भारतेंदु-नाटकावली/५–मुद्राराक्षस/तृतीय अंक
तृतीय अंक
स्थान---राजभवन की अटारी
( कंचुकी आता है )
हे रूप आदिक विषय जो राखे हिये बहु लोभ सों।
सो मिटे इंद्रीगन सहित ह्वै सिथिल अतिही छोम सों॥
मानत कह्यो कोउ नाहिं सब अंग अंग ढीले है गए।
तौहू न तृष्णे! क्यौं तजत तू मोहि बूढोहू भए॥
( आकाश की ओर देखकर ) अरे! अरे! सुगांगप्रासाद के लोगो! सुनो। महाराज चंद्रगुप्त ने तुम लोगों को यह आज्ञा दी है कि 'कौमुदी-महोत्सव के होने से परम शोभित कुसुमपुर को मैं देखना चाहता हूँ' इससे उस अटारी को बिछौने इत्यादि से सज रखो, देर क्यो करते हो! ( आकाश की ओर देखकर ) क्या कहा? कि क्या महाराज चंद्रगुप्त नहीं जानते कि कौमुदी-महोत्सव अब की न होगा? दुर दइमारो! क्या मरने को लगे हो? शीघ्रता करो।
सवैया
बहु फूल की माल लपेट कै खंभन धूप सुगंध सो ताहि धुपाइए।
तापैं चहूँ दिस चंद छपा से सुसोभित चौंर घने लटकाइए॥
भार सों चारु सिंहासन के मुरछा में धरा परी धेनु सी पाइए।
छींटि के तापै गुलाब मिल्यौ जल चंदन ताकहँ जाइ जगाइए॥
(आकाश की ओर देखकर ) क्या कहते हो कि 'हम लोग अपने काम में लग रहे हैं?' अच्छा-अच्छा झटपट सब सिद्ध करो। देखो! वह महाराज चंद्रगुप्त आ पहुँचे।
बहु दिन श्रम करि नंद नृप बह्यो राज-धुर जौन।
बालेपन ही में लियौ चंद्र सीस निज तौन॥
डिगत न नेकहु विषम पथ दृढ प्रतिज्ञ दृढ गात।
गिरन चहत सम्हरत बहुरि नेकु न जिय घबरात॥
( नेपथ्य में---इधर महाराज इधर। राजा और प्रतिहारी आते हैं )
राजा---( आप ही आप ) राज उसी का नाम है जिसमें अपनी आज्ञा चले, दूसरे के भरोसे राज करना भी एक बोझा ढोना है। क्योंकि---
जो दूजे को हित करै तौ खोवै निज काज।
जो खोयो निज काज तौ कौन बात को राज॥
दूजे ही को हित करै तौ वह परबस मूढ़।
कठपुतरी सो स्वाद कछु पावै कबहुँ न कूढ़॥
और राज्य पाकर भी इस दुष्ट राजलक्ष्मी को सम्हालना बहुत कठिन है। क्योंकि---
कूर सदा भाखत पियहि चंचल सहज सुभाव।
नर गुन औगुन नहिं लखति सजन खल सम भाव॥
डरति सूर सो भीरु कहँ गिनति न कछु रति-हीन।
बारनारि अरु लच्छमी कहो कौन बस कीन?॥
यद्यपि गुरु ने कहा है कि तू झूठी कलह करके स्वतंत्र होकर अपना प्रबंध आप कर ले, पर यह तो बड़ा पाप सा है। अथवा गुरुजी के उपदेश पर चलने से हम लोग तो सदा ही स्वतंत्र हैं।
जब लौं बिगारै काज नहिं तब लौं न गुरु कछु तेहि कहै।
पै शिष्य जाइ कुराह तौ गुरु सीस अंकुस है रहै॥
तासो सदा गुरु-वाक्य-वश हम नित्य पर-आधीन हैं।
निर्लोभ गुरु से संत जन ही जगत में स्वाधीन हैं॥
( प्रकाश ) अजी वैहीनर! "सुगांगप्रासाद" का मार्ग दिखाओ।
कंचुकी---इधर आइए, महाराज, इधर।
( राजा आगे बढ़ता है )
कंचुकी---महाराज! सुगांगप्रासाद की यही सीढी है।
राजा---( ऊपर चढ़कर ) अहा! शरद ऋतु की शोभा से सब दिशाएँ कैसी सुंदर हो रही हैं!
