भारतेंदु-नाटकावली/२–सत्य हरिश्चंद्र/तृतीय अंक
तृतीय अंक
स्थान---काशी के घाट-किनारे की सड़क
( महाराज हरिश्चंद्र घूमते हुए दिखाई पड़ते हैं )
हरि०---देखो काशी भी पहुँच गए। अहा! धन्य है काशी! भगवति वाराणसि! तुम्हें अनेक प्रणाम है। अहा! काशी की कैसी अनुपम शोभा है!
"चारहु आश्रम बर्न बसै मनि
कंचन धाम अकासविभासिका।
सोभा नहीं कहि जाय कछू बिधिनै
रची मानो पुरीन की नासिका॥
पापु बसै 'गिरिधारन जू' तट
देवनदी बर बारि बिलासिका।
पुन्य-प्रकासिका पाप-बिनासिका
हीय-हुलासिका सोहत कासिका॥"
"बसै बिंदुमाधव बिसेसरादि देव सबै
दरसन ही ते लागै जममुख मसी है।
तीरथ अनादि पंचगंगा मनिकर्निकादि
सात आवरण मध्य पुन्यरूपी धसी है॥
'गिरिधरदास' पास भागीरथी सोभा देत
जाकी धार तोरैं आसु कर्मरूप रसी है।
ससी सम जसी असी बरना में बसी पाप
खसी हेतु असी ऐसी लसी बारानसी है॥"
"रचित प्रभा सी भासी अवलि मकानन की
जिनमें अकासी फबै रतन-नकासी है।
फिरै दास-दासी बिप्र गृही औ संन्यासी लसै
बर गुनरासी देवपुरी हू न जासी है॥
'गिरिधरदास' बिस्व कीरति बिलासी रमा
हासी लौं उजासी जाकी जगत हुलासी है।
खासी परकासी पुनवॉसी चंद्रिका सी जाके
बासी अबिनासी अघनासी ऐसी कासी है॥"
देखो! जैसा ईश्वर ने यह सुंदर अँगूठी के नगीने सा नगर बनाया है वैसी ही नदी भी इसके लिये दी है। धन्य गंगे!
जम की सब त्रास बिनास करी मुख ते निज नाम उचारन में।
सब पाप प्रतापहिं दूर दर्यो तुम आपन आप निहारन में॥
अहो गंग अनंग के शत्रु करे बहु, नेक जलै मुख डारन में।
गिरिधारनजू' कितने बिरचे गिरिधारन धारन धारन में॥"
नव उज्वल जलधार, हार हीरक सी सोहति।
बिच-बिच छहरति बूँद मध्य मुक्ता-मनि पोहति॥
लोल लहर लहि पवन एक पै इक इमि आवत।
जिमि नर-गन मन बिबिध मनोरथ करत मिटावत॥
सुभग-स्वर्ग-सोपान-सरिस सबके मन भावत।
दरसन मज्जन पान त्रिविध भय दूर मिटावत॥
श्रीहरिपद-नख-चंद्रकांत-मनि-द्रवित सुधारस।
ब्रह्म-कमंडल-मंडन, भव-खंडन सुर-सरवस॥
शिव-सिर-मालति-माल, भगीरथ-नृपति-पुन्य-फल।
ऐरावत-गज गिरि-पति-हिम-नग-कंठहार कल॥
सगर-सुवन सठ सहस परस जल मात्र उधारन।
अगनित धारा रूप धारि सागर संचारन॥
कासी कहँ प्रिय जानि ललकि भेंट्यो जग धाई।
सपने ह नहिं तजी, रही अंकम लपटाई॥
कहूँ बँधे नव घाट उच्च गिरिवर-सम सोहत।
कहुँ छतरी, कहुँ मढ़ी, बढ़ी मन मोहत जोहत॥
धवल धाम चहुँ ओर फरहरत धुजा पताका।
घहरत घंटा धुनि धमकत धौंसा करि साका॥
मधुरी नौबत बजत, कहूँ नारी-नर गावत।
वेद पढ़त कहुँ द्विज, कहुँ जोगी ध्यान लगावत॥
कहुँ सुंदरी नहात नीर कर-जुगल उछारत।
जुग अंबुज मिलि मुक्तगुच्छ मनु सुच्छ निकारत॥
धोवत सुंदरि बदन करन अति ही छबि पावत।
बारिधि नाते ससि कलंक मनु कमल मिटावत॥
