भारतेंदु-नाटकावली/५–मुद्राराक्षस/चतुर्थ अंक

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भारतेंदु-नाटकावली  (1935) 
द्वारा भारतेन्दु हरिश्चंद्र
[ ४७१ ]

चतुर्थ अंक

स्थान---मंत्री राक्षस के घर के बाहर का प्रांत

( करभक घबड़ाया हुआ आता है )

करभक--अहाहा हा! अहाहा हा!

अतिसय दुरगम ठाम मैं सत जोजन सो दूर।
कौन जात है धाइ बिनु प्रभु निदेस भरपूर॥

अब राक्षस मंत्री के घर चलूँ। ( थका सा घूमकर ) अरे कोई चौकीदार है! स्वामी राक्षस मंत्री से जाकर कहो कि 'करभक काम पूरा करके पटने से दौड़ा आता है'।

( दौवारिक आता है )

दौवारिक---अजी! चिल्लाओ मत, स्वामी राक्षस मंत्री को राजकाज सोचते-सोचते सिर में ऐसी बिथा हो गई है कि अब तक सोने के बिछौने से नहीं उठे, इससे एक घड़ी भर ठहरो, अवसर मिलता है तो मैं निवेदन किए देता हूँ।

( परदा उठता है और सोने के बिछौने पर चिंता में भरा राक्षस और शकटदास दिखाई पडते हैं )

[ ४७२ ]राक्षस---( आप ही आप )

कारज उलटो होत है कुटिल नीति के जोर।
का कीजै सोचत यही जागि होयहै भोर॥

और भी

आरंभ पहिले सोचि रचना वेश की करि लावहीं।
इक बात में गर्भित बहुत फल गूढ भेद दिखावहीं॥
कारन अकारन सोचि फैली क्रियन कों सकुचावहीं।
जे करहिं नाटक बहुत दुख हम सरिस तेऊ पावहीं॥

और भी वह दुष्ट ब्राह्मण चाणक्य---

दौवा०---( प्रवेश कर ) जय जय।

राक्षस--किसी भॉति मिलाया या पकड़ा जा सकता है!

दोवा०---अमात्य---

राक्षस---( बाएँ नेत्र के फड़कने का अपशकुन देखकर आप ही आप ) 'ब्राह्मण चाणक्य जय जय' और 'पकड़ा जा सकता है अमात्य' यह उलटी बात हुई और उसी समय असगुन भी हुआ। तो भी क्या हुआ, उद्यम नहीं छोड़ेंगे। ( प्रकाश ) भद्र! क्या कहता है?

दौवा०---अमात्य! पटने से करभक आया है सो आपसे मिला चाहता है।

राक्षस---अभी लाओ। [ ४७३ ]दौवा०---जो आज्ञा। ( करभक के पास जाकर, उसको संग ले आकर ) भद्र! मंत्रीजी वह बैठे है, उधर जाओ।

[ जाता है

कर०---( मंत्री को देखकर ) जय हो, जय हो।

राक्षस---अजी करभक! आओ-आओ अच्छे हो?–--बैठो।

कर०---जो आज्ञा। ( पृथ्वी पर बैठ जाता है )

राक्षस---( आप ही आप ) अरे! मैंने इसको किस काम का भेद लेने को भेजा था यह भूला जाता है। ( चिंता करता है )

( बेंत हाथ में लेकर एक पुरुष आता है )

पुरुष---हटे रहना, बचे रहना---अजी दूर रहो---दूर रहो, क्या नहीं देखते?

नृप द्विजादि जिन नरन को मंगल रूप प्रकास।
ते न नीच मुखहू लखहिं, कैसा पास निवास॥*

( आकाश की ओर देखकर ) अजी क्या कहा, कि क्यों हटाते हो? अमात्य राक्षस के सिर में पीड़ा सुनकर कुमार मलयकेतु उनको देखने को इधर ही आते हैं।

[ जाता है

( भागुरायण और कंचुकी के साथ मलयकेतु आता है )

