भारतेन्दु बाबू हरिश्चंद्र का जीवन चरित्र/3

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भारतेन्दु बाबू हरिश्चंद्र का जीवन चरित्र  (1904) 
द्वारा राधाकृष्ण दास

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भारतेन्दु बाबू हरिश्चन्द्र का जीवन चरित्र (२६) यह विवाह बाबू गोपालचन्द्र जी ने किया था। इन्हें दो पुत्र और एक कन्या हुई। ज्येष्ठ पुत्र जीवनदास का बचपन ही मे परलोकवास हुना। कन्या लक्ष्मीदेवी का विवाह बाबू दामोदर दास बी० ए० के साथ हुआ था जो कि नि सन्तान ही मर गई। तीसरा पुत्र इस प्रबन्ध का लेखक है। बाबू गोपालचन्द्र का विवाह दिल्ली के शाहजादो के दीवान राय खिरोधर लाल की कन्या पावती देवी से सवत १९०० मे हुआ। राय खिरोधर लाल का वश फारसी मे विशेष विद्वान था और इन्हें वश परम्परागत राय की पदवी दिल्ली दर्बार से प्राप्त थी। राय साहब को एक ही कन्या थी। इधर बाबू हर्षचन्द को एक ही पुत्र । विबाह बडी धूमधाम से हुआ। बाबू हर्षचन्द के चौखम्भास्थित घर मे राय खिरोधरलाल का शिवालास्थित भवन तीन मील से कम नहीं है, परन्तु बारात इतनी भारी निकली थी कि वर अपने घर ही था कि बारात का निशान समधी के घर पहुंचा, अर्थात् तीन मील लम्बी बारात थी। राय साहब ने भी ऐसी खातिर की थी कि कूनो मे चीनी के बोरे छुडवा दिए थे। यह विवाह काशी मे अब तक प्रसिद्ध है। यह पार्वती देवी अत्यन्त ही सुशीला थीं। प्राचीन स्त्रिएँ इनके रूप और गुण की प्रशसा करते नहीं अघातीं। इन्हें चार सन्तति हुईं। मुकुन्दी बीबी, बाबू हरिश्चन्द्र, बाबू गोकुल चन्द्र और गोबिन्दी बीबी। __अपनी सन्तानो मे केवल बडी कन्या मुकुदी बीबी का विवाह काशी के सुप्रसिद्ध रईस बाबू जानकीदास साहो के पुत्र बाबू महावीरप्रसाद के साथ, अपने सामने किया था। बाबू हरिश्चन्द्र का विवाह शिवाले के रईस लाला गुलाब राय की कन्या श्री मती मन्नो देवी से, बाबू गोकुलचन्द्र का विवाह बाबू हनुमानदास की कन्या श्री मती मुकुन्दी देवी से और श्री मती गोविदी देवी का विवाह पटना के सुप्रसिद्ध नायव सूवा महाराज ख्यालीराम के वशधर राय राधाकृष्ण राय बहादुर के साथ हुआ। इनके पुत्र राय गोपीकृष्ण बहुतेही योग्य और होनहार थे। बी ए पास किया था। २५ ही वर्ष की छोटी अवस्था मे गवन्मन्ट और प्रजा के परम प्रीति पात्र हो गए थे, परन्तु हाय ! निर्दय काल ने इस खिलते हुए कमल को उखाड़ फेंका! इनकी असमय मृत्यु पर सारे पटने मे हाहाकार मच गया। लेफ्टिनेन्ट [ ४९ ]________________

( ३० ) भारतेन्दु बाबू हरिश्चन्द्र का जीवन चरित्र गवनर बङ्गाल ने शोक प्रकाश किया और वृद्ध पिता राय राधाकृष्ण को आश्वासन देने के लिये स्वय पाए थे। राय खिरोधर लाल को श्री मती पार्वती देवी के अतिरिक्त और कोई सन्तान न थी इस लिये उनकी स्त्री श्री मती नन्ही देवी ने दोहित्र बाबू गोकुलचन्द्र को अपने पास रक्खा था और उन्ही को अपनी सम्पत्ति का उत्तराधिकारी किया। श्रीमती पावती देवी के मरने पर इनका दूसरा विवाह उसी वष फाल्गुण सम्वत १९१४ मे बाबू रामनारायण की कन्या मोहन बीबी से हुआ। मोहन बीबी से इन्हें दो सन्तान हुए। प्रथम पुत्र हुमा । नाम उसका श्याम चन्द्र रक्खा गया था, परन्तु तीन ही महीने का होकर मर गया। द्वितीय कन्या हुई जो कि प्रसूतिगृह मे ही मर गई ।मोहन बीबी की मृत्यु सम्वत १९३८ के माघ कृष्ण १० को हुई। बाबू हर्षचन्द्र का परलोकवास ४२ वष की अवस्था मे सम्वत १९०१ मिती वैसाख बदी १३, को हुआ। बाबू गोपालचन्द्र की अवस्था उस समय केवल ११ वष की ही थी। कविता की कमनीय कान्ति का अनुराग बाबू गोपालचन्द्र को बाल्यावस्था ही से था। इसी से आप लोग समझ लीजिए कि १३ ही वर्ष की अवस्था में सम्वत १९०३ मे वृहत् बात्मीकीय रामायण का भाषा छन्दोवद्ध अनुवाद इन्होने किया, परन्तु दुर्भाग्यवश अब इस अनुवाद का पता कहीं नहीं लगता है। केवल अस्तित्व के प्रमाण के लिये ही मानो "बाला बोधिनी" मे इसका एक अश छपा है। हिन्दी और सस्कृत की कविता इनकी प्रसिद्ध है। परन्तु कभी कभी उर्दू की भी कविता करते थे। उन्होने एक "गजल" मे लिखा है। "दास गिरिधर तुम फकत हिन्दी पढे थे खूबसी, किस लिये उर्दू के शायर मे गिने जाने लगे।" शिक्षा और चरित्र पाठक स्वय विचार सकते हैं कि इतने बडे धनिक के एक मात्र पुत्र सन्तान का लालन पालन कितने लाड चाव से हुआ होगा, और हमारे देश की स्थिति के अनुसार इनकी सी अवस्था के बालक, जिनके पिता भी बचपन ही में परलोकगामी [ ५० ]________________

भारतेन्दु बाबू हरिश्चन्द्र का जीवन चरित्र {३१) हुए हो, कसे सुशिक्षित और सच्चरित्र हो सकते है। परन्तु आश्चय है कि इनके विषय मे सब विपरीत ही हुआ। इनका सा विद्वान और सच्चरित्र ढूढने से कम मिलेगा। इसका कारण चाहे भगवत कृपा समझिए या ऋषि तुल्य गुरु श्री गोस्वामी गिरधर जी महाराज का आशीर्वाद, सहवास और शिक्षा । जो कुछ हो, इनकी प्रतिभा विलक्षण थी। नियम पूर्वक शिक्षा न होने पर भी सस्कृत और भाषा के ये ऐसे विद्वान थे कि पण्डित लोग इनका आदर करते थे। चरित्न इनका ऐसा निमल था कि काशी के लोग इन्हें बहुत ही भक्तिभाव से देखते थे, यहाँ तक कि प्रसिद्ध कमिश्नर मिस्टर गबिन्स ने अपनी रिपोट मे लिखा था कि "बाबू गोपालचन्द्र परकटा फरिश्ता है"। सन् ५७ के बलबे मे रेजिडेन्सी के चांदी सोने के असबाब आसा बल्लम आदि इन्हीं की कोठी में रक्खे गए थे। क्रोध तो इन्हें कभी आता ही न था, पर जव कोई गोपालमन्दिर आदि धम सम्बन्धी