भारतेंदु-नाटकावली/३–प्रेमजोगिनी/चौथा गर्भांक

विकिस्रोत से
[ २८१ ]

चौथा गर्भांक

स्थान---बुभुक्षित दीक्षित की बैठक

( बुभुक्षित दीक्षित, गप्प पडित, रामभट्ट, गोपाल शास्त्री, चंबूभट्ट, माधव शास्त्री आदि लोग पान-बीडा खाते और भाँग-बूटी की तजवीज करते बैठे हैं; इतने में महाश कोतवाल अर्थात् निमत्रण करने वाला आकर चौक में से दीक्षित को पुकारता है )

महाश---काहो, बुभुक्षितदीक्षित आहेत?

बुभुक्षित---( इतना सुनते ही हाथ का पान रख कर ) कोण आहे? ( महाश आगे बढता है ) वाह महाश तु आहेश काय? काय बाबा आज किती ब्रह्मण अामन्या तड़ांत देतोस? सरदारांनी किती सांगीतलेत? ( थोड़ा ठहरकर ) कायरे ठोक्याच्या कमरयांय सहस्रभोजन कुणाच्या यजमानाचे चाल्ले आहे?

महाश---दीक्षितजी! आज ब्राह्मणाची अशी मारामार झाली कि मी माँही सांगूँ शकत नाहीं---कोण तो पचड़ा!!

बुभु०---खरें, काय मारामार झाली? अच्छा ये तर बैठकेंत पण आखेरीस आमचे तड़ाची काय व्यवस्था? ब्राह्मण आणलेस की नाही? कॉ हात हलवीतच आलास? [ २८२ ]महाश---( बैठक में बैठकर जल माँगता है ) दीक्षितजी थोड़ेंसें पाणी द्या, तहान बहुत लागली आहे।

बुभु०---अच्छा भाई, थोड़ा सा ठहर अत्ता उनातून आला आहेस, बूटी ही बनतेच आहे। पाहिजे तर बूटीचेंच पाणी पी। अच्छा सॉग तर कसे काय ब्राह्मण किती मिलाले?

महाश---गुरु, ब्राह्मण तो आज २५ निकाले, यार लोग आपके शागिर्द हैं कि और किसके?

चंबूभट्ट---( बड़े आनंद से ) क्या भाई सच कहो---२५ ब्राह्मण मिलाले?

महाश---हो गुरु! २५ ब्राह्मण तर नुसते सहस्त्रभोजनाचे, परन्तु आजचे वसंतपूजेचे तर शिवाय च---आणखी सभेकरतां तर पेष लावलाच आहे पण---

गोपाल, माधव शास्त्री---( घबड़ाकर ) काय महाश पण कॉ? सभेचें काम कुणाकड़े आहे? अणखी सभा कधीं होणार? ऑ?

महाश---पण-इतकेच कीं हा यजमान पाप नगरांत रहतो, आणि याला एक कन्या आहे ती गत-भर्तृका असून सकेशा आहे आणि तीर्थस्थलीं तर तौर करणें अवश्य पण क्षौरेकरून कन्येंची शोभा जाईल या करितां जर कोणी असा शास्त्रीय आधार दाखवील तर एक हजार रुपयांची सभाकरण्याचा [ २८३ ]त्यांचा विचार आहे व या कामांत धनतुंदिल शास्त्रीनी हात घातला आहे।

गप्प पंडित---अं:, तो ऐसी क्षुल्लक बात के हेतु शास्त्राधार का क्या काम है? इसमें तो बहुत से आधार मिलेंगे।

माधव शास्त्री---हॉ पंडितजी आप ठीक कहते हैं, क्योंकि हम लोगों का वाक्य और ईश्वर का वाक्य समान ही समझना चाहिए "विप्रवाक्ये जनार्दनः" "ब्राह्मणो मम दैवतं" इत्यादि।

गोपाल---ठीकच आहे, आणि जरि कदाचित् असल्या दुर्घट कामानी अाम्ही लोकदृष्टया निन्द्य झालों तथापि वन्धच आहों, कारण श्रीमद्भागवतांत ही लिहलें आहे "विप्रंकृतागसमपि नैव द्रुह्येत कश्चनेत्यादि"।

