बेकन-विचाररत्नावली/१४ आरोग्यरक्षा

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अरोग्यरक्षा १४.

नित्यं[१] हिताहारविहारसेवी समीक्ष्यकारी विषयेष्वसक्तः।
दाता समः सत्यपरःक्षमावानाप्तोपजीवी च भवत्यरोगः॥

वाग्भट।

शास्त्र में स्वास्थ्यरक्षा के अनेक नियम कहेहैं; परन्तु बुद्धिमान को अपने आपही अपने लिए नियम निश्चय कर लेने चाहिये; यह सबसे उत्तम है। किस प्रकारका आहार विहार करने से प्रकृति स्वस्थ रहतीहै, और किस प्रकारका करनेसे स्वस्थ नहीं रहती, इसका विचार प्रत्येक मनुष्यको करना उचितहै। हां, एकबात यह अवश्य ध्यानमें रखनी चाहिये, कि जिससे कोई अपाय तत्काल नहीं देखपड़ता उसे बराबर सेवन किए जानेकी अपेक्षा जो किंचिन्मात्रभी अनिष्टकर देखपड़ै उसे तत्क्षण त्याग करना चाहिए। युवावस्थामें मनुष्य अधिक सशक्त होताहै इस लिए अनेक दुराचरण करने परभी उनसे उस समय उसे कोई हानि नहीं पहुंचती; परन्तु वही दुराचरण बीज रूप होकर जरावस्थामें नानाप्रकारके रोग उत्पन्न करतेहैं। अतएव वृद्धापकाल का विस्मरण न होने देना और तारुण्यमें जो कुछ कियाहै उसे फिर करनेका साहस न करना चाहिये; क्योंकि जरावस्थाकी अवहेलना करनेसे काम न चलैगा। आहार में अकस्मात् परिवर्तन न करो। यदि परिवर्तन करनाहीं अत्यावश्यक हो तो तदनुरूप अन्यान्य विषयों में भी परिवर्तन करो। सृष्टि और राज्यव्यवस्थाके नियमों का यह गुह्य है कि एककी अपेक्षा अनेक बातों में फेरफार करना विशेष सुरक्षित होता है। [ ३८ ]आहार, निद्रा, व्यायाम और वस्त्राभरण इत्यादिकी व्यवस्थाकी परीक्षा करके देखो कि उनमें किसी से किसी प्रकार तुम्हैं असुविधा तो नहीं होती; और यदि होती है तो धीरे धीरे उसे छोड़ देनेका अभ्यास करो। परिवर्तन इस प्रकार करना चाहिए कि यदि वह सहन न हो तो पुनर्वार छोडे़ हुए पहिले क्रम के अनुसार तुम अपनी दिनचर्या को नियमित करसको, क्योंकि जो बातैं साधारणतः मनुष्योंने अच्छी और आरोग्यकारक मान रक्खी हैं वे तुम्हारी प्रकृतिको भी हितावह होंगी यह स्थिर करना कठिन है।

आहार, निद्रा और व्यायामके समय मनुष्यको स्वस्थचित्त, प्रसन्न और प्रफुल्ल रहना चाहिए। ऐसा करने से आयु बढ़ती है। मानसिक विकारों में से असूया, उत्कटभय, मनका मनही में क्रोध, अत्यन्त गहन और क्लिष्ट शास्त्रीय मीमांसा, अत्यधिक आनन्द तथा अत्यधिक उल्लास और अनिवोदित दुःख-इन सबका, प्रयत्नपूर्वक, परिहार करना चाहिए। बहुत हँसनेकी अपेक्षा विनोदशील होना चाहिए। एकही आमोद के व्यसनी न होकर अनेक सुखप्रद पदार्थोंका सेवन करना चाहिए। जिनसे चित्तको चमत्कार और आनन्द दोनों प्राप्त हों ऐसी नई नई वस्तु देखनी चाहिए। जिनकी पर्य्यालोचना करनेसे मनोवृत्ति विकसित और उदात्त रस से आप्लुत हो जावै ऐसे ऐसे इतिहास, उपाख्यान तथा विश्ववर्णन सदृश उत्तमोत्तम विषयों का अभ्यास करना चाहिए।