निन्दा करता तो बिगड जाते। रामसिंहदास प्राय चिढाया करते थे। इनके विचार कैसे थे, यह पाठक पूज्य भारतेन्दुजी के निम्न लिखित वाक्यो से, जो उन्होने 'नाटक' नामक ग्रन्थ मे लिखे हैं जान सकते है। "बिशुद्ध नाटक रीति से पात्रप्रवेशादि नियम रक्षण द्वारा भाषा का प्रथम नाटक मेरे पिता पूज्य चरण श्री कविवर गिरिधरदास (वास्तविक नाम बाबू गोपालचन्द्र जी) का है। मेरे पिता ने विना अगरेजी शिक्षा पाए इधर क्यो दृष्टि दी, यह बात पाश्चय की नहीं है। उनके सब विचार परिष्कृत थे। बिना अंगरेजी की शिक्षा के भी उनको वर्तमान समय का स्वरूप भली भॉति विदित था। पहिले तो धर्म ही के विषय मे वे इतने परिष्कृत थे कि बैष्णव व्रत पूर्ण के हेतु अन्य देवता मात्र की पूजा और व्रत घर से उन्होंने उठा दिया था। टामसन साहब लेष्टिनेंट गवनर के समय काशी मे पहिला लडकियों का स्कूल हुना तो हमारी बडी बहिन को इन्होने उस स्कूल मे प्रकाश्य रीति से पढ़ने बैठा दिया। यह कार्य उस समय मे बहुत कठिन था, क्योकि इसमे बडी ही लोकनिन्दा थी। हम लोगो को अगरेजी शिक्षा दी। सिद्धान्त यह कि उनकी सब बातें परिष्कृत थीं और उनको स्पष्ट बोध होता था कि आगे काल कैसा चला प्राता है। केवल २७ वर्ष की अवस्था मे मेरे पिता ने देहत्याग किया, किन्तु इसी अवस्था मे ४० ग्रन्थ बनाए।" विद्या की इन्हें ऐसी चि थी कि बहुत धन व्यय करके वृहत सरस्वती भवन का सडग्रह किया था जिसमे बडी अलभ्य और अमूल्य ग्रन्थों का सग्रह है। डाक्तर राजेन्द्र लाल मित्र इस पुस्तकालय का मुल्य एक लाख रुपया दिलवाते थे। इन ग्रन्थो का पहाड बनाकर उस पर सर [ ५१ ](३२) भारतेन्दु वाबू हरिश्चन्द्र का जीवन चरित्न स्वती देवी की मूर्ति स्थापन करके आश्विन शुक्ला सप्तमी से तीन दिन तक उत्सव करते थे जो अब तक होता है । अपने चौखम्भास्थित भवन मे इन्होने एक पाईं बाग श्री ठाकुर जी के निमित्त बहुत सुन्दर बनवाया। वाग रामकटोरा के सामने सडक पर रामकटोरा तालाब का जीर्णोद्धार बहुत रुपया लगाकर किया था। यह तालाब चारो ओर से पक्का बंधा है। पहिले इसमे कटोरे की तरह पानी भरा रहता था पर अब म्यूनिसिपलिटी की कृपा से नल ऊँची हो जाने से पानी कम पाता है। इस तालाब पर एक मन्दिर बनवाकर सब देवताओं की मूर्ति स्थापन करने की इच्छा थी पर पूरी न हो सकी। मूर्तिये मत्यतही सुन्दर बनवाया था जो अब तक रक्खी है। ___बान का भी इन्हें शौक था। सन् १८६४ मे यहाँ एक ऐग्रीकल्चरल शो (कृषि प्रदशिनी) हुई थी उसमे इन्हें इनाम और उत्तम सर्टिफिकेट मिली थी। दिनचर्या व्यसन इन्हें भगवत्सेवा या कविता के अतिरिक्त कोई भी न था। जाडे के दिनो मे सबेरे तीन बजे से उठते और मन्दिर के भृत्यो को बुलवाते, और गर्मी के दिनो मे पाँच बजे शौचादि से निवृत्त होकर कुछ कविता लिखते। शौच जाते समय कलम दावात काराज बाहर रक्खा रहता । यदि कुछ ध्यान प्राजातातो शौच से निकलते ही हाथ धोकर लिख लेते, तब दतुयन करते । कभी घर मे श्री ठाकुर जी की सेवा मे स्नान करने के पहिले श्री मुकुन्दराय जी के दर्शन को तामजाम पर बैठ कर जाते और कभी अपने यहाँ भृङ्गार की सेवा मे पहुँच कर तब जाते। घर मे भी ठाकुर जी की शृङ्गार की सेवा से निकल कर कविता लिखते, लेखक चार पाँच बैठे रहले और उनको लिखवाते, राजभोग भारती करके दस ग्यारह बजे श्री ठाकुर जी की महाप्रसादी रसोई खाते । भोजनोपरान्त कुछ देर दर्वार करते थे। और घरके काम काज देखते । फिर दोपहर को कुछ देर सोते। तीसरे पहर को फिर दार लगता। कविकोविदो का सत्कार करते, कविता की [ ५२ ]भारतेन्दु बाबू हरिश्चन्द्र का जीवन चरित्र (३३) चर्चा रहती, सध्या को हवा खाने जाते, गाडी तक तामजाम पर जाते । रामकटोरा वाले बाग मे भाँग पीते । शौच होकर घर आते । हवा खाकर पाने पर फिर दर लगता। रात्रि को बस बजे तक भोजन करके सोते । सबेरे बिना कम से कम पॉच पद बनाए भोजन न करते । सध्या को सुगन्धित पुष्प का गजरा या गुच्छा पास मे अवश्य रहता । रात्रिको पलग के पास एक चौकी पर कागज, कलम, दावात रहती, शमेदान रहता, एक चौकी पर पानदान और इनदान रहता। रात्रि को कविता कुछ अवश्य लिखते । स्वभाव हसोड बहुत था, इसलिये जब बैठते, हँसी दिल्लगी होती, परन्तु दर्बार के समय नहीं । प्रति एकादशी को जागरण करते। बडा उत्सव करते थे। इनकी एक मौसी थीं, वह स्वभाव की चिडचिडही अधिक थीं और इन्हीं के यहाँ रहती थीं। इन्हें ये प्राय चिढाया करते थे इन्हें चिढाने के लिये यह कविता बनाया था - घडी चार एक रात रहे से उठी घडी चार एक गङ्ग नहाइत है। घडी चार एक पूजा पाठ करी घडी चार एक मन्दिर जाइत है। घडी चार एक बैठ बिताइत है घडी चार एक कलह मचाइत है। बलि जाइत है ओहि साइन की फिर जाइत है फिर आइत है। - - . - - कवियो का आदर इनके दर्बार मे कवियो का बडा आदर होता था। इनके यहाँ से कोई कवि विमुख न फिरता । यद्यपि इनके दर्बारी कवियो का पूरा वृत्तान्त उपलब्ध नहीं है, तथापि दो तीन कवियो का जो पता लगा है, वह प्रकाशित किया जाता है। एक कवि जी को (इनका नाम कदाचित ईश्वर कवि था) एक चश्मे की आवश्यकता थी। उन्हो ने एक कबिता बना कर दिया। उन्हें तुरन्त चश्मा मिला। उस कवित्त का अन्तिम चरण यह है[ ५३ ](३४) भारतेन्दु बाबू हरिश्चन्द्र का जीवन चरित्न "खसमामुखो के मुख भसमा' लगाइवे को एहो धनाधीश हमे चाहत एक चसमा"। एक कवि जी की यह कविता उपलब्ध हुई है-- परलिया छन्द--"बठे है बिराजो राज मन्दिर मो कियो साज सर्म को साज आसय आजिम अचल है। दविता को रहे अरि सविता को सागर मो कविता कमलता से सचिता सबल है। कहै कविराज कर जोरे प्रभू गोपालचन्द्र ए बचन बिचारो मेरो विद्या की विमल है। बगर बडाई कोरु सर सोलताई को सुभाजन भलाई को सभाजन सकल है ॥