भारतेंदु-नाटकावली/११–संस्कृतादि अंशों के अर्थ

विकिस्रोत से
[ ७१५ ]

इस भाग में आए हुए संस्कृत आदि

अंशों के अर्थ

पृष्ठ ५---विष्णु भगवान के लीला-वराह का वह दाँत-रूपी दंड तुम लोगों की रक्षा करे, जिस पर सुमेर पर्वत रूपी कलशयुक्त पृथ्वी छाते की तरह शोभायमान है।

पृष्ठ ५६---तुम्हारा शुभ हो, भला हो, दीर्घायु हो, गाय-घोड़ा-हाथी-धन-अन्न की वृद्धि हो, संपत्ति बढ़े, मंगल हो, शत्रु का नाश हो और संतान की बढ़ती के साथ कृष्ण-भक्ति बनी रहे।

पृ० ५७---ब्रह्मा, विष्णु, शिव आदि देवगण तुम्हारा अभिकिंचन करें अर्थात् सुरक्षित रखें। गंधर्व, किन्नर तथा नागगण तुम्हारी सर्वदा रक्षा करें। पितरगण, गुह्यक ( कुबेर के कोष के रक्षक ), यक्ष ( कुबेर के सिपाही ), देवियों, भूतगण, सातो माताएँ अर्थात् शक्तियाँ सभी तुम्हारा मार्जन तथा तुम्हारी सर्वदा रक्षा करें। शुभ हो और कुशल हो। महालक्ष्मी तुम पर प्रसन्न हों। हे सती, तुम पति-पुत्र के साथ सौ वर्ष तक जीवित रहो।

( जिस प्रकार जल फेंका गया है उसी प्रकार ) तुम्हारा जो पाप हो और अमंगल हो वह दूर चला जाय। [ ७१६ ]जो कुछ मंगल, शुभ, सौभाग्य, धन-धान्य, स्वस्थता तथा संतान-वृद्धि है वह सब भगवान की कृपा तथा ब्राह्मण के आशी-र्वाद से तुम्हारा हो।

पृ० ६३---अपनी जाति आप ग्रहण करने वाले, प्रसिद्ध क्राधी ब्राह्मण, वशिष्ठ के दर्पवान पुत्र रूपी जंगल के लिए अग्नि रूप, दूसरी सृष्टि बनाने से भयभीत संसार के लिये यम समान और चांडाल त्रिशंकु के पुरोहित मुझ कौशिक को नहीं पहिचानता।

अकालादि समय में निकृष्ट वृत्ति धारण करने वाले, राजाओ का दान न लेने वाले, आड़ी ( वशिष्ठ ) तथा बक ( विश्वामित्र ) के युद्ध से संसार को कंपित करने वाले और तेज़ तथा तप के कोष आप को कौन नहीं जानता?

पृ० ६८---जिसकी कहीं भी गति नहीं है उसकी काशी में गति हो जाती है।

पृ० ७३---जिनका भोजन, वस्त्र और निवास ठीक ठीक नहीं है उनको काशी भी मगध है और गंगा भी तपाने वाली है।

पृ० ८४---हे ब्राह्मण, तुम्हारे इस तप, व्रत, ज्ञान और पठन- पाठन को धिक्कार है कि तुमने हरिश्चंद्र को इस दशा में ला डाला।

पृ० ८८---तपस्वी लोग तो आप ही दास होते हैं। [ ७१७ ]पृ० १२१―धैर्य, सत्य, दान तथा शक्ति सभी अलौकिक हैं। हे राजा हरिश्चंद्र तुमसे सब से बढकर कार्य हुआ है।

पृ० १६९-७०―ब्राह्मण के वाक्य में भगवान हैं। ब्राह्मण मेरे देवता हैं।

पाप किए हुए ब्राह्मण का भी काई तिरस्कार न करे इत्यादि। जिसी किसी उपाय से किसी भी देहधारी को विद्वान संतुष्ट कर दें तो वही भगवान की पूजा है।

जिसकी कहीं गति न हो उसकी गति काशी में होती है।

विधवा का बाल काटना प्राण-कट के समान होता है।

यदि मनुष्यों को संतोषदायक हो तो केश-युक्त ही रहने दे।

पृ० ४३१―महाबली वाराह-शरीरधारी स्वयम् विष्णु, जिनके दंष्ट्रान पर प्रलय में निमग्ना पृथ्वी ठहरी हुई थी, और इस समय वह म्लेच्छों द्वारा उत्पीड़ित होकर जिस राजमूर्ति के दोनो दृढ़ भुजा पर आश्रित है वह वैभवशाली, बड़े भाई के अनुयायी, राजा चंद्रगुप्त बहुत दिनों तक पृथ्वी की रक्षा करें।

पृ० ४७४―(फारसी)–अमीरी हृदय में है, धन में नहीं है।

पृ० ५०१―हे मूढ, क्षण भर के लिए जब तक मैं मधु पीती हूँ, गर्ज ले। मुझसे तेरे मारे जाने पर जल्दी देवगण गजेंगे।

इन्द्र त्रैलोक्य पावें, देवगण यज्ञ की हवि खाने वाले हों और यदि तुम लोग जीना चाहते हो तो पाताल जाओ। [ ७१८ ]इस प्रकार जब जब दानवों द्वारा उठाई वाधा पैदा होती है तब तब मैं अवतार लेकर शत्रु का नाश करती हूँ।

यह पूरा श्लोक इस प्रकार है:----

विद्याः समस्तास्तव देवि भेदाः स्त्रियाः समस्ताः सकला जगत्सु।
स्वयैकया पूरितमम्बयैतत् का ते स्तुतिः स्तव्यपरापरोक्तिः॥

हे देवि सभी विद्याएँ तथा संसार में कलायुक्त सभी स्त्रियाँ तुम्हारी ही भेद है, तुम्ही एक माता से यह जगत् पूर्ण है तब स्तुति योग्य परा, पश्यन्ति मध्यमा आदि उक्तियो से तुम्हारी स्तुति क्या हो सकती है।

[ दुर्गापाठ ]

अंग्रेजी---

'जो चुंबन उसने दिया था वही प्रथम और अंतिम था, वह कटार का चुंबन था, जो उसके हृदय तक तथा उसके पार घुसेड़ दिया गया था। उसके पैरो के नीचे नीच रक्त में भरकर वह लोटने लगा। उसके छाती में कटार, जहाँ स्थित था, वहीं कॉपता था और उसके कब्जे को ओर उसकी अँगुलियाँ व्यर्थ ही तथा वेग से बढ़ती थीं, पर उसके बाद निर्जीव हो अकड़ गई। 'मर, ए घातक मर।' उसने शरीफ की तलवार उसके जड़ाऊ म्यान से खींच लिया और मुसलमान सर्दार के गले पर निरर्थक ही चलाया। तारों के प्रकाश के नीचे यह मृतक-दृश्य! देवी काली [ ७१९ ]के समान वह सिर लिए हुए आती है। वह वहाँ पाती है, जहाँ उसके भाई लोग मारे गए सर्दार के शव की रक्षा करते हैं। सारा पड़ाव शांत है पर रात्रि भी बहुत कम है। उसी सर्दार के पैरों तले वह उसको फेंक देती है, उस नीच बोझ को फेंक देती है ( और कहती है ) 'सूरज, मैंने अपना वचन पूरा किया, भाइयो, चिता तैयार करो।'