सरद बिमल ऋतु सोहई निरमल नील अकास।
निसानाथ पूरन उदित सोलह कला प्रकास॥
चारु चमेली बन रही महमह महँकि सुबास।
नदी तीर फूले लखौ सेत सेत बहु कास॥
कमल कुमोदिनि सरन में फूले सोभा देत।
भौर वृंद जापै लखौ गँजि गँजि रस लेत॥
बसन चॉदनी, चंद मुख, उडुगन मोती माल।
कास फूल मधु हास, यह सरद किधौं नव बाल॥
( चारों ओर देखकर ) कंचुको! यह क्या? नगर में "चंद्रिकोत्सव" कहीं नहीं मालूम पड़ता; क्या तूने सब लोगों से ताकीद करके नहीं कहा था कि उत्सव हो?
कंचुकी---महाराज! सबसे ताकीद कर दी थी।
राजा---तो फिर क्यों नहीं हुआ? क्या लोगों ने हमारी आज्ञा नहीं मानी?
कंचुकी---( कान पर हाथ रखकर ) राम राम! भला नगर क्या, इस पृथ्वी में ऐसा कौन है जो अपकी आज्ञा न माने?
राजा---तो फिर चंद्रिकोत्सव क्यों नहीं हुआ? देख न---
गज रथ बाजि सजे नहीं, बँधी न बंदनवार।
तने बितान न कहुँ नगर, रंजित कहूँ न द्वार॥
नर नारी डोलत न कहुँ फूल माल गल डार।
नृत्य बाद धुनि गीत नहिं सुनियत श्रवन मँझार॥
कंचुकी---महाराज! ठीक है, ऐसा ही है।
राजा---क्यों ऐसा ही है?
कंचुकी---महाराज योंही है। राजा---स्पष्ट क्यो नहीं कहता?
कंचुकी---महाराज! चंद्रिकोत्सव बंद किया गया है।
राजा---( क्रोध से )किसने बंद किया है?
कंचुकी---( हाथ जोड़कर ) महाराज! यह मैं नहीं कह सकता।
राजा---कहीं आर्य चाणक्य ने तो नहीं बंद किया?
कंचुकी---महाराज! और किसको अपने प्राणों से शत्रुता करनी थी?
राजा---( अत्यंत क्रोध से ) अच्छा, अब हम बैठेंगे।
कंचुकी---महाराज! यह सिंहासन है, बिराजिए।
राजा---( बैठकर क्रोध से ) अच्छा, कंचुकी! आर्य चाणक्य से कह कि "महाराज आपको देखा चाहते हैं।"
कंचुकी---जो आज्ञा।
[ बाहर जाता है
( एक ओर परदा उठता है और चाणक्य बैठा हुआ दिखाई पड़ता है )
चाणक्य---( आप ही आप ) दुष्ट राक्षस हमारी बराबरी करता है, वह जानता है कि---
जिमि हम नृप अपमान सों महा क्रोध उर धारि।
करी प्रतिज्ञा नंद नृप नासन की निरधारि॥
सो नृप नंदहि पुत्र सह नासि करी हम पूर्ण।
चंद्रगुप्त राजा कियो करि राक्षस-मद चूर्ण॥
तिमि सोऊ मोहि नीति-बल छलन चहत हति चंद।
पै मो आछत यह जतन वृथा तासु अति मंद॥
जिमि नृप नंदहि मारि कै वृषलहि दीनों राज।
आइ नगर चाणक्य किय दुष्ट सर्प सों काज॥
तिमि सोऊ नृप चंद्र को चाहत करन बिगार।
निज लघु मति लॉघ्यौ चहत मो बल-बुद्धि-पहार॥
( आकाश की ओर देखकर ) अरे राक्षस! मेरा पीछा छोड़। क्योकि---
राज काज मंत्री चतुर करत बिना अभिमान।
जैसो तुव नृप नंद हो चद्र न तौन समान॥
तुम कछु नहिं चाणक्य जो साधौ कठिनहु काज।
तासों हम सो बैर करि नहिं सरिहै तुव राज॥
अथवा इसमें तो मुझे कुछ सोचना ही न चाहिए। क्योंकि---
मम भागुरायन आदि भृत्यन मलय राख्यौ घेरि के।
तिमि गए सिद्धारथक ऐहै तेउ काज निबेरि कै॥
अब लखहु करि छल कलह नृप सों भेद बुद्धि उपाइ कै।