सुंदरि-ससि-मुख-नीर मध्य इमि सुंदर सोहत।
कमलबेलि लहलही नवल कुसुमन मन मोहत॥
दीठि जहीं जहँ जात रहत तितही ठहराई।
गंगा छबि हरिचंद कछु बरनी नहिं जाई॥
( कुछ सोचकर ) पर हा! जो अपना जी दुखी होता है तो संसार सूना जान पड़ता है।
"अशनं वसनं वासो येषां चैवाविधानतः।
मगधेन समा काशी गंगाप्यंगारवाहिनी॥"
विश्वामित्र को पृथ्वी दान करके जितना चित्त प्रसन्न नहीं हुआ उतना अब बिना दक्षिणा दिए दुखी होता है। हा! कैसे कष्ट की बात है, राज-पाट, धन-धाम सब छूटा, अब दक्षिणा कहाँ से देगे। क्या करें! हम सत्य-धर्म कभी छोड़ेहीगे नहीं और मुनि ऐसे क्रोधी हैं कि बिना दक्षिणा मिले शाप देने को तैयार होगे और जो वह शाप न भी देंगे तो क्या? हम ब्राह्मण का ऋण चुकाए बिना शरीर भी तो नहीं त्याग सकते। क्या करें? कुबेर को जीतकर धन लावें? पर कोई शस्त्र भी तो नहीं है; तो क्या किसी से माँगकर दें? पर क्षत्रिय का तो धर्म नहीं कि किसी के आगे हाथ पसारे, हिर ऋण काढ़ें? पर देंगे कहाँ से? हा! देखो, काशी में आकर लोग संसार के बंधन से छूटते हैं, पर हमको यहाँ भी हाय हाय मची है। हा! पृथ्वी! तू फट क्यों नहीं जाती कि मैं अपना कलंकित मुँह फिर किसी को न दिखाऊँ! ( आतंक से ) पर यह क्या? सूर्यवंश में उत्पन्न होकर हमारे ये कर्म हैं कि ब्राह्मण का ऋण दिए बिना पृथ्वी में समा जाना सेाचें। ( कुछ सोचकर ) हमारी तो इस समय कुछ बुद्धि ही नहीं काम करती। क्या करें? हमें तो संसार सूना देख पड़ता है। ( चिंता करके एक साथ हर्ष से ) वाह अभी तो स्त्री, पुत्र और हम तीन-तीन मनुष्य तैयार हैं। क्या हम लोगो के बिकने से दस सहस्त्र स्वर्णमुद्रा भी न मिलेगी? तब फिर किस बात का इतना सोच? न जाने बुद्धि इतनी देर तक कहाँ सोई थी; हमने तो पहले ही विश्वामित्र से कहा था---
बेचि देह दारा सुअन, होय दास हूँ मंद।
रखिहै निज बच सत्य करि, अभिमानी हरिचंद॥
( नेपथ्य में ) तो क्यों नहीं जल्दी अपने को बेचता? क्या हमें और काम नहीं है कि तेरे पीछे-पीछे दक्षिणा के वास्ते लगे फिर?
हरि०---अरे मुनि तो आ पहुँचे। क्या हुआ आज उनसे एक-दो दिन की अवधि और लेगे।
( विश्वामित्र आते हैं )
विश्वा०---( आप ही आप ) हमारी विद्या सिद्ध हुई भी इसी दुष्ट के कारण सब बहक गई। कुछ इंद्र के कहने ही पर नहीं, हमारा इस पर स्वतः भी क्रोध है, पर क्या करें, इसके सत्य, धैर्य और विनय के आगे हमारा क्रोध कुछ काम नहीं करता। यद्यपि यह राज्यभ्रष्ट हो चुका, पर जब तक इसे सत्यभ्रष्ट न कर लूँगा तब तक मेरा संतोष न होगा। ( आगे देखकर ) अरे! यही दुरात्मा ( कुछ रुककर ) वा, महात्मा हरिश्चंद्र हैं? ( प्रगट ) क्यों रे! आज महीने में कै दिन बाकी हैं? बोल कब दक्षिणा देगा?
