बेकन-विचाररत्नावली/८ विलम्ब

विकिस्रोत से
बेकन-विचाररत्नावली  (1899) 
द्वारा महावीरप्रसाद द्विवेदी

[ २१ ]

विलम्ब ८.

सुचिन्त्य[१] चोक्तं सुविचार्य यत्कृतं
सुदीर्घकालेऽपि न याति विकियाम्।

हितोपदेश।

भाग्य बाज़ारके समानहै। जैसे कुछ देर ठहरनेसे बाजार में बेचनेके लिए लाएगये पदार्थों का भाव बहुधा घटजाताहै वैसेही योग्य अवसर प्राप्तहोनेपर कार्य का निर्वाह न करनेसे भाग्य की भी कृपा कम हो जाती है; तथापि भाग्य सिबिला[२] के माँगने के समान भी है; अर्थात् जैसे सिबिलाने अपना सारामाल बेचने के लिए प्रस्तुत करके जो मूल्य [ २२ ] उसका पहिले कहा क्रम २ से मालको जलाकर शेष जो कुछ रहाउसका भी मूल्य वह वही कहती गई। उसीप्रकार भाग्य के अनुकूल पहिला योग आनेपर जो मूल्य उसका देनापड़ताहै, तदनन्तर अन्य योग आनेपर पहलेकी अपेक्षा उसका महत्त्व चाहै कितनाही कम क्यों न हो-वही मूल्य देनापड़ता है। कहावत प्रसिद्ध है कि, आयाहुआ सुप्रसंग अग्रभाग में पहिले अपनी लटैं दिखाताहै और यदि उन्हें यथा समय न पकड़लिया जाय तो वह पीछे फिरजाताहै, और ऐसा होनेसे उसकी केशहीन चाँदमात्र सम्मुख आजातीहै। अथवा ऐसा कहिये कि, पहिले वह बोतलका मुख सामने करता है और उसे जो तत्काल पकड़ न लिया जाय तो वह बोतलके नीचे का मोटा भाग आगे करदेताहै, जिसको हस्तगत करनमें कठिनता पड़ती है। तात्पर्य यह है कि, अनुकूल समय आनेपर उसे जाने न देना चाहिये।

जो काम करना है उसका आरम्भ सोच समझ कर उपयुक्त समयपर करनाचाहिये। यह सबसे बढ़कर बुद्धिमानीकी बातहै। होनेवाले विघ्नोंका पूरा पूरा विचार करना उचित है। यह कदापि न समझनाचाहिये कि, क्षुद्रविघ्नों से हमारा क्या बिगड़ेगा? जो विघ्न देखनेमें स्वल्प जानपड़ते हैं वे कभी कभी अन्तमें अपरिहार्य होजाते हैं और उनकी ओर ध्यान न देनेसे लोगोंको बहुधा हार माननी पड़ती है। बहुतसे विघ्न ऐसे हैं कि, यद्यपि वे निकट नहीं आये तथापि चलकर आधीदूरपर उनका नाश करनाचाहिये। अपने निकट उनके आनेकी प्रतीक्षा करते बैठे रहना उचित नहीं; क्योंकि जो मनुष्य अधिक कालपर्यन्त निरीक्षण करते रहता है उसे उन्नीस बिस्वे निद्रा आजाती है। विघ्न निकट आनेके लिये प्रतीक्षा करते रहना जैसे मूर्खताकी एक सीमा है, वैसेही उनकी दीर्घ छायाको देखकर अकालहीमें उनका प्रतिबन्ध करना अथवा उनके सन्मुख कटिबद्ध होकर उनको अपने ऊपर आघात करनेके लिये सूचना देना मूर्खताकी दूसरी सीमा है। [ २३ ]जैसा ऊपर कहागया है, समयकी योग्यता अथवा अयोग्यताका पूर्ण विचार करके कार्यको आरम्भ करना चाहिये। साधारणतः बड़े २ सारे कामोंका आरम्भ आरगस[३] (सहस्राक्ष-इन्द्र) और उनका अन्त ब्रिएरिस[४] (सहस्रबाहु-अर्जुन) के स्वाधीन करना उचित है। इसका यह तात्पर्य है कि, पहिले योग्यप्रसंगको सूक्ष्मदृष्टिसे देखते रहनाचाहिये और ज्योंही वह आजाय त्योंही हरप्रयत्नसे कार्य करलेना चाहिये। कहतेहैं कि, प्लूटो[५]के शिरस्त्राणको धारण करनेसे राजकार्यपटु पुरुष अदृश्य होजाते थे। कार्य का विचार गुप्तरीतिसे करना, और विचार स्थिर करके, जितना शीघ्र होसके उतना शीघ्र, उसे समाप्त करदेना ही इस कहावत का अभिप्रायहै। जिसप्रकार बन्दूक भरके उसे छोड़तेही वायुमें गोली इस वेगसे जातीहै कि, दिखाई तक नहीं देती, उसीप्रकार यथोचित सिद्धता होने पर कामको तुरन्त करडालने में देरी नहीं लगती क्योंकि वेगका प्रयोग करनाही उस समय मानों उस कार्यको गुप्त रखना है।

  1. जो कुछ विचार करके कहाजाता है अथवा जो कुछ विचार करके किया जाताहै वह कभी भी नहीं बिगड़ता।
  2. अपनी विद्याके बलसे भविष्यत् का ज्ञान रखनेवाली स्त्रियों को रोमके निवासी 'सिंबिला' कहते थे। लिखाहै कि, एकबार रोमके टर्किन राजा के पास छः पुस्तकें लेकर एक सिबिला आई और उन पुस्तकों का बेहिसाब मूल्य माँगने लगी। जब राजाने न लिया तब उसने उनमेंसे तीन पुस्तकें जलाकर शेष ६ का वही मूल्य माँगा। फिरभी जब टर्किनने लेना स्वीकार न किया तब तीन पुस्तकें और जला दी; परन्तु मूल्य में तिसपर भी उसने कमी न की। तब आश्चर्य में आकर राजाने वे तीन पुस्तकें लेकर देखा तो रोमराज्य में होनेवाले अनेक उपद्रव तथा उनके शान्त करने का उपाय उनमें लिखा पाया शेष ६ पुस्तकों में क्याथा सो नहीं जानागया।
  3. रोमन दैत्य आरगस के १०० नेत्र थे जिनमेंसे केवल दो एक समय में निद्रा लेतेथे।
  4. ब्रिएरिस भी ग्रीक और रोमनलोगोंका एक दैत्य था। इसके १०० हाथ और ५० शिर थे।
  5. प्लूटो-ग्रीक और रोमन लोगों का यम है।