मलयकेतु---( लंबी सॉस लेकर---आप ही आप ) हा! देखो


  • प्राचीन काल में आचार्य, राजा आदि नीचों को नहीं देखते थे। [ ४७४ ]पिता को मरे आज दस महीने हुए और व्यर्थ वीरता का अभिमान करके अब तक हम लोगों ने कुछ भी नहीं किया, वरन तर्पण करना भी छोड़ दिया। या क्या हुआ, मैंने तो पहिले यही प्रतिज्ञा की है कि

कर वलय उर ताड़त गिरे, आँचरहु की सुधि नहिं परी।
मिलि करहि आरतनाद हाहा, अलक खुलि रज सों भरी॥
जो शोक सों भइ मातुगन की दशा से उलटायहैं।
करि रिपु जुवतिगन की साई गति पितहिं तृप्त करायहैं॥

और भी---

रन मरि पितु ढिग जात हम बीरन की गति पाय।
कै माता दूग-जल धरत रिपु-जुवती मुख लाय॥

( प्रकाश ) अजी जाजले! सब राजा लोगो से कहो कि "मैं बिना कहे-सुने राक्षस मंत्री के पास अकेला जाकर उनको प्रसन्न करूँगा, इससे वे सब लोग उधर ही ठहरें।"

कंचुकी---जो आज्ञा! ( घूमते-घूमते नेपथ्य की ओर देखकर ) अजी राजा लोग! सुनो, कुमार की आज्ञा है कि मेरे साथ कोई न चले ( देखकर आनंद से ) महाराज कुमार! आप देखिए। आपकी आज्ञा सुनते ही सब राजा रुक गए---

अति चपल जे रथ चलत, ते सुनि चित्र से तुरतहि भए।
जे खुरन खोदत नभ-पथहि, ते बाजिगन झुकि रुकि गए॥

[ ४७५ ]

जे रहे धावत, ठिठकि ते गज मूक घंटा सह सधे।
मरजाद तुव नहिं तजहिं नृपगण जलधि से मानहुँ बँधे॥

मलय०---अजी जाजले! तुम भी सब लोगों को लेकर जाओ, एक केवल भागुरायण मेरे संग रहे।

कंचुकी---जो आज्ञा।

[ सबको लेकर जाता है

मलय०---मित्र भागुरायण! जब मैं यहाँ आता था तो भद्रभट प्रभृति लोगो ने मुझसे निवेदन किया कि "हम राक्षस मंत्री के द्वारा कुमार के पास नहीं रहा चाहते, कुमार के सेनापति शिखरसेन के द्वारा रहेगे। दुष्ट मंत्री ही के डर तो चंद्रगुप्त को छोड़कर यहाँ सब बात का सुबीता जानकर कुमार का आश्रय लिया है।" सो उन लोगों की बात का मैंने आशय नहीं समझा।

भागुल---कुमार! यह तो ठीक ही है, क्योकि अपने कल्याण के हेतु सब लोग स्वामी का आश्रय हित और प्रिय के द्वारा करते हैं।

मलय०---मित्र भागुरायण! तो फिर राक्षस मंत्री तो हम लोगों का परम प्रिय और बड़ा हित है।

भागुल---ठीक है, पर बात यह है कि अमात्य राक्षस का बैर चाणक्य से है, कुछ चंद्रगुप्त से नहीं है, इससे जो चाणक्य की बातों से रूठकर चंद्रगुप्त उससे मंत्री का काम ले ले और नंदकुल की भक्ति से "यह नंद ही के वंश का है" [ ४७६ ]यह सोचकर राक्षस चंद्रगुप्त से मिल जाय और चंद्रगुप्त भी अपने बड़े लोगो का पुराना मंत्री समझकर उसको मिला ले, तो ऐसा न हो कि कुमार हम लोगो पर भी विश्वास न करे।

मलय०---ठीक है मित्र भागुरायण! राक्षस मंत्री का घर कहाँ है?

भागु०---इधर कुमार, इधर। ( दोनो घूमते है ) कुमार! यही राक्षस मंत्री का घर है---चलिए।

मलय०---चले।

[ दोनो भीतर जाते हैं

राक्षस---अहा! स्मरण आया। ( प्रकाश ) कहो जी! तुमने कुसुमपुर में स्तनकलस वैतालिक को देखा था?

