भारतेन्दु बाबू हरिश्चंद्र का जीवन चरित्र/2
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( १६) भारतेन्दु बाबू हरिश्चन्द्र का जीवन चरित्र उनके साथ डङ्का, निशान, सन्तरी का पहरा, माही मरातिब नक्कीब प्रादि रियासत के पूरे ठाव थे। ___राय रत्नचन्द बहादुर ने रामकटोरेवाले बान में प्राकर निवास किया। वहाँ इनके श्रीठाकुर जी, जिनका नाम श्री लाल जी है, अब तक वतमान है। यहीं बाग काशी जी मे इस बश का पहिला स्थान समझा जाता है तथा अब तक प्रत्येक विवाह और पुत्रोत्सव के पीछे डीह डीहवार (गृह देवता) की पूजा यहीं होती है। प्रतीति होता है कि ये उस समय तक श्रीसम्प्रदाय के अनुयायी थे, क्योकि ठाकुर जी की मूर्ति तथा सामने गरुडस्तम्भ और मन्दिर के ऊपर चक्रस्थापन इसका प्रत्यक्ष प्रमाण प्रस्तुत है। इस वश मे "नकीब" की प्रथा बाबू गोपालचन्द तक थी। बाबू फतहचन्द का व्यवहार देन लेन का था। बाबू हर्षचन्द्र बाबू फतहचन्द के एकमात्र पुत्र बाबू हषचन्द हुए। ये काशी में काले हषचन्द के नाम से प्रसिद्ध हैं और इनके प्रशसनीय गुणानुवाद अब तक साधारण जन तथा स्त्रिएँ ग्राम्यगीतो मे गाया करती हैं। बाबू हर्षचन्द के बाल्यकाल ही में इनके पूजनीय पिता ने परलोक प्राप्त किया। लोगो ने इनके उमङ्ग का अच्छा अवसर उपस्थित देख इन्हें राय रत्नचन्द बहादुर से लडा दिया। परन्तु ज्यो ही इन्हो ने धूर्तों को धूतता समक्षी, चट पितृव्य के पावो पर जा गिरे और अपराध क्षमा कराकर प्रेमपल्लव को प्रवधित किया। राय रत्नचन्द्र के बेटे बाबू रामचन्द्र निस्सन्तान मरे । इससे उनकी भी सम्पूर्ण सम्पत्ति के उत्तराधिकारी ये ही हुए। ___ इनका सम्मान काशी मे कैसा था इसी से समझ लीजिए कि, सन् १८४२ मे गवर्मेण्ट ने प्राज्ञा दी कि काशी की प्राचीन तौल की पन्सेरियाँ उठा कर अग्रेजी पन्सेरी जारी हो । काशी के लोग बिगड़ गए और हरताल कर दी, तीन दिन तक हरताल रही, अन्त में उस समय के प्रसिद्ध कमिश्नर गबिन्स साहब ने बाबू हर्षचन्द्र (सरपञ्च), बाबू जानकीदास और बाबू हरीदास साहू को पञ्च माना। ________________
भारतेन्दु बाबू हरिश्चन्द्र का जीवन चरित्र (१७) काशी के लोगो ने भी इसे स्वीकार किया। बान सुन्दरदास मे बड़ी भारी पञ्चायत हई और अन्त मे यही फैसला हुआ कि तिलोचन आदि की पन्सेरियाँ ज्यो की स्यो ही जारी रहैं। गबिन्स साहब भी इससे सम्मत हुए और नगर मे जय जयकार हो गया। इस बात के देखनेवाले अब तक जीवित हैं कि जिस समय पुरानी पन्सेरियो के जारी रहने की प्राज्ञा लेकर उक्त तीनो महाशय हाथी पर सवार होकर चले, बीच मे बाबू हर्षचन्द्र बैठे थे, मोरछल होता था, बाजे बजते थे, सारे शहर की खिलकत साथ थी और स्त्रिये खिडकियो से पुष्पवर्षा करती थीं, तथा इस सवारी को लोगो ने इसी शोभा के साथ नगर मे घुमाया था। बुढ़वामगल के प्रसिद्ध मेले को उन्नति देने वाले यही थे। पहिले लोग वर्ष के अन्तिम मगल को जिसे बूढ़ा मगल कहते थे, दुर्गाजी के दशनो को नाव पर सवार होकर जाया करते थे। धीरे धीरे उन नावो पर नाच भी कराने लगे और अन्त मे बाबू हर्षचन्द्र तथा काशीराज के परामर्शानुसार बुढवामगल का वर्तमान रूप हुआ और मेला चार दिन तक रहने लगा। मैने कई बेर काशीराज महाराज ईश्वरीप्रसाद नारायणसिंह बहादुर को भारतेन्दु बाबू हरिश्चन्द्र से कहते सुना है कि इस मेले का दूलह तो तुम्हारा ही बश है । इन के यहाँ बुढवामङ्गल का कच्छा बडी ही तैयारी के साथ पटता था और बडे ही मर्यादापूर्वक प्रबन्ध होता था। बिरादरी मे नाई का नेवता फिरता