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भारतेन्दु बाबू हरिश्चंद्र का जीवन चरित्र/6

विकिस्रोत से
भारतेन्दु बाबू हरिश्चंद्र का जीवन चरित्र
राधाकृष्ण दास

लखनऊ: हिंदी समिति, उत्तर प्रदेश सरकार, पृष्ठ १०४ से – ११५ तक

 

(८६) भारतेन्दु बाबू हरिश्चन्द्र का जीवन चरित्र इस देश के लोगो ही ने स्वीकार किया, वरञ्च योरप के लोग भी बराबर इन्हें भारतेन्दु लिखने लगे। विलायत के विद्वान इन्हें मुक्तकठ से Poet Laureate of Northern India (उत्तरीय भारत के राजकवि) मानते और लिखते थे। एज्यूकेशन कमीशन के साक्षी नियुक्त ए। लार्ड रिपन के समय मे राजा शिवप्रसाद से बिगडने पर हजारो हस्ताक्षर से गवर्मेन्ट की सेवा मे मेमोरियल गया था कि इनको लेजिस्लेटिव काउन्सिल का मेम्बर चुनना चाहिए । बलिया निवासियो ने इनके बनाए 'सत्यहरिश्चन्द्र' नाटक का अभिनय किया था, उस समय इन्हें भी बुलाया था। बलिया में इनका बडा सतकार हुअा था, इनका स्वागत धूमधाम से किया गया था, ऐड्रेस दिया गया था। इनके इस सम्मान मे स्वय जिलाधीश राबर्ट स साहब भी सम्मिलित थे । इनकी बीमारियो पर कितने ही स्थानो पर प्राथनाएँ की गई हैं, प्रारोग्य होने पर कितने ही जलसे हुए हैं, कितने 'कसीदे' बने हैं और ऐसी ही कितनी ही बातें हैं। - - . - - - नए चाल के पत्र हिन्दी मे कितने ही चाल के पन्न, कितनी ही चाल की नई बातें इन्होने चलाई। प्रतिवर्ष एक छोटी सी सादी नोट बुक छपवाकर अपने मित्रो मे बांटते थे जिस पर वर्ष को अग्रेजी जन्त्री रहती थी और "हरिश्चन्द्र को न भूलिए", "Forget me not' छपा रहता, तथा और भी तरह तरह के प्रेम तथा उपदेश वाक्य छपे रहते थे। जब से इन्होने १०० वर्ष की जन्त्री (वर्ष मालिका) छपवा कर प्रकाशित की तब से इसका छपना बन्द हुआ। इस नोट बुक की कमिश्नर कारमाइकल साहब ने बडी सराहना की है। पत्रो के लिये प्रत्येक बार के अनुसार जुदा जुदा रङ्ग के कागज पर जुदा जुदा शोषक छापकर काम मे लाते थे, यथा- रविवार को गुलाबी कागज पर-- ___"भक्त कमल' दिवाकराय नम" "मित्र पन बिनु हिय लहत छिनहू नहिं विश्राम । प्रफुलित होत न कमल जिमि बिनु रवि उदय ललाम ॥" भारतेन्दु बाबू हरिश्चन्द्र का जीवन चरित्र (८७) सोमवार को श्वेत काग्रज पर- _ "श्रीकृष्णचन्द्राय नम" "बन्धुन के पनहिं कहत अध मिलन सब कोय । आपहु उत्तर देहु तो पूरो मिलनो होय ॥" सोमवार का यह दोहा भी छपवाया था- "ससिकुल करव सोम जय, कलानाथ द्विजराज । श्री मुखचन्द्र चकोर श्री, कृष्णचन्द्र महराज॥" मङ्गल को लाल काग्रज पर-- ___"श्रीवन्दाबन सावभौमाय नम" "मङ्गल भगवान विष्णु मङ्गल गरुडध्वजम् । मङ्गल पुण्डरीकाक्ष मङ्गलायतनु हरि ॥" बुध को हरे काग़ज़ पर- “बुधराधित चरणाय नम" "बुध जन दपण मे लखत दृष्ट वस्तु को चित्र । मन अनदेखी वस्तु को यह प्रतिबिम्ब विचित्र ॥" गुरुवार को पीले कागज पर- "श्रीगुरु गोविन्दायनम" "आशा अमत पात्र प्रिय बिरहातप हित छन । बचन' चित्र अवलम्बप्रद कारज साधक पन ॥" शुक्रवार को सफेद कागज पर-- "कविकीर्ति यशसे नम" "दूर रखत करलेत आवरन हरत रखि पास । जानत अन्तर भेद जिय पत्र पथिक रसरास ॥" 