भारतेंदु-नाटकावली/३–प्रेमजोगिनी/दूसरा गर्भांक

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भारतेंदु-नाटकावली  (1935) 
द्वारा भारतेन्दु हरिश्चंद्र
[ २६१ ]

दूसरा गर्भांक

स्थान---गैबी, पेड़, कूँवा, पास बावली

( दलाल, गंगापुत्र, दूकानदार भडेरिया और भूरीसिह बैठे हैं )

दलाल---कहो गहन यह कैसा बीता? ठहरा भोग बिलासी। माल-वाल कुछ मिला, या हुआ कोरा सत्यानासी? कोई चूतिया फँसा या नहीं? कोरे रहे उपासी?

गंगा---

मिलै न काहे भैया, गंगा मैया दौलत दासी॥
हम से पूत कपूत की दाता मनकनिका सुखरासी।
भूखे पेट कोई नहिं सुतता, ऐसी है ई कासी॥

दूकान०---परदेसियौ बहुत रहे पाए?

गंगा---और साल से बढकर।

भंडे०---पितर-सौंदनी रही न-अमसिया,

झूरी०---रंग है पुराने झंझर॥

खूब बचा ताड़यो, का कहना,

तूँ हौ चूतिया हंटर।

भंडे०---हम न तड़बै तो के तड़िए? यही किया जनम भर॥

दलाल---जो हो, अब की भली हुई यह अमावसी पुनवासी।

गंगा०---भूखे पेट कोई नहिं सुतता, ऐसी है ई कासी॥ [ २६२ ]झूरी०---यार लोग तो रोजै कड़ाका करथै ऐ पैजामा।

गंगा०---ई तो झूठ कहथौ, सिंहा,

झूरी०---तू सच बोल्यो, मामा॥

गंगा---

तौ हैं का, तू मार-पीट के करथौ अपना कामा।
कोई का खाना, कोई की रंडी, कोई का पगड़ी-जामा॥

झूरी०---ऊ दिन खीपट दूर गए अब सोरहो दंड एकासी।

गंगा०---भूखे पेट कोई नहीं सुतता, ऐसी है ई कासी॥

झूरी०---जब से आए नए मजिस्टर तब से आफत आई। जान छिपावत फिरीथै खटमल---

दूकान०---ई तो सच है भाई॥

झूरी०---

ई है ऐसा तेज गुरू बरसन के देथै लदाई।
गोविंद पालक मेकलौडो से एकी जबर दोहाई॥
जान बचावत विपत फिरीथै घुस गइ सब बदमासी।

गंगा०---भूखे पेट तो कोइ नहीं सुतता, ऐसी है ई कासी॥

झूरी०---

तोरे आँख में चरबी छाई माल न पायो गोजर।
कैसी दून की सूझ रही है असमानों के उप्पर॥
तर न भए हौ पैदा करके, धर के माल चुतरे तर।
बछिया के बाबा पँडिया के ताऊ, घुसनि के घुसघुस झरझर॥
कहाँ की ई तूँ बात निकास्यो खासी सत्यानासी।
भूखे पेट कोई नहिं सुतता, ऐसी है ई कासी॥

( गाता हुआ एक परदेसी आता है )

[ २६३ ]पर०---

देखी तुमरी कासी, लोगो, देखी तुमरी कासी।
जहाँ बिराजै विश्वनाथ विश्वेश्वरजी अविनासी॥
आधी कासी भाट-भँडेरिया ब्राह्मन औ संन्यासी।
आधी कासी रंडी मुंडी रॉड खानगी खासी॥
लोग निकम्मे भंगी गंजड़ लुच्चे बे-बिसवासी।
महा आलसी झूठे शुहदे बे-फिकरे बदमासी॥
आप काम कुछ कभी करै नहिं कोरे रहैं उपासी।
और करे तो हँसैं बनावैं उसको सत्यानासी॥
अमीर सब झूठे औ निंदक करें घात विश्वासी।
सिपारसी डरपुकने सिट्टू बोलैं बात अकासी॥
मैली गली भरी कतवारन सड़ी चमारिन पासी।
नीचे नल से बदबू उबलै मनो नरक चौरासी॥
कुत्ते भुंकत काटन दौड़ै सड़क सॉड़ सों नासी।
दौड़ें बंदर बने मुछंदर कूदैं चढ़े अगासी॥
घाट जाओ तो गंगापुत्तर नोचै दै गल फाँसी।
करै घाटिया बस्तर-मोचन दे देके सब झाँसी॥
राह चलत भिखमंगे नोचै बात करै दाता सी।
मंदिर बीच भँड़ेरिया नोचै करै धरम की गाँसी॥
सौदा लेत दलालो नोचै देकर लासालासी।
माल लिए पर दुकनदार नोचै कपड़ा दे रासी॥

[ २६४ ]

चोरी भए पर पूलिस नौचै हाथ गले बिच ढॉसी।
गए कचहरी अमला नोचै मोचि बनावै घासी॥
फिरै उचक्का दे दे धक्का लूटै माल मवासी।
कैद भए की लाज तनिक नहिं बे-सरमी नंगा सी॥
साहेब के घर दौड़े जावै चंदा देहिं निकासी।
चरै बुखार नाम मंदिर का सुनतहि होय उदासी॥
घर की जोरू-लड़के भूके बने दास औ दासी।
दाल की मंडी रंडी पूजें मानो इनकी मासी॥
आप माल कचरै छानै उठि भोरहिं कागाबासी।
बापके तिथि दिन बाह्मन आगे धरै सड़ा औ बासी॥
करि बेवहार साक बाँधै बस पूरी दौलत दासी।
घालि रुपैया काढि दिवाला माल डेकारैं ठॉसी॥
काम-कथा अमृत सो पीयै समुझै ताहि विलासी।
रामनाम मुँह से नहिं निकलै सुनतहि आवै खाँसी॥
देखी तुमरी कासी भैया, देखो तुमरी कासी॥

भूरी०---कहो ई सरवा अपने सहर की एतनी निंदा कर गवा; तूँ लोग कुछ बोलत्यौ नाहीं?

