बिल्लेसुर बकरिहा/१७

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बिल्लेसुर बकरिहा  (1941) 
द्वारा सूर्यकान्त त्रिपाठी 'निराला'

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(१७)

बिल्लेसुर गाँव आये जैसे क़िला तोड़ लिया हो। गरदन उठाये घूमने लगे। पहले लोगों ने सोचा, शकरकन्दवाली मोटाई है। बाद को राज़ खुला। त्रिलोचन दाँत-काटी-रोटीवाले मित्र से मिले। वहीं मालूम हुआ कि यह वही लड़की है, जिससे वह गाँठ जोड़ना चाहते थे। गाँव के रँडुओं और बिल्लेसुर से ज़्यादा उम्रवाले क्वारों पर ब्याह का जैसे पाला पड़ा। त्रिलोचन ने बिल्लेसुर के ख़िलाफ़ जली-कटी सुनाते हुए गरमी पहुँचाई; कहा, "ब्राह्मण है!––बाप का पता नहीं। किसी भलेमानस को पानी पिलाने लायक़ न रहेगा।" लोगों को दिलजमई हुई।

गाँव के बाजदार डोम और परजा बिल्लेसुर को आ-आकर घेरने लगे। खुशामद की चार बातें सुनाते हुए कि घर की सूरत बदली, चिराग़ रौशन हुआ, साल भर में बाप-दादे का नाम भी जग जायगा, पहले सूने दरवाज़े से साँस लेकर निकल जाते थे, अब अड़े रहेंगे, कुछ लेकर टलंगे। बिल्लेसुर को ऐसी गुदगुदी होती थी कि झुर्रियों में मुस्करा देते थे। सोचते थे, परजे नाक के बाल बन गये। पतले हाल की परवा न कर चढ़कर ब्याह करने की ठानी; लोग-हँसाई से डरे। परजे ऐसा मौक़ा छोड़कर कहाँ जायँगे, सोचा, इन्हें कुछ लिया-दिया न गया तो रास्ता चलना दूभर कर देंगे, बाप-दादों से बँधी मेड़ कट जायगी। भरोसा हुआ कि ब्याह का ख़र्च निबाह लेंगे। [ ५८ ]
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नाई रोज़ तेल लगाने और बाल बनाने को पूछने लगा। कहार एक रोज़ अपने आप आकर दो घड़े पानी भर गया। बेहना बत्ती बनाने के लिये रुई की चार पिंडियाँ दे गया। चमार पाकर पूछ गया, ब्याह के जोड़े नरी बनाये या मामूली। चौकीदार पासी रोज़ आधीरात को हाँक लगाता हुआ समझा जाने लगा कि पूरी रखवाली कर रहा है। गङ्गावासी एक दिन दो जनेऊ दे गया। एक दिन भट्टजी आये और सीता स्वयंवर के कुछ कवित्त भूषण की अमृत ध्वनि सुना गये। गर्ज़ यह कि इस समय कोई नहीं चूका।

बिल्लेसुर का पासा पड़ा। ज़मीन्दार ने उनकी देहली पर पैर रक्खा । सारा गाँव टूट पड़ा। ज़मीन्दार गये थे, ब्याह हो रहा है, कम-से-कम दो रुपये बिल्लेसुर नज़र देंगे, फिर मदद के लिए पूछेंगे, कुछ इस तरह वसूल हो जायगा जैसे कानपुर से आटा-शकर मँगवायँगे तो बैल-गाड़ी के किराये के अलावा कुछ काट-कपट करा ही ली जा सकेगी। त्रिलोचन भी ज़मीन्दार के साथ थे, सोचा था, उनके पीछे पूरी ताक़त खर्च कर देंगे; कुछ हाथ लग ही जायेगा। त्रिलोचन को देखकर बिल्लेसुर ने निगाह बदली। जब भी त्रिलोचन तथा दूसरों ने ज़मीन्दार के समन्दर पर बरसने के लिये बिल्लेसुर को बहुत समझाया––"रिक्तपाणिर्न पश्येत राजानं देवतां गुरुम्." फिर भी बिल्लेसुर अपनी जगह से हिले नहीं, ज़मीन्दार के सम्मान में बैठे, दाँतों में तिनके-सा लिये रहे। कुछ देर बाद ज़मीन्दार मन मारकर उठ गये, त्रिलोचन पीछे लगे रहे। आगे बढ़कर अच्छी तरह कान भर दिये कि हुक्म भर की देर है। गाँव में दूसरे दिन से बिल्लेसुर की इज्ज़त चौगुनी हो गई। ज़मीन्दार के घर जाने का मतलब लोगों ने लगाया, बिल्लेसुर के हाथ कारूँ का खज़ाना लगा है। तरह-तरह [ ५९ ]की मन-गढ़न्तें फैलीं। किसी ने कहा, "सोने की ईंटें उठा लाया है, किसी से बतलाता नहीं, छिपा जोगी है, दो साल में देखो, गवाँ ख़रीदेगा।" किसी ने कहा, "महाराज के यहाँ से जवाहरात चुरा लाया है; लेकिन घर में नहीं रक्खे, बाहर कहीं घूरे में या पेड़ के तले गाड़ दिये है ताकि चोरों के हाथ न लगें।" ऐसी बातचीत जितनी बढ़ी, बिल्लेसुर के सामने लोगों की आँख उतनी ही झुकती गईं। दूसरे गाँव के लोग भी दरवाज़े से निकलते हुए बिल्लेसुर को पूछने लगे।

