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बेकन-विचाररत्नावली/२६ धृष्टता

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बेकन-विचाररत्नावली
महावीरप्रसाद द्विवेदी

पृष्ठ ७६ से – ७९ तक

 
धृष्टता।

उचितमनुचितं[] वा कुर्वते कार्यजातं,
न तदपि परितापं यान्ति धृष्टाः कदापि।

स्फुट।

यद्यपि यह बात छोटे छोटे पाठशालाओंमे पढनेवाले लडकोंको भी सिखलाई जाती है तथापि वह बुद्धिमान् मनुष्यके भी विचार करने योग्य है। बात यह है। एकबार किसीने डिमास्थनीज[]से पूंछा कि, "वक्ता का मुख्य गुण कौन है?" उसने उत्तर दिया, "अभिनय"। तब उस मनुष्यने पूँछा, "अच्छा इससे उतर कर कौन गुण है?" फिर भी उसने उत्तरदिया, "अभिनय"। जब तीसरी बार उसने पूंछा तब भी उसने वही उत्तर दिया, "अभिनय"। वास्तवमें जिस गुणकी उसने इतनी प्रशंसा की वह उसमें स्वभावसिद्ध नथा परन्तु अभ्याससे उसने यह सिद्धकर दिखाया था कि अभिनय अर्थात् बोलनेके समय हाव भाव दिखलानाही वक्ताका प्रधान गुण है। अभिनय एक ऐसा गुण है जिसकी आवश्यकता वक्ताकी अपेक्षा नटको अधिक होती है; वक्ताके लिए तो वह बाह्य उपकरण मात्र समझना चाहिए। तथापि कल्पनाशक्ति, भाषणपद्धति; तथा और और गुणोंकी अपेक्षा अभिनयहीको श्रेष्ठत्व देनाश्रेष्ठत्व क्या देना किन्तु उसीको वक्तृताका सर्वस्व समझना आश्चर्य की बात है। परन्तु कारण इसका स्पष्ट है। मनुष्य मात्रमें स्वभावतः बुद्धिमत्ता की अपेक्षा मूर्खता का अंश साधारणतया अधिक रहता है अतएव जिसके द्वारा मूर्खता का अंश मोहित होजाताहै वह गुण अधिक प्रभावशाली होताहै।

वक्ताके लिए जैसे अभिनय की आवश्यकता है राजकाजमें उसी प्रकार धृष्टताकी आवश्यकता है। राजप्रकरणमें धृष्टता का प्रभाव सबसे अधिक आश्चर्यजनक है। यदि कोई पूंछे कि इस प्रकरणमें प्रथम गुण कौन है? तो यही उत्तर देना पड़ैगा कि धृष्टता। दुसरा गुण कौन है? वही धृष्टता। तीसरा गुण कौन है? फिर भी वही धृष्टता। यथार्थमें अज्ञान और निर्लज्जताकी धृष्टता कन्या है और अन्यान्य गुणोंकी अपेक्षा उसकी योग्यता बहुतही कम है। तथापि अप्रगल्भ और थोड़े धैर्यके जो लोग हैं-और बहुधा ऐसेही मनुष्यों की संख्या अधिक होती है-उनको वह अवश्यमेव मोहित करलेती है। यही नहीं किन्तु बड़े बड़े चतुर मनुष्योंको भी, जब कभी उनका चित्त द्विविधामें पड़जाता है तब, वह अपने पाशमें फांस लेता है। यही कारण है कि प्रजासत्तात्मक राज्योंमें धृष्ट मनुष्योंने विलक्षण विलक्षण काम किए हैं। परन्तु धृष्टताका प्रभाव राजा तथा राजसभाओंपर कुछ कम पड़ता है। यह भी ध्यानमें रखना चाहिए कि धृष्टमनुष्योंकी पूंछ और प्रशंसा जितनी पहिले होती है उतनी पीछे नहीं होती; क्यों कि, ऐसे लोग कही हुई बातको पूरा करनेमें समर्थ नहीं होते।

