बेकन-विचाररत्नावली/६ विद्याध्ययन

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बेकन-विचाररत्नावली  (1899) 
द्वारा महावीरप्रसाद द्विवेदी

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विद्याध्ययन ६.

मातेव[१] रक्षति पितेव हिते नियुङ्क्ते
कान्तेव चापि रमयत्यपनीय खेदम्।
लक्ष्मीं तनोति वितनोति च दिक्षु कीर्ति
किं किं न साधयति कल्पलतेव विद्या॥

सुभाषितरत्नाकर।

विद्याध्ययनसे मन मुदित होता है; बातचीत में विशेष शोभा आती है और योग्यता भी बढ़ती है। एकान्तवास और निष्कार्यदशा में विद्याध्ययन का मुख्य उपयोग तद्वारा आनन्द प्राप्त करनेमें होता है। सम्भाषण के समय उसका मुख्य उपयोग कथन को अलंकृत करने में होता है; और सारासार विचारपूर्वक काम काजकी व्यवस्था करने के लिये उसका मुख्य उपयोग व्यवहारदक्षता सम्पादन करने में होता है। अनुभव से जिन्हों ने चातुर्य प्राप्त किया है वे काम काज अवश्य करते हैं और एक २ बात का अलग अलग विचार करके बहुधा अच्छे प्रकारभी करते हैं; परन्तु सामान्यतः योग्यायोग्य को समझना, अनेक उपयोग युक्ति प्रयोग करना और प्रत्येक भागको सुव्यवस्थित रखना विद्वानों का ही काम है।

शास्त्रचर्चा में प्रमाणसे अधिक समय व्यय करना जड़ता है; वार्तालाप में भाषण को सालंकार करने के लिए शास्त्र का अतिशय [ १६ ] उपयोग करना एक प्रकार का विकार है; और सभी काम में शास्त्रानुसार वर्तन करने जाना विद्वान् होकर भी अपनी व्यवहारशून्यवृत्ति को दिखाना है।

विद्याभ्यास से मनुष्य के स्वाभाविक गुण पूर्णता को पहुँच जाते हैं और अनुभव से स्वयं विद्याभ्यास पूर्णता को पहुँचता है; क्योंकि मनुष्य की स्वाभाविक बुद्धि स्वयंभू अर्थात् आपही आप उठानेवाले पौधों के समान है। इसप्रकार के पौधों को छाँटने से जैसे वे अधिकाधिक बढ़ते और बलिष्ठ होते हैं वैसेही स्वाभाविक बुद्धि में विद्याकी कलम लगाने से वह विशेष प्रौढ़ता को धारण करती है। विद्याध्ययन से नानाप्रकार के नियम विदित होते हैं यह सत्य है तथापि किस नियम को कहाँ और कैसे काममें लाना चाहिये, यह अनुभवही के प्रतापसे समझ में आता है। कपटी लोग विद्याध्ययन का तिरस्कार करते हैं और बुद्धिमान् लोग उसको उपयोग में लाते हैं। विद्या का उपयोग कैसे करना चाहिये यह बात केवल अध्ययनहीं से नहीं जानी जाती। इसके जानने के लिये विद्या के बाहर बुद्धि की आवश्यकता पड़ती है; क्योंकि विद्या का विकास अनुभव से होता है। अतः उसके उपयोग में लाने के लिये अनुभव प्राप्त करना परमावश्यक है।

दूसरे के साथ भाषण करने में उसके मत का खण्डन करके उसे कुंठित करने के लिये पुस्तकैं न अवलोकन करना चाहिये। किंवा जो कुछ इसमें लिखा है वह सभी सत्य और स्वतः प्रमाण है, इस प्रकार श्रद्धापूर्वक विश्वास उत्पन्न करने के लिये अथवा वार्तालाप के निमित्त कोई विषय ढूँढ़ने के लिये भी कभी पुस्तकावलोकन न करना चाहिये। उनको पढ़कर तद्गत विषयों के सत्यासत्य का निर्णय करने और अपनी विचारशक्ति को बढ़ानेही के लिये पुस्तकैं देखना उचित है। कुछ पुस्तकों को केवल स्वाद लेकर रखदेना चाहिये; कुछ को समग्र निगलजाना चाहिये; और कुछ-दो चार-को, सावकाश, धीरे धीरे, चर्वण करके पचाजाना चाहिये। अर्थात [ १७ ] कुछ पुस्तकैं ऐसी होती हैं जिनका एक आध भाग पढ़कर छोड़ देना चाहिये; कुछ को समग्र पढ़ना चाहिये, परंतु ध्यान से न पढ़ना चाहिये; और कुछको मनःपूर्वक समझ समझकर साद्यन्त पढ़ना चाहिये। कुछ पुस्तकोंको किसी दूसरे से अवलोकन कराके तत्कृत टिप्पणीमात्र देखलेनी उचित है; परन्तु यह नियम, ऐसी वैसी निःसार पुस्तकें जिनमें कोई महत्त्वकी बात नहीं है, उन्हीं के विषय में प्रयोग करना ठीक है; अन्योंके विषय में नहीं।