कर०---क्यो नहीं?

मलय०---मित्र भागुरायण! जब तक कुसुमपुर की बातें हों तब तक हम लोग इधर ही ठहरकर सुनें कि क्या बात होती है: क्योकि---

भेद न कछु जामैं खुलै याही भय सब ठौर।
नृप सो मंत्रीजन कहहिं बात और की और॥

भागु०---जो आज्ञा। ( दोनो ठहर जाते है )

राक्षस---क्यो जी! वह काम सिद्ध हुआ?

कर०---अमात्य की कृपा से सब काम सिद्ध ही है।

मलय०---मित्र भागुरायण! वह कौन सा काम है?

भा० ना०--२४
[ ४७७ ]भागु०---कुमार! मंत्री के जी की बातें बड़ी गुप्त हैं। कौन जाने?

इससे देखिए अभी सुन लेते हैं कि क्या कहते हैं।

राक्षस---अजी, भली भॉति कहो।

कर०---सुनिए---जिस समय आपने आज्ञा दिया कि करभक, तुम जाकर वैतालिक स्तनकलस से कह दो कि जब-जब चाणक्य चंद्रगुप्त की आज्ञा भंग करे तब-तब तुम ऐसे श्लोक पढ़ो जिससे उसका जी और भी फिर जाय।

राक्षस---हाँ, तब?

कर०---तब मैंने पटने में जाकर स्तनकलस से आपका संदेसा कह दिया।

राक्षस---तब?

कर०---इसके पीछे नंदकुल के विनाश से दुःखी लोगों का जी बहलाने के हेतु चंद्रगुप्त ने कुसुमपुर में कौमुदीमहोत्सव होने की डौंड़ी पिटा दी और उसको बहुत दिन से बिछुड़े हुए मित्रों के मिलाप की भॉति पुर के निवासियों ने बड़ी प्रसन्नतापूर्वक स्नेह से मान लिया।

राक्षस---( आँसू भरकर ) हा देव नंद!

जदपि उदित कुमुदन सहित पाइ चांदनी चंद।
तदपि न तुम बिन लसत हे नृपससि! जगदानंद॥

हाँ, फिर क्या हुआ? [ ४७८ ]कर०---तब चाणक्य दुष्ट ने सब लोगों के नेत्र के परमानंददायक उस उत्सव को रोक दिया और उसी समय स्तनकलस ने ऐसे-ऐसे श्लोक पढ़े कि राजा का भी मन फिर जाय।

राक्षस---कैसे श्लोक थे।

कर०---('जिनको विधि सब' पढ़ता है )

राक्षस---वाह मित्र स्तनकलस, वाह क्यों न हो! अच्छे समय में भेदबीज बोया है, फल अवश्य होगा। क्योकि---

नृप रूठे अचरज कहा, सकल लोग जा संग।
छोटे हू मानै बुरो परे रंग में भंग॥

मलय०---ठीक है। ( नृप रूठे यह दोहा फिर पढ़ता है )

राक्षस---हॉ, फिर क्या हुआ?

कर०---तब आज्ञाभंग से रुष्ट होकर चंद्रगुप्त ने आपकी बड़ी प्रशंसा की और दुष्ट चाणक्य से अधिकार ले लिया।

मलय०---मित्र भागुरायण! देखो प्रशंसा करके राक्षस में चंद्रगुप्त ने अपनी भक्ति दिखाई।

भागु०---गुण-प्रशंसा से बढ़कर चाणक्य का अधिकार लेने से।

राक्षस---क्यो जी, एक कौमुदीमहोत्सव के निषेध ही से चाणक्य चंद्रगुप्त में बिगाड़ हुआ कि कोई और कारण भी है?

मलय०---क्यों मित्र भागुरायण! अब और बैर में यह क्या फल निकालेंगे?

भागु०---यह फल निकाला है कि चाणक्य बड़ा बुद्धिमान है, [ ४७९ ]वह व्यर्थ चंद्रगुप्त को क्रोधित न करावेगा और चंद्रगुप्त भी उसकी बात जानता है, वह भी बिना बात चाणक्य का ऐसा अपमान न करेगा, इससे उन लोगो में बहुत झगड़े से जो बिगाड़ होगा तो पक्का होगा।

कर०---आर्य! और भी कई कारण है।

राक्षस---कौन?

