बेकन-विचाररत्नावली/२९ भ्रमात्मक धर्मभीरुता

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भ्रमात्मक धर्मभीरुता।

अहं[१] सर्वेषु भूतेषु भूतात्मावस्थितः सदा।
तमविज्ञाय मां मर्त्यः कुरुतेऽर्चाविडम्बनम्॥
यो मां सर्वेषु भूतेषु सन्तमात्मानमीश्वरम्।
हित्वार्चा भजते मौढ्याद्भस्मन्येव जुहोति सः॥

श्रीमद्भागवत।

ईश्वर के जो योग्य नहीं है ऐसा मत कल्पना करने की अपेक्षा ईश्वरके विषय में कुछ भी ज्ञान न होनाही अच्छा है; क्यों कि ईश्वर का अस्तित्व न मानने से केवल नास्तिकताही होती है, परन्तु त द्विषयक अनुचित मत स्थिर करनेसे ईश्वर की विडम्बना होती है। प्लूटार्क[२] का भी यही मत है। वह कहता है कि "प्लूटार्क नामक एक मनुष्य था जो अपने लड़कों को उत्पन्न होतेही खा जाया करता था"—इस प्रकार लोगोंके कहने की अपेक्षा—"प्लूटार्क कोई थाही नहीं",—ऐसा कहना अत्युत्तम है। रोम और ग्रीसके प्राचीन लोग सातर्न (शनैश्चर) नामक एक देव [ ८७ ] ताको मानते थे। उसके विषयमें पुरातन कवियोंने यह आख्यायिका प्रसिद्धकी थी कि वह अपने लड़के होतेही खाजाया करताथा। इसी आख्यायिकाको लक्ष्य करके प्लूटार्क ने उपरोक्त उक्ति कहीहै जिसका यह आशय है कि एतादृश सन्तानभक्षी देवताका अस्तित्व स्वीकार करने की अपेक्षा न स्वीकार करना ही अच्छा है। ईश्वरकी जितनी अधिक विडम्बना होती है भ्रमात्मक धर्मभीरु लोगोंसे प्रजाको उतनाही अधिक भय होता है। नास्तिक होनेसे भी सदसद्विचार, तत्त्वज्ञान, स्वभाविक निष्ठा, व्यवहारपरता और मान सम्भ्रम इत्यादि गुण कहीं नहीं जाते। अतएव धार्मिकता न भी हुई तो इन गुणोंके द्वारा नास्तिक मनुष्यका आचरण अनीति सङ्गत नहीं होसकता। परन्तु धर्म सम्बन्धी कुसंस्कार ग्रस्त मनुष्योंमें यह बात नहीं पाई जाती। उनके मस्तकमें जो एकबार समाया वह वज्रलेप होगया। उसमें परिवर्तन होने हीका नहीं। नास्तिकताके कारण राज्यादि बड़ी बड़ी संस्थाओंको कभी धक्का नहीं पहुँचा, कारण यह है कि नास्तिक लोग मरणानन्तर पुनर्जन्म मानतेही नहीं अतः संसारमें बहुत दिन रहनेसे उनको अपना जीवन भारभूत सा होजाता है। नास्तिकता विशेष करके उस समय बढ़ती है जिस समय देशमें पूरी पूरी शान्तता होती है। आगष्टस[३] सीजर का राज्यकाल शान्ततामय था, अतएव उसके समयमें नास्तिक मत बहुत फैला था। परन्तु भ्रमात्मक धर्मभीरुताका परिणाम अतिशय भयङ्कर होता है। उसके कारण अनेक राज्य तहस नहस होगएहैं।

अनुचित धर्मभीरुताका आदि स्थान सामान्य लोग होते हैं। इस प्रकारके कुसंस्कारका अनुष्ठान करनेसे बुद्धिमान भी मूर्खोंका अनुकरण करने लगते हैं, और एक बार उस पक्षको अङ्गीकार करके फिर यह नहीं [ ८८ ] सोचते कि जो कुछ हम करते हैं वह यथार्थ है अथवा अयथार्थ। उलटा अपनी भूलको समर्थन करनेके लिए नानाप्रकारके अयुक्ति सङ्गत कोटिक्रम लड़ाते हैं और तद्वारा शंका समाधान करने बैठते हैं।

