भारतेंदु-नाटकावली/३–प्रेमजोगिनी/तीसरा गर्भांक

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भारतेंदु-नाटकावली  (1935) 
द्वारा भारतेन्दु हरिश्चंद्र
[ २६९ ]

तीसरा गर्भांक

स्थान---मुगलसराय का स्टेशन

( मिठाईवाले, खिलौनेवाले, कुली और चपरासी इधर-उधर फिरते हैं। सुधाकर, एक विदेशी पंडित और दलाल बैठे हैं )

दलाल---( बैठके पान लगाता है ) या दाता राम! कोई भागवान से भेट कराना।

विदेशी पंडित---( सुधाकर से ) आप कौन हैं? कहाँ से आते हैं?

सुधाकर---मैं ब्राह्मण हूँ, काशी में रहता हूँ और लाहोर से आता हूँ।

वि० पंडित---क्या आप का घर काशीजी ही में है?

सुधा०---जी हाँ।

वि० पंडित---भला काशी कैसा नगर है?

सुधा०---वाह! आप काशी का वृत्तांत अब तक नहीं जानते? भला त्रैलोक्य में और दूसरा ऐसा कौन नगर है जिसको काशी की समता दी जाय?

वि० पंडित---भला कुछ वहाँ की शोभा हम भी सुने।

सुधा०---सुनिए, काशी का नामांतर वाराणसी है, जहाँ भगवती जह्यु-नंदिनी उत्तरवाहिनी होकर धनुषाकार तीन [ २७० ]ओर से ऐसी लपटी हैं, मानो इसको शिव की प्यारी जानकर गोद में लेकर आलिंगन कर रही हैं, और अपने पवित्र जलकण के स्पर्श से तापत्रय दूर करती हुई मनुष्यमात्र को पवित्र करती हैं। उसी गंगा के तट पर पुण्यात्माओं के बनाए बड़े-बड़े घाटों के ऊपर दोमंजिले, चौमंजिले, पँचमंजिले और सतमंजिले ऊँचे-ऊँचे घर आकाश से बातें कर रहे हैं, मानो हिमालय के श्वेत श्रृंग सब गंगा-सेवन करने को एकत्र हुए हैं। उसमें भी माधोराय के दोनों धरहरे तो ऐसे दूर से दिखाई देते हैं मानो बाहर के पथिकों को काशी अपने दोनों हाथ ऊँचे कर के बुलाती है। सॉझ-सबेरे घाटो पर असंख्य स्त्री-पुरुष नहाते हुए, ब्राह्मण लोग संध्या वा शास्त्रार्थ करते हुए, ऐसे दिखलाई देते हैं मानो कुबेरपुरी की अलकनंदा में किन्नरगण और ऋषिगण अवगाहन करते हैं; और नगाड़ा-नफीरी, शंख-घंटा, झांझ-स्तव और जय का तुमुल शब्द ऐसा गूंजता है मानो पहाड़ों की तराई में मयूरों की प्रतिध्वनि हो रही है; उसमें भी जब कभी दूर से साँझ को वा बड़े सबेरे नौबत की सुहानी धुन कान में आती है तो कुछ ऐसी भली मालूम पड़ती है कि एक प्रकार की झपकी सी आने लगती है। और घाटों पर सबेरे धूप की झलक ओर सॉझ को जल में घाटो की परछाही की शोभा भी देखते ही बन आती है। [ २७१ ]जहाँ ब्रज-ललना-लालित चरण-युगल पूर्ण परब्रह्म सच्चिदानंदघन वासुदेव आप ही श्री गोपाललाल रूप धारण करके प्रेमियो को दर्शन-मात्र से कृत-कृत्य करते हैं और भी बिदुमाधवादि अनेक रूप से अपने नाम-धाम के स्मरण, दर्शन, चिंतनादि से पतितों को पावन करते हुए विराजमान हैं।

जिन मंदिरों में प्रातःकाल संध्या समय दर्शको की भीड़ जमी हुई है, कहीं कथा, कहीं हरिकीर्तन, कहीं नाम-कीर्तन, कहीं नाटक, कहीं भगवत-लीला-अनुकरण इत्यादि अनेक कौतुको के मिस से भी भगवान के नाम-गुण में लोग मग्न हो रहे है।