पर्बत जनन सों हम बिगारत राक्षसहिं उलटाइ कै॥
कंचुकी---हा! सेवा बड़ी कठिन होती है।
नृप सों सचिव सों सब मुसाहेब-गनन सों डरते रहौ।
पुनि विटहु जे अति पास के तिनकौं कह्यौ करते रहौ॥
मुख लखत बीतत दिवस निसि भय रहत संकित प्रान है।
निज उद-पूरन हेतु सेवा श्वान-वृत्ति समान है॥
( चारों ओर घूमकर देखकर )
अहा! यही आर्य चाणक्य का घर है तो चलूँ। ( कुछ आगे बढ़कर और देखकर ) अहाहा! यह राजाधिराज श्रीमंत्रीजी के घर की संपत्ति है। जो---
कहुँ परे गोमय शुष्क, कहुँ सिल पीर सोभा दै रही।
कहुँ तिल, कहूँ जव-रासि लागी बटुन जो भिक्षा लही॥
कहुँ कुस परे कहुँ समिध सूखत भार सो ताके नयो।
यह लखौ छप्पर महा जरजर होइ कैसो झुकि गयो॥
महाराज चंद्रगुप्त के भाग्य से ऐसा मंत्री मिला है---
बिन गुनहूँ के नृपन को धन हित गुरुजन धाइ।
सूखो मुख करि झूठहीं बहु गुन कहहिं बनाइ॥
पै जिनको तृष्णा नहीं ते न लबार समान।
तिनसो तृन सम धनिक जन पावत कबहुँ न मान॥
( देखकर डर से ) अरे आर्य चाणक्य यहाँ बैठे है, जिन्होने---
लोक ध्रषि चंद्रहि कियो राजा नंद गिराइ।
होत प्रात रवि के कढ़त जिमि ससि तेज नसाइ॥
( प्रगट दंडवत् करके ) जय हो! आर्य की जय हो!!
चाणक्य---( देखकर ) कौन है वैहीनर! क्यों आया है? कंचुकी---आर्य! अनेक राजगणो के मुकुट-माणिक्य से सर्वदा जिनके पदतल लाल रहते हैं उन महाराज चंद्रगुप्त ने आपके चरणो में दंडवत् करके निवेदन किया है कि "यदि आपके किसी कार्य में विघ्न न पड़े तो मैं आपका दर्शन किया चाहता हूँ।"
चाणक्य---वैहीनर! क्या वृषल मुझे देखा चाहता है? क्या मैंने कौमुदी-महोत्सव का प्रतिषेध कर दिया है यह वृषल नहीं जानता?
कंचुकी---अार्य, क्यों नहीं।
चाणक्य---( क्रोध से ) हैं? किसने कहा बोल तो?
कंचुकी---( भय से ) महाराज प्रसन्न हों, जब सुगांगप्रासाद की अटारी पर गए थे तो देखकर महाराज ने आप ही जान लिया कि कौमुदी-महोत्सव अब की नहीं हुआ।
चाणक्य---अरे ठहर, मैंने जाना यह तुम्हीं लोगो ने वृषल का जी मेरी ओर से फेरकर उसे चिढ़ा दिया है, और क्या।
( कचुकी भय से नीचा मुँह करके चुप रह जाता है )
चाणक्य---अरे राज के कारबारियो का चाणक्य के ऊपर बड़ा ही विद्वेष पक्षपात है। अच्छा, वृषल कहाँ है? बता।
कंचुकी---( डरता हुआ ) आर्य! सुगांगप्रासाद की अटारी पर से महाराज ने मुझे आपके चरणो में भेजा है। चाणक्य---( उठकर ) कंचुकी! सुगांगप्रासाद का मार्ग बता।
कंचुकी---इधर, महाराज। ( दोनों घूमते है )
कंचुकी---महाराज! यह सुगांगप्रासाद की सीढ़ियाँ हैं, चढ़ें।
( दोनों सुगांगप्रासाद पर चढ़ते हैं और चाणक्य के घर का परदा गिरके छिप जाता है )
चाणक्य---( चढ़कर और चंद्रगुप्त को देखकर प्रसन्नता से आप ही आप ) अहा! वृषल सिंहासन पर बैठा है---
हीन नंद सों रहित नृप चंद्र करत जेहि भोग।
परम होत संतोष लखि आसन राजा जोग॥
( पास जाकर ) जय हो वृषल की!