भ्रमात्मक धर्मभीरुताके कारण ये हैं:-आनन्दोत्पादक तथा विषयोद्दीपक विधि और संस्कार; औरोंको दिखलाने के लिए दाम्भिक धर्म्माचरणकी अधिकता; परम्परागत कथा कहावतके विषयमें आतिशय पूज्यभाव; स्वार्थसाधनके लिए धर्म्माधिकारियोंकी युक्ति प्रयुक्तियां; कर्ताके निंद्य और अविश्वसनीय कर्मोंकी ओर दृष्टि न करके उसके सदुद्देशकी प्रशंसा; मानुषिक कृत्योंसे ऐश्वरीय कृत्योंका अनुमान (इससे तो अनुचित कल्पनाओंकी उत्पत्ति हुए बिना नहीं रहती) और असभ्यकाल–विशेषकरके जिसकालमें अनेक अरिष्ट और संकट आते हैं वह। भ्रमिष्ट धर्मभीरुताको उत्पन्न करनेवाले यही सत्र कारण हैं।

अनुचित धर्मभीरुताके ऊपर यदि किसीप्रकारका परदा न पडाहो तो वह कुरूप देख पड़ती है। बंदरकी आकृति मनुष्यकीसी होनेसे जैसे वह कुरूप देख पड़ता है वैसेही भ्रमात्मक धर्मभीरुताभी धर्मश्रद्धाके समान देख पडती है अतएव वह और भी घृणित है। और, जैसे अच्छाभी मांस कालान्तरमें कीटमय होजाता है वैसेही प्रथम स्थापन किएगए उत्तम और सदाचार सम्पन्न भी नियम कुछ दिनमें छोटे छोटे संस्कारोंमें विभक्तहोकर अपना निन्दनीय रूप प्रकट करते हैं।

भ्रमात्मक धर्मभीरुतासे बचनेका अतिशय प्रयत्न करनाभी एक प्रकारकी अनुचित धर्म भीरुता है। परम्परासे जो प्रथा चली आई है उसे छोंड़ तत्प्रतिकूल आचरण करनेकी ओर मनुष्योंकी सहसा प्रवृत्ति होना भ्रमसञ्जात धर्मभीरुताके अतिरिक्त और क्या है? अतएव यह ध्यानमें रखना चाहिए कि बुरेके साथ भलाभी (जैसे बुरे विरेचनमें होताहै) न निकल जावे। जब सर्वसाधारणकी प्रवृत्ति धर्मसंशोधनकी ओर झुकती है तब बहुधा अनुचितके साथ उचित भी हाथसे जाता रहता है।

  1. जितने भूतहैं सबमें मैं उनका आत्मा रूप होकर विराज रहाहूं। उस आत्मारूप मुझको यथार्थतया न जानकर मनुष्य पूजारूपी विडम्बना करतेहैं। समस्त भूतवर्गोंमें विद्यमान् आत्मास्वरूप मुझ ईश्वर को छोंड़ जो मनुष्य मूढतावश पूजन पाठ इत्यादि के झगड़े में फँसता है उसका वह सब कर्म भस्ममें हवन करनेके समान, निष्फल जाता है।
  2. प्लूटार्क नामक ग्रीसमें एक तत्त्ववेत्ता होगया है। पूर्ववयमें इसे उच्च राज्याधिकार प्राप्तथा। यह प्रजावर्ग को अतिशय प्रिय था। राजकाज परित्याग करके अपना उत्तर वय इसने पुस्तकावलोकनमें व्यतीत किया और कई एक उत्तमोत्तम ग्रन्थ लिक्खे। इसके ग्रन्थों में "रोम और ग्रीसके प्रख्यात पुरुषोंका चरित्र" अति प्रसिद्धहै। बहुत वृद्ध होकर १४० ई॰ में इसकी मृत्यु हुई।
  3. आगस्टस सीज़र रोमका द्वितीय सार्वभौम राजा था। इसने ४४ वर्ष शान्ति पूर्वक राज्य करके ७६ वर्षके वयमें सन् १४ ई॰ मे शरीर परित्याग किया।