जहाँ तारकेश्वर विश्वेश्व रादि नामधारी भगवान भवानी--पति तारकब्रह्म का उपदेश करके तनत्याग मात्र से ज्ञानियों को भी दुर्लभ अपुनर्भव परम मोक्षपद---मनुष्य, पशु, कीट, पतंगादि आपामर जीवमात्र को देकर उसी क्षण अनेक कल्पसंचित महापापपुंज भस्म कर देते हैं।

जहाँ अंधे, लँगड़े, लूले, बहरे, मूर्ख और निरुद्यम आलसी जीवों को भी भगवती अन्नपूर्णा अन्न-वस्त्रादि देकर माता की भाँति पालन करती है।

जहाँ अब तक देव, दानव, गंधर्व, सिद्ध, चारण, विद्या-धर, देवर्षि, राजर्षिगण और सब उत्तम-उत्तम तीर्थ--[ २७२ ]कोई मूत्तिमान, कोई छिपकर और कोई रूपांतर करके नित्य निवास करते हैं।

जहाँ मूर्त्तिमान सदाशिव प्रसन्न-वदन अाशुतोष सकल-सद्गुणैकरत्नाकर, विनयैकनिकेतन, निखिल विद्याविशारद, प्रशांतहृदय, गुणिजनसमाश्रय, धार्मिकप्रवर, काशी-नरेश महाराजाधिराज श्रीमदीश्वरीप्रसाद नारायणसिंह बहादुर और उनके कुमारोपम कुमार श्री प्रभुनारायण-सिंह बहादुर दान धर्मसभा रामलीलादि के मिस से धर्मोन्नति करते हुए और असत् कर्म नीहार को सूर्य की भॉति नाशते हुए पुत्र की तरह अपनी प्रजा का पालन करते हैं।

जहाँ श्रीमती चक्रवर्तिनिचयपूजितपादपीठा श्रीमती महारानी विक्टोरिया के शासनानुवर्ती अनेक कमिश्नर, जज, कलेक्टरादि अपने-अपने काम में सावधान प्रजा को हाथ पर लिए रहते हैं और प्रजा उनके विकट दंड के सर्वदा जागने के भरोसे नित्य सुख से सोती है।

जहाँ राजा शंभूनारायणसिंह, बाबू फतहनारायणसिंह, बाबू गुरुदास, बाबू माधवदास, विश्वेश्वरदास, राय नारायणदास इत्यादि बड़े-बड़े प्रतिष्ठित और धनिक तथा श्री बापूदेव शास्त्री, श्रीबाल शास्त्री से प्रसिद्ध पंडित, श्रीराजा शिवप्रसाद, सैयद अहमद खाँ बहादुर ऐसे योग्य पुरुष, [ २७३ ]मनिकचंद्र मिस्तरी से शिल्पविद्या-निपुण, वाजपेयी जी से तन्त्रीकार, श्री पंडित बेचनजी, शीतलजी, श्रीताराचरण से संस्कृत के और सेवक तथा श्रीबाबू गोपाल चंद्र से पूर्व में और अब हरिश्चंद्र से भाषा के कवि, बाबू अमृतलाल, मुंशी गन्नूलाल, मुंशी श्यामसुंदरलाल से शास्त्रव्यसनी और एकांतसेवी,श्रीस्वामी विश्वरूपानंद से यति, श्रीस्वामी विशुद्धानंद से धर्मोपदेष्टा, दातृगणैकाग्रगण्य श्रीमहाराजाधिराज विजयनगराधिपति से विदेशी सर्वदा निवास करके नगर की शोभा दिन दूनी रात चौगुनी करते रहते हैं।