2 days U S - 2las sake शनिवार को नीले कागज पर- "श्रीकृष्णायनम" "और काज सनि लिखन मैं होइ न लेखनि मन्द । मिल पन उत्तर अवसि यह बिनवत हरिचन्द ॥" (८८) भारतेन्दु बाबू हरिश्चन्द्र का जीवन चरित्र इनके अतिरिक्त और भी प्रेम तथा उपदेश वाक्य छपे हुए काराज़ो पर पत्र लिखते थे। इनके सिद्धान्त वाक्य अर्थात् मोटो निम्नलिखित थे-- (१) “यतो धमस्तत कृष्णो यत कृष्णस्ततो जय" (२) "भक्त्या त्वनन्यया लभ्यो हरिरन्यद्विडम्बनम्" (३) “The Love is heaven and heaven is love' इनके सिद्धान्त चिन्ह अर्थात् मोनोग्नाम भी थे। लिफाफो के ऊपर पत्र के प्राशय को प्रगट करने वाले वाक्यो के वेफर' छपवा रक्खे थे, जिन्हें यथोचित साट देते थे। इन पर "उत्तर शीघ्र", "जरूरी", "प्रेम" आदि वाक्य छपे थे। ऐसी कितनी ही तबीयतदारी की बातें रात दिन हुआ करती थीं। स्वभाव स्वभाव इनका अत्यन्त कोमल था, किसी का दुख देख न सकते थे। सदा प्रसन्न रहते थे। क्रोध कभी न करते। परन्तु जो कभी क्रोध या जाता तो उसका ठिकाना भी न था। जिन महाराज काशिराज का इन पर इतना स्नेह था और जिन पर ये पूर्ण भक्ति रखते थे, तथाच जिनसे इन्हें बहुत कुछ प्रार्थिक सहायता मिलती थी, उनसे एक बात पर बिगड गए और फिर यावज्जीवन उनके पास न गए महारानी विक्टोरिया के छोटे बेटे ड्यूक आफ आलबेनी की अकाल मृत्यु पर इन्हो ने शोक समाज करना चाहा । साहब मैजिस्ट्रेट से टाउनहाल मांगा, उन्हो ने प्राज्ञा दी, सभा की सूचना छपकर बँट गई, परन्तु दिन के दिन राजा शिवप्रसाद ने साहब मैजिस्ट्रेट से न जाने क्या कहा सुना कि उन्हो ने सभा रोक दी और टाउन १ अंग्रेज़ी एच (H) नाम का पहिला अक्षर, एच मे जो चारपाई है वह चार खम्भे अर्थात् चौखम्भा एच के ऊपर त्रिशूल अर्थात् काशी, श्री हरि अर्थात् भग- वन् नाम भी और श्रीहरि + चन्द्र श्री हरिश्चन्द्र, चन्द्रमा के नीचे तारा है वही फारसी का है अर्थात् इनके नाम का पहिला अक्षर । भारतेन्दु बाबू हरिश्चन्द्र का जीवन चरित्न (८६) हाल देना अस्वीकार किया, लोग आ आकर फिर गए, लोगो को बडा क्रोध हुआ और दूसरे दिन बनारस-कालिज मे कुछ प्रतिष्ठित लोगो ने एक कमेटी की जिसमे निश्चय हुआ कि शोक-समाज कालिज मे हो, मैजिस्ट्रेट की कारवाई की रिपोट गवर्मेन्ट मे को जाय और राजा शिवप्रसाद को किसी सभा सोसाइटी में न बुलाया जाय । साहब मैजिस्ट्रेट को समाचार मिला, उन्होने अपनी भूल स्वीकार की और प्राग्रह करके सभा टाउनहाल में कराई। राजा साहब बिना निमन्त्रण उस सभा मे पाए और उन्होने कुछ कहना चाहा, परन्तु लोगो ने इतना कोलाहल भी किया कि वह कुछ कह न सके । इस पर चिढकर राजा साहब ने काशिराज से