चंद्रगुप्त---( उठकर और पैरो पर गिरकर ) आर्य! चंद्रगुप्त दंडवत् करता है।
चाणक्य---( हाथ पकड़कर उठाकर ) उठो बेटा! उठो।
जहँ लौं हिमालय के सिखर सुरधुनी-कन सीतल रहै।
जहँ लौं विविध मणिखंड-मंडित समुद दच्छिन दिसि बहै॥
तह लौं सबै नृप आइ भय सों तोहि सीस झुकावहीं।
तिनके मुकुट-मणि-रँगे तुष पद निरखि हम सुख पावहीं॥
चंद्र०---आर्य! आपकी कृपा से ऐसा ही हो रहा है। बैठिए।
( दोनों यथास्थान बैठते हैं )
चाणक्य---वृषल! कहो, मुझे क्यो बुलाया है? चंद्रगुप्त---आर्य के दर्शन से कृतार्थ होने को।
चाणक्य---( हँसकर ) भया, बहुत शिष्टाचार हुआ, अब बताओ क्यों बुलाया है? क्योंकि राजा लोग किसी को बेकाम नहीं बुलाते।
चंद्र०---आर्य! आपने कौमुदी-महोत्सव के न होने में क्या फल सोचा है?
चाणक्य---( हँसकर ) तो यही उलाहना देने को बुलाया है न
चंद्र०---उलाहना देने को कभी नहीं।
चाणक्य---तो क्यों?
चंद्र०---पूछने को।
चाणक्य---जब पूछना ही है तब तुमको इससे क्या? शिष्य को सर्वदा गुरु की रुचि पर चलना चाहिए।
चंद्र०---इसमें कोई संदेह नहीं पर आपकी रुचि बिना प्रयोजन नहीं प्रवृत्त होती, इससे पूछा।
चाणक्य---ठीक है, तुमने मेरा आशय जान लिया, बिना प्रयोजन के चाणक्य की रुचि किसी ओर कभी फिरती ही नहीं।
चंद्र०---इसी से तो सुनने बिना मेरा जी अकुलाता है।
चाणक्य---सुनो, अर्थशास्त्रकारों ने तीन प्रकार के राज्य लिखे हैं---एक राजा के भरोसे, दूसरा मंत्री के भरोसे, तीसरा राजा और मंत्री दोनो के भरोसे; सो तुम्हारा राज तो केवल सचिव के भरोसे है, फिर इन बातो के पूछने से क्या? व्यर्थ मुँह दुखाना है, यह सब हम लोगो के भरोसे है, हम लोग जानें।
( राना क्रोध से मुँह फेर लेता है; नेपथ्य में दो वैतालिक गाते हैं )
( राग बिहाग )
अहो यह शरद शंभु ह्वै आई।
कास-फूल फूले चहुँ दिसि तें सोइ मनु भस्म लगाई॥
चंद उदित सोइ सीस अभूषन सोभा लगति सुहाई।
तासो रंजित घन-पटली सोइ मनु गज-खाल बनाई॥
"फूले कुसुम मुंडमाला सोइ सोहत अति धवलाई।
राजहंस सोभा सोइ मानों हास-विभव दरसाई॥
अहो यह शरद शंभु बनि आई
( राग कलिगडा )
हरौ हरि-नैन तुम्हारी बाधा।
सरद-अंत लखि सेस-अंक तें जगे जगत-सुभ-साधा॥
कछु कछु खुले मुँदे कछु सोभित आलस भरि अनियारे।
अरुन कमल से मद के माते थिर भे जदपि ढरारे॥
सेस-सीस-मनि-चमक-चकौंधन तनिकहुँ नहिं सकुचाहीं।
नींद भरे श्रम जगे चुभत जे नित कमला-उर माहीं॥
हरौ हरि-नैन तुम्हारी बाधा।
अहो, जिनको बिधि सब जीव सों बढ़ि दीनो जग काज।
अरे, दान-सलिल-वारे सदा जे जीतहिं गजराज॥
अहो, मुक्यो न जिनको मान ते नृपवर जग सिरताज।
अरे, सहहिं न आज्ञा-भंग जिमि इंतपात मृगराज॥
अरे, केवल बहु गहिना पहिरि राजा होइ न कोय।
अहो, जाकी नहिं आज्ञा टरै सो नृप तुम सम होय॥
चाणक्य---( सुनकर आप ही आप ) भला पहिले ने तो देवता रूप शरद के वर्णन में आशीर्वाद दिया, पर इस दूसरे ने क्या कहा? ( कुछ सोच कर ) अरे जाना, यह सब राक्षस की करतूत है। अरे दुष्ट राक्षस! क्या तू नहीं जानता कि अभी चाणक्य सो नहीं गया है?
