बिल्लेसुर बकरिहा/३

विकिस्रोत से
बिल्लेसुर बकरिहा  (1941) 
द्वारा सूर्यकान्त त्रिपाठी 'निराला'

[ १० ]

(३)

बिल्लेसुर जीवन-संग्राम में उतरे। पहले गायों के काम की बहुत-सी बातें न कही गई थीं, वे सामने आईं। गोबर उठाना, जगह साफ़ करना, मूत पर राख छोड़ना, कंडे पाथना, कभी कभी गायों को नहलाना आदि भीतरी बहुत सी बातें थीं। दरअस्ल [ ११ ]फुर्सत न मिलती थी। पर बिना चिट्ठी लगाये पूरा न पड़ता था। पास-पास की चिट्ठियाँ मिलती थीं, जैसा सत्तीदीन कह गये थे। एक चिट्ठी के तीन आने मिलते थे। कुछ दिनों में बिल्लेसुर को मालूम हुआ, दूर की चिट्ठी में दूना मिलता है। उन्होंने हाथ बढ़ाया। तहसील के जमादार ने कहा, न तुम नौकर हो, न किसी की एवज़ पर हो, फिर सत्तीदीन ने मना किया है, दूर की चिट्ठी हम न देंगे। बिल्लेसुर पैरों पड़े, कहा, नौकर तो आप ही करेंगे, तब तक दूरवाली चिट्ठी भी दें, मैं बारह कोस छः घण्टे में जाऊँगा-आऊँगा। जमादार चिट्ठी देने लगे।

चिट्ठी लगाना सत्तीदीन की स्त्री को अखरता था। बिल्लेसुर लौटकर सदा चढ़ी त्योरियाँ देखते थे। गोकि काम में कसर न रहती थी। दस बजे तक कुल काम कर जाते थे। लौटकर गायों को खोल लाते थे और रात नौ बजे तक उनके पीछे लगे रहते थे। फिर भी सत्तीदीन की स्त्री की शिकन न मिटती थी। दूसरा नौकर भी न रक्खा, क्योंकि बिल्लेसुर सस्ते थे। बातें कभी कभी सुनाती थीं जो कानों को प्यारी न थीं, और उनसे पेट की आँतें निकलने को होती थीं। बिल्लेसुर बरदाश्त करते थे। गरमी के दिनों में दस बारह बजे तक घर का कुछ काम करते थे, फिर चिट्ठी लगाते हुए, देर हुई सोचकर धूप में, नंगे सिर, बिना छाता, दौड़ते हुए रास्ता पार करते थे। लौटते थे, हाँफते हुए, मुँह का थूक सूखा हुआ, होंठ सिमटे हुए, पसीने-पसीने, दिल धड़कता हुआ, यहाँ का बाक़ी काम करने के लिये। पहुँचकर ज़मीन पर ज़रा बैठते थे कि सत्तीदीन की स्त्री पूछती थीं, कितना कमा लाये बिल्लेसुर? ज़बान छुरी से पैनी, मतलब हलाल करता हुआ। बिल्लेसुर उस गरमी [ १२ ]में बनावटी नरमी लाते हुए, खीस निपोड़कर जवाब देते हुए, ज़रा सुस्ताकर गायों के पीछे तरह तरह के काम में दौड़ते हुए।

उन दिनों कइयों से बिल्लेसुर कह चुके, मर्द से औरत होना अच्छा। कोई नहीं समझा। बिल्लेसुर सूखे होठों की हार खाई हँसी हँसकर रह गये।

गाँव में भी बिल्लेसुर की बरदाश्त करने की आदत पड़ी थी। कभी कुछ बोले नहीं। अपनी ज़िन्दगी की किताब पढ़ते गये। किसी भी वैज्ञानिक से बढ़कर नास्तिक।

बिल्लेसुर दूसरे का अविश्वास करते करते एक खास शक्ल के बन गये थे। पर अपना बल न छोड़ा था, जैसे अकेले तैराक हों। सत्तीदीन की स्त्री को न मालूम होने दिया कि दूर की कौड़ी लाते हैं। बारह कोस की दौड़ छः कोस की रही। दुनिया को खुश करने की नस टोये पा चुके थे; दम साधे, दबाते हुए कई महीने खे गये। एक दिन जमादार को खुश देखकर बोले, 'बाबा; अब नौकरी लगा देते!'

उन्होंने कहा, 'अच्छा, कल नाप देना।'

बिल्लेसुर मन्नी के भाई थे, पाँच फ़ीट से कुछ ही ऊपर। जानते थे, ऊँचाई घटेगी। तरकीब निकाली। चमरौधा जूता था डेढ़ इंच से कुछ ज्यादा ऊँचे तले का। उसमें रुई की गद्दी लगाई। पहनकर खड़े हुए तो जैसे ईंटों पर खड़े हों। लेकिन झेंपे नहीं, न डरे, जैसे फ़र्ज़ अदा कर रहे हों, गये। कचहरी में लट्ठ लाकर लगाया गया। बिल्लेसुर ने आँख उठाई कि देखें, पूरे हो गये। नापनेवाले ने कहा, डेढ़ इंच घटा।

बिल्लेसुर ने जमादार को उड़ी निगाह से देखा। साथ आरज़ू [ १३ ]मिन्नत। जमादार मुस्कराये। कहा, 'बिल्लेसुर, तुम नौकर नहीं हो सकते, लेकिन कोई-न-कोई सिपाही छुट्टी पर रहता है, जगह तुम्हें मिलती रहेगी, बिना तनख़्वाह की छुट्टी वाले की तनख़्वाह भी।'

बिल्लेसुर तरक़्क़ी की सोचकर मुस्कराये।

एक साल बीत गया।