गंगा०---भैया, अपना तो जिजमान है अपने न बोलैंगे चाहे दस गारी दे ले।

भंडे०---अपनो जिजमानै ठहरा। [ २६५ ]दलाल---और अपना भी गाहकै है।

दूकान०---और भाई हमहूँ चार पैसा एके बदौलत पावा है। भूरी०---तू सब का बोलबो, तू सब निरे दब्बू चप्पू हौ, हम बोलबै। ( परदेसी से ) ए चिड़ियाबावली के परदेसी फरदेसी! कासी की बहुत निंदा मत करो। मुँह बस्सैये, का कहैं के साहिब मजिस्टर हैं नाहीं तो निंदा करना निकास देते।

पर०---निकास क्यों देते? तुमने क्या किसी का ठीका लिया है?

झूरी०---हाँ हाँ, ठीका लिया है मटियाबुर्ज।

पर०---तो क्या हम झूठ कहते हैं?

झूरी०---राम राम, तू भला कबौं झूठ बोलबो, तू तो निरे पोथी के बेठन हौ।

पर०---बेठन क्या?

भूरी०---बे ते मत करो गप्पो के, नाहीं तो तोरो अरबी-फारसी घुसेड़ देबै।

पर०---तुम तो भाई अजब लड़ाके हो, लड़ाई मोल लेते फिरते हो। बे ते किसने किया है? यह तो अपनी-अपनी राय है; कोई किसी को अच्छा कहता है, कोई बुरा कहता है, इससे बुरा क्या मानना।

झूरी०---सच है पनचोरा, तू कहै सो सञ्च, बुड्ढी तू कहे सो सच्च। [ २६६ ]पर०---भाई अजब शहर है, लोग बिना बात ही लड़े पड़ते हैं।

( सुधाकर आता है )

( सब लोग आशीर्वाद, दंडवत्, आओ-आओ शिष्टाचार करते हैं )

गंगा–--भैया इनके दम के चैन है। ई अमीरन के खेलउना हैं।

झूरी०---खेलउना का हैं दाल, खजानची, खिदमतगार सबै कुछ हैं।

सुधाकर---तुम्हें साहब चर्रियै बूकना आता है।

भूरी०---चर्री का, हमहन झूठ बोलीलः; अरे बखत पड़े पर तूँ रंडी ले आवः, मंगल के मुजरा मिले ओमें दस्तूरी काटः, पैर दाबः, रुपया-पैसा अपने पास रक्खः, यारन के दूरे से झॉसा बतावः। ऐ! ले गुरु तोही कहः हम झूठ कहथई।

गंगा---अरे भैया बिचारे ब्राह्मण कोई तरह से अपना कालक्षेप करथै, ब्राह्मण अच्छे हैं।

भंडे०–--हाँ भाई न कोई के बुरे में, न भले में और इनमें एक बड़ी बात है कि इनकी चाल एक-रंगै हमेसा से देखी थै।

गंगा---और साहेब एक अमीर के पास रहै से इनकी चार जगह जान-पहिचान होय गई। अपनी बात अच्छी बनाय लिहिन है।

दूकान०---हों भाई, बजार में भी इनकी साक बँधी है।

सुधाकर---भया भया, यह पचड़ा जाने दो; कहो यह नई मूरत

कौन है? [ २६७ ]झूरी०---

गुरू साहब, हम हियाँ भाँग का रगड़ा लगा
बीच में गहन के मारे-पीटे ई धूआँकस आय गिरे।
आके पिंजड़े में फँसा अब तो पुराना चंडूल।
लगी गुलसन की हवा, दुम का हिलाना गया भूल॥

( परदेसी के मुँह के पास चुटकी बजाता है और नाक के पास से उँगली लेकर दूसरे हाथ की उँगली पर घुमाता है )

पर०---भाई तुम्हारे शहर सा तुम्हारा ही शहर है, यहाँ की लीला ही अपरंपार है।

झूरी०---तोहूँ लीला करथौ।

पर०---क्या?

झूरी०---नहीं ई जे तोहूँ रामलीला में जाथौ कि नाहीं?

( सब हँसते हैं )

पर०---( हाथ जोड़कर ) भाई, तुम जीते हम हारे, माफ करो।

झूरी०---( गाता है ) तुम जीते हम हारे साधो, तुम जीते हम हारे।

सुधा०---( आप ही आप ) हा! क्या इस नगर की यही दशा रहेगी? जहाँ के लोग ऐसे मूर्ख हैं वहाँ आगे किस बात की वृद्धि की संभावना करें! केवल यह मूर्खता छोड़ इन्हें कुछ आता ही नहीं! निष्कारण किसी को बुरा-भला कहना! बोली ही बोलने में इनका परम पुरुषार्थ! अनाब[ २६८ ]शनाब जो मुँह में आया बक उठे, न पढ़ना न लिखना! हाय! भगवान् इनका कब उद्धार करेगा!!

भूरी०---गुरु, का गुड़बुड़-गुड़बुड़ जपथौ?

सुधा०---कुछ नाहीं भाई यही भगवान का नाम।

भूरी०---हाँ भाई, संझा भई एह बेरा टें टें न किया चाहिए, राम-राम की बखत भई, तो चलो न गुरू।

सब---चलो भाई।

( जवनिका गिरती है )

इति गैबी-ऐबी नामक दृश्य