पुस्तकावलोकनसे मनुष्य बहुश्रुत होता है; भाषणसे उसको समयसूचकता प्राप्त होती है; और लिखनेसे वस्तुमात्रकी यथार्थता उसके समझ में आती है। इसलिये जो मनुष्य कम लिखता है उसकी स्मरणशक्ति विशेष अच्छी होती है; जो कम बोलता है उसकी समयसूचकता विशेष प्रज्वलित रहती है; और जो कम पढ़ता है उसमें, जिस बात को वह नहीं जानता उसे जाननेका सा भाव दिखानेके लिये, कापट्य विशेष वास करता है। इतिहास पढ़ने से मनुष्य बुद्धिमान् होता है; काव्य पढ़नेसे बातचीत करने में प्रवीणता आती है; गणित पढ़ने से बुद्धि तीक्ष्ण होती है; पदार्थविज्ञान पढ़नेसे विचारशक्ति गहन होती है; नीतिशास्त्र पढ़नेसे गंभीरता आती है; और तर्क तथा साहित्यके अध्ययन से वादप्रतिवाद करनेका सामर्थ्य प्राप्त होता है।

मनुष्य मात्र में बुद्धिगत ऐसा कोई दोष नहीं है जिसका प्रतीकार उचित अभ्यासके द्वारा न होसकताहो। शारीरिकव्याधि दूर करने के लिये जैसे अनेक प्रकारके व्यायाम हैं वैसेही मानसिक व्यथाओंको दूर करने के लिये भी अनेक उपाय हैं। गेंद खेलना, पथरी और मूत्र रोग के लिये अच्छा है; शिकार खेलना, फेफड़ा और छाती के रोगों के लिये हितकर है; धीरे धीरे चलना, उदरव्याधि के लिए लाभदायक है; और घोड़े की सवारी करना, शिरोरोग के लिये आरोग्यप्राय है-इत्यादि। इसीप्रकार चंचल चित्तवाले मनुष्य को गणितशास्त्र का अभ्यास करना चाहिये, क्योंकि गणित के किसी [ १८ ] प्रश्न का उत्तर देने में चित्त यदि किंचित्मात्र भी कहीं इधर उधर चलाजावेगा तो उसे उस प्रश्न को आदि से पुनार्वार हल करना पड़ेगा। जिनकी विवेचक शक्ति ठीक नहीं है अतः जो विषयों का पृथक्करण भली भाँति नहीं कर सकते उनको "स्कूलमॅन" के ग्रन्थ (व्यवहार दर्शन की टीका) पढ़ने चाहिये; क्योंकि उनमें लिखनवालों ने पूरी पूरी बाल की खाल निकाली है। जिनको कईबार वही बात नये नये प्रकार पर कहनी नहीं आती अथवा जो लोग एकबात का समर्थन करने के लिये दूसरी बात का प्रमाण तत्काल नहीं देसकते उनको वकीलोंके अभियोग सम्बन्धी लेख इत्यादि देखने चाहिये। इसप्रकार प्रत्येक मानसिक विकारको दूर करने के लिये उचित उपाय होसकते हैं।

  1. विद्या माता के समान रक्षा करती है; पिता के समान हित में तत्पर रखती है; कान्ता के समान खोदित चित्त को प्रसन्न करके सुख देती है; संम्पत्ति को बढ़ाती है; कीर्तिको दिशाओं में फैलाती है। क्या २ नहीं साधन करती? अर्थात् सभी करती है।