हरि०---( घबड़ाकर ) अहा! महात्मा कौशिक भगवन्! प्रणाम करता हूँ। ( दंडवत् करता है )
विश्वा०---हुई प्रणाम, बोल तैने दक्षिणा देने का क्या उपाय किया? आज महीना पूरा हुआ, अब मैं एक क्षण भर भी न मानूँगा। दे अभी, नहीं तो---( शाप के वास्ते कमंडल से जल हाथ में लेते हैं ) हरि०---( पैरों पर गिरकर ) भगवन्! क्षमा कीजिए। यदि आज सूर्यास्त के पहिले मैं न दूँ तो जो चाहे कीजिएगा। मैं अभी अपने को बेचकर मुद्रा ले आता हूँ।
विश्वा०---( आप ही आप ) वाह रे महानुभावता ( प्रगट ) अच्छा अाज सॉझ तक और सही। सॉझ को न देगा तो मैं शाप ही न दूँगा, वरंच त्रैलोक्य में आज ही विदित कर दूँगा कि हरिश्चंद्र सत्य-भ्रष्ट हुआ।
[ जाते हैं
हरि०---भला किसी तरह मुनि से प्राण बचे। अब चलें अपना शरीर बेचकर दक्षिणा देने का उपाय सोचें। हा! ऋण भी कैसी बुरी वस्तु है, इस लोक में वही मनुष्य कृतार्थ है जिसने ऋण चुका देने को कभी क्रोधी और क्रूर लहनदार की लाल-लाल ऑखें नहीं देखी है। ( आगे चलकर ) अरे क्या बाजार में आ गए, अच्छा, ( सिर पर तृण* रखकर ) अरे सुनो भाई सेठ, साहूकार, महाजन, दूकानदारो, हम किसी कारण से अपने को पाँच हजार मोहर पर बेचते हैं, किसी को लेना हो तो लो। ( इसी तरह कहता हुआ इधर-उधर फिरता है ) देखो कोई दिन वह था कि इसी मनुष्य-विक्रय को अनुचित जानकर हम
- उस काल में जब कोई दास्य स्वीकार करता था तो सिर पर तृण रखता था। दूसरे को दंड देते थे पर आज वही कर्म हम आप करते हैं। दैव बली है। ( 'अरे सुनो भाई' इत्यादि कहता हुआ इधर-उधर फिरता है। ऊपर देखकर ) क्या कहा? "क्यो तुम ऐसा दुष्कर कर्म करते हो?" आर्य यह मत पूछो, यह सब कर्म की गति है। ( ऊपर देखकर ) क्या कहा? "तुम क्या कर सकते हो, क्या समझते हो, और किस तरह रहोगे? इसका क्या पूछना है। स्वामी जो कहेगा वह करेंगे; समझते सब कुछ हैं, पर इस अवसर पर समझना कुछ काम नहीं आता, और जैसे स्वामी रखेगा वैसे रहेंगे। जब अपने को बेच ही दिया तब इसका क्या विचार है। ( ऊपर देखकर ) क्या कहा?" कुछ दाम कम करो।" आर्य हम लोग तो क्षत्रिय हैं, हम दो बात कहाँ से जाने। जो कुछ ठीक था कह दिया।
( नेपथ्य में से )
आर्यपुत्र! ऐसे समय में हमको छोड़े जाते हो! तुम दास होगे तो मैं स्वाधीन रहके क्या करूँगी? स्त्री को अर्द्धांगिनी कहते हैं, इससे पहिले बायाँ अंग बेच लो तब दहिना अंग बेचो।
हरि---( सुनकर बड़े शोक से ) हा! रानी की यह दशा इन
आँखों से कैसे देखी जायगी? ( सड़क पर शैव्या और बालक फिरते हुए दिखाई पड़ते हैं )
शैव्या---कोई महात्मा कृपा करके हमको मोल ले तो बड़ा उपकार हो।
बालक---अमको बी कोई माल ले तो बला उपकाल ओ।
शैव्या---( आँखों में आँसू भरकर ) पुत्र! चंद्र-कुल-भूषण महाराज वीरसेन का नाती और सूर्यकुल की शोभा महाराज हरिश्चंद्र का पुत्र होकर तू क्यों ऐसे कातर वचन कहता है। मैं अभी जीती हूँ। ( रोती है )