चंद्र०---अजी वैहीनर! इन दोनो गानेवालों को लाख-लाख मोहर दिलवा दो।
वैहीनर---जो आज्ञा महाराज। ( उठकर जाना चाहता है )
चाणक्य---वैहीनर, ठहर अभी मत जा। वृषल, कुपात्र को इतना क्यों देते हो?
चन्द्र०---आप मुझे सब बातों में योंही रोक दिया करते हैं, तब यह मेरा राज क्या है वरन उलटा बंधन है।
चाणक्य---वृषल! जो राजा आप असमर्थ होते हैं उनमें इतना ही तो दोष है, इससे जो ऐसी इच्छा हो तो तुम अपने राज का प्रबंध आप कर लो।
चंद्र०---बहुत अच्छा, आज से मैंने सब काम सम्हाला।
चाणक्य---इससे अन्छी और क्या बात है, तो मैं भी अपने अधिकार पर सावधान हूँ।
चंद्र०---जब यही है तो पहिले मैं पूछता हूँ कि कौमुदी-महोत्सव का निषेध क्यों किया गया?
चाणक्य---मैं भी यही पूछता हूँ कि उसके होने का प्रयोजन क्या था?
चंद्र०---पहिले तो मेरी आज्ञा का पालन।
चाणक्य---मैंने भी आपकी आज्ञा के अपालन के हेतु ही कौमुदी-महोत्सव का प्रतिषेध किया, क्योकि---
आइ चारहू सिंधु के छोरहु के भूपाल।
जो शासन सिर मैं धरै जिमि फूलन की माल॥
तेहि हम जौ कछु टारहीं सोउ तुव हित उपदेस।
जासो तुमरो विनये गुन जग मैं बढे नरेस॥
चंद्र०---और जो दूसरा प्रयोजन है वह भी सुनूँ।
चाणक्य---वह भी कहता हूँ।
चंद्र०---कहिए।
चाणक्य---शोणोत्तरे! अचलदत्त कायस्थ से कहो कि तुम्हारे पास जो भद्रभट इत्यादिकों का लेखपत्र है यह माँगा है।
चाणक्य---वृषल, सुनो।
चंद्र---मैं उधर ही कान लगाए हूँ।
चाणक्य---( पढ़ता है ) स्वस्ति परम प्रसिद्ध नाम महाराज श्री चंद्रगुप्त देव के साथी जो अब उनको छोड़ कर कुमार मलयकेतु के आश्रित हुए हैं उनका यह प्रतिज्ञापत्र है। पहिला गजाध्यक्ष भद्रभट, अश्वाध्यक्ष पुरुषदत्त, महाप्रतिहार चंद्रभानु का भानजा हिंगुरात, महाराज के नातेदार महाराज बलगुप्त, महाराज के लड़कपन का सेवक राजसेन, सेनापति सिंहबलदत्त का छोटा भाई भागुरायण, मालव के राजा का पुत्र रोहिताक्ष और क्षत्रियो में सबसे प्रधान विजयवर्मा ( आप ही आप ) ये हम सब लोग यहाँ महाराज का काम सावधानी से साधते हैं ( प्रकाश ) यही इस पत्र में लिखा हैं। सुना?