१॥ दोहा । जहाँ अधिक उपमेव है छीन होत उपमान । अलकार वितरेक को किज्जत तहाँ बिनान ॥ जथा। बुध सो बिरोधे सकल कलानिधि देखो दु पश्य निर्मल सो न आदर सहै। गुरु से ईस मै गुरुज्ञान में विलोकियतु कबिता अनेक कबिताई को सरस है ॥ द्वार आगे हैं राजत गजराज फेरियत रीशि रीशि दीजियत पायन परससु (स?) है। कहैं सभू महाराज गोपालचन्द्र जू धरमराज की सभा ते सभा रावरी सरस है। पडित हरिचरण जी अपने सस्कृत पत्र में लिखते हैं --"यशोदा गर्भजे देवि चतुर्वर्ज फल प्रदे। श्री मद्गोपालचन्द्राख्य श्चिरायुष्क्रिय तान्त्वया ॥ साबणिरि त्याद्यारभ्य सावरिण भविता मनु । इत्यन्त शत सख्यात पाठ सकल्प्य दीयत्ताम्"। सुप्रसिद्ध कवि सरदार ने इनके बलिराम कथामृत के प्रादि से "स्तुति प्रकाश" को लेकर उस पर टीका लिखी है। उसमे उक्त कवि ने इनके विषय में जो कुछ लिखा है उसे हम उद्धृत करते हैं। छप्प "बिमल बुद्धि कुल बैस बनारस वास सुहावन। फतेचद आनन्दकन्द जस चन्द बढावन । हरषचन्द ता नन्द मन्द बैरी मुख कीने । तासुत श्री गोपालचन्द कविता रस भीने॥ दश कथा अमृत बलराम मैं अस्तुति उह भूषन दियो । तेहि देखि सुबुध सरदार कबि बुधि समान टीका कियो। १ मुखरा सरस्वती के मुख मे भस्म लगाने के लिये अर्थात कविता लिखने के लिये। [ ५४ ]भारतेन्दु बाबू हरिश्चन्द्र का जीवन चरित्र (३५) दोहा लोक बिभू ग्रह सभु सुत रद सुचि भादव मास । कृष्णजन्म तिथि दिन कियो पूरन तिलक बिलास ।" इस प्रथ का कुछ प्रश भी हम यहा पर उद्धत करते ह "स्तुति प्रकाशिका" कवि सरदार कृत टीका आदि टीका का। श्री गोपीजन बल्लभायनम ।दोहा। सुमन हरष धारे सुमन बरषत सुमन अपार । नन्द नन्दन आनन्द भर वन्दत कवि सरदार ॥१॥ गिरिधर गिरिधर- दास को कियो सुजस ससि रूप । तिहि तकि कवि सरदार मन बाढो सिन्धु अनूप ॥२॥ कुवुधि भूमि लोपित ललित उमग्यो वारि विचार ॥ करन लग्यो रचना तिलक उर धरि पवन कुमार ॥३॥ पवन पुत्र पावन परम पालक जन पन पूर। परि घालन सालन सदा दस सिर उर सस सूर ॥४॥ मूल । प्रभु तव वदन चन्द सम अमल अमन्द । तमहारी रतिकारी करत अनन्द ।। टीका प्रभु इति । उक्ति ब्रह्मा की है। प्रभु तुमारो बदन चन्द सम अमल अमद तम हरन रति करन प्रीति करन आनन्द करन है। वदन उपमेय चन्द उप- मान । सम वाचक । अमल । आदिक साधारन धम । तातें पूर्णोपमालङ्कार। प्रश्न । साधारन धर्म का कहावै । जो उपमान उपमेय दोउन मे होय । सो अमलता और अमन्दता चन्द्रमा मे दोऊ नाही यातें उपमेय मे अधिकता पाए तें बितरेक काहे न होइ । उत्तर ॥ जब छोर समुद्र तें चन्द्रमा निकरो ता समय अमल अमन्द रहो। यातें इहाँ पूरन उपमा होइ है ताको लच्छन । भारती भूषने। ।दोहा। उपमानरू उपमेय जहँ उपमा वाचक होइ । सह साधारन धर्म के पूरन उपमा सोइ ॥१॥ जथा। मुख सुखकर निसिकर सरिस सफरी से चल नैन । छीन लङ्क हरिलङ्क सी ठाढी अनॉ अन ।। मुख उपमेय सुखकर धम निसिकर उपमान । सरिस बाचक । पुन सफरी उपमान । से । बाचक । चल धर्म । नैन उपमेय । पुन छीन धर्म लँक उपमेय हरिलस उपमान । सो वाचक याते पूर्णोपमा। तहाँ प्रश्न के ब्रह्मा ने अन्यगुन छोडि अलकार मैं स्तुति करी। ताको अभिप्राय । उत्तर । कसादिकन के वासतें अन्य ठॉव दूषन भरि गए एक प्रभु [ ५५ ](३६) भारतेन्दु बाबू हरिश्चन्द्र का जीवन चरित्न के निकट भूषन रहो । अलँकार प्रियो विष्णु यह पुरान मे लिखते हैं । सो उनको प्रसन्न करनी है यासो अलकारमय स्तुति करी यद्वा। आगे व्रज मे अवतार लेके शृगार रस प्रधान लीला करनी है तासो भूषन अपन करत है। पुन प्रश्न । पूरन उपमा अलकार तें काहे क्रम बाँधो। उत्तर । षोडश कला परिपूर्ण अवतार की इच्छा। ग्रथातरे। दोहा । भौहै कुटिल कमान सी सर से पैने नैन । वेधत ब्रज वालान ही बशीधर दिन रैन। इत्यादि जानिए।" पूज्य भारतेन्दु जी ने इनके मुख्य सभासदो के नाम एक याददाश्त मे इस प्रकार लिखे है-- पडित ईश्वरदत्त जी (ईश्वर कवि), सरदार कवि, गोस्वामी दीनदयाल गिरि, कन्हैयालाल लेखक, पडित लक्ष्मीशङ्कर व्यास, बाबू कल्यानदास, माधोराम जी गौड, गुलाबराम नागर और बालकृष्ण दास टकसाली। साधु महात्माओ का समागम इनपर उस समय के साधु महात्मानो की भी बडी कृपा रहती थी और ये भी सदा उन लोगो की सेवा शुश्रूषा मे तत्पर रहते थे। एक पुर्जा उस समय का मुझे मिला है जो अविकल प्रकाशित किया जाता है-- ___ "राम किंकर जी अयोध्या के महन्त जिनका नाम जाहिर है आपने भी सुना होगा, बडे महात्मा है सो राधिकादास जी के स्थान पर तीन चार रोज से टिके हैं अभी उनके साथ सहर मे गए है और चाहिए कि दो तीन घडी मे पाप की भेट को प्रावै क्योकि राधिका दास जी की जुबानी आपके गुन सुने और सहस्र नाम की पोथी देखी उत्कठा मालूम होती है और है कैसे 'कौपीनवन्त खलुभाग्यवन्त'। राधिकादासजी, रामकिंकर जी, तुलाराम जी, भागवतदास जी प्रादि उस समय के बडे प्रसिद्ध महात्मा गिने जाते थे। इन लोगो से इनसे बहुत स्नेह था, वरञ्च इन लोगो से भगवत् सम्बन्धी चुहलबाजी भी होती थी। एक दिन इहीं [ ५६ ]भारतेन्दु बाबू हरिश्चन्द्र का जीवन चरित्न (३७) मे से किसी महात्मा से इन्होने कहा कि "भगवान श्री कृष्णचन्द्र में भगवान श्री रामचन्द्र से दो कला अधिक थीं, अर्थात् इनमे सोलहो कला थीं ।" उक्त महानु- भाव ने उत्तर दिया “जी हॉ, चोरी और जारी"। कई