भारतवर्ष का इतिहास/२०—महमूद ग़ज़नवी

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भारतवर्ष का इतिहास  (1919) 
द्वारा ई॰ मार्सडेन

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२०—महमूद ग़ज़नवी।
(९९७ ई॰ से १०३३ ई॰ तक)

१—अब से ८०० ई॰ पहिले अफ़ग़ानी और तुर्किस्तानी जातियां भारत में उसी तरह आ रही थीं जैसे पहिले कभी आर्य यूनानी या सिथियन आये थे। इस समय अरबवालों को पूर्व और उत्तर देशों के जीतने के लिये घर से निकले ३५० बरस बीत चुके थे। तुर्किस्तान, फ़ारस और अफ़ग़ानिस्तान के रहनेवाले सब मुसलमान हो गये थे। अरबवालों के बहुत कुल उनमें बस गये थे। इन लोगों के मन में भी वही उत्साह था जो अरबवालों में था।

२—इस समय अफ़ग़ानिस्तान का बड़ा शहर गज़नी था और एक तुर्क जिस का नाम महमूद था यहां का बादशाह था। इसका बाप पंजाब के राजा जयपाल से कई बार लड़ा और उसको जीत कर गज़नी और सिन्ध के बीच का राज्य अपने आधीन कर लिया। भारत की गिनती उस समय संसार में धनी और भरे पूरे देशों में होती थी। इस के व्यापार की श्रेणी अपने पड़ोस के देशों से मिलती हुई यूरोप तक पहुंचती थी। बड़ा बड़ा महंगा सामान यहां से ऊंटों पर लदकर अफ़ग़ानिस्तान के दर्रों की राह दूर दूर देशों में जाता था। महमूद ने अपने लड़कपन ही से ऐसे व्यापारी अपने बाप के राज्य से होकर जाते देखे थे। व्यापारियों से बातें किया करता था, और वह इस से कहा करते थे कि हिन्दुस्थान में बड़े बड़े शहर हैं, और बड़े बड़े [ ९३ ] मन्दिर हैं जिनके धन सम्पत्ति का वारापार नहीं। महमूद यह कहता था कि जब मैं बड़ा होकर बादशाह हो जाऊंगा तो हिन्दू राजाओं से लडूंगा।

३—तीस बरस की उमर में महमूद सिंहासन पर बैठा। और जो कुछ यह पहिले कहा करता था वह सब इसने करके दिखा दिया। जब तक बरसात रही और दर्रे बरफ़ से भरे ढके थे यह चुप चाप बैठा रहा। इस के पीछे दल बादल से भारत पर चढ़ आया और लूट का माल लाद कर ले जाने को बहुत से ऊंट और घोड़े अपने साथ लाया। भारत में आते ही उसने देखा कि जयपाल जो उसके बाप से लड़ चुका था उसका सामना करने को तैयार है। पर महमूद और उसके पठान साथियों ने जयपाल को भगा दिया और बहुत सा धन लूटकर गज़नी ले गया। जयपाल ग्लानि के मारे अपना राज अपने बेटे अनङ्गपाल को सौंप कर आप जीते जी चिता पर बैठ गया और जलकर मर गया।

४—अनङ्गपाल ने देखा कि हिन्दुस्थान को हर घड़ी बाहरी दुष्टों का डर है। उसने उज्जैन, गवालियर, कन्नोज, दिल्ली और अजमेर के राजाओं के पास यह सन्देश भेजा कि महमूद अगले बरस फिर भारत पर धावा मारेगा; सब लोग मिलकर उसका सामना करें। राजाओं ने मान लिया और राजपूत दलबादल समेत पंजाब में पहुंच गये। पर ठंढे देश के पठान गरम देश के रहनेवाले राजपूतों से अधिक बली थे। लड़ाई में राजपूतों के पैर उखड़ गये। महमूद ने आगे बढ़कर नगरकोट का मन्दिर लूटा; चांदी सोना हीरा मोती के ढेर जो बरसों से धार्मिक हिन्दुओं के चढ़ाये थे सब लूट खसोट कर ग़ज़नी ले गया।

५—ग़ज़नी पहुंच कर महमूद ने बड़े भारी भोज का सामान [ ९४ ] किया। सारे अफ़गानों को बुलाया; तीन दिन तक सब की दावत की और हिन्दुस्थान से जो हीरा मोती रेशम, कमख़ाब, सोना, चांदी लूट कर ले गया था चौकियों पर सजाकर सब को दिखाया। सरदारों और अमीरों का तो कहना ही क्या है उन को बड़े दाम की चीजें भेंट दी गईं पर ग़रीब अफ़गान भी कोई ऐसा न था जो उस दावत से खाली हाथ गया हो और जिसने अच्छी भेंट न पाई हो।