था और सब लोग गुलाबी पगडी और दुपट्टे तथा लडकों को गुलाबी टोपी दुपट्टे पहिना कर ले जाते थे। नौकर आदि भी गुलाबी पगडी दुपट्टे पहिनते थे। जिन के पास न होता उन को यहाँ से मिलता। गगा जी के पार रेत मे हलवाईखाना बैठ जाता और चारो दिन वहीं बिरादरी को जेवनार होती। काशीराज हर साल मोरपखी पर सवार हो इनके कच्छे की शोभा देखने पाते। यह प्रथा ठीक इसी रीति पर बाबू गोपालचन्द्र के समय तक जारी रही। ये काशिराज के महाजन थे। और बहुतेरे प्रबन्ध उस रियासत के इन के सुपुर्द थे। राज्य की अशर्फियें इन के यहाँ रहती थीं और उनकी अगोरवाई मिलती थी। काशिराज इन्हें बहुत ही मानते थे, राजकीय कामो मे प्राय इनकी सलाह लिया करते थे। ________________
(१८) भारतेन्दु बाबू हरिश्चन्द्र का जीवन चरित्र बुढवा मगल की भाँति होली का उत्सव भी धूम धाम से होता और बिरादरी को जेवनार, महफिल होती। वर्ष मे अपने तथा बाबू गोपालचन्द्र के जन्मदिवस को ये महफिल जेवनार करते। बिरादरी मे इनका ऐसा मान्य था कि लोग बडे बडे प्रतिष्ठित और धनिको के रहते भी इन्हें अपना चौधरी मानते थे और यह प्रतिष्ठा इस वश को आज तक प्राप्त है। चौखम्भास्थित अपने प्रसिद्ध भवन मे इन्हो ने ही सुन्दर दीवानखाना बनवाया था। सुनते हैं कुछ ऐसा विवाद उस समय उपस्थित हो गया था कि जिसके कारण इस बडे दीवानखाने की एक मजिल इन्हो ने एक रात्रि में तैयार कराई थी। उस समय इनकी सवारी प्रसिद्ध थी। जब ये घर के बाहर कहीं जाते, बिना जामा और पगडी पहिरे न जाते, तामजाम पर सवार होकर जाते, नकीब बोलता जाता । पासा, बल्लम, छडी, तलवार, बन्दूक आदि बाँधे पचास साठ सिपाही साथ में होते। यह प्रथा कुछ कुछ बाबू गोपालचन्द्र तक थी। ___ ये गोस्वामी श्री गिरिधर जी महाराज के शिष्य हुए। श्री गिरिधर जी महाराज की विद्वत्ता तथा अलौकिक चमत्कार शक्ति लोकप्रसिद्ध है। श्री गिरिधर जी महाराज इन पर बहुत ही स्नेह रखते थे, यहाँ तक कि इनकी बेटी श्रीश्यामा बेटी जी इन्हें भाई के तुल्य मानतीं और भाईदूज को तिलक काढती थीं। जिस समय श्री गिरिधर जी महाराज श्री जी द्वार से श्री मुकुन्दराय जी को पधराकर काशी लाए, सब प्रबन्ध इन्हीं को सौंपा गया था। बडी धूम धाम से बारात सजा कर श्री मुकुन्दराय जी को नगर के बाहर से पधरा लाए थे। इसका सविस्तार वर्णन उक्त महाराज की लिखाई "श्री मुकुन्दराय जी की वार्ता में है। जब कभी महाराज बाहर पधारते, मन्दिर इन्ही के सुपुर्द कर जाते । उक्त महाराज तथा श्रीश्यामा बेटी जी के लिखे मुखतारनामा प्राम इनके तथा बाबू गोपालचन्द्र जी के नाम के अब तक रक्षित है। इन्हो ने उक्त महाराज की आज्ञा से अपने घर मे श्री वल्लभकुल के प्रथानुसार ठाकुर जी की सेवा पधराई और उनके भोग राग का प्रबन्ध राजसी ठाठ से किया। ठाकुर जी की परम मनोहर मूर्ति, युगल जोडी, धातु बिग्रह है, तथा नाम . "श्री मदन मोहन जी" है। वर्तमान शैली से सेवा होते हुए ८५ वर्ष से अधिक ________________
भारतेन्दु बाबू हरिश्चन्द्र का जीवन चरित्र (१९) हुआ, परन्तु सुनते हैं कि ठाकुर जी और भी प्राचीन हैं । पहिले इनकी सेवा गोकुलचन्द्र साहो के यहाँ होती थी। बाबू हरिश्चन्द्र और बाबू गोकुलचन्द्र में जिस समय हिस्सा हुश्रा, उस समय एक बारा, बडा मकान, एक बडा ग्राम माफी और पचास हजार रुपया ठाकुर जी के हिस्से मे अलग कर दिया गया और ठाकुर जी का महा प्रसाद नित्य ब्राह्मण वैष्णव तथा सद्गृहस्थ लेते हैं। इनके दो विवाह हुए थे। प्रथम चम्पतराय अमीन की बेटी से। इन चम्पतराय का