बालक---( मॉ का अंचल पकड़ के ) माँ! तुमको कोई मोल लेगा तो अमको बी मोल लेगा। आँ आँ माँ लोती काए को औ। ( कुछ रोना सा मुँह बनाके शैव्या का आँचल पकड़के झूलने लगता है )
शैव्या---( आँसू पोंछकर ) मेरे भाग्य से पूछ।
हरि०---अहह! भाग्य! यह भी तुम्हे देखना था? हा! अयोध्या की प्रजा रोती रह गई, हम उनको कुछ धीरज भी न दे आए। उनकी अब कौन गति होगी। हा! यह नहीं कि राज छूटने पर भी छुटकारा हो। अब यह देखना पड़ा। हृदय! तुम इस चक्रवर्ती की सेवायोग्य बालक और स्त्री को बिकता देखकर टुकड़े-टुकड़े क्यो नहीं हो जाते? ( बारंबार लंबी साँस लेकर आँसू बहाता है ) शैव्या---( 'कोई महात्मा' इत्यादि कहती हुई ऊपर देखकर ) क्या कहा? "क्या-क्या करोगी?" पर-पुरुष से संभाषण और उच्छिष्ट भाजन छोड़कर और सब सेवा करूँगी। ( ऊपर देखकर ) क्या कहा? "इतने माल पर कौन लेगा?" आर्य! कोई साधु ब्राह्मण महात्मा कृपा करके ले ही लेंगे।
( उपाध्याय और बटुक आते हैं )
उपा०---क्यो रे कौंडिन्य, सच ही दासी बिकती है?
बटु०---हाँ गुरुजी, क्या मैं झूठ कहूँगा? आप ही देख लीजिएगा।
उपा०---तो चल, आगे-आगे भीड़ हटाता चल। देख, धारा-प्रवाह की भाँति कैसे सब कामकाजी लोग इधर से उधर फिर रहे हैं, भीड़ के मारे पैर धरने की जगह नहीं है। और मारे कोलाहल के कान नहीं दिया जाता।
बटु०---( आगे-आगे चलता हुआ ) हटो भाई हटो। ( कुछ आगे बढ़कर ) गुरुजी, यह जहाँ भीड़ लगी है वहीं होगी।
उपा०---( शैव्या को देखकर ) अरे यही दासी बिकती है?
( शैव्या 'अरे कोई हमको मोल ले' इत्यादि कहती और रोती है। बालक भी माता की भाँति तोतली बोली से कहता है )
उपा०---पुत्रो! कहो तुम कौन-कौन सेवा करोगी? शैव्या---पर-पुरुष से संभाषण और उच्छिष्ट-भोजन छोड़कर और जो-जो कहिएगा, सब सेवा करूँगी।
उपा०---वाह! ठीक है। अच्छा, लो यह सुवर्ण। हमारी ब्राह्मणी अग्निहोत्र की अग्नि की सेवा से घर के कामकाज नहीं कर सकती सो तुम सम्हालना।
शैव्या---( हाथ फैलाकर ) महाराज! आपने बड़ा उपकार किया।
उपा०---( शैव्या को भली भॉति देखकर आप ही आप ) अहा! यह निस्संदेह किसी बड़े कुल की है। इसका मुख सहज लज्जा से ऊँचा नहीं होता और दृष्टि बराबर पैर ही पर है। जो बोलती है वह धीरे-धीरे और बहुत सम्हाल के बोलती है। हा! इसकी यह गति क्यों हुई! ( प्रगट ) पुत्री! तुम्हारे पति हैं न?
( शैव्या राजा की ओर देखती है )
हरि०---( आप ही आप दुःख से ) अब नहीं हैं। पति के होते भी ऐसी स्त्री की यह दशा हो!
उपा०-( राजा को देखकर आश्चर्य से ) अरे यह विशालनेत्र, प्रशस्त वक्षःस्थल, और संसार की रक्षा करने के योग्य लंबी-लंबी भुजावाला कौन मनुष्य है, और मुकुट के योग्य सिर पर तृण क्यों रखा है? ( प्रगट ) महात्मा तुम हमको अपने दुख का भागी समझो और कृपापूर्वक अपना सब वृत्तांत कहो।
हरि०---भगवन्! और तो विदित करने का अवसर नहीं है, इतना ही कह सकता हूँ कि ब्राह्मण के ऋण के कारण यह दशा हुई।
उपा०--–तो हमसे धन लेकर आप शीघ्र ही ऋण-मुक्त हूजिए!
