भारतवर्ष का इतिहास/११—बुद्धमत

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भारतवर्ष का इतिहास  (1919) 
द्वारा ई॰ मार्सडेन

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११—बुद्धमत।

१—बुद्ध जी का मत ऐसा अच्छा और उनका जीवन ऐसा शुद्ध था कि बहुत से मनुष्य उनके अनुगामी हो गये। क्या धनी, क्या कङ्गाल, क्या बड़ा क्या छोटा, स्त्री पुरुष, हर जाति और धर्म के [ ५६ ] लोगों ने इनके मत को धारण किया। साधारण मनुष्यों पर इनके धर्म का बड़ा अच्छा फल पड़ा, कारण यह कि इनका कथन था कि मेरे माननेवाले कुल स्त्री, पुरुष जो सच बोलें शुद्ध रहें और पाप से बचते रहें वह बराबर हैं और मोक्षपद को पहुंच सकते हैं।

२—बुद्ध की शिक्षा का सारांश यह है कि मनुष्य को चाहे लोक चाहे परलोक में उसके कर्मों का फल मिलता है पाप करने से दुख दर्द मिलता है और अच्छे कामों से सुख। बुद्ध जी का कथन है कि लाख बलिदान, यज्ञ और हवन करो कि देवता प्रसन्न हों पर इससे अपने किये हुए पाप का नाश नहीं कर सकते। करोड़ जप करवाओ और मन्त्र पढ़वाओ पर इससे कभी तुम्हारी राह नहीं सुधर सकती। जो बोयेगा सो काटेगा, जैसा करेगा वैसा भरेगा। वह यह भी कहते थे कि मरने के पीछे मनुष्य की आत्मा कर्मों के अनुसार और और योनियों में जाती है और बारम्बार जन्म लेती और मरती है। आत्मा को मोक्ष उस समय मिलता है जब मनुष्य पाप के फन्दे से निकल जाय, दुख दर्द और काम क्रोध मद लोभ से रहित हो जाय, न दुख को दुख जाने न सुख को सुख। मित्र और बैरी दोनों को बराबर समझे। ऐसी दशा को बुद्ध जी निर्वाण कहते हैं। इस दशा को पहुंच कर आत्मा आवागमन से छूट जाती है, ऊंची नीची योनियों में मारी मारी फिरने से बची रहती है, भवसागर को पार करके शान्ति के कुंज में निवास करती है। अब आत्मा अचल और अटल हो जाती है और इसको परम आनन्द मिल जाता है।

३—बुद्ध जी के चेले जो संसार को छोड़ कर जप तप करने की अभिलाषा करते थे भिक्षु कहलाते थे और स्त्रियां जो घर बार छोड़ कर तपस्विनी हो जाती थी भिक्षुणी कहलाती थीं। इनके रहने के लिये बस्तियों से दूर बहुधा पहाड़ों के खोह में बिहार बनवा दिये [ ५७ ] जाते थे। यहां भिक्षु और भिक्षुणियां जप तप और पढ़ने लिखने में अपना समय व्यतीत करती थीं। यह सब सिर मुड़ाते थे गेरुआ वस्त्र पहिनते थे और भिक्षा पर निर्बाह करते थे। मगधदेश में इस भांति के बहुत से बिहार थे इस कारण उस प्रान्त का नाम ही बिहार हो गया।

अजन्ता की खोह में भिक्षुओं का स्थान।

४—बुद्ध जी अपने चेलों को यही शिक्षा दिया करते थे कि तुम भी मेरी राह पर चलो और दूसरों को इसी राह पर लाने का उद्योग करो। वह इसी सलाह पर चले यहां तक कि बुद्ध जी के जीते जी हज़ारों हिन्दू उनके मत के अनुगामी हो गये। इनमें से मगध देश के राजा बिम्बिसार भी थे। धीरे धीरे यह मत यहां तक बढ़ा कि हज़ार बरस तक भारत में सबसे अधिक बढ़ती इसी की रही। [ ५८ ]५—बुद्ध जी की मृत्यु के पीछे ईसा से ४७७ बरस पहिले उनके ५०० चेले इकट्ठे हुए। उनकी इच्छा यह थी कि अपने गुरु के कहे हुए वाक्यों का संग्रह करें। जब उनके समस्त वाक्य इकट्ठा कर लिये गये तो सबों ने उनको कंठ कर लिया और उनको तीन भाग में जिनको त्रिपिटक कहते हैं अलग अलग किया। पहिले पिटक में वह उपदेश हैं जो बुद्ध जी ने अपने चेलों को दिये थे। दूसरे में वह धर्म्म हैं जिनके अनुसार मनुष्य को रहना उचित है। तीसरे में बुद्ध मत के धर्म्म का वर्णन है। यह बुद्धमतवालों की पहिली सभा थी। इसके सौ बरस पीछे प्रायः ३७७ बरस ईसा से पहिले ७०० भिक्षुओं की दूसरी सभा हुई। इसमें वह मतभेद की बातें जो इस समय में उत्पन्न हो गई थीं तै की गईं। इसके २३५ बरस पीछे मगध के प्रसिद्ध सम्राट महाराज अशोक ने पटने में तीसरी सभा की। चौथी और अन्तिम सभा महाराज कनिष्क ने इसके ३०० बरस पीछे इकट्ठी की। यह शक जाति के राजा थे और उत्तर-पश्चिमीय भारत पर राज करते थे।

६—इस हज़ार बरस के समय को, अर्थात् ३०० बरस ईसा के पहिले से लेकर सन् ७०० ई॰ तक, बुद्धमत का समय कह सकते हैं क्योंकि इस काल में यह मत बढ़ते बढ़ते सब मतों से बढ़ गया था।