उस समय बडा जमाना था। सुनते है कि वह इतने बडे आदमी थे कि सोने की थाल मे भोजन करते थे। जिस समय चम्पतराय की बेटी व्याह कर आई तो यहाँ उन्हें मामूली बतन बतने पडे । इस पर उन्हो ने कहा "हाय, अब हमको इन बतनो मे खाना पडेगा।" अब एक चम्पतराय अमीन के बाग के अतिरिक्त और कोई चिन्ह इनका नहीं है । इनसे बाबू हर्षचन्द्र को कोई सन्तान नहीं हुई। दूसरा विवाह इनका बाबू वृन्दावनदास की कन्या श्यामा बीबी से हुआ। इन्हीं से इनको पाँच सन्तान हुई, जिन में से दो कन्या तो बचपन ही में मर गईं, शेष तीन का वश चला। यह बाबू वृन्दावन दास भी उस समय के बड़े धनिको मे थे, परन्तु पीछे इन का भी वह समय न रहा । इन के दो बारा थे, एक मौजा कोल्हुश्रा पर और दूसरा महल्ला नाटीइमली पर । ये दोनो बाग बाबू हर्षचन्द्र को मिले। बाबू वृन्दावनदास को हनुमान जी का बडा इष्ट था। इन के स्थापित हनुमान जी अब तक नाटीइमली के बाग मे है। एक समय श्री गिरिधर जी महाराज को चालिस सहस्र रुपए की आवश्यकता हुई। उन्होने बाबू हर्षचन्द्र से कहा कि इस का प्रबन्ध कर दो। इन्हो ने कहा महाराज इस समय इतना रुपया तो प्रस्तुत नहीं है । कोल्हुआ और नाटीइमली का बारा मैं भेंट कर देता हूँ, इसे बेच कर काम चला लीजिए। श्री महाराज का ऐसा प्रताप था कि एक कोल्हुमा का बारा चालीस हजार में बिक गया और नाटीइमली का बारा बच गया। इस बाग का नाम महाराज ने मुकुन्दबिलास रक्खा । यह अद्यावधि मन्दिर के अधिकार मे है और काशी के प्रसिद्ध बागों में एक है। इस वश से इस बारा से अब तक इतना सम्बन्ध शेष है कि काशी के प्रसिद्ध भरतमिलाप के मेले मे इसी बाग के एक कमरे में बैठ कर इस वश के लोग भगवान के दर्शन करते हैं और इस मे भगवान का विमान ठहरता है, तथा इस वश वाले जाकर पूजा भारती करते, भोग लगाते और भेट करते हैं। दो दिन और भी श्रीराम ________________
(२०) भारतेन्दु बाबू हरिश्चन्द्र का जीवन चरित्र चन्द्र जी की पहुनई होती है, एक दिन बाग रामकटोरा मे और एक दिन चौकाघाट पर जिस दिन हनुमान जी से भेट होती है। यहाँ पर इस रामलीला का सक्षिप्त इतिहास लिख देना भी हम उचित समझते हैं। जब काशी मे जगल बहुत था (बनकटी के समय), उस समय यहा एक मेघा भगत रहते थे। उन्हें श्री भगवान के दशन की बडी लालसा हुई। उन्होने अनशन ब्रत लिया। एक दिन रामचन्द्र जी ने स्वप्न मे आज्ञा दी कि इस कलियुग मे इस चाक्षुष जगत मे हमारा प्रत्यक्ष दशन नहीं हो सकता। तुम हमारी लीला का अनुकरण करो। उस मे दर्शन होगा, तथा धनुष बाण वहाँ प्रत्यक्ष छोड गए, जिस की पूजा अब तक होती है। मेघा भगत ने लीला प्रारम्भ की और उनकी मनोवासना पूरी हुई। यह लीला चित्रकोट की लीला के नाम से प्रसिद्ध हुई। जिस दिन श्री रामचन्द्र की झलक मेघा भगत को झलकी थी, वह भरतमिलाप का दिन था और तभी से यह दिन परम पुनीत समझा गया, तथा अब तक लोगो का विश्वास है कि उस दिन रामचन्द्र जी की झलक पा जाती है । इस लीला के पीछे गोस्वामी तुलसीदास जी ने लीला प्रारम्भ की, जो अब अस्सी पर तुलसीदास जी के घाट पर होती है, और उसके पीछे लाट भरव की लीला प्रारम्भ हुई। इस लाटभैरो की लीला में 'नककटया' (शूर्पनखा की नाक काटने की लीला) मसजिद के भीतर होती है, जो मुसलमानो की अमलदारी से चली आती है, और प्राय इस के लिये काशी मे हिन्दू मुसलमानो मे झगडा हुआ किया है। निदान मेरी समझ में रामलीला की प्रथा सब प्रथम ससार मे मेघा भगत ने प्रारम्भ की। इस लीला की यहाँ प्रतिष्ठा बहुत ही अधिक है। सब महाजन लोग इसमे