कर०---कि जब पहिले यहाँ से राक्षस और कुमार मलयकेतु भागे तब उसने क्यो नहीं पकड़ा?

राक्षस---( हर्ष से ) मित्र शकटदास! अब तो चंद्रगुप्त हाथ में आ जायगा।

शकट०---अब चंदनदास छूटेगा, और आप कुटुंब से मिलेगे, वैसे ही जीवसिद्धि इत्यादि लोग क्लेश से छूटेंगे।

भागु०---( आप ही आप ) हॉ, अवश्य जीवसिद्धि का क्लेश छूटा।

मलय०---मित्र भागुरायण! अब मेरे हाथ चंद्रगुप्त आवेगा, इसमें इनका क्या अभिप्राय है?

भागु०---और क्या होगा? यही होगा कि यह चाणक्य से छूटे चंद्रगुप्त के उद्धार का समय देखते है।

राक्षस---अजी, अब अधिकार छिन जाने पर वह ब्राह्मण कहाँ है? कर०---अभी तो पटने ही में है। [ ४८० ]मलय०---( आगे बढ़कर ) मैं आप ही आपसे मिलने को आया हूँ।

राक्षस---( आसन से उठकर ) अरे कुमार आप ही आ गए! आइए, इस आसन पर बैठिए।

मलय०---मैं बैठता हूँ आप बिराजिए।

( दोनों बैठते हैं )

मलय०---इस समय सिर की पीड़ा कैसी है?

राक्षस---जब तक कुमार के बदले महाराज कहकर आपको नहीं पुकार सकते तब तक यह पीड़ा कैसे छूटेगी।

मलय०---आपने जो प्रतिज्ञा की है तो सब कुछ होईगा। परंतु सब सेना सामंत के होते भी अब आप किस बात का आसरा देखते हैं।

राक्षस---किसी बात का नहीं, अब चढाई कीजिए।

मलय०---अमात्य! क्या इस समय शत्रु किसी संकट में है?

राक्षस---बड़े।

मलय०---किस संकट में?

राक्षस---मंत्री-संकट में।

मलय०---मंत्री-संकट तो कोई संकट नहीं है।

राक्षस---और किसी राजा को न हो तो न हो, चंद्रगुप्त को तो अवश्य है। [ ४८१ ]मलय०---आर्य! मेरी जान में चंद्रगुप्त को और भी नहीं है।

राक्षस---आपने कैसे जाना कि चंद्रगुप्त को मंत्री-संकट संकट नहीं है?

मलय०---क्योकि चंद्रगुप्त के लोग तो चाणक्य के कारण उससे उदास रहते हैं, जब चाणक्य ही न रहेगा तब उसके सब कामों को लोग और भी संतोष से करेंगे।

राक्षस---कुमार, ऐसा नहीं है, क्योकि वहाँ दो प्रकार के लोग हैं---एक चंद्रगुप्त के साथी, दूसरे नंदकुल के मित्र, उनमें जो चंद्रगुप्त के साथी हैं उनको चाणक्य ही से दुःख था; नंदकुल के मित्रो को कुछ दुःख नहीं है, क्योकि वह लोग तो यही सोचते हैं कि इसी कृतघ्न चंद्रगुप्त ने राज के लोभ से अपने पितृकुल का नाश किया है, पर क्या करें उनका कोई आश्रय नहीं है इससे चंद्रगुप्त के आसरे पड़े है। जिस दिन आपको शत्रु के नाश में और अपने पक्ष के उद्धार में समर्थ देखेंगे उसी दिन चंद्रगुप्त को छोड़कर आपसे मिल जायँगे, इसके उदाहरण हमी लोग है।

मलय०---आर्य! चंद्रगुप्त पर चढाई करने का एक यही कारण है कि कोई और भी है?

