भारतवर्ष का इतिहास/५–रामायण का समय

विकिस्रोत से

[ २५ ]

५—रामायण का समय।

१—जब आर्यों को गंगा यमुना की तरेटी में रहते बहुत दिन बीत गये तो उनमें से कई कुल अपने सरदारों के साथ पूर्व की ओर उस देश में बढ़े जो गंगा और हिमालय के बीच में है और एक एक करके गोमती, घाघरा, गंडक और कोसी नदियों को जो पहाड़ से उतर कर गंगा में मिल जाती हैं, पार कर गये; गंगा के दक्षिण चम्बल और बेतवा को तरेटियों को लांघते विन्ध्याचल पहाड़ तक पहुंच गये और जो देश विन्ध्याचल और हिमालय के बीच में है उसका नाम मध्यदेश रख लिया।

२—भरत और पांचालवंश के सिवाय जो और बड़ी बड़ी जातियां उत्तर हिन्दुस्थान में बसी थीं उनमें से किसी किसी जाति का नाम हम अब भी जानते हैं। जिस प्रान्त को अब अवध कहते हैं वहां [ २६ ]
गंगा और गंडकी नदी के बीच कोशल वंश के क्षत्रिय रहते थे और अयोध्या उनकी राजधानी थी।

जो देश अब बिहार के उत्तर में तिरहुत नाम से प्रसिद्ध है वहां गंडकी के पूर्व विदेहों का राज था और उनकी राजधानी मिथिला थी।

काशी।

जहां गोमती गंगा में आकर मिलती है उसके पास गंगा के तीर पर काशी का राज था और काशी नगरी जिसको अब बनारस कहते हैं और जो हिन्दुओं का बहुत बड़ा तीर्थ है उसकी राजधानी थी।

३—यह अनुमान किया जाता है कि इस प्रान्त पर अपना अधिकार जमाते २०० बरस लगे होंगे। इस काल को रामायण का [ २७ ]समय कह सकते हैं क्योंकि हिन्दुओं के एक बहुत बड़े ग्रन्थ रामायण में जो घटनायें लिखी हैं वह इसी समय की हैं।

४—जिस रूप में रामायण की पोथी अब देखी जाती है वह बहुत पीछे का रचा है जिसे ब्राह्मणों का समय कह सकते हैं। आजकल दो ग्रन्थ रामायण के नाम से प्रसिद्ध हैं एक वाल्मीकि का बनाया दूसरा तुलसीदास का रचा। इनमें वाल्मीकि का ग्रन्थ बहुत पुराना समझा जाता है। परन्तु जिस समय का हाल इसमें लिखा है उस से बहुत दिन पीछे यह ग्रन्थ रचा गया। जिस समय वाल्मीकि ने यह काव्य रचा था, हिन्दुओं का धर्म उनकी बोल चाल, उनके रीतरसम में बहुत कुछ अदल बदल हो गया था इस से यह कहना कठिन है जिन आचार व्यवहार का बर्णन इस ग्रन्थ में है वह किस समय के हैं। इस की एक कहानी तो पुरानी है। समय समय पर अवसर पाकर और कहानियां जोड़ी गई हैं और इन सब का ऐसे ढंग से वर्णन कर दिया गया है कि सब एक ही समय की जान पड़ें। जिस कथा को हम प्रधान मानते हैं वह निस्सन्देह उन आर्य वंशों और राजाओं से सम्बन्ध रखती हैं जो महाभारत की लड़ाई के पहिले पूर्व और दक्षिण के प्रान्तों को जाकर बसे थे।

५—ऋग्वेद के मन्त्र इसी समय के लिखे भासते हैं और इस समय में उनका वह क्रम ठीक किया गया था जिस क्रम में वह अब देखे जाते हैं। जैसा हम ऊपर लिख चुके हैं कि ऋग्वेद सब से पुराना ग्रन्थ है। इसमें १०२८ मन्त्र हैं और इनमें बहुत से ऐसे हैं जिनको ईसा के १५०० बरस पहिले आर्य ऋषि बना चुके थे। इस प्राचीन काल में पुरोहितों और पुजारियों की कोई अलग जाति न थी। देवताओं को पशु मारकर बलि नहीं दी जाती थी। पूजा में अन्न और सोमरस चढ़ाया जाता था।