इनको पत्र लिखवाया कि आपने जो राजा साहब का अपमान किया वह मानो हमारा अपमान हुआ, इसका कारण क्या है ? महाराज का अदब करके इसका उत्तर तो कुछ न लिखा, परन्तु जुबानी कहला भेजा कि महाराज के लिये जैसे हम वैसे राजा साहब, हमारे अपमान से महाराज ने अपना अपमान न माना और राजा साहब के अपमान को अपना समझा, तो अब हम अापके दरबार में कभी नावंगे। यद्यपि ये अत्यन्त ही नम्र स्वभाव थे और अभिमान का लेश भी न था, परन्तु जो कोई इनसे अभिमान करता तो ये सहन न कर सकते। शील इनका सीमा से बढा हुना था, कोई कितनी भी हानि करे ये कभी कुछ न कह सकते और न उसको पाने से रोकते। एक महापुरुष प्राय चीजें उठा ले जाया करते। जब पकडे जाते तब दुर्गति करके इनके अनुज बाळू गोकुलचन्द्र ड्योढ़ी बन्द कर देते । परन्तु जब भारतेन्दु जी बाहर से आने लगते यह साथ ही चले आते । यो ही बीसो बेर हुमा, अन्त मे भारतेन्दु जी ने भाई से कहा कि "भैया, तुम इनकी ड्योढी न बन्द करो, यह शख्स कद्र करने योग्य हैं, इस की बेहयाई ऐसी है कि इसे कलकत्ता के 'अजायब- खाने में रखना चाहिये"। निदान फिर उनके लिये अविमुक्तद्वार ही रहा। इन्होंने अपने स्वभाव को एक कविता मे स्वय कहा है, उसी को हम उद्धृत करते हैं इस पर विचार करने से उनकी प्रकृति तथा चरित्र का पूरा पता लग सकता है- “सेवक गुनीजन के चाकर चतुर के हैं, कविन के मीत चित हित गुन गानी के । सीधेन सो सीधे, महा बाँके हम बाकेन सो, हरीचन्द नगद दमाद अभिमानी के॥ चाहिबे की चाह, काहू की न परवाह नेही नेह के, दिबाने सदा सूरत निवानी के । (६०) भारतेन्दु बाबू हरिश्चन्द्र का जीवन चरित्र सरबस रसिक के सुदास दास प्रेमिन के, सखा प्यारे कृष्ण के, गुलाम राधारानी के ॥" हमारे इस लेख मे उर्धोक्त स्वभावो का बहुत कुछ परिचय पाठक पा चुके हैं। गुनीजनो की सेवा, चतुरो को सम्मान, कवियो की मित्रता, नम्रता तथा उग्रता, लापरवाही प्रादि गुणो के विषय मे कुछ विशेष कहना व्यथ है। अब केवल उक्त पद के अन्तिम भाग की समालोचना शेष है। "दिवाने सदा सूरत निवानी के" यही एक विषय है जिस पर तीव्र आलोचना हो सकती है और उसी को कोई भूषण तथा कोई दूषण की दृष्टि से देखते हैं, तथाच इनके जीवन चरित्र रचना मे यही एक प्रधान बाधक विषय रहा। वास्तव मे ऐसा कोई सभ्य देश नहीं है जो सौन्दर्योपासक न हो, परन्तु इसकी मात्रा का कुछ बढ जाना ही भूषण से दूषण तथा मनुष्य को कष्ट- कर होता है, और गुलाब मे कॉटे की तरह खटकता है। इस विषय को सोचकर उनके प्रेमी उनके चरित्र सङ्कलन मे कुछ सकुचित होते है, परन्तु उस महानुभाव उदार चरित्र को इसका कुछ भी सोच न था, क्योकि शुद्ध हृदय, शुद्ध प्रेम जो जी मे आया सच्चे जी से किया। हमलोग प्रागा पीछा जितना चाहै करे, परन्तु उन्होने जैसे ही यहाँ इन वाक्यो को साभिमान कहा है, वैसे ही इसके भीतर जो कुछ दुख- वायकता वा दूषण है उसे भी इस दोहे मे