बेकन-विचाररत्नावली/७ मृत्यु

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बेकन-विचाररत्नावली  (1899) 
द्वारा महावीरप्रसाद द्विवेदी

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मत्यु ७.

मरणं[१] प्रकृतिः शरीरिणां विकृतिर्जीवनमुच्यते बुधैः।
क्षणमप्यवतिष्ठते श्वसन्यदि जन्तुर्ननु लाभवानसौ॥

रघुवंश।

लड़कोंको अँधेरे में जाने से जैसे डर लगताहै; मनुष्यको वैसेही मृत्युसे डर लगताहै। और जिसप्रकार लड़कोंका वह स्वाभाविक डर कथा कहानी आदिके सुनने से बढ़ता है उसी प्रकार मनुष्योंका भी डर मृत्यु विषयकवार्ता सुन २ कर बढ़ता है। यथार्थ में मृत्युको ईश्वर ने किये हुए अपराधोंसे मुक्त होने के लिये स्वर्ग में जानेका द्वाररूप बनायाहै; अतः उसे पवित्र और धर्म्य समझना चाहिये। परन्तु "आया है सो जायगा" इसप्रकार की चिन्तना करके मृत्युसे डरना अविवेकताका लक्षण है। तथापि, बहुधा, मनुष्य मरनेके विषयमें नानाप्रकारके तर्क बाँधते हैं। तपश्चर्यासम्बन्धी प्राचीन पुस्तकोंमें लोगोंने लिख रक्खा है कि, तुम अपने हाथकी एक उँगली को जलाकर अथवा अन्य किसी [ १९ ] प्रकारसे उसको पीड़न करके देखो तुम्हें कितनी वेदना होती है और उस वेदनासे मृत्युकी वेदना की, जब समस्त शरीरका पात और पृथक्करण होताहै, कल्पना करो। परन्तु इसप्रकारका तर्क समंजस नहीं कहाजासक्ता; क्योंकि मरनेके समय बहुधा इतनाभी क्लेश नहीं होता जितना शरीरके एक अवयव के कटजाने अथवा पीड़ितहोने से होता है। कारण यह है कि, किसी किसी मर्मस्थान तक वेदनाके पहुंचने के पहिलेही कभी कभी उसका वेग जाता रहता है। एक तत्त्ववेत्ताने बहुत ठीक कहा है कि, मृत्युकी अपेक्षा मृत्युकालका उपकरण अधिक भयंकर लगता है। मरते हुए का कराहना; उसके मुखकी विकृतचेष्टा; उसके अंगविक्षेप तथा इष्टमित्रोंका रोना और प्रेतसंस्कार की विधि इत्यादिको देखकर मनुष्यका भयभीत होजाना कोई आश्चर्य की बात नहीं।