चंद्र०---आर्य! मैं इन सबों के उदास होने का कारण सुनना चाहता हूँ।
चाणक्य---वृषल! सुनो---वे जो गजाध्यक्ष और अश्वाध्यक्ष थे वे रात-दिन मद्य, स्त्री और जुआ में डूबकर अपने काम से निरे बेसुध रहते थे। इससे मैंने उनसे अधिकार लेकर केवल निर्वाह के योग्य जीविका कर दी थी, इससे उदास होकर कुमार मलयकेतु के पास चले गए और वहाँ अपना-अपना कार्य सुनाकर फिर उसी पद पर नियुक्त हुए हैं, और हिंगुरात और बलगुप्त ऐसे लालची हैं कि कितना भी दिया पर अंत में मारे लालच के कुमार मलयकेतु के पास इस लोभ से जा रहे कि यहीं बहुत मिलेगा, और जो आपका लड़कपन का सेवक राजसेन था उसने आपकी थोड़ी ही कृपा से हाथी, घोड़ा, घर और धन सब पाया, पर इस भय से भागकर मलयकेतु के पास चला गया कि यह सब छिन न जाय, और वह जो सिंहबलदत्त सेनापति का छोटा भाई भागुरायण है उससे पर्वतक से बड़ी प्रीति थी सो उसने कुमार मलयकेतु से यह कहा कि "जैसे विश्वासघात करके चाणक्य ने तुम्हारे पिता को मार डाला वैसे ही तुम्हे भी मार डालेगा, इससे यहाँ से भाग चलो", ऐसे ही बहकाकर कुमार मलयकेतु को भगा दिया और जब आपके बैरी चंदनदासादिकों को दंड हुआ तब मारे डर के मलयकेतु के पास जा रहा। उसने भी यह समझ कर कि इसने मेरे प्राण बचाए और मेरे पिता का परिचित भी है उसको कृतज्ञता से अपना अंतरंगी मंत्री बनाया है, और वे जो रोहिताक्ष और विजयवर्मा थे वे ऐसे अभिमानी थे कि जब आप उनके और नातेदारो का आदर करते थे तब वह कुढ़ते थे, इसी से वे भी मलयकेतु के पास चले गए, बस, यही उन लोगो की उदासी का कारण है।
चंद्र०---आर्य! जब इन सबके भागने का उद्यम जानते ही थे तो क्यों न रोक रखा?
चाणक्य---ऐसा कर नहीं सके।
चंद्र०---क्या आप इसमें असमर्थ हो गए वा कुछ उसमें भी प्रयोजन था?
चाणक्य---असमर्थ कैसे हो सकते हैं? उसमें भी कुछ प्रयोजन ही था।
चंद्र०---आर्य! वह प्रयोजन मैं सुनना चाहता हूँ।
चाणक्य---सुनो और भूल मत जाओ।
चंद्र०---आर्य! मैं सुनता हई हूँ, भूलूँगा भी नहीं, कहिए।
चाणक्य---अब जो लोग उदास हो गए हैं या बिगड़ गए हैं उनके दो ही उपाय हैं, या तो फिर से उन पर अनुग्रह करें या उनको दंड दें और भद्रभट, पुरुषदत्त से जो अधिकार ले लिया गया है तो अब उन पर अनुग्रह यही है कि फिर उनको उनका अधिकार दिया जाय; और यह हो नहीं सकता, क्योंकि उनको मृगया, मद्यपानादिक का जो व्यसन है इससे इस योग्य नहीं हैं कि हाथी, घोड़ों को सम्हालें और सब सेना की जड़ हाथी घोड़े ही हैं। वैसे ही हिंगुरात, बलगुप्त को कौन प्रसन्न कर सकता है, क्योकि उनको सब राज्य पाने से भी संतोष न होगा, और राजसेन और भागुरायण तो धन और प्राण के डर से भागे हैं; ये तो प्रसन्न होई नहीं सकते, और रोहिताक्ष, विजयवर्मा का तो कुछ पूछना ही नहीं है, क्योकि वे तो और नातेदारो के मान से जलते हैं और उनका कितना भी मान करो, उन्हे थोड़ा ही दिखलाता है; तो इसका क्या उपाय है। यह तो अनुग्रह का वर्णन हुआ, अब दंड का सुनिए। यदि हम इन सबो को प्रधान पद पाकर के जो बहुत दिनो से नंदकुल के सर्वदा शुभाकांक्षी और साथी रहे दंड देकर दुखी करें तो नंदकुल के साथियो का हम पर से विश्वास उठ जाय, इससे छोड़ ही देना योग्य समझा, सो इन्हीं सब हमारे भृत्यों को पक्षपाती बनाकर राक्षस के उपदेश से म्लेच्छराज की बड़ी सहायता पाकर और अपने पिता के वध से क्रोधित होकर पर्वतक का पुत्र कुमार मलयकेतु हम लोगो से लड़ने को उद्यत हो रहा है, सो यह लड़ाई के उद्योग का समय है उत्सव का समय नहीं। इससे गढ़ के संस्कार के समय कौमुदी-महोत्सव क्या होगा, यही सोच कर उसका प्रतिषेध कर दिया।
चंद्र०---आर्य! मुझे अभी इसमें बहुत कुछ पूछना है।
चाणक्य---भली भाँति पूछो, क्योकि मुझे भी बहुत कुछ कहना है। चंद्र०---यह पूछता हूँ---
चाणक्य---हाँ! मैं भी कहता हूँ।
चंद्र०---यह कि हम लोगों के सब अनर्थों की जड़ मलयकेतु है; उसे आपने भागते समय क्यों नहीं पकड़ा?
