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भारतवर्ष का इतिहास/१७—पौराणिक समय के हिन्दू महात्मा

विकिस्रोत से
भारतवर्ष का इतिहास
ई॰ मार्सडेन

कलकत्ता, बंबई, मद्रास, लंदन: मैकमिलन एंड कंपनी लिमिटेड, पृष्ठ ८१ से – ८५ तक

 

१७—पौराणिक समय के हिन्दू महात्मा।

१—पौराणिक समय में कई हिन्दू महात्मा हुये जिन्हों ने विष्णु और शिव की पूजा के प्रचार में बड़ा परिश्रम किया। इन लोगों के उद्योग का यह परिणाम हुआ कि बुद्धमत हिन्दुस्थान से नष्ट हो गया और उसकी जगह हिन्दू धर्म स्थापित हो गया।

२—इन महात्माओं में सब से पहले शङ्कराचार्य्य हुए। इनका जन्म दक्षिण में समुद्र के तीर मलयवार देश में हुआ था। कुमारिलभट्ट, जो बड़े पण्डित थे और बिहार से दखिन में बौद्ध धर्म को हटाने और अपना धर्म फैलाने आये थे, इनके गुरु थे; इन्हों ने सारे भारतवर्ष में अपने धर्म की घोषणा की और केवल ३२ बर्ष की अवस्था में केदारनाथ तीर्थ पर जो हिमालय पहाड़ पर है परलोक सिधारे। यह शिवजी के उपासक थे और शिव और पार्वती की पूजा करते थे। पार्वती को हिन्दू लोग दुर्गा भी कहते हैं और तूरानी वंश के हिन्दू जो आर्य वंश से नहीं हैं इनको काली के नाम से पूजते हैं। दक्षिण में शङ्कराचार्यमतवाले स्मार्त के नाम से प्रसिद्ध हैं।

शङ्कराचार्य ने श्रीगिरि पर एक मठ बनाया था। यह पहाड़ी पश्चिमीय घाट का एक भाग है जो मैसूर राज्य में पड़ती है। यहां से तुंगा नदी निकलती है। स्मार्त सम्प्रदाय का गुरु अब भी इस मठ में रहता है और लाखों शैवों का आचार्य है।

रामानुज स्वामी


शङ्कराचार्य ने तीन मठ और बनाये थे,—एक हिमालय में बद्रीनाथ पर दूसरा काठियावाड़ के द्वारका तीर्थ में और तीसरा उड़ीसा की जगन्नाथ पुरी में।

३—स्वामी रामानुज का ११५० ई॰ के लगभग एक गांव में हुआ था। वह गांव अब नहीं है और उसकी जगह अब मद्रास नगर बसा है। लड़कपन ही में इनके पिता ने इनको कांची भेज दिया जिसको आज कल कांजीबरम् (काञ्चीपुरम) कहते हैं। कांची उस समय चोल वंश की राजधानी थी। यहां के प्रसिद्ध पण्डित और विद्वानों से शास्त्र पढ़कर त्रिचनापली के पास श्रीरंगपत्तन में आ पहुंचे जहां उन्हों ने वैष्णव धर्म का प्रचार किया और इस धर्म की उन्नति करने के लिये संस्कृत भाषा में कुछ ग्रन्थ भी रच डाले।

४—कुछ दिन पीछे स्वामी रामानुज दक्षिण से चले और सारे भारतवर्ष में फिरे। जहां जाते शैवमत के बिरुद्ध वैष्णव धर्म सिखाते। चोलाका राजा शैव था उसने इनको मरवाना चाहा। स्वामीजी इस पर मैसूर चले गये। यहां एक जैनी राजा थे। वह इनके उपदेश से श्रीवैष्णव हो गये। रामानुज ब्राह्मणों और ऊंची जाति के हिन्दुओं को उपदेश देते थे। इनके सम्प्रदायवाले श्रीवैष्णव कहलाते हैं और इनका गुरु कांची (कांजीवरम्) में रहता है।