महात्मानो की कथा भी धूमधाम से हुई थी। बुढवामगल यह हम ऊपर लिख पाए हैं कि बाबू हषचन्द्र के समय से बुढवामङ्गल का कच्छा इनके यहाँ बहुत तयारी के साथ पटता था और बिरादरी मे नेवता फिरता था, तथा गुलाबी पगडी दुपट्टा पहिर कर यावत् बिरादरी और नौकर आदि कच्छे पर आते थे। वैसी ही तयारी से यह मेला बाबू गोपालचन्द्र के समय मे भी होता था। एक वर्ष कच्छे के साथ के कटर पर सध्या करने के लिये बाबू साहब पाए थे और कटर के भीतर सध्या करते थे। छत पर और सब लोग बैठ थे। सध्या करके ऊपर आए, सब लोग ताजीम के लिये खडे हो गए। इस हलचल मे नाव उलट गई और सब लोग अथाह जल मे डूब गए। उस समय उसी नाव पर एक नौकर की गोद मे बडी कन्या मुकुन्दी बीबी भी थीं। यह दुघटना चौसट्ठी घाट पर हुई थी। इस घाट पर चतु षष्टि देवी का मन्दिर है और होली के दूसरे दिन यहाँ धरहडी को बहुत बडा मेला लगता है ।। स घाट पर अथाह जल है और रामनगर के किले से टकराकर पानी यहाँ प्राकर लगता है, इससे यहाँ पानी का बडा बेग रहता है, उस पर इनको तैरने भी नहीं पाता था-और भी आपत्ति यह कि लडके साथ मे । बाहि भगवन, उस समय क्या बीती होगी। परन्तु रक्षा करने वाले की बॉह बडी लम्बी हैं। उसने सभी को ऐसा उबारा कि प्राणियो की कौन कहे, किसी पदार्थ को भी हानि न होने पाई। बाबू गोपालचन्द्र मेरे पिता बाबू कल्याण- दास से लिपट गए। यह बडे घबराए कि अब दोनो यहीं रहे। परन्तु साहस करके इन्होने उनको अपने शरीर से छुडाकर ऊपर की ओर लोकाया। सौभाग्य- वश नौकाएँ वहाँ पहुँच गई थीं, लोगो ने हाथोहाथ उठा लिया। मुकुन्दी बीबी अपनी सोने की सिकरी को हाथ से पकडे नौकर के गले से चिपटी रहीं। निदान सब लोग निकल आए, यहाँ तक कि जितने पदार्थ डूबे थे वे सब भी निकल पाए। [ ५७ ](३८) भारतेन्दु बाबू हरिश्चन्द्र का जीवन चरित्र एक सोने की घडी, चॉदी का चश्मे का खाना और बॉह पर बाँधने का एक चाँदी का यन्त्र अब तक उस समय का जल मे से निकला हुमा रक्खा है । कविवर गोपालचन्द्र की कवित्वशक्ति उस समय भी स्थगित न हुई और उन्होने उसी अवस्था मे एक पद बनाया अन्तिम पद उसका यह है-- "गिरिधर दास उबारि दिखायो ___भवसागर को नमूना" चार दिन बुढवामङ्गल के अतिरिक्त, होली और अपने तथा पुत्रो के जन्मो- त्सव के दिन बडा जलसा और बिरादरी की जेवनार कराते थे, कि जिसकी शोभा देखनेवाले अब तक भी वतमान है, और कहते है वैसी शोभा अब अच्छे २ विवाह की महफिलो में भी नहीं दिखाई देती। एक बेर ये हाथी से भी गिरे थे और उसी दिन उस हाथी को काशिराज की भेंट कर दिया। गयायात्रा बचपन से श्रीठाकुर जी की सेवा और दर्शन का ऐसा अनुराग था कि उन्हें छोड कर कभी कहीं यात्रा का विचार नहीं करते । केवल पाँच वर्ष की अवस्था मे मुण्डन कराने के लिये पिता के साथ मथुरा जी गए थे, तथा श्रीदाऊ जी के मन्दिर मे मुण्डन हुआ था और वहाँ से लौट कर श्रीवैद्यनाथ जी गए थे, वहाँ चोटी उतरी थी। स्वतन्त्र होने पर कभी कभी चरणाद्रि श्री महाप्रभु जी के दशन को जाते, परन्तु पहिले दिन जाते, दूसरे दिन लौट आते। केवल बाबू हरिश्चन्द्र के जन्मोपरान्त सवत १९०७ मे पितृऋण चुकाने के लिये गया गए थे। गया जाने के लिये बडी तयारियाँ हुईं। महीनो पहिले से सब पुराणो, धर्मशास्त्रो से छाँट कर एक सग्रह बनवाया गया। रेल थी नहीं, डाँक का प्रबन्ध किया गया। सैकडो आदमियों का साथ था। पन्द्रह दिन की गया का विचार करके गए, परन्तु वहाँ जाने पर प्रभुवियोग ने विकल किया। दिन रात रोवै, भोजन न करे, सेवा का स्मरण प्रहनिशि रहै। निदान किसी किसी तरह तीन दिन की गया करके भागे [ ५८ ]भारतेन्दु बाबू हरिश्चन्द्र का जीवन चरित्न (३६) रात दिन बराबर चले पाए और पाकर श्रीचरणदशन से अपने को तृप्त किया । इस यात्रा मे मेरी माता साथ थीं। ग्रन्थ इनका सबसे पहिला प्रन्थ वाल्मीकि रामायण है, जिसका वर्णन ऊपर हो चुका है। परन्तु खेद के साथ कहना पडता है कि इनके ग्रन्थ ऐसे अस्त व्यस्त हो गए हैं कि जिनका कुछ पता ही नहीं लगता। केवल पूज्य भारतेदु जी के इस दोहे से - "जिन श्रीगिरिधरदास कवि रचे ग्रन्थ चालीस । ता सुत श्रीहरिचन्द को को न नवावै सीस"॥ इतना पता लगता है कि उन्होने चालीस ग्रन्थ बनाए थे, परन्तु उनके नाम या अस्तित्व का पता नहीं लगता। पूज्य भारतेन्दु जी ने अपनी याददाश्त मे इतने ग्रन्थो के नाम लिखे हैं-- १ वाल्मीकि रामायण (सातो काण्ड छन्द मे अनुवाद)। २ गभसहिता। ३ भाषा एकादशी को चौवीसो कथा । ४ एकादशी की कथा । ५ छन्दाणव । ६ मत्स्यकथामृत। ७ कच्छपकथामृत। ८ नृसिंहकथामृत । ९ बावन- कथामृत । १० परशुरामकथामृत । ११ रामकथामृत । १२ बलरामकथामृत । १३ बुद्धकथामृत । १४ कल्किकथामृत । १५ भाषा व्याकरण । १६ नीति । १७ जरासन्धबध महाकाव्य । १८ नहुषनाटक । १९ भारतीभूषण। २० अद्भुत रामायण। २१ लक्ष्मी नखसिख । २२ रसरत्नाकर । २३ वार्ता सस्कृत । २४ ककारादि सहस्त्रनाम। २५ गयायात्रा। २६ गयाष्टक। २७ द्वादश दल-कमल । २८ कीर्तन की पुस्तक "स्तुति पश्चाशिका" कवि सरदार कृत टीका का वणन ऊपर हो चुका है। इसके अतिरिक्त निम्नलिखित सस्कृत स्तोत्रो पर सस्कृत टीका कवि लक्ष्मीराम कृत मुझे मिली हैं- १ सङ्कर्षणाष्टक । २ दनुजारिस्तोत्र । ३ वाराह स्तोत्र । ४ शिव स्तोत्र । ५ श्री गोपाल स्तोत्र । ६ भगवत्स्तोत्र । ७ श्री रामस्तोत्र । ८ श्री राधास्तोत्र । ९ रामाष्टक। १० कालियकालाष्टक । इनके अन्यों [ ५९ ](४०) भारतेन्दु बाबू हरिश्चन्द्र का जीवन चरित्र के लुप्त होने का