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भारतवर्ष का इतिहास/३६—अकबर (उत्तरार्द्ध)

विकिस्रोत से
भारतवर्ष का इतिहास
ई॰ मार्सडेन

कलकत्ता, बंबई, मद्रास, लंदन: मैकमिलन एंड कंपनी लिमिटेड, पृष्ठ १६९ से – १७८ तक

 

इतना ही नहीं, वह साफ़ साफ़ कहता है कि मैंने यह एक पुण्य किया है। जब अकबर ने यह समाचार सुना तो कहा कि सलीम को राज की अभिलाषा थी तो मुझे क्यों न मारा अबुलफ़जल को क्यों मारा?


३६—अकबर (उत्तरार्द्ध)।

१—अकबर का रूप कैसा था? वह कौनसी भाषा बोलता था? अकबर लम्बे डील डौल का था रूपवान पुरुष था उसकी छाती चौड़ी और हाथ लम्बे थे; आंखैं और बाल काले और मुंह गोरा और लाल था परन्तु अवस्था बढ़ने पर सांवला पड़ गया था। यह आधा ईरानी और आधा तुर्क होने के कारण फ़ारसी और तुरकी दोनों भाषाएं बोल सकता था; शरीर का पुष्ट था, घोड़े की सवारी बहुत पसन्द करता था, पैदल चलता था दिन भर में बहुधा तीस चालीस मील की यात्रा करता था, बन्दूक का निशाना लगाने में बड़ा चतुर था। उसके पास बहुत सी बन्दूकें थीं जिनमें से सबके अलग अलग नाम थे। दुरुस्त अन्दाज़ अर्थात ठीक निशाना लगानेवाली बन्दूक़ के बारे में पहिले ही कहा जा चुका है। यह वही बन्दूक़ है जिससे अकबर ने चित्तौड़ में जयमल को मारा था। इस बन्दूक़ से अकबर १९०० जन्तु मारे थे। यह आप दाढ़ी नहीं रखता था और औरों के दाढ़ी देखकर प्रसन्न नहीं होता था। यह गौ मांस और प्याज़ नहीं खाता था। कारण यह था कि उन वस्तुओं से वह घृणा करता था जिनसे उसकी हिन्दू स्त्रियां और हिन्दू मित्र घृणा करते थे। इसी कारण उसने आज्ञा दी थी कि कोई गोहत्या न करे।

२—ज्यों ज्यों आयु बढ़ती जाती थी अकबर का हृदय कोमल होता जाता था। उसे बहुत से युद्ध करने पड़े परन्तु उसने कभी कोई देश नहीं उजाड़ा और न कहीं प्रजा ही को लूटा मारा। छोटी अवस्था में सलीम बड़ा निर्दयी था। एक बार अकबर ने सुना कि सलीम ने जीते जी किसी की खाल खिंचवा ली। अकबर कहने लगा, आश्चर्य्य है कि जो मनुष्य मरी बकरी की खाल खीचते देखकर अत्यन्त दुखी होता है उसका पुत्र क्योंकर किसी जीते मनुष्य पर ऐसा अत्याचार करता है?