चिट्टा भरते हैं और प्रतिष्ठित लोग बिना कुछ लिए सब सेवा करते है । इस चिट्टे का प्रारभ पहिले बाबू जानकीदास और उक्त बाबू हर्षचन्द्र के वशवाले करते है और फिर नगर के सब महाजन यथाशक्ति लिखते है । पहिले तो विजया दशमी के दिन यहाँ के बड़े बड़े महाजन, रात्रि को जब बिमान उठता था, जामा पगडी पहिर कर कन्धा लगाते थे। अब तक भी बहुत लोग कन्धा देते हैं। विजया दशमी और भरत मिलाप मे अब तक प्राचीन मर्यादावाले लोग पगडी पहिर कर दशन को जाते हैं। भरत मिलाप यहाँ के प्रसिद्ध मेलो में है। सारा शहर सूना हो जाता है और भरत मिलाप के स्थान से लेकर 'अयोध्या' तक, जिसमे लगभग प्राधी मील ________________
भारतेन्दु बाबू हरिश्चन्द्र का जीवन चरित्र (२१) का अतर होगा, मनुष्य ही मनुष्य दिखाई देते हैं । भरतमिलाप ठीक गोधूली के समय होता है। इस दिन दर्शनो के लिये काशिराज भी पाया करते हैं। सुनते हैं एक समय किसी अँगरेज हाकिम ने कहा कि हनुमान जी तो समुद्र पार कूद गए थे, तब हम जानें जब तुम्हारे हनुमान जी वरुणा नदी पार कूद जायें। हनुमान जी चट कूद गए, परन्तु उस पार जाते ही उनका प्राणान्त हो गया। उस अंगरेज की सार्टिफिकेट अब तक महन्त के पास है। ___ बाबू हरिकृष्णदास टेकमाली ने अपने ग्रन्थ "गिरिधरचरितामृत" मे उनका चरित्र वर्णन करते समय लिखा है कि ये कविता भी करते थे, परन्तु अब तक इनकी कविता हम लोगो के देखने में नहीं आई। इनका स्वभाव बडा ही अमीरी और नाजुक था, जनाने मर्दाने सब घरो मे फौवारे बने थे। गर्मियो मे जहाँ वह बैठते फौवारा छूटा करते । एक दिन बाबू जानकीदास ने कहा कि आप बीमा का रोजगार क्यो नहीं करते यह बिना गुठली का मेवा है। इन्होंने उत्तर दिया "सुनिए बाबूसाहब हम ठहरे आनन्दी जीव, अपनी जान को बखेमे कौन फेसावे, सावन भादो की अँधेरी रात मे प्रानन्द से सोए हैं, पानी बरस रहा है, हवा के झोके पा रहे हैं, उस समय ध्यान आया नावो का, प्राण सूख गया, विचारा इस समय हमारी दस नाव गगाजी मे हैं कहीं एक भी डूबी तो दसहजार की ठुकी, चलो सब आनन्द मिट्टी हुआ"। ____ जौनपुर के राजा शिवलाल दूबे से इनसे बहुत ही स्नेह था, नित्य मिलना और हवा खाने जाने का नियम था। सन् १८६० ई० मे गवर्मेन्ट ने इनकम टैक्स लगाया था और काशी से सवालाख रुपया वसूल करने की आज्ञा दी थी। इसके प्रबन्ध के लिये एक कमिटी बनाई गई थी जिसका प्रबन्ध इनके हाथ मे था । गोपालमन्दिर के दोनो नक्कारखाने इन्हीं के यहाँ से बने हैं। एक तो बाबू गोपालचन्द्र के जन्म पर बना था और दूसरा बाबू हरिश्चन्द्र के जन्म पर । हम श्री मुकुन्दरायजी के मन्दिर तथा श्री गिरिधरजी महाराज के विषय मे ऊपर लिख चुके हैं परन्तु कुछ बातें और भी लिखनी आवश्यक रह गई हैं । जिस समय मन्दिर बनकर तयार हुआ और श्री मुकुन्दरायजी यहाँ पधारे यहाँ के महाजनो ने, जिनमे ये प्रधान थे, बिचार किया कि इस मन्दिर के व्यय ________________
( २२) भारतेन्दु बाबू हरिश्चन्द्र का जीवन चरित्र निर्वाहार्थ कुछ प्रबन्ध होना चाहिए, समो ने सम्मति कर के एक चिट्ठा खडा किया और सवापाँच पाना सैकडा मन्दिर सब व्यापारी काटने लगे, यह कमखाब बाफता प्रादि यावत् बनारसी कपडे, गोटे, पढ़े और जवाहिरात, इत्यादि पर कटता था। यह चिट्ठा बहुत दिनो तक चलता रहा, और हिन्दू मुसल्मान सभी व्यापारी इसे देते रहे परन्तु श्रीगिरिधर जी महाराज के पीछे यह शिथिल हो चला है अब तक सवापांच पाने सैकडे सब व्यापारी काट तो लेते हैं परन्तु कोई मन्दिर मे देता है, कोई नहीं और कोई उसे