विशेष कारण यह जान पडता है कि इनके अक्षर अच्छे नहीं होते थे, इसलिये वे स्वय पुर्जी पर लिख कर सुन्दर अक्षरो मे नकल लिखवाते और सुन्दर चित्र बनवाते थे। तब मूल कापी का कुछ भी यत्न न होता और ग्रन्थ का शन्नु वही उसका चित्र होता । मैने वाल्मीकि-रामायण और गर्गसहिता की सचित्र कापी बचपन मे देखी थी, परन्तु उसे कोई महाशय पूज्य भारतेन्दु जी से ले गए और फिर उन्होने उसे न लौटाया। कीतन की पुस्तक मुन्शी नवलकिशोर के प्रेस से खो गई और 'नहुषनाटक" का कुछ भाग "कविवचनसुधा" प्रथम भाग मे छपकर लुप्त हो गया। खेद है कि पूज्य भारतेन्दु जी को असावधानी ने इनको बहुत हानि पहुंचाई। दशावतार कथामृत मानो उन्होने भाषा मे पुराण बनाया था। पुराण के सब लक्षण इसमे हैं । बलिरामकथामृत बहुत ही भारी ग्रन्थ है । वह ग्रन्थ स० १९०६ से १९०८ तक मे पूरा हुआ था। भारतीभूषण अलङ्कार का अद्भुत ग्रन्थ है। अच्छे अच्छे कवि अपने विद्यार्थियो को यह ग्रन्थ पढाते हैं । नहुषनाटक भाषा का पहिला नाटक है। भाषा व्याकरण-छन्दोबद्ध भाषा का व्याकरण अत्यन्त सुगम और सरल ग्रन्थ है । जरासन्धबध महाकाव्य और रसरत्नाकर अधूरे ही रह गए। इन दोनो को पूज्य भारतेन्दु जी पूरा करना चाहते थे, परन्तु खेद कि वैसा ही रह गया। जरासन्धबध महाकाव्य बहुत ही पाण्डित्य पूर्ण वीररसप्रधान ग्रन्थ है। भाषा मे यह ग्रन्थ एम० ए० का कोर्स होने योग्य है। इसकी तुलना के भाषा मे बिरले ही ग्रन्थ मिलेंगे। इस ढङ्ग का प्रन्थ केवल कविवर केशवदास कृत राम- चन्द्रिका ही है। इनकी कविता की प्रशसा फ्रास देश के प्रसिद्ध विद्वान गासिनदी तासी ने अपने ग्रन्थ मे की है और डाक्तर निअर्सन तथा बाबू शिवसिंह ने (शिवसिंह सरोज मे) इनकी विद्वत्ता को मुक्त कठ से स्वीकार किया है। कविता इनकी कविता पाण्डित्यपूर्ण होती थी। इन्हें अलङ्कारपूर्ण श्लेष, जमक इत्यादि कविता पर विशेष रुचि थी। परन्तु नीति शृङ्गार और शान्ति रस की [ ६० ]भारतेन्दु बाबू हरिश्चन्द्र का जीवन चरित्र (४१) कविता इनकी सरल और सरस भी अत्यन्त ही होती थी। हम उदाहरण के लिये कुछ कविताएँ यहाँ उद्धृत करते है- सवैया-सब केसब केसब केसव के हित के गज सोहते सोभा अपार हैं। जब सैलन सैलन सैलन ही फिरै सैलन सलाहिं सीस प्रहार हैं । गिरिधारन धारन सो पद के जल धारन ल बसुधारन फार हैं अरि वारन बारन बारन पै सुर बारन बारन बारन वार हैं ॥१॥ मुकरी-अति सरसत परसत उरज उर लगि करत बिहार । चिन्ह सहित तन को करत क्यो सखि हरि नहिं हार ॥१॥ सख्यालङ्कार-गुरुन को शिष्यन पात्र भूमि देवन को मान देह ज्ञान देह दान देहु धन सो। सुत को सन्यासिन को वर जिजमानन को सिच्छा देहु भिच्छा देहु दिच्छा देहु मन सो॥ सत्वन को मित्रन को पिनन को जग बीच तीर देहु छीर देहु नीर देहु पन सो। गिरिधर दास दास स्वामी को अधी को पासु रुख देहु सुख देहु दुख देहु तन सो॥ यथासख्य--असतसङ्ग, सतसङ्ग, गुन, गङ्ग, जङ्ग कहँ देखि । भजहु, सहजु, सीखहु सदा, मज्जहु लरहु विसेखि ॥ अविकृतशब्द श्लेष मूल वक्रोक्ति-मानि कही रमनी सुलै हौं परसत तुव पाय । मानिक हार मनी सु ले देहु पतुरियै जाय ॥१॥मानत जोगहि सुमति बर पुनि पुनि होति न देह । जोगी मानहिं जोग को नहि हम करत सनेह ॥२॥ स्वभावोक्ति-गौनो करि गौनो चहत पिय विदेस बस काजु । सासु पासु जोहत खरी ऑखि अाँसु उर लाजु ॥१॥ ____समस्या पूर्ति--जीवन ये सगरे जग को हमतें सब पाप नौ ताप की हानी । देवन को अरु पितॄन को नरको जडको हमहीं सुखदानी ॥ जो हम ऐसो कियो तेहि नीच महा सठको मति ले अघसानी। हाय विधाता महा कपटी इहि कारन कूप मैं डोलत पानी ॥१॥ बातन क्यो समुझावति हौ मोहि मैं तुमरो गुन जानति राधे । प्रीति नई गिरिधारन सो भई कुज मैं रीति के कारन साधे । घूघट नैन दुरावन चाहति दौरति सो दुरि भोट है प्राधे। नेह न गोयो रहै सखि लाज सो कैसे रहै जल जाल के बाँधे ॥२॥ [ ६१ ](४२) भारतेन्दु बाबू हरिश्चन्द्र का जीवन चरित्र जरासन्धबध महाकाव्य से--चले राम अभिराम राम इष धनु टॅकारत । दीनबन्धु हरिबन्धु सिन्धु सम बल बिस्तारत ॥ जाके दशसत सिरन मध्य इक सिर पर धरनी। लसति जथा गज सीस स्वल्प सरसप सित बरनी ॥ विक्रम अनत प्रतक अधिक सुजस अनत अनत मति । परताप अनत अनत गुन लसे अनत अनत गति ॥१॥ पद-प्रभु तुम सकल गुन के खानि । हो पतित तुव सरन पायो पतित पावन जानि ॥ कब कृपा करिहौ कृपानिधि पतितता पहिचानि । दास गिरिधर करत बिनती नाम निश्चै प्रानि ॥१॥ खडी बोली का पद--जाग गया तब सोना क्या रे। जो नर तन देवन को दुलभ सो पाया अब रोना क्या रे ॥ ठाकुर से कर नेह अपाना इन्द्रिन के सुख होना क्या रे । जब बैराग ज्ञान उर पाया तब चॉदी औ सोना क्या रे ॥ दारा सुपन सदन मे पड के भार सबो का ढोना क्या रे। हीरा हाथ अमोलक पाया काँच भाव मे खोना क्या रे॥ दाता जो मुख मॉगा देवे तब कौडी भर दोना क्या रे। गिरिधरदास उदर पूरे पर मीठा और सलोना क्या रे॥१॥ ___विदुर नीति से--पावक, बरी, रोग, रिन सेसहु राखिय नाहिं । ए थोडे हू बढहिं पुनि महाजतन सो जाहि ॥१॥ ____ बाल्मीकिरामायण से-पति देवत कहि नारि कहें और आसरो नाहि । सर्ग सिढी जानहु यही वेद पुरान कहाहि ॥१॥ नीति के छप्पय (स्वहस्त लिखित एक पुर्जे से)-धिक नरेस बिनु देस देस धिक जहँ न धरम रुचि । रुचि धिक सत्य विहीन सत्य धिक बिनु बिचार सुचि ॥ धिक बिचार बिनु समय समय धिक बिना भजन के । भजनहु धिक बिनु लगन लगन धिक लालच मन के ॥ मन धिक सुन्दर बुद्धि बिनु बुद्धि सुधिक बिनु ज्ञान गति । धिक ज्ञान भगति बिनु भगति धिक नहिं गिरिधर पर प्रेम प्रति ॥