भारतवर्ष का इतिहास/१०—महात्मा बुद्ध

विकिस्रोत से
भारतवर्ष का इतिहास  (1919) 
द्वारा ई॰ मार्सडेन

[ ५१ ] कहते हैं। यह वह व्यास जी नहीं हैं जिन्हों ने महाभारत की रचना की थी। यह अपनी शिक्षा को उपनिषदों के अनुसार बताते हैं और इनका कथन है कि मनुष्य को चाहिये कि परमेश्वर की आराधना करे। आत्मा, सत और समस्त सृष्टि का जन्म उसी से हुआ है, और अन्त में सब उसी से मिल जायगा। फिर वही वह रह जायगा और कुछ न रहेगा। बादरायण का कथन है कि मनुष्य की आत्मा परमेश्वर ही का एक अंश है जिस तरह चिनगारी अग्नि का अंश है। अर्थात् एक शरीर से दूसरे शरीर में प्रवेश करती है। इसको अद्वैत वेदान्त कहते हैं। कारण यह कि वह जगत को ईश्वर से भिन्न नहीं समझता और ऐक्यता की शिक्षा देता है। दोनों परमेश्वर के स्वरूप हैं। यथार्थ में एक ही हैं भेद कुछ भी नहीं है। जो कुछ है सो एक वही परमात्मा है।

१२—ब्राह्मण सारी जातियों के गुरु और राह बतानेवाले थे। इस कारण उन्हों ने सब जातियों के कर्तव्य निश्चित किये और उनके लिये नियम बना दिये। पहिले यज्ञ और हवन की रीतियां बनाई और और उनके हर भाग के विषय में पृथक पृथक नियम बतलाये। फिर ब्रह्मभोज और जेवनार के कायदे स्थिर किये। गृहस्थ के धर्म्म और उसके निबाहने की रीतियां बड़ी सुगमता के साथ बर्णन की। यह सब बातें श्लोकों में लिखी हैं जो कंठ किये जाते हैं। मनु जी के धर्म्मशास्त्र में आचार व्यवहार के नियम हैं। मनु यह बताते हैं कि शासन कैसे होता है और अपराधियों को किस प्रकार दंड देना चाहिये। जान पड़ता है कि मनु स्मृति

पहिले सूत्रों में रची गई थी; श्लोक बहुत पीछे बने हैं। [ ५२ ]
१०—महात्मा बुद्ध।
(ईसा से पहिले ५५७ बरस से ४७७ बरस तक।)

१—प्राय: २५०० बरस से अधिक हुए, ब्राह्मणों के समय के पीछे कोशल की शक्तिमान रियासत के कुछ पूर्व शाक्य वंश के क्षत्रिय बसते थे। इनका बहुत छोटा सा कुल था। कपिलवस्तु इनकी राजधानी थी; शुद्धोदन इनके राजा थे। यह नगर बनारस से सौ मील उत्तर था। शुद्धोदन बड़ा प्रतापी और शक्तिमान राजा था और चाहता था कि मेरे पीछे मेरा बेटा गौतम भी ऐसा ही वीर और प्रतापी हो। उसने उन्हें शस्त्र-विद्या की सब कलायें सिखाई जैसे भाला और तलवार चलाना, धनुर्विद्या इत्यादि। गौतम जब १८ बरस के हुए तो एक परम रूपवती राजकुमारी से जिसका नाम यशोधरा था, उनका ब्याह हो गया। और ब्याह के दस साल पीछे उनके एक पुत्र भी हुआ।

२—बचपन ही से गौतम सोच बिचार में रहा करते थे। इनका हृदय बड़ा कोमल था और बहुतही मीठे बचन बोलते थे; जीव जन्तु पर बड़ी दया करते थे। आखेट को चले हैं, तीर धनुष पर चढ़ा हुआ है, चुटकी दबा ली है, कुछ कुछ धनुष भी खींच लिया है, पर यह देख कर कि भोला भाला हिरन बेखटके नन्हें नन्हें दांतों से महीन महीन दूब चर रहा है, बस कमान वहीं रख दी और सोच में पड़ गये। "हाय, हाय, इस पशु ने मेरा क्या बिगाड़ा है? इसने किसको सताया है जो मैं इसे मारूं?" ऐसा सोचकर तीर तरकश में रख लिया और घर लौट आये। घोड़दौड़ हो रही है, घोड़ा वायु को भांति उड़ा जाता है; सम्भव है कि बाज़ी जीत ले पर संकेत पर पहुंचने से पहिले जो [ ५३ ]घोड़े के हांपने और लम्बी लम्बी सांस लेने पर ध्यान जा पड़ा, वहीं रुक गये और लज्जित होकर बोल उठे, "हाय, हाय, क्या बाज़ी के कारण इस निरपराध पशु का सताना ठीक है? बाजी जाय तो जाय पर इस घोड़े को दुख देना ठीक नहीं है।" घोड़दौड़ से अलग हो गये और घोड़े को चमकारते दिलासा देते एक ओर ले गये।

