भारतवर्ष का इतिहास/३९—औरङ्गजेब

विकिस्रोत से

[ १८९ ]

३९—औरङ्गजेब।
(१६५८ ई॰ से १७०७ ई॰ तक)

१-यों तो औरङ्गजेब ने भी अकबर की भांति पचास बरस राज किया पर और बातों में अकबर के विरुद्ध था। दस बरस तक तो यह उन राजपूत सरदारों को अप्रसन्न करने से डरता था जो इसके सेनापति थे। पहिले तीन बरस इसने अपने भाई भतीजों के मारने मरवाने में बिताये। जब तक यह न होलिया उसको अपनी कुशल में सन्देह रहा। फिर बाप का भी उसे ध्यान था। जब तक वह जीता था उसे भय था कि कहीं राजपूत लोग उसे फिर सिंहासन पर न बैठा दें। इस कारण उसे इसने आगरे के क़िले में बन्द रक्खा और वहां से १६६६ ई॰ में ७७ बरस की पूरी आयु होने पर वह मर कर ही निकला।

२—औरङ्गजेब अब सुचित होकर सिंहासन पर बैठा और दस बरस तक उन हिन्दुओं और ईसाइयों को जो पहिले बादशाहों के नौकर थे अलग करता गया और उनकी जगह पर [ १९० ] मुसलमानों को नियुक्त किया। अकबर ने बहुत से हिन्दुओं को नौकर रक्खा था और उनपर बहुत दयालु था। राजपूत अकबर पर प्राण देते थे और उन्हों ने उसके राज्य को बड़ा शक्तिमान बना दिया था। अब वही राजपूत औरङ्गजेब से घृणा करने लगे। राजपूत और और हिन्दू उससे लड़े और मुग़ल राज्य को जिसकी नेव अकबर ने डाली थी तहस नहस कर दिया। औरङ्गजेब ने शिया मुसलमानों का भी नाक में दम कर दिया था; बहुत से शियों की जागीरें छीन लीं जो उनको अकबर ने दी थीं।

औरङ्गजेब।

३—औरङ्गजेब स्वच्छप्रकृति और अपने धर्म का पक्का था; मद्यपान और भोगविलास से चिढ़ता था, अपने सुख के निमित्त रुपया नहीं फेंकता था बरन अपने हाथों टोपियां सीकर पैसा कमाता था। बहुत सादे कपड़े पहिनता था। उस समय को छोड़ कर जब वह सिंहासन पर बैठता था और कभी वह चांदी सोने या जड़ाऊ चीज़ नहीं पहिनता था। अकबर की भांति वह भी बड़ा बीर था और सेनापति ऐसा था कि कैसी ही बिकट मुहिम हो न डरता था न झिझकता था।

४—औरङ्गजेब बड़ा कठोर और क्रूर था। यह अपने दबदबे से काम लेता था। राज काज में छोह को अपने पास न फटकने देता था। उसके भय से उसके बेटों के ही प्राण सूखा करते थे। उनमें से एक की तो यह दशा थी कि जब कभी पिता का पत्र [ १९१ ] उसके पास आता था उसे देखते ही पीला पड़ जाता था। औरङ्गजेब आज्ञा टालने को सह नहीं सकता था। जो उसकी आज्ञा से मुंह फेरता उसको वह कभी क्षमा नहीं करता था। सारे सेनाध्यक्ष और कर्मचारी उसके नाम से थर्राते थे।

५—औरङ्गजेब नाच और गाने बजाने से घृणा करता था। सिंहासन पर बैठतेही उसने उन गवैयों और बेसवावों को निकाल दिया जो उसके बाप के समय के नौकर थे। कुछ ही दिन पीछे लोगों ने एक अर्थी बनाई और उसे लेकर रोते पीटते झरोखों के नीचे से निकले। बादशाह ने सिर उठाकर देखा और पूछा कि यह किसका मुर्दा है। उन्हों ने उत्तर दिया कि यह संगीत विद्या का मुर्दा है। हम लोग इसे गाड़ने लिये जाते हैं। बादशाह ने उत्तर दिया कि इसे ऐसा नीचे गाड़ो कि फिर न निकल सके।

