बेकन-विचाररत्नावली/२७ क्रोध

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बेकन-विचाररत्नावली  (1899) 
द्वारा महावीरप्रसाद द्विवेदी

[ ७९ ]

क्रोध।

अपनेयमुदेतुमिच्छता[१] तिमिरं रोषमयं धिया पुरः।
अविभिद्य निशाकृतं तमःप्रभया नांशुमताप्युदीयते॥

किरातार्जुनीय।

स्टोइकमतवाले तत्ववेत्ता क्रोधको समूल उन्मूलन करना शौर्य का काम समझते हैं। धर्म्माधिकारियोंने कहा है "क्रोध करो परन्तु क्रोधके वशीभूत होकर पाप मत करो"। यह वचन हमको अधिक सुहावना लगता है। क्रोध को नियमित रखना चाहिए; मर्यादाके बाहर उसे न जाने देना चाहिए। क्रोध आता देख समय कुसमय का विचार न करके शीघ्रता भी न करनी चाहिये।

जो मनुष्य स्वभावही से क्रोधी होते हैं अनके क्रोधको किस प्रकार नियमित और शान्त करना चाहिए,-पहिले इस विषयमें कुछ कहैंगे। [ ८० ] फिर इस विषयमें कहैंगे कि क्रोधके विशेष विशेष वेग किस प्रकार रोंके जा सकते हैं; अथवा ऐसे वेगके कारण किस प्रकार मनुष्य अपकारसे बच सकते हैं। तदनन्तर दूसरे मनुष्यमें किस प्रकार क्रोध उत्पन्न कर दिया जा सकता है अथवा जागृत हुआ क्रोध किस प्रकार शान्त किया जा सकता है, इस विषयमें कुछ कहेंगे।

प्रथम विषय; क्रोधके वशीभूत होनसे मनुष्यका जीवन कैसा दुःसह होजाता है और क्रोधका परिणाम कैसा भयङ्कर होता है–इन बातोंका विचार भली भांति ध्यानपूर्वक करना चाहिए। इसके अतिरिक्त क्रोधसे बचने का अन्य उपाय नहीं है। एतादृश विचार करने का सर्वोत्तम समय वह है जब क्रोध का कुछभी वेग मनुष्यमें शेष नहीं रहनजाता; अर्थात् जिस समय क्रोधका अत्यन्ताभाव होजाता है उससमय उसके परिणामकी ओर दृष्टि देनी चाहिए। सेनेका नामक तत्ववेत्ताने क्रोधकी उपमा जीर्णवस्तुसे दीहै। जिसप्रकार जीर्णपदार्थ जिसपर गिरते हैं उसे क्षति पहुँचानेके पहले स्ववमेव टूटकर टुकड़े टुकड़े होनाते हैं उसीप्रकार क्रोधआनेपर दूसरे की अपेक्षा सर्वतोभावसे अपनाही हानि अधिक होती है। धर्मशास्त्रकी यह आज्ञा है कि मनुष्यको कभी क्षुब्ध न होना चाहिए; मनको सदैव अपने वशमें रखना चाहिए। क्षोभ होतेही, मन हाथसे निकल जाता है और आत्मसंयमन, जो मनुष्यमात्रका कर्तव्य कर्म है, वह नहीं होसकता। मनुष्योंको मधुमक्षिकाओंका सा आचरण करना सर्वथा अनुचित है। मधुमक्षिकायें क्रोध विष्ट होकर निसको दंश करती हैं वह उन्हैं दंश करतेही तुरन्त मारडालता है; अर्थात् क्रोधही उनके नाशका कारणहोता है। क्रोध करनेसे स्वयं क्रोधकरनेवालेहीकी हानि होती है अतः मनुष्यको क्रोधसे सदैव बचना चाहिये।

क्रोध एक प्रकारका महाअधम दुर्गुण है। वह विशेष करकै लड़के स्त्री वृद्ध और रोगी मनुष्योंमें अधिक पायाजाता है। जिनमें क्रोधका प्राबल्य होता है उनकी योग्यताभी अवश्यमेव कम होती है। दूसरेके [ ८१ ] द्वारा किएगए अपने अपकारको देख 'पुनर्वारभी यह ऐसा न करैं इस प्रकार मनमें सशङ्क होकर क्रोधवश उससे बदलालेने के लिए सन्नद्ध होना चाहिए। ऐसे अवसर पर अपकार करनेवाले को तिरस्कारदृष्टि से देख शान्त रहनाही उचित है। इस प्रकारके आचरण से यह प्रमाणित होजायगा कि तुम अपने प्रतिपक्षीको नीचदृष्टि से देखते हो और तत्कृत अपायको अपायही नहीं मानते। मनोनिग्रहका अभ्यास होनेसे ऐसा व्यवहार करनेमें कोई कठिनता नहीं पड़ती।