१॥ मुझे खेद है कि न तो मैने इनके सब ग्रन्थो को पढ़ा है और न इतना अवसर मिला कि उत्तमोत्तम कविता छाँटता। यतकिञ्चित उदाहरण के लिये उद्धृत कर दिया और चित्रकाव्य को छापने की कठिनता से सवथा ही छोड दिया है । धर्म विश्वास--वैष्णव धर्म पर इन्हें ऐसा अटल विश्वास था कि और सब देव देवियों की पूजा अपने यहाँ से उठा दी थी। भारते दु जी ने लिखा है कि "मेटि देव [ ६२ ]भारतेन्दु बाबू हरिश्चन्द्र का जीवन चरित्र (४३) देवी सकल छोडि कठिन कुल रीति । थाप्यो गृह मे प्रेम जिन प्रगट कृष्ण पद प्रीति॥" मरने के समय भी घर का कोई सोच न था केवल श्वास भर कर ठाकुर जी के सामने यही कहा था कि “दादा ! तुम्हें बडा कष्ट होगा।" रोग और मृत्यु बचपन से लोगो ने उन्हें भङ्ग पीने का दुव्यसन लगा दिया था। वह अति को पहुँच गया था ऐसी गाढी भाँग पीते थे कि जिसमे सीक खडी हो जाय । और अन्त मे इसी के कारण उन्हें जलोदर रोग हो गया। बहुत कुछ चिकित्सा हुई, परन्तु कोई फल न हुआ। कोठी की ताली और प्रबन्ध राय नृसिंहदास को सौंप गए थे और उन्होने बाबू गोकुलच द्र की नाबालगी तक कोठी को संभाला था। स० १९१७ की बैसाख सु० ७ को प्रत समय मा उपस्थित हुआ। पूज्य भारतेन्दु जी और उनके छोटे भाई बाबू गोकुलचन्द्र जी को सीतला जी का प्रकोप हुश्रा था । दोनो पुत्रो को बुलाकर देखकर बिदा किया। इन लोगो के हटते ही प्राण पखेरू ने पयान किया। चारो ओर अन्धकार छा गया, हाहाकार मच गया। पूज्य भारतेन्दु जी कहते थे कि "वह मूर्ति अब तक मेरी आँखो के सामने विराजमान है। तिलक लगाए बडे तकिए के सहारे बैठे थे। दिव्य कान्ति से मुखमण्डल दीप्त था, मुख प्रसन्न था, देखने से कोई रोग नहीं प्रतीत होता था। हम लोगो को देखकर कहा कि सीतला ने बाग मोड दी। अच्छा अब ले जाव ।" इनकी अन्त्येष्टि क्रिया एक सम्बन्धी (नन्हूसाव) ने की थी। [ ६३ ](४४) भारतेन्दु बाबू हरिश्चन्द्र का जीवन चरित्र भारतेन्दु हरिश्चन्द्र का जन्म मि० भाद्रपद शुक्ल ७ (ऋषि सप्तमी) स० १९०७ ता ६ दिसम्बर सन १८५० को हुआ, जिस समय इनके पूज्य पिता का बियोग हुआ उस समय इनकी अवस्था केवल ६ वष की थी, परन्तु “होनहार बिरवान के होत चीकने पात" इस लोकोक्ति के अनुसार बालक हरिश्चन्द्र ने पॉच छ वर्ष की अवस्था ही में अपनी चमत्कारिणी बुद्धि से अपने कविचूडामणि पिता को चमत्कृत कर दिया था। पिता (गोपालचन्द्र) बलिराम-कथामृत की रचना कर रहे थे, बालक (हरिश्चन्द्र) खेलते खेलते पास आ बैठे, बोले हम भी कविता बनावैगे। पिता ने पाश्चयपूर्वक कहा तुम्हें उचित तो यही है । उस समय बाणासुर-बध का प्रसग लिखा जा रहा था। बाल-कबि ने तुरन्त यह दोहा बनाया -- ले ब्याँडा ठाढे भए श्री अनिरुद्ध सुजान । वानासुर की सैन को, हनन लगे भगवान ।। पिता ने प्रेमगद्गद होकर प्यारे पुत्र को कण्ठ लगा लिया और अपने होनहार पुत्र की कविता को अपने प्रथ मे सादर स्थान दिया और आशीर्वाद दिया "तू हमारे नाम को बढावैगा"। हाय ! कहाँ है उनकी आत्मा | वह पाकर देखे कि उनके पुत्र ने उनका ही नहीं वरन उनके देश का भी मुख उज्ज्वल किया है। एक दिन अपने पिता की सभा मे कवियो को अपने पिता के 'कच्छपकथामृत' के मगलाचरण के इस प्रश पर -- "करन चहत जस चारु कछु कछुवा भगवान को" व्याख्या करते देख बालक हरिश्चन्द्र भी आ बैठे। किसी ने "कछुकछुवा उस भगवान को" यह अर्थ कहा, और किसी ने यो कहा “कछु कछुवा (कच्छप) भग- वान को"। बालक हरिश्चन्द्र चट बोल उठे "नहीं नहीं बाबू जी, आपने कुछ कुछ जिस भगवान को छू लिया है उसका जस वर्णन करते हैं" (कछुक छुवा भगवान को) बालक की इस नई उक्ति पर सब सभास्थ लोग मोहित हो उछल पड़े और पिता ने सजल नेत्र प्यारे पुत्र का मुख चूमकर अपना भाग्य सराहा। [ ६४ ]भारतेन्दु बाबू हरिश्चन्द्र का जीवन चरित्र ___ इनको बुद्धि बचपनही से प्रखर और अनुसन्धानकारिणी थी। एक दिन पिता को तर्पण करते देख आप पूछ बैठे "बाब जी पानी मे पानी डालने से क्या लाभ ?" धार्मिकप्रवर बाबू गोपालचन्द्र ने सिर ठोका और कहा “जान पडता है तू कुल बोरगा" । देव तुल्य पिता के आशीर्वाद और अभिशाप दोनो ही एक एक अश मे यथा समय फलीभूत हुए, अर्थात् हरिश्चन्द्र जैसे कुल मखोज्वलकारी हुए, वैसे ही निज अतुल पैतृक सम्पत्ति के नाशकारी भी हुए। शिक्षा नौ वष की अवस्था मे पितहीन होकर ये एक प्रकार से स्वतन्त्र हो गए। जिनकी स्वतन्त्र प्रकृति एक समय बडे बडे राजपुरुषो और स्वदेशीय बडे बडे लोगों के विरोध से न डरी उनको बालपन मे भी कौन पराधीन रख सकता था, विशेष- कर विमाता और सेवकगण? तथापि पढने के लिये वे कालिज मे भरती किए गए। यथा समय कालिज जाने लगे। उस समय अग्रेजी स्कूलो मे लडको के चरित्र पर विशेष ध्यान रखा जाता था। पान खाकर कालिज में जाने का निषेध था । पर परम चपल और उद्धत स्वभाव ये कब मानने लगे थे, पान का व्यसन इन्हें बच- पन ही से था, खूब पान खा कर जाते और रास्ते मे अपने बाग (रामकटोरा) मे ठहर कर कुल्ला करके तब कालिज जाते । पढने में भी जसा चाहिए वैसा जी न लगाते, परन्तु ऐसा कभी न हुआ कि ये परिक्षा में उत्तीर्ण न हुए हो । एक दो बेर के सुनने और थोडे ही ध्यान देने से इन्हें पाठ याद हो जाता था और इनकी प्रखर बुद्धि देख कर अध्यापक लोग चमत्कृत हो जाते थे। उस समय अग्रेग्री शिक्षा का बडा अभाव था। रईसो मे केवल राजा शिवप्रसाद अग्रेजी पढे थे, अतएव इनका बडा नाम था। ये भी कुछ दिनो तक उनके पास अग्रेजी