गप्प पंडित---हॉजी, और इसमें निन्द्य होने का भी क्या कारण? इसमें शास्त्र के प्रमाण बहुत से हैं और युक्ति तो हुई है। पहिले यही देखिए कि इस तौर कर्म से दो मनुष्यों को अर्थात् वह कन्या और उसके स्वजन इनको बहुत ही दुःख होगा और उसके प्रतिबंध से सबको परम आनंद होगा। तब यहाँ इस वचन को देखिए---

"येन केनाप्युपायेन यस्य कस्यापि देहिनः।
संतोष जनयेत् प्राज्ञस्तदेवेश्वरपूजनं॥"

[ २८४ ]बुभु०---और ऐसे बहुत से उदाहरण भी इसी काशी में होते आए हैं। दूसरा काशीखंड ही में कहा है "येषां क्वापि गतिर्नास्ति तेषां वाराणसीगतिः।"

चंबूभट्ट---मूर्खतागार का भी यह वाक्य है "अधवा वाललवनं जीवनार्द्दनवद्भवेत्"। संतोषसिंधु में भी "सकेशैव हि संस्थाप्या यदि स्यात्तोषदा नृणां"।

महाश---दीक्षितजी! बूटी झाली---अब छने जल्दी कारण बहुत प्यासा जीव होऊन गेला अणखी अझून पुष्कल ब्राह्मण सांगायचे आहेत।

बुभु०---( भॉग की गोली और जल, बरतन, कटोरा, साफी लेकर ) शास्त्रीजी! थोड़े से बढ़ा तर।

माधव शास्त्री---दीक्षितजी! हे मॉझें काम नह्वें, कारण मी अपला खाली पीण्याचा मालिक आहे, मला छानतां येत नाहीं। ( गोपाल शास्त्री की अोर दिखलाकर ) ये इसमें परम प्रवीण हैं।

गोपाल शास्त्री---अच्छा दीक्षितजी, मीच आलों सही।

चंबूभट्ट---( इन सबों को अपने काम में निमग्न देखकर ) बरें मग महाश अखेरीस तड़ाचे किती ब्राह्मण सहस्रभोजनाचे व वसंतपूजेचे किती?

महाश---दीक्षिताचे तड़ांत आज एकंदर २५ ब्राह्मण; पैकीं १५ सहस्रभोजनाकड़े आणि १० वसंतपूजेकड़े--[ २८५ ]माधव शास्त्री---आणि सभेचे?

महाश---सभेचे तर मी सांगीतलेंच की धनतुंदिल शास्त्रीचे अधिकारांत आहे, आणि दोन तीन दिवसाँत ते बंदोबस्त करणार आहेत।

गप्प पंडित---क्यों महाश! इस सभा में कोई गौड़ पंडित भी हैं वा नहीं?

महाश---हॉ पंडित जी, वह बात छोड़ दीजिए, इसमें तो केवल दाक्षिणात्य, द्राविड़ और क्वचित् तैलंग भी होगे, परंतु सुना है कि जो इसमें अनुमति करेंगे वे भी अवश्य सभासद होंगे।

गप्प पंडित---इतना ही न, तब तो मैंने पहिले ही कहा है, माधव शास्त्री! अब भाई यह सभा दिलवाना आप के हाथ में है।

माधव---हाँ पंडित जी, मैं तो अपने शक्तयनुसार प्रयत्न करता हूँ, क्योंकि प्रायः काका ( धनतुंदिल शास्त्री ) जो कुछ करते हैं उसका सब प्रबंध मुझे ही सौंप देते हैं। ( कुछ ठहर कर ) हॉ, पर पंडित जो, अच्छा स्मरण हुआ, आप से और न्यू फांड ( New fond ) शास्त्री से बहुत परिचय है, उन्हीं से आप प्रवेश कीजिए, क्योकि उनसे और काका जी से गहरी मित्रता है। [ २८६ ]गप्प पंडित---क्या क्या शास्त्री जी? न्यू---क्या? मैंने यह कहीं सुना नहीं।

गोपाल---कभी सुना नहीं इसी हेतु न्यू फांड।

गप्प पंडित---मित्र! मेरा ठट्ठा मत करो। मैं यह तुम्हारी बोली नहीं समझता। क्या यह किसी का नाम है? मुझे मालूम होता है कि कदाचित् यह द्रविड़ त्रिलिंग आदि देश के मनुष्य का नाम होगा। क्योंकि उधर की बोली मैंने सुनी है उसमें मूर्द्धन्य वर्ण प्रायः बहुत रहते हैं।

माधव शास्त्री---ठीक पंडित जी, अब आप का तर्कशास्त्र पढ़ना आधा सफल हुआ। अस्तु ये उधर ही के हैं जो आप के साथ रामनगर गए थे, जिन्होने घर में तमाशे वाले की बैठक की थी---

गप्प पंडित--–हाँ हाँ, अब स्मरण हुआ, परंतु उनका नाम परोपकारी शास्त्री है और तुम क्या भांड कहते हो?