एक दिन नाई को बुलाकर बिल्लेसुर ने कहा, मन्नी की ससुराल गोवर्द्धनपुर जाओ और कह आओ, ब्याह बरात ले जाकर करेंगे। लड़की को मन्नी की सास बुला लें। उन्हीं के घर में खम गड़ेगा। बाक़ी यहाँ आकर समझ जायँ।

नाई कह आया। फिर नातेदारों के यहाँ न्यौता पहुँचाने चला––एक गाँठ हल्दी, एक सुपाड़ी और तेल-मयन-ब्याह के दिन ज़बानी। जितने मान्य थे, दोनों जगहों की बिदाई की सोचकर मडलाने लगे।

बिल्लेसुर के बड़प्पन की बात के पर बढ़ चुके थे। वे अवसर नहीं चूके। दूसरे गाँव में गाड़ी माँगी। व्यवहार रक्खे रहने के लिये मालिक ने गाड़ी दे दी। बिल्लेसुर चक्की से गोहुँ पिसा लाये। गाँव की निटल्ली बेवाओं से दाल दरा ली। मलखान तेली को कापुर से शकर ले आने के लिये कहा। बाक़ी कपड़ा और सामान गाँव के जुलाहे, काछी, तेली, तम्बोली, डोम और चमारों से तैयार करा लिया। घर के लिये चिन्ता थी कि बकरियों में नातेदारों की गुज़र न होगी, वह भी दूर हो गई; सामने रहनेवाली चौधरी की बेवा ने [ ६० ]एक कोठरी अपने लिये रखकर बाक़ी घर छोड़ देने का पूरी उत्सुकता से वचन दिया––बिल्लेसुर की खुली क़िस्मत से उन्होंने भी शिरकत की।

नातेदार आने लगे, कुल-के-कुल बिल्लेसुर के पिता के मान्य यानी रुपये लेनेवाले। चौधरी के मकान में डेरा डलवाया गया तो चौकन्ने हुए। बकरियों का हाल मालूम कर खिंचे, फिर अलग रहने के कारण से ख़ुश होकर, बाहर-ही-बाहर बरतौनी और बिदाई लेकर कट जाने की सोचकर बाज़ी-सी मार बैठे।

अपने लिये ब्याह के कुल गहने कण्ठा, मोहनमाला, बजुल्ला, पहुँची, अँगूठी बिल्लेसुर मगनी माँग लाये। मुरली महाजन को देने में कोई ऐतराज़ नहीं हुआ। वह भी बिल्लेसुर का माहात्म्य सुन चुका था। चढ़ाव का कुल ज़ेवर बिल्लेसुर ने चोरों से ख़रीदा रुपये में नक़्द दो आने क़ीमत चुकाकर। फिर साफ़ कराकर पटवे से गुहा लिये; कड़े-छड़े पायजेबें रहने दीं।

तेल के दिन डोमों के विकट वाद्य से गाँव गूँज उठा। बिल्लेसुर के अदृश्य वैभव का सब पर प्रभाव पड़ा। पड़ोस के ज़मीन्दार ठाकुर तहसील से लौटते हुए दरवाज़े से निकले। बिल्लेसुर को देखकर प्रणाम किया। कारूँ के खज़ाने की सोचकर कहा, "लोगों की आँख देखकर हम कुल भेद मालूम कर लेते हैं। ब्याह करने जा रहे हो, हमारा घोड़ा चाहो तो ले जाओ।" बिल्लेसुर ने राज़ दबाकर कहा, "हम ग़रीब ब्राह्मण, ब्राह्मण की ही तरह जायँगे। आप हमारे राजा हैं, सब कुछ दे सकते है।" ठाकुर साहब यह सोचकर मुस्कराये कि खुलना नहीं चाहता, फिर प्रणाम कर बिदा हुए। [ ६१ ]

मातृपूजन के दूसरे दिन बरात चली। कुआ पूजा गया। दूध बिल्लेसुर की एक चाची ने पिलाया। पैर लटकाये देर तक कुएँ की जगत पर अड़ी बैठी रहीं। पूछने पर कहा, "सोने की एक ईंट लेंगे।" बिल्लेसुर समझकर मुस्कराये। गाँववालों ने कहा, "बुरा नहीं कहा, आखिर और किस दिन के लिये जोड़कर रक्खा गई हैं?" बिल्लेसुर ने कहा, "चाची, यहाँ तो निहत्था हूँ। पैर निकालो, लौटकर तुम्हें ईंट ही दूँगा।" चाची ख़ुश हो गईं। गाँववालों के मुँह पर हवाइयाँ उड़ने लगीं। उन्हें पूरा विश्वास हो गया कि बिल्लेसुर के सोने की पचासों ईंटें हैं।

बरात निकली। अगवानी, द्वारचार, ब्याह, भात, छोटा-बड़ा आहार, बरतौनी, चतुर्थी, कुल अनुष्ठान पूरे किये गये। वहाँ इन्हीं का इन्तज़ाम था। मान्य कुल मिला कर पाँच। बाक़ी कहार, वाजदार, भैय्याचार। चार दिन के बाद दूल्हन लेकर बिल्लेसुर घर लौटे। फिर अपने धनी होने का राज़ जीते-जी न खुलने दिया।