दूसरा विषय। विशेषकरके क्रोधके कारण और निमित्त केवल तीन हैं। प्रथमकारण–अन्यकृत थोड़ेभी अपकारको बहुत मानकर विषाद करना है। जबतक मनुष्य यह नहीं समझता कि मेरा अपकार दूसरेने किया है तबतक उसे क्रोधही नहीं आता। कोमलान्तःकरण और मनस्वी मनुष्यों के प्रतिकूल अणुमात्र भी कोई बात होनेसे उन्हैं अतिशय विषाद होता है; इसी लिए वे बहुधा क्रोध के वशीभूत हो जाया करते हैं। जो मनुष्य बलिष्ट और दृढ स्वभावके होते हैं उनपर छोटी छोटी बातोंका कुछ भी प्रभाव नहीं होता अतएव उनको क्रोध भी नहीं आता। दूसरा कारण–दूसरेके द्वारा किए गये अपकारको अपने अपमानका हेतु समझना है। स्वयं अपकारसे जितना क्रोध उत्पन्न होता है उतनाही-अथवा उससे भी अधिक-अपमानसे होता है। यही कारण है कि जब मनुष्य स्पष्टतया दूसरोंकी हेलना करनेहीके निमित्तसे उनको हानि पहुंचाते हैं तब उनके क्रोधकी सीमा नही रहती। तीसरा कारण–लोकमें अपनी अकीर्त्तिका होना है। जब कोई मनुष्य यह सुनताहै कि , अमुक व्यक्ति हमारा दुर्लौकिक करनेके लिए हमारे विषय में प्रतिकूल चर्चा करता है तब उसका कोप अतिशय प्रज्वलित हो उठता है। दुःशील लोगोंसे अपनी कीर्त्ति को रक्षित रखने का एकही उपाय है। वह यह है कि कीर्त्ति ऐसी विशद और विस्तृतहो जिसको एतादृश क्षुद्रजनोंके द्वारा सहस्रशःउपाय किये जानेपर भी धक्का न पहुंचै। क्रोध शान्तकरनेका सबसे उत्तम उपाय विलम्बकरना है। [ ८२ ] जिससमय क्रोध का वेगहो उस समय कोई उचित अनुचित बात न करके कुछ देर ठहर जाना चाहिए और मनमें यह मान लेना चाहिए कि अपने प्रतिपक्षीसे बदला लेने का समय अभी नहीं आया। तत्काल यह कल्पना करनी चाहिए कि आगे बदला लेने का समय आवेगा और आनेपर हम उस नराधम को अवश्यमेव इसके किए का फल चखावैंगे इस प्रकार उस समय चित्तको क्षुब्ध न करकै चुपचाप रहना चाहिए और क्रोधके वशीभूत न होजाना चाहिए।

क्रोधाविष्ट होनेपर क्रोधके कारण अनिष्ट होनेसे बचने के लिए; विशेष करके दोबातैं ध्यानमें रखनी चाहिए। एक तो यह कि क्रोधके वेगमें कठोरशब्दोंका उपयोग न करना चाहिए, विशेष करके मर्मभेदक वाक्यबाण तो कदापि न छोड़ने चाहिए। सामान्यशब्दोंसे अधिक हानि की संभावना नहीं रहती। यह भी स्मरण रहै कि क्रोधके कारण आवेशमें आकर दूसरेके गुप्तरहस्योंका स्फोट न करना चाहिए क्यों कि जो मनुष्य रहस्य भेद करता है वह समाजमें रखने के योग्यही नहीं है। दूसरी बात यहहै कि कलुषितचित्त होकर किसी कामको बीचहीमें छोड़ना अच्छा नहीं। कोप चाहै कितनाही प्रचण्ड क्यों नहो उससमय कोई काम ऐसा न करना चाहिए जिसके लिये पीछे पश्चात्ताप करना पड़ै।

तीसरा विषय–दूसरोंके क्रोधको प्रवृद्ध करने तथा बढ़ेहुए क्रोधको शान्त करनेके लिए समयानुसार काम करना उचित है। क्रोधको उत्तेजित करना हो तो जिस समय दूसरे मनुष्यका अन्तःकरण विकृत होता है और चित्त उसका क्षुब्ध है उस समय उसको भलीबुरी बातैं सुझानी चाहिए। इसके अतिरिक्त जिसके ऊपर क्रोधको बढाना है तद्विषयक ऐसी वार्त्ता करनी चाहिए जिससे दूसरे मनुष्यका अर्थात् जिसके साथ बात कररहे हैं उसका, अपमान होता है। क्रोधको वाढ़नेके जो उपाय हैं उनके प्रतिकूल उपायोंका अवलम्बन करनेसे उसकी शान्ति होती है। अर्थात् जिस समय मनुष्यका चित्त पहिलेसेही [ ८३ ] कुछ कुपित सा होताहै उस समय क्रोध आनेकी कोई बात कहनेसे वह औरभी करालरूप धारण करता है। परन्तु जिस समय मनुष्यका मन प्रसन्न होता है उस समय यदि क्रोधोत्पादक भी कोई बात कही जाय तो उसका प्रतीकार शीघ्रही होसकता है। ऐसे अवसरपर यह कहकर दूसरेके क्रोधको रोक सकते हैं कि अमुक मनुष्यने जो कुछ कहा वह आपका अपमान करनेके हेतुसे नहीं कहा किन्तु भूलसे कहा अथवा और किसी कारणसे जो तुमको समञ्जस जान पड़ै तुम कहसकते हो।

  1. जिसकी यह इच्छा है कि हमारा अभ्युदय हो उसे पहिले विवेकद्वारा क्रोधरूपी अज्ञानका नाश: करना चाहिए। देखिए, इतना प्रचण्ड तेज: पुञ्ज सूर्य भी रात्रिके अन्धकार को अपनी प्रभासे नाश किए बिना उदय नहीं पाता।