जहाँ क्वींस कालिज ( जिसके भीतर-बाहर चारों ओर श्लोक और दोहे खुदे हैं ), जयनारायण कालिज से बड़े, बंगाली टोला, नार्मल और लंडन मिशन से मध्यम, तथा हरिश्चंद्र स्कूल से छोटे तथा महाराज काश्मीर और महाराज दरभंगा की पाठशालादि अनेक विद्यामंदिर हैं, जिनमें संस्कृत, अँगरेजी, हिंदी, फारसी, बँगला, महाराष्ट्री की शिक्षा पाकर प्रति वर्ष अनेक विद्यार्थी विद्योत्तीर्ण होकर प्रतिष्ठालाभ करते हैं; इनके अतिरिक्त पंडितों के घर में तथा हिंदी-फारसी पाठकों की निज शाला में अलग ही लोग शिक्षा पाते है, और राय संकटाप्रसाद के परिश्रमोत्पन्न पबलिक लाइब्रेरी, मुंशी सीतलप्रसाद का सरस्वती-भवन, कार्माइ केल लाइब्रेरी, बंगसाहित्य-समाज, बाल सरस्वती [ २७४ ]भवन, हरिश्चंद्र का सरस्वती-भंडार इत्यादि अनेक पुस्तक-मंदिर हैं, जिनमें साधारण लोग सब विद्या की पुस्तकें देखने पाते हैं।

जहाँ मानमंदिर ऐसे यंत्रभवन, सारनाथ की धमेख से प्राचीनावशेष चिह्न, विश्वनाथ के मंदिर का वृषभ और स्वर्णशिखर, राजा चेतसिंह के गंगा-पार के मंदिर, कश्मीरी-मल की हवेली और क्वींस कालिज की शिल्पविद्या और माधोराय के धरहरे की उँचाई देखकर विदेशी जन सर्वदा चकित रहते हैं।

जहाँ महाराज विजयनगर के तथा सरकार के स्थापित स्त्री-विद्यामंदिर, औषधालय, अंधभवन, उन्मत्तागार इत्यादिक लोकद्वय-साधक अनेक कीर्तिकर कार्य हैं, वैसे ही चूड़-वाले इत्यादि महाजनो का सदावर्त्त और श्री महाराजाधिराज सेधिया आदि के अटल सत्र से ऐसे अनेक दीनों के आश्रयभूत स्थान हैं जिनमें उनको अनायास ही भोजनाच्छादन मिलता है।

जहाँ नारायण भट्ट जी का और शेष और धर्माधिकारी पंडितो का वंश, अहोबल शास्त्री, जगन्नाथ शास्त्री, गोस्वामी श्री गिरिधर जी, पंडित काकाराम, पंडित मायादत्त, पंडित हीरानंद चौबे, काशीनाथ शास्त्री, पंडित भवदेव, पंडित सुखलाल और भी जिनका नाम इस समय मुझे [ २७५ ]स्मरण नहीं आता, अनेक ऐसे-ऐसे धुरंधर पंडित हुए हैं, जिनकी विद्या मानो मंडन मिश्र की परंपरा पूरी करती थी।

जहाँ विदेशी अनेक तत्ववेत्ता धामिक धनीजन घर-बार कुटुंब देश-विदेश छोड़कर निवास करते हुए तत्त्वचिंता में मग्न सुख-दुःख भुलाए संसार को यथारूप में देखते सुख से निवास करते हैं। आत्मानंद हंस जी को देख लीजिए।

जहाँ पंडित लोग विद्यार्थियो को ऋक्, यजुः, साम, अथर्ष, महाभारत, रामायण, पुराण, उपपुराण, स्मृति, न्याय, व्याकरण, सांख्य, पातंजल, वैशेषिक, मीमांसा, वेदांत, शैव, वैष्णव, अलंकार, साहित्य, ज्योतिष इत्यादि शास्त्र सहज में पढ़ाते हुए मूर्तिमान गुरु और व्यास से शोभित काशी की विद्यापीठता सत्य करते हैं।

जहाँ भिन्न देशनिवासी आस्तिक विद्यार्थीगण परस्पर देवमंदिरों में, घाटों पर, अध्यापकों के घर में, पंडित-सभाओ में वा मार्ग में मिलकर शास्त्रार्थ करते हुए अनर्गल धारा-प्रवाह संस्कृत-भाषण से सुननेवालों का चित्त हरण करते हैं।

जहाँ स्वर लय छंद मात्रा, हस्तकंपादि से शुद्ध वेदपाठ की ध्वनि से जो मार्ग में चलते वा घर बैठे सुन पड़ती है, तपोवन की शोभा का अनुभव होता है।