स्पष्ट कह दिया है- "जगत जाल मे नित बध्यो परयों नारि के फन्द । मिथ्या अभिमानी पतित झूठो कवि हरिचन्द ॥" अस्तु, इस विषय मे हम केवल एक घटना का उल्लेख करके इसको यहीं छोडेंगे। एक दिन अपने कुछ अन्तरङ्ग मित्रो के साथ बैठे थे और एक वारविलासिनी भी वर्तमान थी। उसने कुछ ऐसे हावभाव कटाक्ष से देखा कि इन्हें कुछ नवीन भाव स्फुरन हुआ और तुरन्त एक कविता बनाई, और उसे उन मित्रो को सुनाकर कहा कि "हमा इन सभी का सहवास विशेष कर इसीलिये करते है । कहिए यह सच्चा मजमून कसे लब्ध हो सकता था ?" निदान जो कुछ हो, उनके इस प्राच- रण का भला या बुरा फल उन्हीं के लिये था, दूसरो को उससे कोई हानि लाम नहीं, और वह ससार को क्या समझते थे, और उनके प्राचरण किस अभिप्राय के होते थे इसे उन्हीं के वाक्य कुछ स्पष्ट कर सकते हैं। "प्रेमयोगिनी" के नान्दी- पाठ मे कहते हैंभारतेन्दु बाबू हरिश्चन्द्र का जीवन चरित्न (६१) "जिन तन सम किय जानि जिय, कठिन जगत जजाल । जयतु सदा सो ग्रन्थ कवि, प्रेमजोगिनी बाल ॥" आगे चलकर उसी नाटिका मे सूत्रधार कहता है- "क्या सारे ससार के लोग सुखी रहै और हमलोगो का परमबन्धु, पिता, मित्र, पुत्र, सब भावनाओ से भावित, प्रेम की एक मात्र मूर्ति, सौजन्य का एक मात्र पान, भारत का एक मात्र हित, हिन्दी का एक मात्र जनक, भाषा नाटको का एक मात्र जीवनदाता, हरिश्चन्द्र ही दुखी हो ? (ने मे जल भरकर) हा सज्जन शिरोमणे । कुछ चिन्ता नहीं, तेरा तो बाना है कि कितना भी दुख हो उसे सुख ही मानना, लोभ के परित्याग के समय नाम और कीति का परित्याग कर दिया है और जगत से विपरीत अति चलके तूने प्रेम की टकसाल खडी की है। क्या हुआ जो निर्दय ईश्वर तुझे प्रत्यक्ष प्राकर अपने प्रडू मे रखकर आदर नहीं देता और खल लोग तेरी नित्य एक नई निन्दा करते है और तू ससारी बभव से सुचित नहीं है, तुझे इससे क्या, प्रेमी लोग जो तेरे है और तू जिन्हें सरबस है, वे जब जहाँ उत्पन्न होगे तेरे नाम को प्रादर से लेंगे और तेरी रहन सहन को अपनी जीवन पद्धति समझेगे। (नेत्र से ऑसू गिरते हैं) मित्र | तुम तो दूसरो का अपकार और अपना उपकार दोनो भूल जाते हो, तुम्हें इनकी निन्दा से क्या? इतना चित्त क्यो क्षुब्ध करते हो? स्मरण रक्खो ये कोडे ऐसे ही रहेंगे और तुम लोकवहिष्कृत होकर भी इनके सिर पर पैर रखके बिहार करोगे। क्या तुम अपना वह कवित्त भूल गए--'कहेगे सबही नैन नीर भरि भरि पाछे प्यारे हरिचन्द की कहानी रहि जायगी' मित्र । मैं जानता हूँ कि तुम पर सब प्रारोप व्यर्थ है।" अस्तु, अब इस विषय मे अधिक न लिखकर इसका विचार हम सहृदय पाठको ही पर छोडते हैं। अब अन्तिम पद पर “सरबस रसिक के, सुदास दास प्रेमिन के सखा प्यारे कृष्ण के, गुलाम राधारानी के" ध्यान दीजिए जिसका यह साभिमान वाक्य है कि- "चन्द टर सूरज टरै टरै जगत के नेम । पै दृढ श्री हरिचन्द को टरै न अविचल प्रेम ॥" उस की