शरीरमें औषधोपचार करनेका भाव दिखलानेवाले जैसे अपढ़ भोंदू वैद्य होतेहैं वैसेही राज्यमें भी सुव्यवस्था करनेका भाव दिखलानेवाले साहसी भोंदूहोते हैं। काकतालीयन्यायसे एक दो बार सौभाग्यवश यशस्वी होनपर इन लोगोंका साहस यहांतक बढ़ जाता है कि वह बड़ेसे बड़े काम करनेको भी कमर कसते हैं। परन्तु शास्त्रज्ञान नहोनेके कारण इन लोगोंके मानभङ्गका शीघ्रही अवसर आता है। कोई कोई धृष्ट मनुष्य बहुधा मुहम्मदके सदृश अद्भुत अद्भुत चमत्कार दिखलाने लगते हैं। एकबार मुहम्मदने लोगोंसे यह गप्प हांकी कि "मैं उस पहाड़ीको अपने पास बुलाताहूं और उसके आनेपर मैं उसके शिखरपर आरूढ होकर अपने अनुयायी जनोंके कल्याणार्थ ईश्वरसे प्रार्थना करूंगा" इस अघटित घटनाको देखने के लिए लोग एकत्र हुए। मुहम्मदने बारंबार पहाड़ीको अपनी ओर आनेके लिए आह्वान किया परन्तु जब वह पहाड़ी अपने स्थानसे न हिली तब किंचिन्मात्र भी लज्जित न होकर उसने कहा कि "यदि पहाड़ी मुहम्मदके पास नहीं आती तो मुहम्मद स्वयंमेव पहाड़ी के पासजावैगा इसी भांति ये साहसी लोग जब जब बड़े बड़े कामकरनेका प्रणकरके अन्तमें फलीभूत नहीं होते तब तब अपने उपहासकी ओर लेशमात्रभी दृक्पात न करकै उसकामको छोंड अन्यकी ओर प्रवृत्त होतेहैं और ऐसा भाव बताते हैं जैसे कुछ हुवाही न हो।

यथार्थतः विचारशील मनुष्योंको, धृष्टलोगोंके काम देखकर, कौतुक होता है। यही नहीं किन्तु अप्रगल्भ और ग्राम्यजनोंकाभी धृष्टता कुछ कुछ हास्यास्पद जान पड़ती है। कारण यह है कि हँसी मूर्खताको देखकर आतीहै और धृष्टतामें थोड़ी बहुत मूर्खता अवश्यमेव रहतीही है; अतः साहसिकलोगोंके साहसको देखकर छोटे छोटे आदमीभी हंसैंगे इसमें सदेह नहीं। कामकाजमें विफलप्रयत्न होनेसे धृष्ट लोगोंकी जब हँसी होती है तब बड़ाआनन्द आता है। उस समय उनका मुख छोटा सा हो जाता है और उसपर कालिमां छा जाती है। ऐसा होनाही चाहिए, क्योंकि लज्जाके कारण मुखकी आभा चढा उतरा करती है। परन्तु ऐसे अवसरपर धृष्ट मनुष्य काष्ठवत् स्तब्ध रहते है; उनका उत्साह नहीं भंग होता। प्यादा यद्यपि बादशाहकी बराबरी नहीं करसकता तथापि शतरञ्जमें कभी कभी वह ऐसे घरमें पहुंच जाता है कि उसके कारण बादशाह अपने स्थानसे नहीं हटसकता, जहां का तहांही रहजाता है। बस, धृष्टलोगोंकी भी पराभवके समय ठीक यही दशा होती है। परन्तु इस प्रकार लोगोंकी मुखचर्याका निरीक्षण करके उसपर टीका करना अन्य विषयोंको छोड़ प्रहसन इत्यादिहीमें विशेष शोभा देता है। यह ध्यानमें रखना चाहिए कि धृष्ट मनुष्योंको असुविधा और संकट नहीं देख पड़ते; उनको देखनेके लिए मानो ऐसे मनुष्यों के नेत्रही नहीं होते। जो धृष्टस्वभावके हैं उनसे किसी विषयमें सलाह लेना अच्छा नहीं। उनसे काममात्र करालेना चाहिए। इसी लिए यदि धृष्टलोगोंको ठीक ठीक उपयोगमें लाना हो तो किसी काममें उनको स्वतंत्र अधिकार न देना चाहिए। उनको प्रथम स्थान न देकर द्वितीय स्थान देना चाहिए और किसीके निरीक्षणमें रखना चाहिए। कारण यह है कि किसी विषयका परामर्श करते समय भावी विघ्नोंको पहिलेहीसे देख लेना अच्छा होता है और काम करते समय यदि विघ्न बहुत बड़े न हुए तो, उनका न देखनाही अच्छा होता है।

  1. धृष्ट मनुष्य उचित अथवा अनुचित सभी काम करते हैं और करके पश्चात्ताप नहीं पाते।
  2. डिमास्थनीज ग्रीसकी राजधानी एथन्समें ईसाके ३८५ वर्ष पहिले उत्पन्न हुआथा। यह एक प्रख्यात वक्ताथा। पहिले इसे अच्छी प्रकार बोलना न आता था परन्तु इसने अपने मुखमें पत्थर की गोलियां रख रखकर और समुद्र के तटपर जहां तरंगोंका घोर शब्द होताथा वहां जा जा कर मेघगम्भीरध्वनिसे वक्तृता करनेका अभ्यास किया।