दूसरे ही धर्मार्थ काय में लगा देता है। श्री गिरिधर जी महाराज का ऐसा शुद्ध चरित्र और चमत्कार प्रकाश था, कि काशी ऐसी शैव नगरी मे उन्ही का प्रताप था जो वैष्णवता की जड जमाई और इस मन्दिर को इतनी उन्नति बिना किसी राज्याश्रय के दी, परन्तु इनका स्वभाव इतना सादा था कि, प्रात्मोत्कर्ष और आत्मसुख की ओर इनका तनिक भी ध्यान न था। बाबू हषचन्द्र ने बहुत तरह से निवेदन किया कि जैसे श्री बल्लभकूल के अन्यान्य प्रतापी गोस्वामि बालको का जन्मदिनोत्सव होता है वैसे ही आपका भी हो, परतु महाराज इसे स्वीकार नहीं करते थे, जब बहुत दिनो तक यह आग्रह करते रहे तब महाराज ने स्वीकार किया परन्तु इस प्रतिबन्ध के साथ कि इस उत्सव पर हम मन्दिर से कुछ व्यय न करेंगे निदान पौषकृष्ण तृतीया को महाराज के जन्म दिन का उत्सव होने लगा, श्री गोपाल लाल जी, श्री मुकुन्दराय जी तथा श्री गोपीनाथ जी का साठन का बागा (वस्त्र) श्री गिरिधर जी महाराज का बागा सब यहीं से जाता और वहाँ धराया जाता, तथा महाराज के केसर स्नान मे भोग, निछावर, प्रारती तथा भेट प्रादि इन्हीं की ओर से होता है, अब यह उत्सव श्री मुकुन्दराय जी के घर के सब सेवक मानते हैं। ____ सन् १८३४ ई० मे गवर्मेन्ट की ओर से महाजनो से व्यापार की अवस्था और सोना चॉदी की बिक्री के कमी का कारण पूछा गया था। उन प्रश्नो का जो उत्तर बाबू हषचन्द्र ने दिया था, वह पुराने काराजो में मुझे मिला। उस से देश दशा का ज्ञान होता है इसलिये उसका अनुवाद यहाँ प्रकाशित करता हूँ। १ प्रश्न--सन् १८१६ से चाँदी और सोना की खरीद कम हुई है या अधिक और इसका कारण क्या है ? उत्तर--सन् १८१९ से चाँदी और सोने की खरीद बहुत कम हो गई है। चॉदी की खरीद मे कमी का कारण यह है कि जब बनारस मे टेकसाल जारी ________________
भारतेन्दु बाबू हरिश्चन्द्र का जीवन चरित्र (२३) थी, चाँदी का लेन देन जारी था, इससे भाव भी उसका महँगा था और जब से टेककाल बन्द हुमा तब से इसकी बिक्री कम हो गई इससे भाव भी गिर गया। सोने की खरीद कम होने का कारण यह है कि उस समय इस प्रात के लोग सुखी थे और देहाती लोग भी बडा लाभ उठाते थे इसीलिये सोने की बाहरी खरीदारी अधिक होती थी और भाव भी महंगा था। और अब चारो ओर दरिद्रता फैल गई है तो सोना की खरीद कहाँ से हो? २ प्रश्न--क्या कोई ऐसा दस्तूर नियत हुआ है जिससे चॉदी सोना का लेन देन कम होकर हुडी और किसी दूसरे प्रकार का एवज मवावज जारी हुआ है ? उत्तर-सोने चाँदी के बदले में कोई दस्तूर हुण्डी का जारी नहीं हुआ है व्यापार की कमी कि जिसका कारण चौथे प्रश्न के उत्तर में लिखा जायगा और भाव के गिरने से यह कमी हुई है। ३ प्रश्न-टेकसाल बन्द होने से बाहरी सोना चांदी की आमदनी कम हो गई है या नहीं? उत्तर--टेकसाल बन्द हो जाने से एक बारगी बाहरी आमदनी सोना चाँदी की कम हो गई है। ४ प्रश्न-इस बात पर विचार करके लिखिए कि सन् १८१३ व १८१४ से अब तक भाव हुण्डियावन का बडे बडे दिसावरो मे पर्ता फैलाने से कमी के कारण व्यापार मे अन्तर पडा है, या सन् १८१८ व १८१९ मे सोना चाँदी की आमदनी की कमी से ? उत्तर--सन् १८१३ से १८२० व १८२२ तक इस प्रात के लोग बडा लाभ उठाते थे। और हर तरह का रोजगार जारी था। और भाव हुण्डियावन उस सन् से अब कम नहीं है। वरन् अधिक है, यद्यपि उन सनो मे बनारस के पुराने सिक्के की चलन थी जिसकी चाँदी मे बट्टा नहीं था जब से फर्रुखाबादी सिक्का चला उसके बट्टा के कारण हुण्डियावन का भाव हर देसावर मे बढ गया। हाँ, इन दिनो अवश्य फर्रुखाबादी ________________