रसिकता और प्रेम का क्या कहना है। इनका हृदय प्रेमरङ्ग से रंगा हुआ था। प्राय देखा गया है कि जिस समय उनके हृदय मे प्रेम का प्रावेश आता था, देहानुसन्धान न रह जाता, उस प्रमावस्था मे कितने पदाथ लोग इनके सामने भारतेन्दु बाबू हरिश्चन्द्र का जीवन चरित्र (१३) प्राज्ञा नहीं हुई . यद्यपि ससार के कुरोगो से मन प्राण तो नित्य ग्रस्त थे ही, किन्तु चार महीने से शरीर से भी रोगग्रस्त तुम्हारा-- हरिश्चन्द्र-- रोग पूरा पूरा निवृत्त न होने पाया, चलने फिरने लगे कि फिर शरीर की चिन्ता कौन करता है, अविरल लिखने पढने का परिश्रम चलने लगा। योंही कुछ दिनो लस्टम फस्टम चले, कि मरने से एक वष पहिले श्वास और खांसी का वेग बढा, समझा कि दमा हो गया है। शरीर नित्य नित्य क्षीण होने लगा, यहाँ तक कि थोडे दिन पहिले चलने फिरने की शक्ति इतनी घट गई कि पालकी पर बाहर निकलते थे। लोग दमा के धोखे मे रह गए, वास्तव मे क्षयरोग हो गया था। अधिक पान खाने के कारण कफ के साथ रक्त का तो पता लगता न था, केवल श्वास कास की दवा होती थी। निदान अन्तिम समय बहुत निकट पाने लगा। मरने से महीना डेढ महीना पहिले इनका हृदय कुछ शाति रस की ओर अधिक फिर गया था, "हरिश्चन्द्र चन्द्रिका" को अन्तिम सख्यानो मे प्रकाशित शान्तरस की कविता सब इसी समय की बनी हुई हैं जहाँ तक मुझे स्मरण प्राता है, निम्न लिखित पद के पीछे कोई कविता नही की- "डडा कूच का बज रहा मुसाफिर जागो रे भाई । देखो लाद चले पन्थी सब तुम क्यो रहे भुलाई ॥ जब चलना ही निहचै है तो लै किन माल लदाई । हरीचन्द हरि पद बिनु नहिं तौ रहि जैही मुंह बाई॥" इसी समय प्राय नित्य ही, वह पद्माकर कवि का निम्न लिखित कवित्त कहते मौर घण्टो तक रोते रह जाते थे- "व्याध हूँ ते बिहद, असाधु हो अजामिल लौं, ग्राह तें गुनाही, कहौ तिन मे गिनाओगे । स्योरी हौ, न शूद्र हो, न केवट कहूँ को त्यो, न गौतमी तिया हौं जाप पंग धरि आओगे ॥ राम सो कहत पदमाकर पुकारि तुम, मेरे महा पापन को पार हूँ न पाओगे । झूठो ही कलक सुनि सीता ऐसी सती तजी, (नाथ | ) हो तो साँचो हूँ कलकी ताहि कैसे अपनाओगे" ॥ (६४) भारतेन्दु बाबू हरिश्चन्द्र का जीवन चरित्र मृत्यु धीरे धीरे, सन् १८८४ समाप्त हुआ। सन् १८५५ प्राया। दूसरी जनवरी को एकाएक भयानक ज्वर पाया, ज्वर पाठ पहर भोगकर उतरा कि पसली में दद उठा, इस दर्द मे डाक्तर लोग जीवन का सशय करते थे, परन्तु राम राम करते यह दर्द दूर हुमा, फिर प्राशा हुई। तीसरे दिन खाँसी बडे जोर से प्रारम्भ हुई, बलगम का बडा वेग रहा, कफ मेरुधिर दिखाई पडा, बडा कष्ट हुश्रा, परन्तु इससे भी छुटकारा मिला। ता०६ जनवरी को सबेरे शरीर बहुत स्वस्थ रहा। जनाने से मजदूरिन खबर पूछने आई, आपने हँसकर कहा "हमारे जीवन नाटक का प्रोग्राम नित्य नया नया छप रहा है, पहिले दिन ज्वर की, दूसरे दिन दर्द की, तीसरे दिन खाँसी की सीन हो चुकी, देखै लास्ट