गोपाल शास्त्री---वाह पंडित जी, भांड नहीं कहा फांड कहा--- न्यू फांड अर्थात् नये शौखीन। सारांश प्राचीन शौखीन लोगों ने जो-जो कुछ पदार्थ उत्पन्न किए, उपभुक्त किए उन ही उनके उच्छिष्ट पदार्थ का अवलम्बन करके वा प्राचीन रसिको की चाल-चलन को अच्छी समझ हम को भी लोक वैसा ही कहें आदि से खींच-खींच के रसिकता लाना, क्या शास्त्री जी ऐसा न इसका अर्थ? [ २८७ ]माधव शास्त्री---भाई, मुझे क्यों नाहक इसमें डालते हो---

गप्प पंडित---अच्छा, जो होय मुझे उसके नाम से क्या काम। व्यक्ति मैंने जानी परन्तु माधव जी आप कहते हैं और मुझसे उनसे भी पूर्ण परिचय है और उनको उनका नाम सच शोभता है, परन्तु भाई वे तो बडे आढ्य मान्य हैं और कंजूस भी हैं---और क्या तुमसे उनसे मित्रता मुझसे अधिक नहीं है। यहाँ तक शयनासन तक वे तुमको परकीय नहीं समझते।

माधव शास्त्री---पंडित जी! वह सर्व ठीक है, परन्तु अब वह भूतकालीन हुई। कारण 'अति सर्वत्र वर्जयेत्'---

बुभु०---हाँ पंडित जी! अब क्षण भर इधर बूटी को देखिए, लीजिए। ( एक कटोरा देकर पुनः दूसरा देते हैं )

गप्प पंडित---वाह दीक्षित जी, बहुत ही बढिया हुई।

चंबूभट्ट---( सब को बूटी देकर अपनी पारी आई देख कर ) हाँ हॉ दीक्षित जी, तिकड़ेच खतम करा मी आज काल पीत नाहीं।

गोपाल, माधव---कॉ भटजी! पुरे आतां, हे नखरे कुठे शिक- लात, या---प्या---हवेने व्यर्थ थंडी होते।

चंबूभट्ट---नाहीं भाई मी सत्य साँगतों, मला सोसत नाहीं। तुम्हाला माझे नखरे वाटतात पण हे प्रायः इथले काशी-तलेच आहेत, व अपल्या सारख्यांच्या परम प्रियतम [ २८८ ]सफेत खड़खड़ीत उपर्णा पाँघरणार अनाथा वालानींच शिकविलेंत बरें।

( सब आग्रह करके उसको पिलाते हैं )

महाश---कां गुरु दीक्षित जी अब पलेती जमविली पाहिजे।

बुभु०---हाँ भाई, घे तो बंटा आणि लाव तर एक दोन चार।

महाश---( इतने में अपना पान लगाकर खाता है और दीक्षित जी से ) दीक्षित जी, १५ ब्राह्मण ठोक्याच्या कमरयांत पाठवा; दाहा बाजतां पानें मॉडलो जातील, आणि आज रात्री वसंतपूजेस १० ब्राह्मण लवकर पाठवा कारण मग दूसरे तड़ाचे ब्राह्मण येतील। ( ऐसा कहता हुआ चला जाता है )

बुभु०---( उसको पुकारते हुए जाते हैं ) महाश! दक्षिणा कितनी?

( महाश वहीं से चार अंगुली दिखा कर गडा कहकर गया )

माधव---दीक्षित जी! क्या कहीं बहरी ओर चलिएगा?

गोपाल---( दीक्षित से ) हाँ गुरु, चलिए आज बड़ी वहाँ लहरा है।

बुभु०---भाई बहरीवर मी जाऊन इकडचा बंदोबस्त कोण करील?