जहाँ द्रविड़, मगध, कान्यकुब्ज, महाराष्ट्र, बंगाल, पंजाब,

भा० ना०---११
[ २७६ ]गुजरात इत्यादि अनेक देश के लोग परस्पर मिले हुए अपना-अपना काम करते दिखाते हैं और वे एक-एक जाति के लोग जिन मुहल्लो में बसे हैं वहाँ जाने से ऐसा ज्ञात होता हैं मानो उसी देश में आए हैं, जैसे बंगाली टोले में ढाके का, लहौरी टोले में अमृतसर का और ब्रह्माघाट में पूने का भ्रम होता है।

जहाँ निराहार, पयाहार, यताहार, भिक्षाहार, रक्ताम्बर, श्वेताम्बर, नीलाम्बर, चार्माम्बर, दिगम्बर, दंडी, संन्यासी, ब्रह्मचारी, योगी, यती, सेवड़ा, फकीर, सुथरेसाई, कनफटे, ऊर्ध्वबाहु, गिरी, पुरी, भारती, वन, पर्वत, सरस्वती, किनारामी, कबीरी, दादूपंथी, नान्हकसाही, उदासी, रामानंदी, कौल, अघोरी, शैव, वैष्णव, शाक्त, गाणपत्य, सौर इत्यादि हिंदू और ऐसे ही अनेक भॉति के मुसलमान फकीर नित्य इधर से उधर भिक्षा उपार्जन करते फिरते हैं और इसी भॉति सब अंधे, लँगड़े, लूले, दीन, पंगु, असमर्थ लोग भी भिक्षा पाते हैं, यहाँ तक कि आधी काशी केवल दाता लोगो के भरोसे नित्य अन्न खाती है।

जहाँ हीरा, मोती, रुपया, पैसा, कपड़ा, अन्न, घी, तेल, अतर, फुलेल, पुस्तक, खिलौने इत्यादि की दूकानों पर हजारों लोग काम करते हुए माल लेते बेंचते दलाली करते दिखाई पड़ते हैं। [ २७७ ]जहाँ की बनी कमखाब, बाफता, हमरू, समरू, गुलबदन, पोत, बनारसी साड़ी, दुपट्टे, पीताम्बर, उपरने, चोलखंड, गोंटा, पट्टा इत्यादि अनेक उत्तम वस्तुएँ देश-विदेश जाती हैं और जहाँ की मिठाई, खिलौने, चित्र, टिकुली, बीड़ा इत्यादि और भी अनेक सामग्री ऐसी उत्तम होती हैं कि दूसरे नगर में कदापि स्वप्न में भी नहीं बन सकतीं।

जहाँ प्रसादी तुलसी-माला फूल से पवित्र और स्नायी स्त्री-पुरुषो के अंग के विविध चंदन, कस्तूरी, अतर इत्यादि सुगंधि-द्रव्य के मादक आमोद-संयुक्त परम शीतल तापत्रय-विमोचक गंगाजी के कण स्पर्श मात्र से अनेक लौकिक अलौकिक ताप से तापित मनुष्यों का चित्त सर्वदा शीतल करते हैं।

जहाँ अनेक रंगो के कपड़े पहने, सोरहो सिंगार, बत्तीसो आभरण सजे, पान खाए, मिस्सी की धड़ी जमाए, जोबन-मदमाती झमझमाती हुई बारबिलासिनी देव-दर्शन वैद्य-ज्योतिषी-गुणीगृहगमन, जार-मिलन, गान-श्रावण, उपवन-भ्रमण इत्यादि अनेक बहानो से राजपथ में इधर-उधर झूमती-घूमती नैनों के पटे फेरती बिचारे दीन पुरुषों को ठगती फिरती हैं और कहाँ तक कहैं काशी काशी ही है। काशी सी नगरी त्रैलोक्य में दूसरी [ २७८ ]नहीं है। आप देखिएगा तभी जानिएगा, बहुत कहना व्यर्थ है।