एक बात यह ध्यानमें रखनेके योग्यहै कि, मनुष्य में ऐसे भी विकारहैं जिनके जागृत होने से मृत्यु तृणप्राय होजाता है। अतः मनुष्य में जब इसप्रकार के अनेक विकार जागरूक हैं, तो मृत्यु से इतना कदापि न डरना चाहिये। देखियेः-बदला लेने के समय मनुष्य मृत्यु को कुछ समझताही नहीं, प्रेम में मत्त होने से मनुष्य मृत्यु का तिरस्कार करता है; अकीर्ति से बचने के लिये मृत्यु को मनुष्य मन से चाहता है; दुःख में मनुष्य मृत्यु को घर बैठे बुलाता है; और भय के मारे भीरु मनुष्य अपने को अपनेही हाथसे मृत्यु को अर्पण कर देता है। इतनाही नहीं किन्तु कभी कभी दूसरों के दुःख को देखकर भी मनुष्य अपने प्राण देदेता है। रोम के ओथो नामक राजा ने जब अपने हाथ से अपने को मारडाला तब उसके अनेक सच्चे मित्र और अनुयायीजनोंने राजभक्ति और स्नेह को दिखानेही के लिए प्राणपरित्याग किये। सेनेका नामक रोम का तत्त्ववेत्ता यहाँ तक कहता है कि, जो मनुष्य शूर अथवा आपत्तिपीड़ित नहीं हैं वे भी कभी कभी एकही काम को बारम्बार करने के लिये विवश किये जाने पर, ऊबकर अपना जी देदेते हैं। [ २० ]स्मरण रखना चाहिये कि, मरने के समय भी कोई कोई सत् पुरुषों की चित्तवृत्ति में अन्तर नहीं होता; वे प्राणांत होने तक पहलेही के समान सुप्रसन्न बने रहते हैं। रोम के राजाओं में इस प्रकार के अनेक उदाहरण देखे जाते हैं। आगस्टस सीजर अपनी स्त्री से सन्मानसूचक बातें कहते कहते मरगया। अन्तकाल में उसने स्त्री से कहा "लिबिया! हम चलते हैं; हमें भूल न जाना"। रोम का इतिहासवेत्ता टैसीटस कहता है कि, टिबेरियस ने मरनेतक अपना गूढस्वभाव नहीं छोड़ा। उस समय भी उसके मुखमें एक, और पेट में एक, बात थी। बेस्पेशियन विनोदात्मक श्लिष्ट भाषण करते करते पंचत्व को प्राप्त हुआ। मरणकाल में स्टूल पर बैठे बैठे उसने कहा "हमें जानपड़ता है हम देवता[२] होरहे हैं"। मरने के समय गालबा[३] ने मस्तक पर हाथ रख अपने मारनेवालोंसे कहा "यदि हमारे मरनेहीमें लोगोंकी प्रसन्नता है तो लो हमारा यह मस्तक प्रस्तुत है"। सेप्टीमियस सिबेरिस ने शीघ्रताके साथ काम करते करते और यह कहते कहते, कि यदि और कुछ करना हो तो तुरन्त लावो, प्राण छोड़ें।

ढूँढने पर इसीप्रकार के औरभी उदाहरण मिलसकते हैं। किसी किसी जाति के लोग मृत्यु को बहुत कुछ समझते हैं और उसके लिये पहिलेही से उत्कट प्रबन्ध करने लगते हैं, जिससे मृत्युका भय और भी अधिक बढ़जाता है। जिसने यह कहा कि "मरना एक नैसर्गिक नियम है" उसने बहुतही ठीक कहाहै। जन्मलेना जिस प्रकार स्वाभाविक है मरना भी उसी प्रकार स्वाभाविक है। अज्ञानबालक को मरना और जन्मलेना कदाचित् दोनों समान दुःखद होते होंगे। सत्कार्य में निमग्न रहते रहते मरजाना अच्छा है। शस्त्रप्रहार सहन करके जैसे [ २१ ] मनुष्य आवेशमें आकर प्राण छोड़ता है, और उस समय उसे विशेष कष्ट नहीं होता, वैसेही काम में लगे रहने से भी मृत्यु की यातना मनुष्यको अधिक नहीं भोग करना पड़ती। मनुष्य के समस्त इच्छित कार्य फलीभूत और आशाएँ पूर्ण होनेपर जो मृत्यु आतीहै वह अवश्य सबसे बढ़कर है। ऐसी मृत्युकी सदैव अभिलाषा रखनी चाहिये। मृत्युसे एक यह अलभ्य लाभ है कि, मरनेके अनन्तर मनुष्यकी कीर्ति विशेष फैलती है। मृतमनुष्यका लोग मत्सरकरना छोड़देते हैं।

  1. ज्ञानवान् पुरुष कहते हैं कि, जितने शरीरधारी हैं मरना उनकी प्रकृति (स्वभाव) और जीना विकृति (विकार) है। तस्मात् मनुष्यका श्वास क्षणमात्र जितना चलता हैं उतनेही को महान् लाभ समझना चाहिये।
  2. रोमन लोगों का यह कथन है कि, राजा मरने पर देवता होता है; परन्तु साधारण मरने को भी वह 'देवता होना' कहते हैं।
  3. जिन सैनिकों ने सिंहासन पर बैठनेमें गालबा की सहायता की थी उन्होंने प्रतिज्ञानुसार धन न पाने से, क्रोध में आकर उसे मारडाला।