रामानुज के १०० बरस पीछे इनके सम्प्रदाय में एक बड़े प्रसिद्ध महात्मा रामानन्द हुए जिन्हों ने उत्तर भारतवर्ष में विष्णु को परमेश्वर मानकर अपना धर्म चलाया। यह बनारस के रहनेवाले थे पर आस पास के देशों में बहुत घूमते थे और बहुधा नीच जातियों को उपदेश देते थे। इस सम्प्रदाय के ग्रन्थ हिन्दी भाषा में हैं। स्वामी रामानन्द के बारह चेले थे; सब के सब नीच जाति के थे

कबीर साहेब का जन्म १३८० में हुआ और १४२० में इनका देहान्त हो गया। स्वामी रामानन्द के १२ चेलों में से एक यह भी थे। इन्हों ने भी अपने गुरु के मत के अनुसार विष्णु भगवान् को परमेश्वर माना और उन्हीं के भजन का उपदेश दिया। इनके समय में मुसल्मान उत्तर हिन्द में फैल गये थे। कबीर साहेब ने हिन्दू मुसलमानों के धर्म को एक करने का बड़ा उद्योग किया।

५—कबीर साहेब जातिपांत के भेद और मूर्तिपूजा के विरोधी थे और मूर्तिपूजा को पातक मानते थे। दोनों विषयों पर आप उपदेश देते फिरते थे। वह कहते थे कि ईश्वर एक है, हिन्दू मुसल्मान दोनों को उसकी बन्दगी करनी चाहिये; ईश्वर घटघटव्यापी है, मन्दिरों और मसजिदों में नहीं रहता। कबीर जी संसार के धंधों को मायाजाल कहते थे। उनका मत यह था कि जीवात्मा जब तक ईश्वर को पहिचान कर उसके प्रेम में मग्न न हो जाय उसको शान्ति नहीं मिल सकती।

कबीर

प्रसिद्ध है कि जब कबीर साहेब मरे तो हिन्दुओं ने कहा कि यह हिन्दू थे इनकी दाहक्रिया होनी चाहिये और मुसल्मानों ने कहा कि यह मुसल्मान थे इनको हम गाड़ेंगे; जब कफन हटाकर देखा तो थोड़े से फूलों को छोड़ कुछ न था। आधे फूल हिन्दुओं ने लिये और अपने तीर्थ काशी में उन पर एक छतरी बनवा दी। आधे मुसल्मान ले गये और उन्हें धूम धाम से गाड़ दिया।

चैतन्य महाप्रभु १४०६ ई॰ में जन्मे और १५२७ में मर गये। यह विष्णु के उपासक और जगन्नाथजी के भक्त थे, और इन्हीं की भक्ति का उपदेश बङ्गाले और उड़ीसा में करते रहे। यह बङ्गाली ब्राह्मण थे पर इनके मरने पर इनके सम्प्रदायवाले इनको परमेश्वर का अवतार बताने लगे। बुद्धजी की नाईं इनका भी यह मत था कि परमेश्वर की भक्ति से ऊंची और नीची सब जाति के लोग पवित्र हो जाते हैं और परमेश्वर के छोटे से छोटे जीव को मारना महापाप है। बल्लभ स्वामी १५२० ई॰ के लगभग उत्तर हिन्दुस्थान में प्रगट हुए। चैतन्य के पीछे इन्हों ने भी विष्णु की उपासना का उपदेश किया।

वल्लभ स्वामी

यह श्रीकृष्ण को विष्णु का अवतार बताते थे और कहते थे कि विष्णु उन लोगों से प्रसन्न नहीं होते जो तपस्या करते, व्रत रखते या घरबार छोड़ कर जङ्गलों और पहाड़ों में रहते हैं। भगवान उन्हीं से प्रसन्न रहते हैं जो संसार के बिषयों को भोगते और सुख से अपने दिन बिताते हैं। इनके चेले बहुधा धनी साहूकार होते हैं जिनके पास भोग बिलास की सामग्री भी है और जो उसे भोगने की इच्छा भी रखते हैं।