३—अकबर की शिक्षा मुसलमानी रीति के अनुसार हुई थी परन्तु हिन्दुओं के लिये बड़ा कोमल और दयालु था। यह कहा करता था कि हर मत में भलाई और सत्य पाया जाता है। उसका बचन था कि जो ईश्वर से प्रेम रखता है वह हर जगह उसका दर्शन कर सकता है, मुसलमान मसजिद में हिन्दू अपने मन्दिर में और ईसाई गिरजे में। अकबर के राज में हर मनुष्य को अधिकार था कि जो मत पसन्द करे उस पर चले। उसके सिक्के पर फ़ारसी में एक शेर लिखा था जिसका अर्थ यह है कि, "सच बोलना ईश्वर को प्रसन्न करने का उपाय है। मैंने किसी को सचाई की राह में भटकते नहीं देखा।" उसकी अभिलाषा थी कि अपनी राजसभा में हर मत के विद्वानों को बुलाये। बहुधा गुरुवार की सन्ध्या को वह उन विद्वानों को आज्ञा देता कि अपने धर्म के पुष्ट करने के लिये व्याख्यान दें। सुन्नी, शिया, ब्राह्मण, पारसी, ईसाई और यहूदी बारी बारी अपने अपने धर्म का मण्डन करते थे। इन सब शास्त्रार्थों के पीछे अकबर ने एक नया मत निकाला; इसका नाम दीन इलाही (ईश्वरीय धर्म) रक्खा। जिस धर्म की जो बात पसन्द आई वही अकबर ने अपने मत में रखली। इस धर्म की शिक्षा यह थी कि ईश्वर एक है और अकबर उसका खलीफ़ा या दूत है। अकबर कहता था कि कोई मनुष्य ईश्वर का कर्तव्य देखना चाहे तो सूर्य, अग्नि और तारे मौजूद हैं। जिस भांति प्राचीन आर्यलोग उनका पूजन करते थे तुम भी कर सकते हो। पर अकबर ने कभी किसी पर दबाव नहीं डाला कि वह इस नये मत को माने। कुछ लोगों ने केवल यह बिचार कर कि अकबर प्रसन्न होगा इस दीन को स्वीकार कर लिया था पर उसकी मृत्यु के पीछे कभी ऐसा नहीं सुना गया। अकबर के शान्त स्वभाव होने का एक कारण यह भी था कि उसके महल में बहुत स्त्रियां ऐसी थीं जो मुसलमान न थीं। हर हिन्दू स्त्री के लिये एक अलग मन्दिर था और हर मन्दिर का अलग पुजारी था। उसको अधिकार था कि जिस भांति चाहे अपने देवता की पूजा करे। आप भी कभी कभी माथे पर तिलक लगा लेता और गले में जनेऊ धारण कर लेता था।

अकबर हिन्दू के रूप में।

४—अन्तिम अवस्था में अकबर कुछ बुद्धिहीन सा हो गया था। और अपने आप को और मनुष्यों से बढ़ कर समझता था। एक मुल्ला ने उसकी बुराई में एक शेर लिखा था जिसका अर्थ यह था कि इस बरस सम्राट पैग़म्बर होने का दावा करता है दूसरे बरस अपने को ईश्वर ही कहेगा। अब जो सिक्का उसने जारी किया उसपर अल्लाह अकबर के शब्द लिखे थे। उनका अर्थ यह हो सक्ता है कि ईश्वर बड़ा है और यह भी हो सकता है कि अकबर ईश्वर है। फैज़ी पहिले ही अपनी कविता में कह चुका था कि "तुमने अकबर को देख लिया तो स्वयं ईश्वर को देख लिया"। फिर कट्टर मुसलमान, जैसे विद्वान और मुल्ले, क्यों कर अकबर से अप्रसन्न न होते? उनमें से बहुतेरों ने सलीम को भड़का कर, जैसा पहिले कहा जा चुका है, अकबर का विद्रोही कर दिया।

मानसिंह।

५—अकबर आप विद्वान न था। एक समय तो ऐसा था कि वह लिख पढ़ भी न सकता था। कारण यह था कि बाल्यावस्था में जिस निर्दयी चचा के यहां वह बन्दी था उसने उसकी शिक्षा पर ध्यान ही नहीं दिया। हां अकबर की यह चाह थी कि किसी पढ़े लिखे को पास बैठा कर उससे पुस्तकें पढ़वाता जाता और आप सुनता था। उसने एक बड़ा पुस्तकालय बनवाया था जिसमें लगभग पांच हजार पुस्तकें थीं। उसको चित्रकारी से बड़ा प्रेम था। बहुत से चित्र उसके यहां मौजूद थे। कविता और गाना सुन कर भी बहुत प्रसन्न होता था।