गोपाल---गुरु इतके १५ ब्राह्मणांत घबड़ावता। सर्वभक्षास साँगीतले ब्राह्मण जे झाले। श्राज न्यूफांड की पत्ती है। [ २८९ ]गप्प पंडित---क्या परोपकारी की पत्ती है? खाली पत्ती दी है कि और भी कुछ है? नाहीं तो मैं भी चलूँ।

माधव शास्त्री---पत्ती क्या बड़ी-बड़ी लहरा है, एक तो बड़ा भारी प्रदर्शन होगा और नाना रीति के नाच, नए-नए रंग देख पड़ेंगे।

गप्प पंडित---क्यो शास्त्री जी, मुझे यह बड़ा आश्चर्य ज्ञात होता है और इस से परिहासोक्ति सी देख पड़ती है। क्योकि उसके यहाँ नाच-रंग होना सूर्य का पश्चिमाभिमुख उगना है।

गोपाल---पंडितजी! इसी कारण इनका नाम न्यू फांड है। और तिस पर यह एक गुह्य कारण से होता है। वह मैं और कभी आप से निवेदन करूँगा, वा मार्ग में---

बुभु०---( सर्वभक्ष नाम अपने लड़के को सब व्यवस्था कहकर आप पान-पलेती और रस्सी-लोटा और एक पंखी लेकर )हाँ भाई मेरी सब तैयारी है।

माधव, गोपाल---चलिए पंडितजी, वैसे ही धनतुंदिल शास्त्री जी के यहाँ पहुँचेंगे। ( सब उठकर बाहर आते हैं )

चंबूभट्ट---मैं तो भाई जाता हूँ क्योकि संध्या समय हुआ।

[ चला जाता है

गप्प पंडित---किधर जाना पड़ेगा? [ २९० ]माधव शास्त्री---शंखोद्धारा क्योंकि आजकल श्रावण मास में और कहाँ लहरा? घराऊ कजरी, श्लोक, लावनी, ठुमरी, कटौवल, बोली-ठोली सब उधर ही।

गप्प पंडित---ठीक शास्त्रीजी, अब मेरे भ्यान में पहुँचा, आज- काल शंखोद्धारा का बड़ा माहात्म्य है। भला घर पर यह अब कहाँ सुनने में आवेगा? क्योंकि इसमें घराऊ विशेषण दिया है।

गोपाल---आ: हमारा माधव शास्त्री जहाँ है वहाँ सब कुछ ठीक ही होगा, इसका परम आश्रय प्राणप्रिय रामचंद्र बाबू आप को विदित है कि नहीं? उसके यहाँ ये सब नित्य कृत्य हैं।

गप्प पंडित---रामचंद्र हम ही को क्या परंतु मेरे जान प्रायः यह जिसको विदित नहीं ऐसा स्वल्प ही निकलेगा। विशेष करके रसिको को; उसको तो मैं खूब जानता हूँ।

गोपाल---कुछ रोज हमारे शास्त्री जी भी थे, परंतु हमारा क्या उनका कहिए ऐसा दुर्भाग्य हुआ कि अब वर्ष-वर्ष दर्शन नहीं होने पाता। रामचंद्र जी तो इनको अपने भ्राता के समान पालन करते थे और इनसे बड़ा प्रेम रखते थे। अस्तु सारांश पंडित जी वहाँ रामचंद्र जी के बगीचे में जायँगे। वहाँ सब लहरा देख पड़ेगी और इस मिस से तो भी उनका दर्शन होगा। [ २९१ ]बुभु०---अरे पहिले नवे शौखिनाचे इथे जाऊँ तिथे काय आहे हें पाहू आणि नंतर रामचंद्राकड़े झुकूँ।

माधव शास्त्री---अच्छा तसेच होय अाजकल न्यू फांड शास्त्री यानी ही बहुत उदारता धरली आहे बहुत सी पाखरें ही पालली आहेत तो सर्व दृष्ट्रीस पड़तील पण भाई मी आँत यायचा नाहीं। कारण मला पाहून त्यांना त्रास होतो।

गोपाल---अच्छा तिथ वर तर चलशील आगे देखा जायगा।

( सब जाते हैं और जवनिका गिरती है )

घिस्सघिसद्विज कृत्य विकर्तनों नामक दृश्य