हरि०---( दोनो कानो पर हाथ रखकर ) राम-राम! यह तो ब्राह्मण की वृत्ति है। आपसे धन लेकर हमारी कौन गति होगी!
उपा०---तो पाँच हज़ार मोहर पर आप दोनों में से जो चाहे से हमारे संग चले।
शैव्या---( राजा से हाथ जोड़कर ) नाथ! हमारे आछत आप मत बिकिए, जिसमें हमको अपनी आँख से यह न देखना पड़े, हमारी इतनी विनती मानिए। ( रोती है )
हरि०---( ऑसू रोककर ) अच्छा! तुम्हीं जाओ। ( आप ही आप ) हा! यह वज्रहृदय हरिश्चंद्र ही का है कि अब भी नहीं विदीर्ण होता!
शैव्या---( राजा के कपड़े में सोना बाँधती हुई ) नाथ! अब तो दर्शन भी दुर्लभ होगे। ( रोती हुई उपाध्याय से ) आर्य! आप क्षण भर क्षमा करें तो मैं आर्यपुत्र का
उपा---हाँ! हाँ! मैं जाता हूँ। कौंडिन्य यहाँ है, तुम उसके साथ आना।
[ जाता है
शैव्या---( रोकर ) नाथ! मेरे अपराधो को क्षमा करना।
हरि०---( अत्यंत घबड़ाकर ) अरे अरे विधाता! तुझे यही करना था! ( आप ही आप ) हा! पहिले महारानी बना कर अब दैव ने इसे दासी बनाया। यह भी देखना बदा था। हमारी इस दुर्गति से आज कुलगुरु भगवान् सूर्य का भी मुख मलिन हो रहा है। ( रोता हुआ प्रगट रानी से ) प्रिये! सर्व भाव से उपाध्याय को प्रसन्न रखना और सेवा करना।
शैव्या---( रोकर ) नाथ! जो आज्ञा।
बटु०---उपाध्यायजी गए, अब चलो जल्दी करो।
हरि०---(ऑखो में ऑसू भरके ) देवी! ( फिर रुककर अत्यंत सोच से आप ही आप ) हाय! अब मैं देवी क्यों कहता हूँ, अब तो विधाता ने इसे दासी बनाया। ( धैर्य से ) देवी, उपाध्याय की आराधना भली भॉति करना और उनके सब शिष्यो से भी सुहृद्-भाव रखना, ब्राह्मण की स्त्री की प्रीतिपूर्वक सेवा करना, बालक का यथासंभव पालन करना और अपने धर्म और प्राण की रक्षा करना। विशेष हम क्या समझा, जो-जो दैव दिखावे उसे धीरज से देखना। ( आँसू बहते हैं )
शैव्या---जो आज्ञा। ( राजा के पैरो पर गिर के रोती है )
हरि०---( धैर्यपूर्वक ) प्रिये, देर मत करो, बटुक घबड़ा रहे हैं।
( शैव्या उठकर रोती और राजा की ओर देखती हुई धीरे-धीरे चलती है )
बालक---( राजा से ) पिता, मा कआँ जाती ऐं?