६—ज्यों ज्यों आर्य लोग उत्तर हिन्दुस्थान में फैले और देश के [ २८ ]असली रहनेवालों से मेल जोल हो गया इन का धर्म भी धीरे धीरे बदल गया। यज्ञ और बलिदान होने लगे और उनके विधि पूर्वक करने के लिये पुजारियों के समाज बन गये। इसी समय दो नये वेद बने एक यजुर् अर्थात यज्ञों का वेद—इसमें ऋग्वेद की वह ऋचाये हैं जो यज्ञ करानेवाले ब्राह्मण यज्ञ कराने के समय देव अराधन के लिये पढ़ा करते थे। यज्ञ की कुछ विधियां भी इस में लिखी हैं। इसे हम आर्यों की पूजा की पोथी कह सकते हैं। दूसरा सामवेद है; इस में ऋग्वद के वह मन्त्र हैं जो यज्ञ के समय एक प्रकार के यज्ञ करानेवाले पुरोहित गाया करते थे। यह आर्यों के देवस्तोत्रों का ग्रन्थ है। इन से बहुत दिन पीछे चौथा वेद बना। इस में ऐसे मन्त्र हैं जिनके उच्चारण से सब प्रकार के दुखों का निवारण होता है। इस का नाम अथर्ववेद है।

ब्राह्मण—सैकड़ों बरस पीछे जब आर्य गंगा यमुना के बीच में फैला गये और यन्न करनेवाले ब्राह्मणों की गिनती भी बढ़ी और बल भी बढ़ा तो इन्हों ने यज्ञों के विधान को बढ़ाते बढ़ाते इतना कर दिया कि वह वेदों से भी बढ़ गये। अब उन्हों ने चारों वेदों के साथ एक एक नया खंड मिलाया। यह खंड ब्राह्मण कहलाते हैं। इन में यज्ञ करानेवाले पुरोहितों के, जिनको ऋत्विक और अध्वर्यु कहते हैं, कर्म विस्तार समेत लिखे हैं। ऋग्वेद ब्राह्मण में मन्त्र पढ़नेवाले के लिये मन्त्रों के उच्चारण की विधि लिखी है। सामवेद ब्राह्मण में मन्त्रों के गाने की विधि हैं, यजुर्वेद ब्राह्मण में ऋत्विजों के कर्म लिखे हैं जो अपने हाथ से यज्ञ और हवन करते थे। अथर्ववेद ब्राह्मण में वेद के मन्त्रों की व्याख्या की गई है।

आरण्यक—इनमें से कोई कोई ब्राह्मण आरण्यक कहलाते हैं। इन में उन ऋषियों मुनियों के धर्म कर्म का वर्णन है जो घर बार त्याग कर बस्ती से दूर बनों में आश्रम बना लेते थे। [ २९ ]आरण्यक भी वेदों के नाम से पुकारे जाते हैं, जैसे ऋग्वेदारण्यक यजुर्वेदारण्यक। इतना न भूलना चाहिये कि सामवेद और अथर्ववेद के साथ कोई आरण्यक नहीं है।

उपनिषद्—यह जान पड़ता है कि कुछ दिन बीते प्राचीन आर्य इन विधानों और नियमों के संग्रहों से उकता गये और उनके मन में ऐसे प्रश्न उठे "यह संसार जो हम देखते हैं क्या है? कैसे बना? हम कहां से आये? कहां जायेंगे?" ऐसे प्रश्नों के उत्तर जो आर्य ऋषियों को सूझे उपनिषदों में लिखे हैं। उपनिषद् ब्राह्मणों के पीछे या ईसा के जन्म से पहिले बन चुके थे। इन के रचनेवालों को यह सिद्ध हो चुका था कि वेद के देवताओं चन्द्र, सूर्य, वायु और आकाश का बनानेवाला एक और ही है जो इनसे बड़ा और शुद्ध है। इस को ब्रह्म कहते थे। यह मानते थे कि सारा जगत ब्रह्म ही से निकला और ब्रह्म में समा जायगा। वह कहते थे कि जैसे समुद्र का जल बादल बनकर आकाश में उड़ता है, धरती पर बरसता है, फिर नदियों में बहता हुआ समुद्र में मिलकर उसमें लीन हो जाता है ऐसेही सारा विश्व उसी एक परमब्रह्म परमात्मा से निकला और उसी में लीन हो जायगा।

हिन्दुओं के पुराने ग्रन्थ दो श्रेणियों में बंटे हैं। एक श्रुति जो सब से पुरानी है दूसरी स्मृति जिन में पीछे के ग्रन्थ हैं। श्रुति का अर्थ ईश्वर का वाक्य। वेद ब्राह्मण आरण्यक और उपनिषद् श्रुति हैं। स्मृति का अर्थ वह आचार व्यवहार के नियम जो स्मरण किये जाते थे।