६—अकबर की राजसभा में उस समय के सुप्रसिद्ध विद्वानों का जमघट रहता था और उन्हीं की सहायता से वह हिन्दू और मुसलमान दोनों को मिलाये रहता था। हम पहिले ही कह चुके हैं कि राजा भगवान दास और जयपूर नरेश मानसिंह दोनों अकबर की सेना के सेनापति थे। मानसिंह पहिले बङ्गाले का सूबेदार हुआ, फिर बिहार का, फिर दखिन का, और अन्त में काबुल का। उसने उड़ीसा को जीत कर अकबर के राज में मिला लिया। अकबर का अपने सैनिक अफ़सरों में सब से अधिक विश्वास मानसिंह ही पर था। मुसलमान अफ़सरों में अकबर के सब से बड़े विश्वास पात्र दोनों भाई शेख अबुलफ़ैज़ी और शेख अबलफ़ज़ल थे।

राजा भगवान दास।

फैज़ी अकबर की राजगद्दी के बारहवें बरस उसकी सेवा में आया उसके छः बरस पीछे अबुलफ़ज़ल जो केवल अठारह बरस का था सम्राट के सन्मुख लाया गया और तत्काल राज सभासदों में भरती हो गया। दोनो भाई तनमन से अकबर को चाहते थे और उसी के धर्म में भी थे। अकबर भी उनका बड़ा सम्मान करता था। इस स्नेह और विश्वास के कारण अबुलफ़ज़ल तो जीताही बलिदान हो गया। सलीम इस बात को न देख सकता था कि मेरा पिता किसी दूसरे पर मुझ से अधिक विश्वास करे। जैसे जैसे दिन बीतते गये, डाह की अग्नि उसके हृदय में और अधिक भड़कती गई। अन्त में सलीम ने उसे मरवा ही कर छोड़ा।

७—फ़ैजी बड़ा विद्वान था। संस्कृत और फ़ारसी भाषायें भली भांति जानता था। उसने संस्कृत की बहुत सी पुस्तकों का फ़ारसी में अनुवाद किया है। उसने कविता भी फ़ारसी में बहुत की है और अपने भाई के कार्य्य में भी बहुत सहायता दी। आधी रात का समय था कि अकबर को सूचना मिली कि फ़ैज़ी परलोक सिधारनेवाला है। तत्काल उसके समीप गया और सेज के निकट दोनों घुटनों के बल बैठकर धीरे धीरे फ़ैज़ी के सिर को अपने हाथ से उभारा और कहने लगा कि, हे शेख़ जी, हे मेरे मित्र, आप को दिखाने के लिये मैं हकीम साहब को लाया हूं। परन्तु फ़ैज़ी संसार में हो तो बोले। उसकी आत्मा तो परलोक पहुंच चुकी थी अकबर ने पगड़ी सिर से उतार कर फेंक दी और धाड़ मार मार कर रोने लगा।

अबुलफ़जल।

८—अबुलफ़जल अकबर का जन्म का मित्र और बड़ा भारी विद्वान था। वह बड़ा सूर बीर योद्धा और दांव घात का पक्का सेनापति भी था। यह सब से बड़ी सैनिक पदवी को पहुंचा और धीर धीरे प्रधान मंत्री हो गया। अकबरनामा जिसे अकबर के राज का इतिहास कहना चाहिये इसी का लिखा है। उसका एक भाग आईने अकबरी के नाम से प्रसिद्ध है। उसमें केवल व्यवहार ही का बर्णन नहीं है परन्तु उसमें अकबर की राज सभा का पूरा हाल दिया हुआ है। आधीन देशोंका विस्तार के साथ बर्णन किया है। राजके प्रबन्ध की रीति भी दी हुई है। सारांश यह है कि अकबर के राज का बर्णन पूरा पूरा दिया है। अबुलफज़ल अकबर में कोई अवगुण न देखता था इस कारण आरम्भ से अन्त तक सम्राट की प्रशंसा ही प्रशंसा सुनाई देती है।

८—राजा टोडरमल पंजाब प्रान्त का हिन्दू था; इससे पहले बहुत दिनों तक शेरशाह के यहां नौकर रह चुका था; गणितविद्या में बड़ा चतुर था। भूमि के बन्दोबस्त और लगान लेने के नियमों में, राजसभा में कोई भी ऐसा चतुर न था जैसा कि यह था। न केवल वह लगान ही के मामले में निपुण था परन्तु सैनिक विद्या में भी कम न था। कई बार सेना साथ लेकर युद्ध पर, या किसी प्रान्त का सूबेदार करके भेजा गया।