पढने जाया करते थे। इसी नाते ये सदा राजा साहब को 'पूज्यतर, गुरुवर' लिखते और राजा साहब इन्हें प्रियतर, मित्रवर, लिखते थे। तीन चार वर्ष तक तो पढ़ने का क्रम चला। कालिज मे अग्रेजी और सस्कृत पढते थे, पर रसिकराज हरिश्चन्द्र का झुकाव उस समय भी कविता की ओर था। परन्तु वही प्राचीनढरेशृगार रस की। उस समय का उनका लिखा एक संग्रह मिला है जिसमे प्राय शृगार ही की कविताएँ [ ६५ ](४६) भारतेन्दु बाबू हरिश्चन्द्र का जीवन चरित्र विशेष सग्रहीत हैं, तथा स्वय भी जो कोई कविता की है तो भृगार या धम- सम्बन्धी। जगदीश यात्रा-रुचि परिवर्तन इसी समय स्त्रियो का प्राग्रह श्री जगदीश-यात्रा का हुमा । स० १९२२ (स० १५६४-६५) मे ये सकुटुम्ब जगदीश यात्रा को चले। यही समय इनके जीवन मे प्रधान परिवतन का हुआ। बुरी या भली जो कुछ बातें इनके जीवन की सगिनी हुई, उनका सूत्रपात इसी समय से हुआ। पढना तो छूट ही गया था। उस समय तक रेल पूरी पूरी जारी नहीं हुई थी। उस समय जो कोई इतनी बडी यात्रा करते तो उन्हें पहुँचाने के लिये जाति कुटुम्ब के लोग तथा इष्टमित्र नगर के बाहर तक जाते थे। निदान इनका भी डेरा नगर के बाहर पडा। नगर के रईस तथा आपस के लोग मिलने के लिये प्राने लगे। बड़े प्रादमियो के लडको पर प्राय नगर के अथलोलुप लोगो की दृष्टि रहती ही है, विशेष कर पितहीन बालक पर। अतएव वैसे ही एक महापुरुष इनके पास भी मिलने के लिये पहुँचे । ये वही महा- शय थे जिनके पितामह ने बाबू हषचन्द्र की नाबालग्री मे इनके घर को लूटा था, और उन्हीं महापुरुष के पिता ने बाबू गोपालचन्द्र की नाबालगी का लाभ उठाया था। और अब इनकी नाबालग्री में ये महात्मा क्यो चकने लगे थे? अतएव ये भी मिलने के लिये पाए। शिष्टाचार की बातें होने पर वे इनको एकान्त मे लिवा ले गए और उन्हें दो प्रशफियाँ देने लगे। यह देख बालक हरिश्चन्द्र अचम्भे में श्रा गए और पूछा "इन अफियो से क्या होगा ?" शुभचिन्तक जी बोले "आप इतनी बडी यात्रा करते हैं, कुछ पास रहना चाहिए। इन्होने उत्तर दिया "हमारे साथ मुनीब गुमाश्ते रुपये पसे सभी कुछ हैं, फिर इन तुच्छ दो अफियो से क्या होगा?" शुभचिन्तक जी ने कहा "माप लडके हैं, इन भेदो को नहीं जानते, मै आपका पुश्तैनी 'नमकखार' हूँ। इस लिये इतना कहता हूँ। मेरा कहना मानिए और इसे पास रखिए, काम लगै तो खच कीजिएगा नहीं तो फेर दीजिएगा। मै क्या आप से कुछ मॉगता हूँ। आप जानते ही है कि आपके यहाँ बहू जी का हुक्म चलता है। जो आपका जी किसी बात को चाहा और उन्होंने [ ६६ ]भारतेन्दु बाबू हरिश्चन्द्र का जीवन चरित्न (४७) न दिया तो उस समय क्या कीजिएगा? कहावत है कि 'पसा पास का जो वक्त पर काम प्रावै।" होनहार प्रबल होती है, इसी से उस धूत की धूतता के जाल मे फंस गए। और उन्होने उसको प्रशफियाँ रखली एक ब्राह्मण युवक उनके साथ थे, वही खजाची बने । ऋण लेने का यहीं से सूत्रपात हा। फिर तो उनकी तबियत ही और हो गई, मिज़ाज मे भी गरमी आ गई। रानीगज तक तो रेल मे गए, भागे बैल गाडी और पालकी का प्रबन्ध हुना। बदवान मे पाकर किसी बात पर ये मा से बिगड खडे हुए और बोले "हम घर लौट जाते हैं। इस पर लोगो ने समझा कि इनके पास तो कुछ है नहीं तो फिर ये जायेंगे कैसे? यह सोच कर लोगो ने उनकी उपेक्षा की। बस चट प्राप उन ब्राह्मण देवता को साथ लेकर चल खडे हुए, जिन्हें उन्होने अशर्फी का खजाची बनाया था। बाजार मे आकर एक अशर्फी भुनाई और स्टेशन पर जा पहुँचे । यह समाचार जब छोटे भाई बाबू गोकुलचन्द्र को मिला तब वह सजल-नेत्र स्टेशन पर जाकर भाई से लिपट गए। तब तो हरिश्चन्द्र का स्नेहमय हृदय सम्हल न सका, उसमे भ्रातृस्नेह उछल पडा, दोनो भाई गले लग कर खूब रोए, फिर दोनो डेरे पर लौट आए। लौट तो प्राए पर उसी समय से इनके हृदय मे जो स्वतत्रता का स्त्रोत उमड पडा वह फिर न लौटा। धीरे धीरे दोनो प्रशफियाँ खर्च हो गई और फिर ऋण का चसका पड़ा। उन्हीं दो प्रशफियो के सूद ब्याज तथा अदला बदली मे उक्त पुश्तैनी 'नमकखार' के हाथ इनकी एक बडी हबेली जो पन्द्रह हजार रुपये से कम की नहीं है, लगी। इसी समय से इनकी रुचि गद्य-पद्य मय कविता की ओर झुकी । वह एक 'प्रवास नाटक' लिखने लगे। परन्तु अभाग्यवश वह अपूण और अप्रकाशित ही रह गया। इसी समय 'झूलत हरीचन्द जू डोल', 'हम तो मोल लए या घर के', आदि कविताएँ बनीं और इसी समय इन्होने बंगला सीखी। श्री जगन्नाथ जी के सिंहासन पर चिरकाल से भैरव-मूर्ति भोग के समय बैठाई जाती थी। मूख पडो का विश्वास था कि बिना भैरव-मूर्ति के श्री जगन्नाथ जी की पूजा सॉग हो ही नहीं सकती। इन्हें यह बात बहुत खटकी। इन्होने नाना प्रमाणो से उसका विरोध किया। निदान अन्त मे भैरव-मूर्ति को वहाँ से हटा ही छोडा तहकीकात पुरी की तहकीकात |' इसी झगडे का फल है। - - - - - [ ६७ ](४८) भारतेन्दु बाबू हरिश्चन्द्र का जीवन चरित्र स्कूल का स्थापन उस यात्रा से लौटने पर इनकी रुचि कविता और देश-हित की ओर विशेष फिरी। इनको निश्चय हुआ कि बिना पाश्चात्य शिक्षा के प्रचार और मातृ- भाषा के उद्धार के इस देश का सुधार होना कठिन है। उस समय नगर मे कोई पाठशाला न थी। सरकारी पाठशाला या पादरियो की पाठशाला मे लडको को भेजना और फीस देकर पढ़ाना साधारण लोगो के लिये कठिन था। इसलिये इन्होने अपने घर पर लडको को पढाना प्रारम्भ किया। दोनो भाई मिल कर लडको को पढाते थे। फीस कुछ देनी नहीं पडती थी। पुस्तक स्लेट आदि भी बिना मूल्य ही दी जाती थी। इस कारण धीरे धीरे लडको को