६—सम्भव है कि औरङ्गजेब अपने मनही मन में लज्जित हुआ हो कि मैंने अपने बाप और भाइयों के साथ बुरा बर्ताव किया और अपनी हिन्दूप्रजा का चित दुखाया। इसी कारण उसने अपने राज्यकाल में इतिहास लिखने का निषेध कर दिया था। उसके समय का वृत्तान्त जो कुछ कि हम लिखते हैं ख़फ़ी खां के रचे इतिहास से लिया गया है। यह छिपे छिपे और डरते डरते जो कुछ होता गया लिखता रहा। जब तक औरङ्गजेब जीता था इसने अपना लिखा हुआ किसी को नहीं दिखाया। जान पड़ता है कि औरङ्गजेब को अपनी आयु में कभी सुख न मिला और अन्तिम काल में अपनी निठुराई सोच सोच कर वह बड़ा दुखी रहता था। नब्बे बरस की आयु में औरङ्गजेब अपने बेटे को लिखता है कि मैं अपने राज्य का रक्षक नहीं था अब मेरी मृत्यु निकट है; मैं अपने पापों का फल अपने साथ ले जाऊंगा। कौन जानता है ईश्वर मुझे क्या दंड दे। [ १९२ ]७—दखिन को जीतने का ध्यान इसे जन्म भर रहा। बहमनी राज्य के टूटने पर जो पांच रियासतें दखिन में स्थापित हुई थीं इनमें से तीन अर्थात बीदर, बरार और अहमदनगर तो इसके बाप ही के राज में जीती जा चुकी थीं। रही गोलकुंडा और बीजापुर की रियासतें सो उनके जीतने का बीड़ा औरङ्गजेब ने उठाया। पच्चीस बरस तक इसके सेनापतियों ने इन दो पठानी रियासतों के आधीन करने में कठिन परिश्रम किया परन्तु कुछ लाभ न हुआ। अन्त में जब औरङ्गजेब ने देखा कि यह काम करना ही है तो मुझे आप करना चाहिये। यह ठानकर पैंसठ बरस की आयु में दिल्ली से निकला और रणभूमि में ऐसा गया कि वहां से वह फिर दिल्ली लौटकर न आया। उसके राज के अन्तिम पच्चीस बरस दखिन के युद्ध में बीते। बरसों की लड़ाई और मारकाट के पीछे गोलकुंडा और बीजापुर मुग़ल राज्य में मिला लिये गये। उस समय मुग़ल राज्य इतना लम्बा चौड़ा था जैसा पहिले कभी नहीं हुआ था। इन दोनों रियासतों को मिलाकर एक नया सूबा बनाया गया। पहिले पहिल इस सूबे का हाकिम नवाब या सूबेदार कहलाता था पीछे दखिन का निज़ाम कहलाने लगा। हैदराबाद इसकी राजधानी थी।

८—इसी समय मरहठों के छोटे छोटे झुण्डों के आपुस में मिल जाने से एक नई जाति बन गई। बीजापुर के सुलतान ने इनके सर्दारों को दबा रक्खा था। अब औरङ्गजेब को मरहठों के राजा शिवाजी का सामना करना पड़ा। यह पुराने मरहठा सरदारों से बहुत शक्तिमान था। शिवाजी का वृतान्त आगे चलकर एक अलग अध्याय में लिखा जायगा; यहां इतना कह देना उचित है कि औरङ्गजेब शिवाजी को आधीन न कर सका।

८—पंजाब में भी सिक्खों की नई जाति का जन्म हुआ। [ १९३ ] बाबर के समय में गुरु नानक एक महात्मा हो गये थे। हिन्दू मुसलमानों का आपुस में लड़ना इनको अच्छा नहीं लगता था । इन्हों ने कुछ बातें हिन्दू धर्म की लीं और कुछ मुसलमान मत की और दोनों को मिला कर एक नया पंथ चलाया। बहुत से मनुष्य उनके अनुगामी हुए जो सिख (शिष्य) अथवा चेले कहलाये।

नानक।

बाबर और और बादशाहों ने इनसे कुछ छेड़ छाड़ न की। कारण यह था कि यह बड़े शान्त स्वभाव के थे, न कर देने में बखेड़ा करते थे न किसी को सताते थे। पर औरङ्गजेब ने इन्हें बड़ा कष्ट दिया और बहुत से सिक्खों को मरवा डाला। इस कारण इन्हें अपने प्राणों की रक्षा के निमित्त हथियार बांधने पड़े और इनकी एक लड़नेवाली जाति बन गई। औरङ्गजेब ने इनको हरा दिया और इनको भागकर हिमालय में शरण लेनी पड़ी। औरङ्गजेब के मरने पर यह पहाड़ों से लौट आये और उत्तरीय भारत में सब से शक्तिमान हो गये।

१०—मरहठों से लड़ते लड़ते औरङ्गजेब के सैनिक थक गये थे। भोजन करने को अन्न न मिलता था। कूओं में बिष डालदिया गया था। पानी को तरसते थे। बादशाह की आयु अब नब्बे बरस की थी। ऐसा कोई मनुष्य उसके निकट न था जिससे वह कुछ सलाह पूछता। बेटे बाप की कठोरता और बहुत दिन राज करने से चिढ़ गये थे। एक बेटा मरहठों से जा मिला था, एक [ १९४ ] भाग कर फ़ारस चला गया था। अमीर बिगड़े हुए थे। प्रजा धिक्कारती थी। अब समय आगया था कि बादशाह संसार के झगड़ों से मुक्त हो। निदान बुढ़ापे ही के रोग से निर्जीव होकर १७०७ ई॰ में चलता बना। उसके थोड़े ही दिनों पीछे मुग़ल राज भी नष्ट भ्रष्ट होने लगा।