बेटा दीनानाथ, उर् र् र्!" "टुरुई मिमियाने लगी। दीनानाथ की कोई आहट न मिला। "टुरुई, कहाँ है दिनवा?" टुरुई मिमियाती हुई बिल्लेसुर के पास आ गई। [ २९ ]बिल्लेसुर बकरियों को लेकर उसी रास्ते लौटे। उसी नाले के पास लड़के ढोर लिये खड़े थे। बिल्लेसुर को देखकर मुस्कराये। बिल्लेसुर का हृदय रो रहा था। मुस्कराहट से दिमाग़ में गरमी चढ़ गई। लेकिन ज़ब्त किया। भलमन्साहत से पूछा, "बच्चा, हमारा बकरा इधर रह गया है?" "कौन बकरा?" "पट्ठा एक, हम दिनवा कहते थे।" "दिनवा कहते थे तो दिनवा से पूछो। हम नहीं जानते, कहाँ हैं?"

बिल्लेसुर ने फिर पूछताछ नहीं की। सन्देह हुआ। जी में आया, चलकर नाले के किनारे खोजूँ, लेकिन बकरियों को किसके भरोसे छोड़ जायँ, फिर एक बच्चा ग़ायब कर दिया जाय तो क्या करेंगे? जल्दी-जल्दी मकान की तरफ़ बढ़े। बच्चों और बकरियों को भगाते ले चले। रास्ते में दो-एक आदमी मिले, पूछा, "क्या है बिल्लेसुर, इतनी जल्दी और भगाये लिये जा रहे हो?" बिल्लेसुर ने कहा, "भय्या, एक पट्ठा किसी ने पकड़ लिया है, वहाँ नाले के पास, लड़के ढोर लिये खड़े हैं, बताते नहीं।" सुननेवालों ने कहा, "जानते हो, गाँव में ऐसे चोर हैं कि कठैली भी आँगन में रह जाय तो अटारी से उतरकर उठा ले जायँ। बोलो तो द्वार-बाहर बेइज्ज़त करें। कहाँ कोई गाँव छोड़कर भग जाय?" बिल्लेसुर बढ़े। दरवाज़ा खोला। कोठरी में बच्चों को और दहलीज में बकरियों को ताले के अन्दर बन्द करके डंडा लेकर दीना का पता लगाने चले।

पहले दीना के घर गये। पता लगा कि वह घर में नहीं है। वहाँ से सीधी ख़ुश्की से नाले की ओर बढ़े। ऊँचे टीले पर एक लड़का बैठा इधर-उधर देख रहा था। बिल्लेसुर समझ गये। नाले के किनारे-किनारे बढ़े। लड़के ने एक ख़ास तरह की आवाज़ [ ३० ]की। बिल्लेसुर समझ गये कि पास ही कहीं है। बढ़ते गये, बढ़ते गये। दूर एक झाड़ी दिखी, निश्चय हुआ कि यहीं कहीं मारा पड़ा होगा। झाड़ी के पास पहुँचे, वहाँ कोई नहीं था। झाड़ी के भीतर गये। अच्छी तरह देखने लगे, ख़ून से तर ज़मीन दिखी। तअज्जुब से देखते रहे। बकरा या आदमी न दिखा। चेहरा उतर गया। दिल रो रहा था, लेकिन आँखों में आँसू न थे। कहीं इन्साफ़ नहीं, सिर्फ़ लोग नसीहत देते हैं। चलकर कुए के पास आये। बहुत गरमा गये थे। जगत पर बैठे। बकरा मार डाला गया। लड़के जानते हैं, लेकिन बतलाते नहीं। आठ रुपये का था। जी रो उठा। कोई मददगार नहीं। ढलते सूरज की धूप सिर पर पड़ रही थी, लेकिन बिल्लेसुर ख़याल में ऐसे डूबे थे कि गरमी पहुँचकर भी न पहुँचती थी।

आज बकरियाँ भूखी हैं। शाम हो आई है, चराने का वक़्त नहीं। लग्गा नहीं; पत्तियाँ नहीं काटीं; रात को भी भूखी रहेंगी। इस तरह कैसे निबाह होगा? बिना खाये सबेरे दूध न होगा। बच्चे भूखे रहेंगे। दुबले पड़ जायँगे। बीमारी भी जकड़ सकती है। चोकर रक्खा है, लेकिन उतनी बकरियों और बच्चों को क्या होगा? रात को पेड़ छाँटना पड़ेगा।

सूरज डूब गया। बिल्लेसुर की आँखों में शाम की उदासी छा गई। दिशाएँ हवा के साथ सायं-सायं करने लगीं। नाला बहा जा रहा था जैसे मौत का पैग़ाम हो। लोग खेत जोतकर धीरे-धीरे लौट रहे थे, जैसे घर की दाढ़ के नीचे दबकर, पिसकर मरने के लिए। चिड़ियाँ चहक रही थीं, रात को घोंसले की डाल पर बैठी हुई, रो-रोकर साफ़ कह रही थीं, रात को घोंसले में जंगली बिल्ले [ ३१ ]से हमें कौन बचायेगा? हवा चलती हुई इशारे से कह रही थी, सब कुछ इसी तरह बह जाता है।

बिल्लेसुर डंडा लिये धीरे-धीरे गाँव की ओर चले। ढाढस अपने आप बँध रहा था। दूसरे काम के लिए दिल में ताक़त पैदा हो रही थी। भरोसा बढ़ रहा था। गाँव के किनारे आये। महावीर जी का वह मन्दिर दिखा। अँधेरा हो गया था। सामने से मन्दिर के चबूतरे पर चढ़े। चबूतरे-चबूतरे मन्दिर की उल्टी प्रदक्षिणा करके, पीछे महावीर जी के पास गये। लापरवाही से सामने खड़े हो गये और आवेग में भरकर कहने लगे––"देख, मैं ग़रीब हूँ। तुझे सब लोग ग़रीबों का सहायक कहते हैं, मैं इसीलिए तेरे पास आता था, और कहता था, मेरी बकरियों को और बच्चों को देखे रहना। क्या तूने रखवाली की, बता, लिये थूथन-सा मुँह खड़ा है?" कोई उत्तर नहीं मिला। बिल्लेसुर ने आँखों से आँखें मिलाये हुए महावीर जी के मुँह पर वह डंडा दिया कि मिट्टी का मुँह गिली की तरह टूटकर बीघे भर के फ़ासले पर जा गिरा।