हरि०---( धैर्य से ऑसू रोककर ) जहाँ हमारे भाग्य ने उसे दासी बनाया है।
बालक---( बटुक से ) अले मा को मत ले जा। ( माँ का आँचल पकड़के खींचता है )
बटु०---( बालक को ढकेलकर ) चल-चल देर होती है।
( बालक ढकेलने से गिरकर रोता हुआ उठकर अत्यत क्रोध और करुणा से माता-पिता की ओर देखता है )
हरि०---ब्राह्मण देवता, बालकों के अपराध से नहीं रुष्ट होना चाहिये। ( बालक को उठाकर धूर पोछ के मुँह चूमता हुआ ) पुत्र, मुझ चॉडाल का मुख इस समय ऐसे क्रोध से क्यो देखता है? ब्राह्मण का क्रोध तो सभी दशा में सहना चाहिए। जाओ माता के संग, मुझ भाग्यहीन के साथ रहकर क्या करोगे? ( रानी से ) प्रिये, धैर्य धरो। अपना कुल और जाति स्मरण करो। अब जाओ, देर होती है।
( रानी और बालक रोते हुए बटुक के साथ जाते है )
हरि०---धन्य हरिश्चंद्र! तुम्हारे सिवाय और ऐसा कठोर हृदय किसका होगा? संसार में धन और जन छोड़कर लोग स्त्री की रक्षा करते हैं, पर तुमने उसका भी त्याग किया।
( विश्वामित्र आते हैं और हरिश्चन्द्र पैर पर गिरकर प्रणाम करता है )
विश्वा०---ला, दे दक्षिणा! अब सॉझ होने में कुछ देर नहीं है।
हरि०---( हाथ जोड़कर ) महाराज, आधी लीजिए आधी अभी देता हूँ। ( सोना देता है )
विश्वा०---हम आधी दक्षिणा लेके क्या करे, दे चाहे जहाँ से सब दक्षिणा।
( नेपथ्य में )
धिक् तपो धिक् व्रतमिदं धिक् ज्ञानं धिक् बहुश्रुतम्।
नीतवानसि यद्वह्मन् हरिश्चंद्रमिमां दशाम्॥
विश्वा०---( बड़े क्रोध से ) आ: हमको धिक्कार देने वाला यह कौन दुष्ट है? है? ( ऊपर देखकर ) अरे विश्वेदेवा, ( क्रोध से जल हाथ में लेकर ) अरे क्षत्रिय के पक्षपातियो, तुम अभी विमान से गिरो और क्षत्रिय के कुल में तुम्हारा जन्म हो और वहाँ भी लड़कपन हो में ब्राह्मण के हाथ मारे जाओ*। ( जल छोड़ते है )
( नेपथ्य में हाहाकार के साथ बडा शब्द होता है )
( सुनकर और ऊपर देखकर आनंद से ) हहहह! अच्छा हुआ! यह देखो, किरीट-कुंडल बिना मेरे क्रोध से विमान से छूटकर विश्वेदेवा उल्टे हो होकर नीचे गिरते हैं। और हमको धिक्कार दे।
हरि०---( ऊपर देखकर भय से ) वाह रे तप का प्रभाव!( आप ही आप ) तब तो हरिश्चंद्र को अब तक शाप नहीं दिया है यह बड़ा अनुग्रह है! ( प्रगट ) भगवन्, स्त्री बेचकर यह आधा धन पाया है सो लें, और आधा हम अपने को बेचकर अभी देते हैं।
( नेपथ्य में )
अरे, अब तो नहीं सही जाती।
विश्वा०---हम आधा न लेंगे, चाहे जहाँ से अभी सब दे।
( हरिश्चन्द्र 'अरे सुनो भाई सेठ साहूकार' इत्यादि पुकारता हुआ घूमता है। चांडाल के वेष में धर्म और सत्य आते हैं )
- यही पाँचो विश्वेदेवा विश्वामित्र के शाप से द्वापर में द्रौपदी के
पाँच पुत्र हुए थे, जिन्हें अश्वत्थामा ने बालकपन ही में मार डाला।
काँछा कछे, काला रंग, लाल नेत्र, सिर पर छोटे छोटे घुँघराले बाल और शरीर नंगा, बातों से मतवालापन झलकता हुआ। धर्म---( आप ही आप )
हम प्रतच्छ हरिरूप जगत हमरे बल चालत।
जल-थल-नभ थिर मो प्रभाव मरजाद न टालत॥
हमहीं नर के मीत सदा साँचे हितकारी।
इक हमहीं सँग जात, तजत जब पितु सुत नारी॥
सो हम नित थित सत्य में जाके बल सब जग जियो।
सेाइ सत्य-परिच्छन नृपति को आजु भेष हम यह कियो॥
( आश्चर्य से आप ही आप ) सचमुच इस राजर्षि के समान दूसरा अाज त्रिभुवन में नहीं है।
( आगे बढ़कर प्रगट ) अरे! हरजनवाँ! मोहर का संदूक ले आवा है न?
सत्य---क चौधरी! मोहर ले के का करबो?
धर्म---तोह से का काम पूछै से?