राजा टोडरमल।

उसी की सम्मति और बुद्धि का परिणाम था कि अकबर ने लगान के नियम बनाये। सारा देश नापा गया और उपज के बिचार से सारी भूमि आठ भांति पर बांटी गई। घटिया पर थोड़ा लगान लगाया गया। इससे पहले बटाई के नियमानुसार लगान लिया जाता था। अर्थात उपज का कुछ भाग सरकार ले लेती थी, कुछ किसान के पास रह जाता था। टोडरमल ने यह रीत निकाली कि अनाज की जगह किसान रुपया दिया करें। तहसीलदारों और लगान लेनेवालों का वेतन नियत हो गया। इससे यह हुआ कि प्रजा केवल लगान देती थी। तहसीली अफ़सरों और कर्मचारियों की भेंट पूजा से छूट गई थी। हर दसवें बरस नया बन्दोबस्त होता था। कुछ और कर जो प्रजा को अखरते थे छोड़ दिये जाते थे।

१०—सारा बशीभूत देश १५ सूबों में बँटा था। हिन्दुस्थान के बारह और दखिन के तीन। उनके नाम यह हैं,—काबुल, लाहोर, मुलतान, इलाहाबाद, अवध, बिहार, बंगाला, अजमेर, गुजरात, बरार, ख़ानदेश, अहमदनगर। अहमदनगर सम्पर्ण रूप से शाहजहां के समय में जीता गया। हर प्रान्त में एक सेनापति होता था जो पीछे सूबेदार कहा जाता था। उसके आधीन एक दीवान होता था जिसके हाथ माल का काम रहता था।

एक फौज़दार, एक कोतवाल, एक मीरेअदल अर्थात न्यायाधीश और एक काज़ी भी होता था।

११—अकबर के राज में प्रजा का क्या हाल था? प्रजा ऐसी सुखी और निश्चिन्त रहती थी कि पहिले कभी न थी। पठान बादशाहों के राज्य की अपेक्षा अब कर बहुत कम लगता था। जो महसूल मुसलमानों को देने पड़ते थे वही हिन्दुओं को भी। पहिले जज़िया मुसलमानों के सिवाय और सब से लिया जाता था। अकबर ने जज़िया लेना बंद कर दिया। तीर्थयात्रा करनेवालों से जो महसूल लिया जाता था वह भी छोड़ दिया गया।

१२—हर मनुष्य को अधिकार था कि जिस धर्म पर चाहे चले और जिस भांति उसकी इच्छा हो रहे। कोई किसी को दुख देनेवाला न था। किसी को किसी का भय न था। हां हिन्दुओं के यहां जो सती की रसम थी उसको अकबर ने जहां तक हो सका रोका।

१३—अकबर और दूसरे मुग़ल सम्राटों के समय में प्रजा और देशके प्रबन्ध का कोई ठीक क्रम न था। सम्राट को अधिकार था जो चाहे सो करे। जो सम्राट अकबर की नाईं अच्छा होता तो राज का प्रबन्ध अच्छा होता और जो अच्छा न होता तो देश की दशा शोचनीय हो जाती। अकबर सारा राजकाज अपने हाथों में रखता था; जो चाहता सो करता था; उसकी आज्ञा की अपील न थी। अङ्गरेज़ी राज में चाहै हिन्दू हो चाहै अङ्गरेज़ सब के लिये न्याय का राज है। हर मनुष्य व्यवहार से परिचित है और उसपर चलता है। चाहै वह इङ्गलिस्तान का राजाही क्यों न हो उसे क़ानून के अनुसार उतनाही चलना पड़ता है जितना किसी दीन मंगते को।

१४—मृत्यु के समय अकबर की आयु ६३ बरस की थी। उसने ५१ बरस राज किया। उसके पीछे उसका जेष्ठ पुत्र सलीम राज-सिंहासन पर बैठा।