(२४) भारतेन्दु बाबू हरिश्चन्द्र का जीवन चरित्र सिक्का जारी रहने पर भी भाव हुण्डियावन गिर गया है। रोज गार की कमी के कारण नीचे निवेदन करता हूँ। १--परम उपकारी कम्पनी बहादुर को सरकार से कि जो उपकार का भण्डार और प्रजा पोषण की खानि है सूद की कमी हो गई कि सन् १८१० तक सब लोग सर्कार में रुपया जमा करके छ रुपया सैकडा वार्षिक सूद लेते थे अब पाँच रुपया से होते होते चार रुपए तक नौबत पहुंच गई। प्रजा का काम कैसे चले? २--अग्नेज साहबो के कारबार बिगड जाने से, कि जिनकी ओर से हर जिलो मे नील की बड़ी खेती ती थी और उससे जमीदारो को बडा लाभ होता था, जमींदारो को कष्ट है और खेती पडी रह गई। ३--अदालत के अप्रबन्ध और रुपया के वसूल होने में अदालत के डर के कारण कारबार देन लेन महाजनी कि जिससे सूद का अच्छा लाभ था एक दम बन्द हो गया। ४--साहब लोगो के बहत से हाउस बिगड जाने से बहुतेरे हिन्दुस्तानियो के काम, लाखो रुपया मारे जाने के कारण बन्द हो जाने से दूसरा काम भी नहीं कर सकते। ५-बिलायत से असबाब आने और सस्ता बिकने के कारण यहाँ के कारीगरो का सब काम बन्द और तबाह हो गया। ६-सर्कार की ओर से इस कारण से कि विलायत मे रूई पैदा न हुई यहाँ से रुई की खरीद हुई इससे भी कुछ लाभ था पर वह भी बन्द हो गई। इन्हीं कारणो से रोजगार मे कमी हो गई है। ५ प्रश्न-चलन के रुपया को रोजगार के काम में आमदनी कलकत्ता से होती है या नहीं यदि होती है तो उसका खर्च अनुकूल और प्रतिकूल समय मे क्या पडता है? उत्तर--कलकत्ता से बहुत रुपया चलान नहीं पाता और यदि कुछ रुपया आता है तो लाभ नही होता वरञ्च बीमा और सूद को हानि के कारण घाटा पडता है इसी से रुपया के बदले मे हुडी का आना जाना जारी है। द बाबू हर्षचन्द ता० २६ जूलाई सन् १८३४ ________________
भारतेन्दु बाबू हरिश्चन्द्र का जीवन चरित्र (२५) एक बेर यह श्री जगन्नाथ जी के दर्शन को पुरी गए थे। तब तक रेल नहीं चली थी, अतएव खुशकी के रास्ते गए थे। बङ्गाल के प्रसिद्ध लाला बाबू' से इनके वश से मुर्शिदाबाद ही से बहुत सम्बन्ध था। एक दिन ये उनके यहाँ मेहमान हुए। वहाँ इनके ठाकुर श्री कृष्णचन्द्रमा जी का बहुत भारी मन्दिर और वभव है। सुना है कि इनके पहुंचते ही उनकी ओर से श्री ठाकुर जी का बालभोग महाप्रसाद पाया जो कि सौ चॉदी के थालो मे था। सब प्रसाद फलाहारी था और एक सौ ब्राह्मण लाए थे, जो सबके सब एक ही रङ्ग का पीताम्बर उपरना पहिरे हुए थे। इनका नाम तैलग देश मे बहुत प्रसिद्ध है। जो बडा दीवानखाना इन्होने बनवाया, उसके ऊपर एक छोटा मन्दिर भी श्री ठाकुर जी का है। उस पर स्वर्ण कलश लगे हुए हैं। उसी से सारे तैलङ्ग देश मे इनका नाम नवकोटि नारायण १ इस वश के अधिष्ठाता दीवान' गङ्गागोविन्द सिंह थे जो कि बारेन हेस्टिङ्गज के बनिया थे, और बडी सम्पत्ति छोड मरे। बङ्गाल मे ये पाइकपाडा के राजा के नाम से प्रसिद्ध है। परन्तु इनका मुय्य वासस्थान मौजा कादी जिला मुर्शिदाबाद है। इन्होने अपनी माता के श्राद्ध मे २० लाख रुपया व्यय किया था और उसमे समग्र बङ्गाल के राजा महाराजा पाए थे। ऐसा श्राद्ध कभी नही हुआ था। इनके वश मे राजा कृष्णचन्द्र सिंह प्रसिद्ध नाम लाला बाबू हुए। उन्होने अपने राज्यैश्वय को छोडकर श्री वृन्दावनमे बास किया। वहाँ वे मधुकरी मांग कर खाते थे।श्रीठाकुरजी का मन्दिर और वैभव काँदी और श्री वृन्दावन मे बहुत बढाया (See Growse's Mathura)। इनके विषय मे भारतेन्दु बाबू हरिश्चन्द्र जी अपने उत्तरार्द्ध भक्तमाल मे लिखते हैं-- लाला बाबू बङ्गाल के वृन्दावन निवसत रहे । छोडि सकल धन धाम वास ब्रज को जिन लीनो॥ मागि मागि मधुकरी उदर पूरन नित कीनो । हरि मन्दिर अति रुचिर बहुत धन दै बनवायो। साधु सन्त के हेत अन्न को सत्र चलायो । जिनकी मत देहहु सब लखत ब्रज रज लोटत फल लहे ।। २ तेलङ्ग देश मे कोई नवकोटि नारायण बडे धनिक हो गए है। इन्हें वहा के लोग एक अवतार मानते हैं गौर इनके विषय मे नाना किम्बदन्ती उस देश में प्रसिद्ध हैं। इनका पूरा इतिहास Indian Antiquary मे छपा है। ________________
(२६) भारतेन्दु बाबू हरिश्चन्द्र का जीवन चरित्र नाम से प्रसिद्ध हो गया है और यावत् तैलङ्गी लोग इस कलश के दर्शनार्थ आते और हाथ जोड जाते है। यह बात काशी के यावत् यात्रावालो को विदित है, जहाँ उन्होने नवकोटि नारायण का नाम लिया, वह यहाँ ले पाए । बाब हर्षचन्द्र एक वसीयतनामा लिख गए थे जिसके द्वारा कोठी के प्रबन्ध का भार बिजीलाल को सौप गए थे। बाबू गोपालचन्द्र की अवस्था उस समय केवल ११ वष की थी, बिञ्जीलाल प्रबन्ध करने लगे परन्तु प्रबन्ध सतोषदायक न हो सका और उस समय जसी कुछ क्षति इस घर की हुई वह अकथनीय है । उस समय काशी के रईसो मे बडा मेल था, बाबू वृन्दावनदास (बाबू गोपालचन्द्र के मातामह) ने राय खिरोधर लाल की सहायता से कोठी मे ताला बन्द कर दिया और अदालत में कोठी के प्रबन्ध के लिये दर्खास्त दी परन्तु वसीयतनामा के कारण ये लोग हार गए और प्रबन्ध बिजीलाल ही के हाथ रहा इस समय बहुत कुछ हानि कोठी की हुई और और भी अधिक होती परन्तु बाबू गोपालचन्द्र की बुद्धि चमत्कारिणी थी उन्होने १३ ही वष की अवस्था मे अपना कार्य श्राप संभाल लिया और फिर किसी को कुछ न गलने पाई। बाबू गोपालचन्द्र बाबू हर्षचन्द्र की बडी अवस्था हो गई और कोई पुत्र सन्तान न हुई। एक दिन यह श्री गिरिधर जी महाराज के पास बैठे हुए थे। महाराज ने पूछा बाबू, आज तुम उदास क्यो हो? लोगो ने कहा कि इनकी इतनी अवस्था हुई, परन्तु कोई सन्तान न हुई, बश कैसे चलेगा, इसी की चिन्ता इन्हें है। महाराज ने प्राज्ञा की कि तुम जी छोटा न करो। इसी वष तुम्हें पुत्र होगा। और ऐसा ही हुआ। मिती पौष कृष्ण १५, सवत् १८६० को कविकुलचूडामणि बाबू गोपालचन्द्र का जन्म हुआ। केवल श्री गिरिधर जी महाराज की कृपा से जन्म पाने और उनके चरणारविन्दो मे अटल भक्ति होने के कारण ही इन्होने कविता मे अपना नाम गिरिधरदास रक्खा था। ________________
भारतेन्दु बाबू हरिश्चन्द्र का जीवन चरित्र (२७) विवाह बाबू हर्षचन्द्र को एक पुत्र के अतिरिक्त दो कन्या भी हुई बडी का नाम यमुना बीबी (जन्म भादो ब०८, स० १८६२) और छोटी गङ्गा बीबी (जन्म भादो ब० ४ स० १८९४)। बाब हषचन्द्र ने अपनी तीन सन्तानो में से दो का विबाह अपने हाथो किया। पहिले यमुना बीबी का पीछे बाबू गोपालचद्र का । गङ्गा बीबी का विवाह बाबू गोपालचन्द्र के समय में हुआ। यमुना बीबी का विवाह काशी के प्रसिद्ध रईस, राजा पट्टनीमल बहादुर के पौत्र राय नसिंहदास से हुआ। राजा पट्टनीमल, पटने के महाराज ख्यालीराम बहादुर के पौत्र थे। यह महाराज ख्यालीराम बिहार के नायब सूबेदार थे। इनका सविस्तार वृत्तान्त बङ्गाल और विहार के इतिहासो मे मिलता है। राजा पट्टनीमल ऐसे प्रतापी हुए कि ये छोटी ही अवस्था मे पिता से कुछ अप्रसन्न होकर चले पाए और फिर लखनऊ गए। वहाँ उस समय अगरेज गवन्मेण्ट से और नवाब लखनऊ से सुलह की शर्तं ते हो रही थीं। परन्तु नवाब के चालाक अनुचरवर्ग कभी कुछ कह देते, कभी कुछ, किसी तरह बात