६—महमूद ऐसी ही रीति से लालच दिखा कर फुसलाकर पठानों को हिन्दुस्थान पर चढ़ा कर लाया था। परिणाम यह हुआ कि उसके उत्साह का समुद्र उमड़ा पड़ता था। जब जब आता उसके पांव आगे ही पड़ते थे। जहां कहीं किसी धनी, शहर या मन्दिर का पता पाता अपनी पल्टन लेकर चढ़ दौड़ता; मन्दिर ढहवा दिये, मूर्तियां तोड़ीं; पुजारियों का सैकड़ों बरस का जोड़ा बटोरा धन लूट लिया। राजपूत राजा आपस में लड़ते थे पर मन्दिरों के माल पर हाथ न डालते थे। इस कारण हज़ारों बरस से मन्दिरों में ढेर का ढेर धन इकट्ठा हो गया था। ईरानी और अफ़ग़ान इस धन को लूटने के लिये उधार खाये बैठे थे। जहां महमूद ने हिन्दुस्थान पर धावा मारने के लिये पल्टन इकट्ठी करने का हुकुम दिया यह लोग आंधी की तरह उठे और चले आये। फिर महमूद की चढ़ाइयों में पल्टन न बढ़ती तो क्या होता।

७—महमूद सब से पिछली बार १०२४ ई॰ में हिन्दुस्थान पर चढ़ आया और सोमनाथ के मन्दिर पर पहुंचा। यह गुजरात देश में बहुत पुराना और बड़ा मन्दिर था; और अपने असंख्य धन के लिये हिन्दुस्थान में प्रसिद्ध था। सिन्ध के रेतीले देश में साढ़े तीन सौ मील की यात्रा करके महमूद इस मन्दिर पर चढ़ [ ९५ ] दौड़ा और हिन्दुओं की एक बड़ी सेना को जो इस मन्दिर के बचाने के लिये उसके सामने आई थी मार कर भगा दिया। जब वह मन्दिर में घुसा तो पुजारियों ने डरते कांपते यह बिनती की कि आप हमारे देवता की मूर्ति को छोड़ दें तो हम आप को बहुतसा धन दें। महमूद ने न माना और बोला कि मैं मूर्ति तोड़ने आया हूं मूर्ति बेचने नहीं और इतना कहकर उसने अपनी लोहे की गदा इतने ज़ोर से मारी कि मूर्ति के टुकड़े टुकड़े हो गये।

८—यहां से अफ़ग़ानिस्तान लौट जाने के पीछे महमूद मर गया। यह आप भारत में न ठहरा पर एक सेनापति को पंजाब का हाकिम बना कर लाहौर में छोड़ गया। हिन्दू लोगों ने डेढ़ सौ बरस तक इस देश से मुसलमानों के निकालने का उपाय किया। पर महमूद के स्थानापन्न पठान लाहौर में जमे बैठे रहे और पंजाब से बढ़ते बढ़ते गङ्गा के मैदान में पहुंचे और वहां के बड़े बड़े नगर उन्होंने लूट लिये। इन बादशाहों की दो राजधानियां थीं। एक ग़ज़नी दूसरा लाहौर।

९—महमूद बड़ा बीर था और अपने समकालीन पठानों की तरह निर्दयी और दुष्ट न था, लड़ाई के बन्दियों को मारता न था। अफ़गानिस्तान के राज्य का प्रबन्ध उसने बहुत अच्छा किया। हिन्दुस्थान के धन से उसने ग़ज़नी नगर में बड़े बड़े महल और मकान बनवाये और उसकी शोभा बढ़ाई। बहुत से कवि और गुणी लोग दूर देशों से ग़ज़नी में आकर बसे। पर वह लोभी और कंजूस था। फ़िर्दौसी कवि के साथ जो उसने चाल चली वह बड़ी ही अनुचित थी। महमूद ने फ़िर्दौसी से शाहनामा रचने को कहा और एक शेर पीछे एक अशर्फी देने की प्रतिज्ञा की। तीस बरस कड़ा परिश्रम कर फ़िर्दौसी साठ हज़ार शेर लिख लाया। [ ९६ ] महमूद एक पुस्तक के लिये साठ हजार अशर्फ़ियां देने में आगा पीछा करने लगा और अशर्फ़ियों के बदले साठ हज़ार चांदी के दीनार देने लगा। फ़िर्दौसी ने दीनार लेना स्वीकार न किया और निराश होकर अपने देश को चला गया। कुछ दिन पीछे महमूद अपनी चाल पर पछताया और साठ हज़ार अशर्फियां देकर एक दूत को फ़िर्दौसी के घर भेजा। कहते हैं कि जिस घड़ी महमूद का दूत अशर्फ़ियां लेकर शहर में पहुंचा उसी घड़ी फ़िर्दौसी का अन्तकाल हो गया।