चाणक्य---वृषल! मलयकेतु के भागने के समय भी दो ही उपाय थे---या तो मेल करते या दंड देते। जो मेल करते तो आधा राज देना पड़ता और जो दंड देते तो फिर यह हम लोगों की कृतघ्नता सब पर प्रसिद्ध हो जाती कि इन्हीं लोगों ने पर्वतक को भी मरवा डाला और जो आधा राज देकर अब मेल कर ले तो उस बिचारे पर्वतक के मारने का पाप ही पाप हाथ लगे। इससे मलयकेतु को भागते समय छोड़ दिया।
चंद्र०---और भला राक्षस इसी नगर में रहता था, उसका भी आपने कुछ न किया इसका क्या उत्तर है?
चाणक्य---सुनो, राक्षस अपने स्वामी की स्थिर भक्ति से और यहाँ बहुत दिन रहने से यहाँ के लोगों का और नंद के सब साथियों का विश्वासपात्र हो रहा है और उसका स्वभाव सब लोग जान गए हैं। उसमें बुद्धि और पौरुष भी है, वैसे ही उसके सहायक भी हैं और कोषबल भी है, इससे जो वह यहाँ रहे तो भीतर के सब लोगों को फोड़कर उपद्रव करे और जो यहाँ से दूर रहे तो वह ऊपरी जोड़-तोड़ लगावे पर उनके मिटाने में इतनी कठिनाई न हो। इससे उसके जाने के समय उपेक्षा कर दी गई।
चंद्र०---तो जब वह यहाँ था तभी उसको वश में क्यों नहीं कर लिया?
चाणक्य---वश क्या कर लें, अनेक उपायों से तो वह छाती में गड़े कॉटे की भाँति निकालकर दूर किया गया है! उसे दूर करने में और कुछ प्रयोजन ही था।
चंद्र०---तो बल से क्यों नहीं पकड़ रखा?
चाणक्य---वह राक्षस ऐसा नहीं है, उस पर जो बल किया जाता तो या तो वह आप मारा जाता या तुम्हारी सेना का नाश कर देता।
और---
हम खोवै इक महत नर जो वह पावै नास।
जो वह नासै सैन तुव तौहू जिय अति त्रास॥
तासों कल बल करि बहुत अपने बस करि वाहि।
जिमि गज पकरै सुघर तिमि बाँधैंगे हम ताहि॥
चंद्र०---मैं आप की बात तो नहीं काट सकता, पर इससे तो मंत्री राक्षस ही बढ़-चढ़ के जान पड़ता है।
चाणक्य---( क्रोध से ) 'आप नहीं' इतना क्यों छोड़ दिया? ऐसा कभी नहीं है। उसने क्या किया है कहो तो? चंद्र०---जो आप न जानते हों तो सुनिए कि वह महात्मा---
जदपि आपु जीती पुरी तदपि धारि कुशलात।
जब लौं जिय चाह्यौ रह्यौ धारि सीस पै लात॥
डौंड़ी फेरन के समय निज बल जय प्रगटाय।
मेरे दल के लोग कों दीनों तुरत हराय॥
मोहे परिजन रीति सो जाके सब बिनु त्रास।
जो मो पै निज लोकहू आनहिँ नहिँ विश्वास॥
चाणक्य---( हॅसकर ) वृषल! राक्षस ने यह सब किया?