राक्षस---और बहुत क्या होंगे एक यही बड़ा भारी है। [ ४८२ ]मलय०---क्यो आर्य! यही क्यो प्रधान है? क्या चंद्रगुप्त और मंत्रियों से या आप अपना काम करने में असमर्थ है?

राक्षस---निरा असमर्थ है।

मलय०---क्यो?

राक्षस---यो कि जो आप राज्य सँभालते है या जिनका राज राजा और मंत्री दोनो करते हैं वह राजा ऐसे हों तो हों; परंतु चंद्रगुप्त तो कदापि ऐसा नहीं है। चंद्रगुप्त एक तो दुरात्मा है, दूसरे वह तो सचिव ही के भरोसे सब काम करता है, इससे वह कुछ व्यवहार जानता ही नहीं, तो फिर वह सब काम कैसे कर सकता है? क्योकि---

लक्ष्मी करत निवास अति प्रबल सचिव नृप पाय।
पै निज बाल-सुभाव सों इकहिं तजत अकुलाय॥

और भी--

जो नृप बालक सों रहत सदा सचिव के गोद।
बिन कछु जग देखे सुने, सो नहिं पावत मोद॥

मलय०---( आप ही आप ) तो हम अच्छे हैं कि सचिव के अधिकार में नहीं। ( प्रकाश ) अमात्य! यद्यपि यह ठीक है तथापि जहाँ शत्रु के अनेक छिद्र हैं तहाँ एक इसी सिद्धि से सब काम न निकलेगा।

राक्षस---कुमार के सब काम इसी से सिद्ध होंगे। देखिए, [ ४८३ ]

चाणक्य को अधिकार छूट्यौ चंद्र है राजा नए।
पुर नंद में अनुरक्त तुम निज बल सहित चढते भए॥

जब आप हम---( कहकर लज्जा से कुछ ठहर जाता है )

तुव बस सकल उद्यम सहित रन मति करी।
वह कौन सी नृप! बात जो नहिं सिद्धि ह्वै है ता घरी॥

मलय०---अमात्य! जो अब आप ऐसा लड़ाई का समय देखते हैं तो देर करके क्यो बैठे हैं? देखिए---

इनको ऊँचो सीस है, वाको उच्च करार।
श्याम दोऊ, वह जल स्त्रवत, ये गंडन मधु-धार॥
उतै भँवर को शब्द, इत भँवर करत गुंजार।
निज सम तेहि लखि नासिहैं, दंतन तोरि कछार॥
सीस सोन सिंदूर सो ते मतंग बल दाप।
सोन सहज ही सोखिहै निश्चय जानहु आप॥

और भी---

गरजि गरजि गंभीर रव, बरसि बरसि मधु-धार।
सत्रु-नगर गज घेरिहैं, घन जिमि विविध पहार॥

( शस्त्र उठाकर भागुरायण के साथ जाता है )

राक्षस---कोई है?

( प्रियंबदक आता है )

प्रियंबदक---आज्ञा। [ ४८४ ]राक्षस---देख तो द्वार पर कौन भिक्षुक खड़ा है?

प्रियं०---जो आज्ञा। ( बाहर जाकर फिर आता है ) अमात्य! एक क्षपणक भिक्षुक।

राक्षस---( असगुन जानकर आप ही आप ) पहिले ही क्षपणक का दर्शन हुआ।

प्रियंक---जीवसिद्धि है।

राक्षस---अच्छा बोलाकर ले आ।

प्रियं०---जो आज्ञा।

[जाता है

( क्षपणक आता है )

क्षपणक---

पहिले कटु परिणाम मधु, औषध-सम उपदेस।
मोह व्याधि के वैद्य गुरु, तिनको सुनहु निदेस॥

( पास जाकर ) उपासक! धर्म लाभ हो!

राक्षस---ज्योतिषीजी, बताओ, अब हम लोग प्रस्थान किस दिन करें?