नाइट कब होती है"। उसी दिन दोपहर को एक दस्त पाया, काला मल गिरा, उसी समय से कुछ श्वास बढा। बस उसी समय से उन्हो ने ससार की ओर से मन को फेरा, घर का कोई सामने आता तो मुंह फेर लेते। दो बजे दिन को अपने भ्रातुष्पुत्र कृष्णचन्द्र को बुलाया, कहा अच्छे कपडे पहिन कर पाओ, कपडे पहिनकर पाने पर कहा "नहीं इससे भी अच्छे कपडे पहिन मानो" तुरन्त आज्ञा पालन हुई, पाप पाराम कुर्सी पर लेटे और बच्चे को गोद मे बिठाकर अगूर खिलाए, फिर दोनो हाथ उसके सिर पर रख कर कुछ देर तक ध्याना- वस्थित रहे और तब उसे विदाकर कहा "जात्रो खेलो"। इसके पीछे सासारिक माया से कुछ वास्ता न रक्खा । श्वास बढ़ता ही गया, बेचैनी से नींद पाने की इच्छा वैद्य डाक्तरो से प्रगट करते रहे। धीरे धीरे रात को नौ बज गए-समय प्रान पहुंचा-एकाएकी पुकार उठे "श्री कृष्ण | राधाकृष्ण ! हे राम! आते हैं, मुख दिखलानो"। कण्ठ कुछ रुकने लगा, कुछ दोहा सा कह', परन्तु स्पष्ट न समझाई दिया, केवल इतना समझ मे आया "श्री कृष्ण सहित स्वामिनी" -बस गरदन झुक गई, पौने दस बजे इस भारत का मुखोज्वलकारी भारतेन्दु अस्त हो गया, चारो ओर अन्धकार छा गया। बस, लेखनी अब उस दुखमय कथा को लिख नहीं सकती। भारतेन्दु बाबू हरिश्चन्द्र का जीवन चरित्र (६५) शोक प्रकाश भारतवष के एक छोर से लेकर दूसरे छोर तक हाहाकार मच गया। काशी का तो कहना ही क्या था, पेशावर से लेकर नेपाल तक और कलकत्ते से लेकर बम्बई तक सैकडो ही स्थानो मे शोक समाज हुए। शोक प्रकाशक तार और पत्रो का ढेर लग गया, कितने ही समाचार पत्रो की ओर से अनियत पत्र प्रकाशित हुए, कितने ही शोकपत्र जन साधारण की ओर से वितरित हुए। हिन्दी समाचार पत्रो का तो कहना ही क्या था, महीनो तक कितनो ही ने शोक चिन्ह धारण किया, कितने ही शोक लेख, कितनी ही शोक कविता, कितनी ही शोक समस्या छपी, कितने ही चित्र छपे कितने ही जीवनचरित्र छपे । अंग्रेजी, उर्दू, बंगला, गुजराती, महाराष्ट्री के कोई पत्र नहीं थे जिन्होने हार्दिक शोक प्रकाश न किया हो । चारो ओर कितने ही दिनो तक शोक ही शोक छाया रहा। भारतवष मे बहुतेरे बड़े बडे लोग मरे और बहुत कुछ लोगो ने किया, परतु ऐसा हार्दिक शोक आज तक किसी के लिये प्रकाशित नहीं हुआ। शत्रु भी इनकी मृत्यु पर अश्रुवषण करते थे, मित्रो की कौन कहे। राजा शिवप्रसाद से प्राजन्म इन से झगडा चला, परन्तु जिस समय वह मातमपुर्सी को आए थे ऑखो मे आँसू भरे हुए थे, और कहते थे कि "हाय । हमारा मुकाबिला करने वाला उठ गया ।" पडितलोग यह कहकर रोते थे कि क्या फिर वैश्यकुल में कोई ऐसा जन्मगा जिससे हमलोग धमशास्त्र की व्यवस्था पर सलाह लेने जॉयगे । निदान इनका शोक अकथनीय था। इस विषय मे लाहौर के "मित्र बिलास" ने जो कुछ लिखा था उसका कुछ अश हम प्रकाशित किए देते हैं, उसीसे उस समय के शोक का पता लग जायगा- ___हाय हरिश्चन्द्र ! तू हमलोगो को छोड जायगा इस बात का तो किसी को ध्यान मात्र भी न था, और अभी तक भी तेरा नाम स्मरण करके यह निश्चय नहीं होता है कि कलम दावात लिए, 'बस्ता' सामने धरे उसमे से काराज रूपी बिखडे रत्नो को हास्यमुख के साथ एक लडी मे पिरो रहा है और सोच रहा है कि किस प्राशावान की झोली इससे भरूं । 