ओषधियों का सेवन कभी भी न करनेसे नित्तान्त आवश्यकता होने परभी वे गुण नहीं करतीं। इसी प्रकार उन के खानेका सदैव अभ्यास रखने से भी रूग्णावस्था में वे यथायोग्य फलमदनहीं होती। ओषधि सेवन करना यदि एक प्रकार का व्यसनहीं होगया हो तो दूसरीबातहै, नहीं तो पुनःपुनःउनके सेवन की अपेक्षा ऋतु ऋतु में समयानुसार आहार में फेर फार करना उचितहै। इससे शरीर आरोग्य रहता है, और कोई पीड़ा भी नहीं होती। शरीर में कोई आकस्मिक विकार देखपड़ै तो [ ३९ ] उसे तुच्छ न समझकर उस बातको जो जानते हों उनसे कहना चाहिए। रोगआनेपर आरोग्यता की ओर और निरोग होनेपर व्यायामकी ओर विशेष दृष्टि रखनी चाहिए। आरोग्यदशामें जो मनुष्य छोटे मोटे कष्ट सहनेका अभ्यास बनाए रखतेहैं वे जब सामान्यरीतिपर रोगग्रस्तहोतेहैं तब अनुकूल पथ्य और सेवा शुश्रूषाही से अच्छे होजाते हैं। रोममें सेलसस नामक एक प्रख्यात वैद्य होगयाहै। वह चिकित्सा में तो अत्यंत निपुणथाही परन्तु विलक्षण बुद्धिमान भी था। उसका यह मत है कि एकहीबात को बराबर न करके परस्पर विरुद्धबातोंका फेरफार करते रहनेसे मनुष्य निरोग रहता है और दीर्घायु होता है। उदाहरणार्थ:-कभी लंघन करना चाहिए, कभी पेटपर भोजन करना चाहिए; परन्तु लंघन कम करना चाहिए। कभी जागरण करना चाहिए, कभी स्वच्छन्द निद्रा लेना चाहिए; परन्तु जागरण कम करना चाहिए। कभी विश्राम लेना चाहिए, कभी व्यायाम करना चाहिए; परन्तु विश्राम कम लेना चाहिए। ऐसा करनेसे प्रकृति स्वच्छ रहतीहै और कष्ट सहन करनेका स्वभाव पड़ जाता है।

बहुतेरे चिकित्सक इतने मिष्टभाषी और रोगी की सूचिके अनुसार वर्तन करनेवाले होते हैं, कि वे रोगनाशक यथार्थ ओषधिके सेवन करनेके लिए रोगी को कभी विवश नहीं करते। और अनेक ऐसे होतेहैं जो रोगीकी प्रकृतिका पूरापूरा विचार न करके, चिकित्सा करने में, शास्त्रोक्त पद्धतिका रेखामात्राभी अतिक्रमण नहीं करते; अतएव ऐसे चिकित्सक से चिकित्सा करानी चाहिए जिसमें उपरोक्त दोनोंगुण पाए जातहों। यदि कदाचित ऐसा न मिलै तो दोनों प्रकारके दोचिकित्सक बुलाने चाहिए। परन्तु स्मरण रहै कि इन दोमें से एकतो ऐसा होना चाहिए जो रोगीकी प्रकृतिका भली भांति ज्ञान रखताहो; और दूसरा अपनी विद्या अर्थात् वैद्यकशास्त्रमें निपुणहो।

  1. जो मनुष्य हितकर आहार और विहारका सेवन करताहै; प्रत्येक कामको सोच समझकर करता है। विषयोंसे अलग रहताहै; दानशील तथा क्षमावान् होताहै; सत्यबोलताहै सर्वदा समभावका विचार रखताहै और आत्मजनोंकी सेवा में तत्पर रहताहै उसे कभी रोग नहीं सताता।