सख्या बढने लगी और इनका भी उत्साह बढा । तब एक अध्यापक नियुक्त कर दिया जो लडको को पढाने लगा। परन्तु थोडे ही दिनो मे लडको की इतनी सख्या अधिक हई कि सन १८६७ ई० मे नियमित रूप से "चौखम्भा स्कूल" स्थापित किया। और उसका सब भार अपने सिर रक्खा । उसमे अधिकाश लडके बिना फीस दिए पढ़ने लगे, पुस्तकादि भी बिना मूल्य वितरित होने लगी, यहाँ तक कि अनाथ लडको को खाना कपडा तक मिल जाया करता था। इस स्कूल ने काशी ऐसे नगर मे अग्रेजी शिक्षा का कैसा कुछ प्रचार किया, यह बात सव साधारण पर विदित है। पहिले यह 'अपर प्राइमरी' था, किन्तु भारतेन्दु के अस्त होने पर 'मिडिल' हा थोड़े दिन तक हाई स्कूल भी रहा परन्तु सहायता न होने से फिर मिडिल हो गया। हिन्दी उद्धार-व्रत का प्रारम्भ 'कविवचनसुधा' का जन्म मातृभाषा का प्रेम और कविता की रुचि तो बालकपन ही से इनके हृदय मे थी। अब उसके भी पूर्ण प्रकाश का समय आया। कवि, पण्डित और विद्यारसिको का समारम्भ तो दिन रात ही होता रहता था, परन्तु अब यह रुचि 'कविवचनसुधा रूप में प्रकाश रूप से प्रकुरित हुई। सन १८६८ ई० मे 'कविवचनसुधा' मासिक पत्र के आकार मे निकला। प्राचीन कवियो की कवितानो का प्रकाश ही इनका मुख्य उद्देश्य था। कबि देवकृत 'अष्टयाम', 'दीनदयाल गिरिकृत 'अनुरागबाग', चन्दकृत 'रायसा', मलिक मुहम्मदकृत 'पद्मावत', 'कबीर की साखी', 'बिहारी के [ ६८ ]भारतेन्दु बाबू हरिश्चन्द्र का जीवन चरित्र (४६) दोहे', गिरिधरवासकृत नहुषनाटक', तथा शेखसादी कृत 'गुलिस्ताँ का छन्दोमय अनुबाद प्रादि ग्रन्थ अशट प्रकाशित हुए। परन्तु केवल इतने ही से सतोष न हुआ। देखा कि बिना गद्य रचना इस समय कुछ उपकार नहीं हो सकता । इस समय और प्रात आगे बढ़ रहे हैं, कवल यही प्रात सबसे पीछे है, यह सोच देशभक्त हरि- श्चन्द्र ने देशहित-व्रत धारण किया और “कविवचनसुधा" को पाक्षिक, फिर साप्ताहिक कर दिया तथा राजनैतिक, सामाजिक आदि आन्दोलन प्रारम्भ कर दिया और “कविवचनसुधा" का सिद्धान्त वाक्य यह हुमा- "खल गनन सो सज्जन दुखी मति होहिं, हरिपद मति रहे । उपधम छूट, स्वत्व निज ___ भारत गहै, कर दुख बहै ।। बुध तजहिं मत्सर, नारि नर सम होहिं, जग आनंद लहै । तजि ग्रामकविता, सुकविजन की अमृत बानी सब कहै।" यद्यपि इस समय इन बातो का कहना कुछ कठिन नहीं प्रतीत होता है, परन्तु उस अधपरम्परा के समय मे इनका प्रकाश्य रूप से इस प्रकार कहना सहज न था। नव्य शिक्षित समाज को 'हरिपद मति रहैं' कहना जैसा अरुचिकर था, उससे बढ़ कर पुराने 'लकीर के फकीरों' को 'उपधम छूट' कहना क्रोधोन्मत्त करना था। जैसा ही अग्रेज हाकिमो को 'स्वत्व निज भारत गहै, कर (टैक्स) दुख बहै। कहना कर्णकटु था, उससे अधिक 'नारि नर सम होहि कहना हिन्दुस्तानी भद्र समाज को चिढ़ाना था। परन्तु बीर हरिश्चन्द्र ने जो जी मे ठाना उसे कह ही डाला, और जो कहा उसे आजन्म निबाहा भी। इन्हीं कारणो से वह गवन्मेण्ट के क्रोध-भाजन हुए, अपने समाज मे निन्दित हुए और समय समय पर नव्य समाज से भी बुरे बने, परन्तु जो व्रत उन्होने धारण किया उसे अन्त तक नहीं छोडा, यहां तक कि 'कविवचनसुधा' से अपना सम्बन्ध छोड़ने पर भी आजन्म यही व्रत रक्खा। 'विद्यासुन्दर' नाटक की अवतारणा भी इसी समय हुई। नाना प्रकार के गद्य पद्यमय ग्रन्थ बनने और छपने लगे। उस समय हिन्दी का कुछ भी पादर न था। इन पुस्तको और इस समाचार पत्र को कौर मोल लेता और पढता? परन्तु [ ६९ ](५०) भारतेन्दु बाबू हरिश्चन्द्र का जीवन चरित्र देशभक्त उदार हरिश्चन्द्र को धन का कुछ भी मोह न था । वह उत्तमोत्तम कागज पर उत्तमोत्तम छपाई मे पुस्तकें छपवा कर नाम मात्र को मूल्य रखकर बिना मुल्य ही सहस्राधिक प्रतियॉ बॉटने लगे। उनके आगे पात्र अपात्र का विचार न था, जिसने माँगा उसने पाया जिसे कुछ भी सहृदय पाया उसे उन्होने स्वय दिया। यह प्रथा बाबू साहब की आजन्म रही । उन्होने लाखो ही रुपये पुस्तको की छपाई मे व्यय करके पुस्तके बिना मूल्य बाँट दी और इस प्रकार से हिन्दी के प्रेमियो की सृष्टि की और हिन्दी पढने वालो की संख्या बढाई। गवर्मेण्ट मान्य इसी समय आनरेरी मैजिस्ट्रेटी का नया नियम बना था। ये भी अपने और मित्रो के साथ आनरेरी मैजिस्ट्रेट (सन् १८७० ई० मे) चुने गए। फिर म्युनिसिपल कमिश्नर भी हुए। हाकिमो में इनका अच्छा मान्य होने लगा। परन्तु ये निर्भीत चित्त से यथार्थ बात कहने या लिखने में कभी चूकते न थे और इसी से दूसरे की बढती से जलने वालो को 'चुराली करने का अवसर मिलता था। इस समय भारतेश्वरी महारानी विक्टोरिया के पुत्र ड्यूक आफ एडिनबरा भारत सन्दशनाथ पाए। काशी में इसका महामहोत्सव हुआ। इस महोत्सव के प्रधान सहाय यही थे। इन के घर की सजावट की शोभा आज तक लोग सराहते हैं, स्वय ड्यूक ने इसकी प्रशसा की थी। ड्यूक को नगर दिखाने का भार भी इन्हीं पर अर्पित किया गया था। इस समय सब पण्डितो से कविता बनवा और 'सुमनो- ज्जलि' नामक पुस्तक मे छपवा कर इन्हो ने राजकुमार को समपण की थी। इस ग्रन्थ पर महाराज रीवॉ और महाराज विजयनगरम बहादुर ऐसे प्रसन्न हए थे कि इन्होने इसके रचयिता पण्डितो को बहुत कुछ पारितोषिक बाब साहब के द्वारा दिया था। इसी समय पण्डितो ने भी अपनी हार्दिक कृतज्ञता प्रकाश करने के लिये एक प्रशसापन बाबू साहब को दिया था जिस का सार मर्म यह था-- "सब सज्जन के मान को, कारन एक हरिचन्द । जिमि स्वभाव दिन रैन को, कारन एक हरिचन्द ॥'

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