'गोदडी मे लाल' सुना करते थे, परन्तु देखे तेरे ही पास । हा। अब कौन उनको परख सकेगा और कौन उनकी माला बनावैगा? "प्यारे हरिश्चन्द्र ! काशी मे, जहाँ और बडे बडे तीथ हैं, वहां तू भी एक (६६) भारतेन्दु बाबू हरिश्चन्द्र का जीवन चरित्न तीथ स्वरूप ही था। काशी जी मे जाकर और तीथ पीछे स्मरण होते है, त पहिले मन मे स्थान कर लेता था। और तीर्थो पर पाधा पुरोहित घाटियो को प्रसन्न करने, अपनी नामवरी कमाने वा दान दक्षिणा देने को यात्री लोग जाते है, पर तेरे पास सब भिक्षा ही के लिये पाते थे, और किसकी भिक्षा? प्रेम की भिक्षा दशन की भिक्षा, सत्परामश की भिक्षा | तेरे दर्वाजे से कभी कोई विमुख नहीं गया, तू इस ससार मे इस लिये नहीं पाया था कि अपना कुछ बना जावे, किन्तु इस लिये पाया था कि बना बनाया भी दूसरो को सौंप दे और उनका घर भरे। तेरे चरित्रो से स्पष्ट दिखाई देता था कि तू हर घडी इस ससार को छोडने ही का ध्यान रखता था। और इसीलिये किसी ससारी लोगो की दृष्टि में तेरी अपनी वस्तु की तूने. कभी रत्तीमान भी पर्वा न की। यश कमाने तू पाया था, वह तुझसा दूसरा कौन कमावैगा। शेष सब पदार्थों का आना जाना तूने तुल्य और एक सा समझ रक्खा था। ___ "प्यारे हरिश्चन्द्र | आप के यह ससार त्यागने पर लोग शोक प्रकाश कर रहे है। परन्तु हम मे यह सामर्थ्य नहीं है। प्राप के हमे छोड कर चले जाने से जो कुछ हम मे बीत रही है, हम जानते नहीं कि तुमे किस नाम से पुकारे, हमे जो कुछ शोक है वह ऐसा पर्दो के पदों में छिपा हुआ है कि उस का प्रकाश करना हमारे लिये असम्भव है । यह महाशय भाषा के उत्तम कवि थे इस प्रकार के वाक्य लिख कर जो लोग आप के बिछोडे पर शोक प्रकट करते हैं, वह हमारे कलेजे के टुकडे उडाते हैं, वह हमारे प्यारे हरिश्चन्द्र की हतक करते हैं, हम से यह सहन नहीं हो सकता। हम कहते है कि जो लोग प्यारे भारतेन्दु के विषय मे इतना ही जानते हैं वह चुप रहै ऐसे फीके वाक्य कह कर हरिश्चन्द्र और भारतेन्दु के चकोरो को दुख न दें।" इन के स्मारक-चिन्ह स्थापन को चर्चा चारो ओर होने लगी, परन्तु जैसा हतभाग्य यह देश है वैसा कोई देश नहीं, चार दिन का हौसला यहाँ होता है, फिर तो कोई ध्यान भी नहीं रहता। फिर भी यह हरिश्चन्द्र ही थे कि जिन के स्मारक की कुछ चर्चा तो हुई नाम मात्र के लिये कानपूर और अलीगढ भाषासम्बधिनी सभा मे "हरिश्चन्द्र पुस्तकालय" स्थापित हुए परन्तु वास्तविक स्मारक उदयपुर मे "हरिश्चन्द्रार्य विद्यालय" हुआ जो आज तक वर्तमान है और जिस में कुछ Rो भी सञ्चित है कि जिस से उसके चले जाने की आशा