( दोनों आगे बढ़ते हुए फिरते हैं )
हरि०---('अरे सुनो भाई सेठ साहूकार' इत्यादि दो-तीन बेर पुकार के इधर-उधर घूमकर ) हाय! कोई नहीं बोलता और कुलगुरु भगवान् सूर्य भी आज हमसे रुष्ट होकर शीघ्र ही अस्ताचल जाया चाहते हैं। ( घबराहट दिखाता है )
धर्म---( आप ही आप ) हाय हाय! इस समय इस महात्मा को बड़ा ही कष्ट है। तो अब चलें आगे। ( आगे बढकर ) अरे! अरे! हम तुमको मोल लेंगे, लेव यह पचास सै मोहर लेव।
हरि---( आनंद से आगे बढ़कर ) वाह कृपानिधान! बड़े अवसर पर आए। लाइए। ( उसको पहिचानकर ) आप मोल लोगे?
धर्म---हाँ, हम मोल लेगे। ( सोना देना चाहता है )
हरि---आप कौन हैं?
धर्म---
हम चौधरी डोम सरदार। अमल हमारा दोनों पार॥
सब मसान पर हमरा राज। कफन माँगने का है काज॥
फूलमती देवी* के दास। पूजै सती मसान निवास॥
धनतेरस औ रात दिवाली। बलि चढ़ाय के पूजैं काली॥
सो हम तुमको लेंगे मोल। देंगे मुहर गॉठ से खोल॥
( मत्त की भाँति चेष्टा करता है )
हरि०---( बड़े दुःख से ) अहह! बड़ा दारुण व्यसन उपस्थित हुआ है। ( विश्वामित्र से ) भगवन्! मैं पैर पड़ता हूँ, मैं जन्म भर आपका दास होकर रहूँगा, मुझे चांडाल होने से बचाइए।
- प्राचीन काल में चांडालों की कुलदेवी चंडकात्यायनी थीं, परंतु
इस काल में फूलमती इन लोगों की कुलदेवी हैं। विश्वा०---छिः मूर्ख! भला हम दास लेके क्या करेंगे? "स्वयं दासास्तपस्विनः" ।
हरि०---( हाथ जोड़कर ) जो आज्ञा कोजिएगा हम सब करेंगे।
विश्वा०---सब करेगा न? ( ऊपर हाथ उठाकर ) धर्म के साक्षी देवता लोग सुनें, यह कहता है कि जो आप कहेंगे मैं सब करूँगा।
हरि०---हाँ हाँ, जो आप आज्ञा कीजिएगा सब करूँगा।
विश्वा०---तो इसी गाहक के हाथ अपने को बेचकर अभी हमारी शेष दक्षिणा चुका दे।
हरि०---जो आज्ञा। ( आप ही आप ) अब कौन सोच है। ( प्रगट धर्म से ) तो हम एक नियम पर बिकेंगे!
धर्म---वह कौन?
हरि०---भीख असन कंबल बसन, रखिहैं दूर निवास।
जो प्रभु आज्ञा होइहै, करिहैं सब ह्वै दास॥
धर्म---ठीक है, लेव सोना। (दूर से राजा के आँचल में मोहर देता है)
हरि०--( लेकर हर्ष से आप ही आप )
ऋण छूट्यो पूरयो बचन, द्विजहु न दीनो साप।
सत्य पालि चंडाल हू होइ आजु मोहि दाप॥
( प्रगट विश्वामित्र से ) भगवन्, लीजिए यह मोहर।
विश्वा०---( मुँह चिढ़ाकर ) सचमुच देता है? हरि०―हॉ हॉ, यह लीजिए! (मोहर देते हैं)
विश्वा०―(लेकर) स्वस्ति। (आप ही आप) बस अब चलो, बहुत परीक्षा हो चुकी। (जाना चाहते है)
हरि०―(हाथ जोड़कर) भगवन्! दक्षिणा देने में देर होने का अपराध क्षमा हुआ न?
विश्वा०—हॉ, क्षमा हुआ। अब हम जाते हैं।
हरि०―भगवन्! प्रणाम करता हूँ।
हरि०―अब चौधरीजी, (लजा से रुककर) स्वामी की जो आज्ञा हो वह करे।
धर्म―(मत्त की भॉति नाचता हुआ)
जावो अभी दक्खिनी मसान। लेव वहाँ कफ्फन का दान॥
जो कर तुमको नहीं चुकावे। सेा किरिया करने नहिं पावे॥
चलो घाट पर करो निवास। भए आज से हमरे दास॥
हरि०-जो आज्ञा।