चंद्र०---हाँ! हाँ! अमात्य राक्षस ने यह सब किया।
चाणक्य---तो हमने जाना, जिस तरह नंद का नाश करके तुम राजा हुए वैसे ही अब मलयकेतु राजा होगा।
चंद्र०---आर्य! यह उपालंभ आपको नहीं शोभा देता; करने- वाला सब दूसरा है।
चाणक्य---रे कृतघ्न!
अतिहि क्रोध करि खोलिक सिखा प्रतिज्ञा कीन।
सो सब देखत भुव करी नव नृप नंद विहीन॥
घिरी स्वान अरु गीध सों भय उपजावनिहारि।
जारि नंदहू नहिं भई सांत मसान दवारि॥
चंद्र०-यह सब किसी दूसरे ने किया।
चाणक्य---किसने?
चंद्र०---नंदकुल के द्वेषी दैव ने। चाणक्य---दैव तो मूर्ख लोग मानते हैं।
चंद्र०---और विद्वान् लोग भी यद्वा तद्वा करते हैं।
चाणक्य---( क्रोध नाट्य करके ) अरे वृषल! क्या नौकरों की तरह मुझ पर आज्ञा चलाता है?
खुली सिखाहूँ बाँधिबे चंचल भे पुनि हाथ।
( क्रोध से पैर पृथ्वी पर पटक कर )
घोर प्रतिज्ञा पुनि चरन करन चहत कर साथ॥
नंद नसे सो निरुज है तू फूल्यो गरबाय।
सो अभिमान मिटाइहौं तुरतहि तोहिं गिराय॥
चंद्र०---( घबड़ाकर ) अरे! क्या आर्य को सचमुच क्रोध आ गया!
फर फर फरकत अधर पुट, भए नयन जुग लाल।
चढी जाति भी हैं कुटिल, स्वॉस तजत जिमि ब्याल॥
मनहुँ अचानक रुद्रदूग खुल्यौ त्रितिय दिखरात।
( आवेग सहित )
धरनी धारयौ बिनु धँसे हा हा किमि पदघात॥
चाणक्य---( नकली क्रोध रोककर ) तो वृषल! इस कोरी बक-
वाद से क्या लाभ है! जो राक्षस चतुर है तो यह शस्त्र उसी को दे। ( शस्त्र फेंककर और उठकर---आप ही आप ) ह ह ह! राक्षस! यही तुमने चाणक्य को जीतने का उपाय किया। तुम जानौ चाणक्य सो नृप चंदहि लरवाय।
सहजहि लै हैं राज हम निज बल बुद्धि उपाय॥
सो हम तुमही कहँ छलन कियो क्रोध परकास।
तुमरोई करिहै उलटि यह तुव भेद बिनास॥
( क्रोध प्रकट करता हुआ चला जाता है )
चंद्र०---आर्य वैहीनर! "चाणक्य का अनादर करके आज से चंद्रगुप्त सब काम-काज आप ही सम्हालेंगे," यह लोगों से कह दो।
कंचुकी---( आप ही आप ) अरे! आज महाराज ने चाणक्य के पहले आर्य शब्द नहीं कहा! क्यों? क्या सचमुच अधिकार छीन लिया? वा इसमें महाराज का क्या दोष है!
सचिव-दोष सों होत हैं नृपहु बुरे ततकाल।
हाथीवान-प्रमाद सों गज कहवावत ब्याल॥
चंद्र०---क्यों जी? क्या सोच रहे हो?
कंचुकी---यही कि महाराज को महाराज शब्द अब यथार्थ शोभा देता है।
चंद्र०---( आप ही आप ) इन्हीं लोगों के धोखा खाने से आर्य का काम होगा। ( प्रगट ) शोणोत्तरे! इस सूखी कलह से हमारा सिर दुखने लगा, इससे शयनगृह का मार्ग दिखलाओ। प्रतिहारी---इधर आवें, महाराज, इधर आवें।
चंद्र०---( उठकर चलता हुआ आप ही आप )
गुरु आयसु छल सों कलह करिहू जीय डराय।
किमि नर गुरुजन सों लरहिं, यहै सोच जिय हाय॥
( सब जाते हैं---जवनिका गिरती है )