है। काशी में इन का भारतेन्दु बाबू हरिश्चन्द्र का जीवन चरित्र (६७) स्थापित जो स्कूल है वह उस समय"चौक स्कूल" कहलाता था, परन्तु इन की मृत्यु पर उसके पारितोषिक वितरण के उत्सव मे राजा शिवप्रसाद ने प्रस्ताव किया कि 'इस स्कूल का नाम अब से इस के सस्थापक बाबू हरिश्चन्द्र के स्मारक स्वरूप "हरिश्चन्द्र स्कूल" होना चाहिए।' सभापति मिस्टर ऐडम्स (कलेक्टर) ने इस का अनुमोदन किया और तब से यह स्कूल "हरिश्चन्द्र एडेड-स्कूल" कहलाता है। हिन्दी समाचार पत्रो की ओर से "मित्रविलास" के प्रस्ताव पर इन के नाम से "हरिश्चन्द्र सम्बत्" चला। उदयपुर मे कई वर्ष तक इनके श्राद्ध समय मे "हरि- श्चन्द्र सभा" होती रही, जिसमे इनके विषय मे भाषा तथा सस्कृत कविता पढी जाती थीं। दमोह जिला गया से कुछ दिनो तक "हरिश्चन्द्र कौमुदी" मासिक पत्रिका निकलती थी। "खडगविलास प्रेस" बाकीपुर से "हरिश्चन्द्र कला" प्रकाशित हुई, जिसमे पहिले तो उनके प्राय सब ग्रन्थ शृङखला के साथ छपे, फिर उन के संग्रहीत तथा मनोनीत ग्रन्थ छपते रहे। हिन्दी समाचार पत्रो मे प्रकाशित शोक प्रकाश तथा और शोक कविताओ के सग्रह का "हरिश्चन्द्र शोकावली" नामक एक अच्छा प्रन्थ छपा। लखनऊ से एक सौ वष की जन्त्री "भारतेन्दु शताब्दी" नामक छपी और सन १८५८ ई० मे कविवर श्रीधर पाठक जी ने श्रीहरिश्चन्द्रा- ष्टक" प्रकाशित किया, जिसके अन्तिम छप्पय के साथ हम भी इस प्रबन्ध को समाप्त करते हैं। "जबलौ भारतभूमि मध्य आरजकुल बासा । जबलो प्रारजवम माहिं आरज । बिश्वासा॥ जबलौ गुन-गरी नागरी आरजबानी । जवलौ प्रारजबानी के प्रारज अभिमानी॥ तबलो यह तुम्हरो नाम यिर, चिरजीवी रहिह अटल । नित चन्द सूर सम सुमिरिहै हरिच दहु सज्जन मकल ॥" इति । ग्रन्थों की सूची नाटक १ आख्यायिका वा उपन्यास २ १ प्रवास नाटक (अपूण, अप्रकाशित) १ रामलीला ( गद्य पद्य ) २ सत्य हरिश्च द्र २ हमीरहठ (असम्पूण अप्रका- ३ मुद्राराक्षस शित) ४ विद्या सुन्दर ३ राजसिह (अपूर्ण) ५ धनञ्जय विजय ४ एक कहानी कुछ आप बीती ६ चन्द्रावली ___ कुछ जग बीती (अपूर्ण) ७ कर्पूर मञ्जरी ५ सुलोचना ८ नीलदेवी ६ मदालसोपाख्यान - & भारत दुदशा ७ शीलवती १० भारत जननी ८ सावित्री चरित्र ११ पाषण्ड बिडम्बन १२ वैदिकी हिंसा हिसा न भवति काव्य ३ १३ अन्धेर नगरी १४ विषस्य विषमौषधम १ गीत गोविन्दानन्द (गाने के १५ प्रेम योगिनी (अपूर्ण) पद्य) १६ दुलभ बन्धु (अपूर्ण) २ प्रेम माधुरी (शृङ्गार रस के १७ सती प्रताप (अपूर्ण) कवित्त सवैया) १८ नव मल्लिका (अपूण, अप्रकाशित) ३ प्रेमफुलवारी ( गाने के पद्य) १९ रत्नावली (अपूण ). ४ प्रेममालिका ( तथैव ) २० मच्छकटिक (अपूण, अप्र- ५ प्रेमप्रलाप ( तथैव ) काशित, अप्राप्य ) ६ प्रेमतरङ्ग (तथैव ) १ ( नम्वर १६, २० बहुत कम २ (सुलोचना और सावित्री चरित्र लिखे गए ) मे सन्देह है )

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