ते न होने पाती। निदान उन शर्तों को तै करने के लिये राजा पट्टनीमल नियत किए गए। इन्होने पहिले ही यह नियम किया कि हम जुबानी कोई बात न करेंगे, जो कुछ हो लिख करते हो। अब तो कोई कला उन लोगो को न चलने लगी। नवाब की ओर से राजा साहब के उस्ताद मौलवी साहब भेजे गए । राजा साहब ने उनका बडा आदर सत्कार किया और पूछा क्या आज्ञा है। मौलवी साहब ने एक लाख रुपए की अफिएँ राजा साहब के आगे रख दी और कहा कि आप नवाब पर रहम करै । हिन्दू मुसलमान तो एक ही हैं, ये फरङ्गी परदेसी हमारे कौन होते हैं। सुलहनामे मे नवाब के लाभ की ओर विशेष ध्यान रक्खै, अथवा आप इस काम से अलग ही हो जाँय । राजा साहब ने बहुत ही अदब के साथ निवेदन किया कि आप उस्ताद हैं, आपको उचित है कि यदि मै कोई अनुचित काय करूँ तो मुझे ताडना दें, न कि माप स्वय ऐसा उपदेश मुझे दें। यह सेवकधमविरुद्ध काम मुझसे कभी न होगा और देशी तथा विदेशी क्या, हमारे लिये तो जब विदेशी की सेवा स्वीकार कर ली, ________________
(२८) भारतेन्दु बाबू हरिश्चन्द्र का जीवन चरित्र तो फिर वह लाख देशियो से बढ़ कर हैं । निदान मौलवी साहब मुंह ऐसा मुंह लेकर चले पाए । कहते हैं कि राजा साहब को आगरे के किले से बहुत धन मिला, जिसका ठीका उन्होने राय ज्योतिप्रसाद ठीकेदार के साझे मे लिया था। उन्होने मथुरा दाबन मे दीघविष्णु का मन्दिर, शिव तालाब कुञ्ज आदि (See Growse's Mathura), आगरे मे शीशमहल, पीली कोठी आदि, दिल्ली में प्रालीसान मकानात, काशी मे कोत्तिवासेश्वर का मन्दिर, हरतीर्थ, कमनाशा का पुल आदि सैकडो ही कीर्ति के अतिरिक्त एक करोड की सम्पत्ति छोडी, और इनका पुस्तकालय तथा औषधालय भी बहुत प्रसिद्ध था। (भारतेन्दु बाबू हरिश्चन्द्र लिखित "पुरावृत्तसग्रह" देखो)। हम राजा साहब के उदार हृदय का उदाहरण दिखाने के लिये केवल एक घटना का उल्लेख करके प्रकृत विषय का वर्णन करेंगे। राजा साहब के मुख्तार बाबू बेनीप्रसाद राजा साहब के किसी कार्यवश कलकत्ते गए थे। वहाँ लाख रुपए पर दस २ रुपए की चिट्ठी पडती थी। एक चिट्ठी इन्होने भी राजा साहब के नाम से डलवाई और राजा साहब को लिख दिया राजा साहब ने उत्तर मे लिखा कि मै जूना नहीं खेलता, यह तुमने ठीक नहीं किया, खैर अब तुम इस रुपए को खच मे लिख दो । सयोगवश वह चिट्ठी राजा साहब के नामही निकल आई और लाख रुपया मिला । बाबू बेनीप्रसाद ने फिर राजा साहब को लिखा । राजा साहब ने उत्तर मे लिखा कि हम पहिले ही लिख चुके है कि हम जूना नहीं खेलते, अतएव हम जूए का रुपया न लेंगे, तुम्हारा जो जी चाहै करो। उसी रुपए के कारण उक्त बाबू बेनीप्रसाद के वशधर काशी मे बडे गृह और जिमीदारी के स्वामी है । इस विवाह मे राजा साहब जीवित थे। सुना है कि बडी धूम का विवाह हुआ था और बडी ही शोभा हुई थी। यमुना बीबी को कई सन्तति हुई, परन्तु कोई भी न जीई । इससे अन्त मे राय प्रह्लाददास और उनकी कनिष्ठा भगिनी सुभद्रा बीबी अपने ननिहाल मे पले। राय प्रह्लाददास इस समय काशी में प्रानरेरी मेजिस्ट्रेट है। ननिहाल के ससग से इनकी रुचि सस्कृत की ओर अधिक हुई और ये अच्छी सस्कृत जानते हैं। सुभद्रा बीबी का विवाह काशी के सुप्रसिद्ध धनिक साहो गोपालदास के वशज बाबू वैद्यनाथ प्रसाद के साथ हुआ था। परन्तु अब वे दोनो ही पति पत्नी जीवित नहीं है । केवल उनके पुत्र बाबू यदुनाथ प्रसाद उनके उत्तराधिकारी हैं । गङ्गा बीबी का विवाह प्रबन्धलेखक के पिता बाबू कल्यानदास के साथ हुआ।
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