वि० पंडत---वाह-वाह! आपके वर्णन से मेरे चित्त का काशी- दर्शन का उत्साह चतुर्गुण हो गया। यो तो मैं सीधा कलकत्ते जाता, पर अब काशी बिना देखे कहीं न जाऊँगा। आपने तो ऐसा वर्णन किया मानो चित्र सामने खड़ा कर दिया। कहिए वहाँ और कौन-कौन गुणी और दाता लोग हैं जिनसे मिलूँ।

सुधा०---मैं तो पूर्व ही कह चुका हूँ कि काशी गुणी और धनियों की खान है, यद्यपि यहाँ के बड़े-बड़े पंडित जो स्वर्गवासी हुए उनसे अब होने कठिन हैं, तथापि अब भी जो लो हैं दर्शनीय और स्मरणीय हैं। फिर इन व्यक्तियों के दर्शन भी दुर्लभ हो जायँगे, और यहाँ के दाताओ का तो कुछ पूछना ही नहीं। चूड़ की कोठीवालों ने पंडित काकाराम जी के ऋण के हेतु एक साथ बीस सहस्र मुद्रा दीं। राजा पटनीमल के बाँधे धर्मचिन्ह कर्मनाशा का पुल और अनेक धर्मशाला, कूएँ, तालाब, पुल इत्यादि भारत-वर्ष के प्रायः सब तीर्थों पर विद्यमान हैं। साह गोपालदास के भाई साह भवानीदास की भी ऐसी ही उज्ज्वल कीर्ति है और भी दीवान केवलकृष्ण, चम्पतराय अमीन इत्यादि बड़े-बड़े दानी इसी सौ वर्ष के भीतर हुए हैं। बाबू [ २७९ ]राजेन्द्र मित्र की बॉधी देवी---पूजा बाबू गुरु दास मित्र के यहाँ अब भी बड़े धूम से प्रतिवर्ष होती है। अभी राजा देवनारायणसिंह ही ऐसे गुणज्ञ हो गए है कि उनके यहाँ से कोई खाली हाथ नहीं फिरा। अब भी बाबू हरिश्चंद्र इत्यादि गुणग्राहक इस नगर की शोभा की भॉति विद्यमान हैं। अभी लाला बिहारीलाल और मुंशी रामप्रताप जी ने कायस्थ जाति का उद्धार करके कैसा उत्तम कार्य किया। आप मेरे मित्र रामचंद्र ही को देखिएगा। उसने बाल्यावस्था ही में लक्षावधि मुद्रा व्यय कर दी हैं। * अभी बाबू हरखचंद मरे हैं जो एक गोदान नित्य करके जलपान करते थे। कोई भी फकीर यहाँ से खाली नहीं गया। दस पंद्रह रामलीला इन्हीं काशी-वालो के व्यय से प्रति वर्ष होती है और भी हजारो पुण्यकार्य यहाँ हुआ ही करते हैं। आपको सबसे मिलाऊँगा आप काशी चलैं तो सही।

वि० पंडित---लाहोर क्यों गए थे?

सुधा०---( लम्बी सॉस लेकर ) कुछ न पूछिए योंही सैर को गया था।

दलाल---( सुधाकर से ) का गुरू। कुछ पंडितजी से बोहनी वाड़े का तार होय तो हम भी साथै चलूँचैं।

सुधा०---तार तो पंडित वाड़ा है कुछ विशेष नहीं जान पड़ता।


  • इतना विषय मैंने सत्य होने के कारण स्वयं दे दिया है। ( राधा कृष्णदास ) [ २८० ]दलाल---तब भी फोंक सऊड़े का मालवाड़ा कहाँ तक न लेऊचियै।

सुधा०---अब जो पलते पलते पलै।

वि० पंडित---यह इन्होंने किस भाषा में बात की?

सुधा०---यह काशी ही की बोली है, ये दलाल हैं, सो पूछते थे कि पंडितजी कहाँ उतरेंगे।

वि० पंडित---तो हम तो अपने एक संबंधी के यहाँ नीलकंठ पर उतरेंगे।

सुधा०---ठीक है, पर मैं आपको अपने घर अवश्य ले जाऊँगा

वि० पंडित---हॉ हॉ, इसमें कोई संदेह है? मैं अवश्य चलूँगा।

( स्टेशन का घंटा बजता है और जवनिका गिरती है )

इति प्रतिच्छवि--वाराणसी नामक दृश्य