३—एक दिन वसन्त ऋतु में पिता ने कहा, "आओ बाहर चलो, देखो वृक्षों और खेतों पर कैसा जोबन आया हुआ है।" बाप बेटे धीरे धीरे सवार चले जाते थे। बसन्त तो था ही। चारों ओर बाग़ही बाग़ थे। पृथ्वी पर हरी हरी दूब उगी हुई थी खेतियां लहलहा रही थीं। वृक्ष फलों से लदे हुए थे। गौतम इन्हें देखकर प्रसन्न हुए। पर उन्हों ने देखा कि एक हरवाहा बड़ी क्रूरता से एक बैल को जिसकी पीठ में घाव है मार मार कर हांक रहा है। बेचारा पशु पीड़ा के मारे बैठा जाता है। फिर क्या देखा कि एक बाज़ एक पिड़की का मांस नोच नोच कर खा रहा है। आगे बढ़े तो देखा कि एक पिड़की मक्खियां पकड़ पकड़ निगल रही है। यह सब देख कर उनको बड़ा शोक हुआ और वह घर चले आये।

४—कुछ दिनों के पीछे गौतम ने एक स्वप्न देखा। उन्हें जान पड़ा कि एक महा बूढ़ा जो मारे निर्बलता के चल भी नहीं सकता उनके सामने है और स्वप्न ही में जैसे कोई उनसे कह रहा है, "देखो गौतम तुम भी ऐसे बूढ़े और निर्बल हो जाओगे।" फिर उन्हों ने एक महा रोगी मनुष्य को देखा जो मारे पीड़ा के कांख रहा था और फिर उनसे किसी ने कहा, "गौतम तुम भी एक दिन ऐसे ही रोगग्रसित होगे और तुम्हें भी ऐसी ही पीड़ा होगी।" फिर उन्हें एक जीवरहित मनुष्य जो बिल्कुल ठंडा होकर अकड़ [ ५४ ] गया था दिखाई दिया और फिर उनसे किसी ने कहा, "देखो गौतम एक दिन तुम्हें भी मरना है।"

५—इसके कुछ दिनों पीछे गौतम ने जिनकी आयु अब ३० बरस की थी अपने पिता और स्त्री पुत्र को छोड़ दिया, अपने राजकीय बस्त्र उतार डाले और सिर मुंडा कर गेरुवा बस्त्र धारण कर लिया

राजकुमार सिद्धार्थ।


और बन को चले गये। वह इसी की खोज करते रहे कि किस उपाय से संसार दुख और पाप से रहित हो सकता है। राजगृह के पास जो मगध की राजधानी थी दो ब्राह्मण तपस्वी रहते थे। गौतम उनके पास भी गये पर वह उनके संसार के दुख दर्द से बचने अथवा मोक्ष का कोई उपाय न बता सके। फिर पटने से दक्षिण गया के आस पास के घने बन में चले गये। वहां छ बरस बराबर तपस्या की, कड़े कड़े व्रत रक्खे और शरीर की ताड़ना की पर इस से भी उनका मनोरथ सिद्ध न हुआ। गया जी का मन्दिर इस बात का स्मारक है कि यहां गौतम ने छ बरस तपस्या की थी।

६—अन्त में वह दिन भी आया कि गौतम को शान्ति मिली। एक बड़े वृक्ष के नीचे ध्यान धरे बैठे थे कि अचानक उनके हृदय में एक प्रकाश सा जान पड़ा जिससे उनका हृदय [ ५५ ] शान्त हुआ। उन्होंने जान लिया कि व्रत रखने से और शरीर को कष्ट देने से कोई लाभ नहीं है। लोक और परलोक में आनन्द प्राप्त करने का उपाय यही है कि मनुष्य शुद्धता से रहे, सब पर दया करे और किसी को न सताये। गौतम को विश्वास हो गया कि मोक्ष का सच्चा रास्ता यही है।

७—अब गौतम ने अपना नाम बुद्ध रख लिया। और संसार को सीधी राह बताने और शिक्षा देने के हेतु देश विदेश फिरने लगे। पहिले काशी जी गये; वहां स्त्री पुरुष सब को अपना धर्म सुनाया। तीन ही महीने ठहरे थे कि उनके ६० चेले हो गये। इन सब से उन्हों ने कहा कि जाओ और हर एक दिशा में धर्म का प्रचार करो। फिर राजगृह गये यहां के राजा प्रजा सब ने उनका धर्म ग्रहण किया। इसके पश्चात कपिलवस्तु गये जहां इनके पिता राज करते थे। घर से बिदा होते समय यह राजकुमार थे। अब जो लौट कर आये तो गेरुआ बस्त्र, हाथ में कमंडल और सिर मुंडा हुआ था । बाप, स्त्री, पुत्र और समस्त शाक्य-वंश ने उनका व्याख्यान सुना और उनके चेले हो गये। इस से ४५ बरस बीतने पर ८० बरस की आयु तक बुद्ध जो एक स्थान से दूसरे स्थान जाकर अपने धर्म का प्रचार करते रहे। इस भांति सारे मगध देश, कोशल अर्थात् बिहार और संयुक्त प्रान्त आगरा और अवध में धीरे धीरे इनका मत फैल गया।