क्षप०---( कुछ सोचकर ) उपासक! मुहूर्त तो देखा। आज भद्रा तो पहर पहिले ही छूट गई है और तिथि भी संपूर्णचंद्रा पौर्णमासी है। आप लोगों को उत्तर से दक्षिण जाना है और नक्षत्र भी दक्षिण ही है।

अथए सूरहि, चंद के उदए गमन प्रशस्त।
पाइ लगन बुध केतु तौ उदयो हू भो अस्त॥*


  • भद्रा छूट गई अर्थात् कल्याण को तो आपने जब चन्द्रगुप्त का पक्ष [ ४८५ ]राक्षस---अजी पहिले तो तिथि ही नहीं शुद्ध है।

क्षप०---उपासक!

एक गुनी तिथि होत है, त्यौं चौगुन नक्षत्र।
लगन होत चौंतिस गुनो, यह भाखत सब पत्र॥
लगन होत है शुभ लगन छोड़ि कूर ग्रह एक।
जाहु चंद बल देखि कै पावहु लाभ अनेक॥*


छोड़ा तभी छोडा और संपूर्ण-चंद्रा पौर्णमासी है अर्थात् चंद्रगुप्त का प्रताप पूर्ण व्याप्त है। उत्तर नाम, प्राचीन पक्ष छोड़ेकर दक्षिण अर्थात् यम की दिशा को जाना है। नक्षत्र दक्षिण है अर्थात् आपका बाम ( विरुद्ध पक्ष ) नक्षत्र और आपका दक्षिण पक्ष ( मलयकेतु ) नक्षत्र ( बिना क्षत्र के ) है। अथए इत्यादि, तुम जो सूर हो उसकी बुद्धि के अस्त के समय और चद्रगुप्त के उदय के समय जाना अच्छा है अर्थात् चाणक्य की ऐसे समय में जय होगी। लग्न अर्थात् कारण भाव में बुध चाणक्य पड़ा है इससे केतु अर्थात्म लयकेतु का उदय भी है तो भी अस्त ही होगा। अर्थात् इस युद्ध में चंद्रगुप्त जीतेगा और मलयकेतु हारेगा। सूर अथए--इस पद से जीवसिद्धि ने अमगल भी किया। आश्विन पूर्णिमा तिथि, भरणी नक्षत्र, गुरुवार, मेष के चंद्रमा मीन लग्न में उसने यात्रा बतलाई। इसमे भरणी नक्षत्र गुरुवार, पूर्णिमा तिथि यह सब दक्षिण को यात्रा में निषिद्ध हैं। फिर सूर्य मृत है, चन्द्र जीवित है यह भी बुरा है। लग्न में मीन का बुध पड़ने से नीच का होने से बुरा है। यात्रा में नक्षत्र दक्षिण होने ही से बुरा है।

  • अर्थात् मलयकेतु का साथ छोड़ दो तो तुम्हारा भला हो। वास्तव

में चाणक्य के मित्र होने से जीवसिद्ध ने साइत भी उलटी दी। ज्योतिष के अनुसार अत्यत क्रूर बेला, क्रूर ग्रहवेध में युद्ध आरभ होना चाहिए। उसके विरुद्ध सौम्य समय में युद्ध यात्रा कही, जिसका फल पराजय है। [ ४८६ ]राक्षस---अजी, तुम और जोतिषियो से जाकर झगड़ो।

क्षप०---आप ही झगड़िए, मैं जाता हूँ।

राक्षस---क्या आप रूस तो नहीं गए?

क्षप०---नहीं, तुमसे जोतिषी नहीं रूसा है।

राक्षस---तो कौन रूसा है?

क्षप०---( आप ही आप ) भगवान्, कि तुम अपना पक्ष छोड़कर शत्रु का पक्ष ले बैठे हो।

[ जाता है

राक्षस---प्रियंबदक! देख तो कौन समय है।

प्रियं०---जो आज्ञा। ( बाहर से हो आता है ) आर्य! सूर्यास्त होता है।

राक्षस---( आसन से उठकर और देखकर ) अहा! भगवान् सूर्य अस्ताचल को चले----

जब सूरज उदयो प्रबल, तेज धारि आकास।
तब उपवन तरुवर सबै छायाजुत भे पास॥
दूर परे ते तरु सबै अस्त भए रवि-ताप।
जिमि धन-बिन स्वामिहि तजै भृत्य स्वारथी आप॥

( दोनों जाते हैं )