भारत का संविधान/भाग ५

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भारत का संविधान  (1957) 
अनुवादक
राजेन्द्र प्रसाद

[ २२ ] 

भाग ५
संघ

 

अध्याय १—कार्यपालिका
राष्ट्रपति और उपराष्ट्रपति

भारत का
राष्ट्रपति
५२. भारत का एक राष्ट्रपति होगा।

संघ की कार्य-
पालिका शक्ति

५३. (१) संघ की कार्यपालिका शक्ति राष्ट्रपति में निहित होगी तथा वह इसका प्रयोग इस संविधान के अनुसार या तो स्वयं या अपने अधीनस्थ पदाधिकारियों के द्वारा करेगा।

(२) पूर्वगामी उपबन्ध की व्यापकता पर बिना प्रतिकूल प्रभाव डाले संघ के प्रतिरक्षा बलों का सर्वोच्च समादेश राष्ट्रपति में निहित होगा और उसका प्रयोग विधि से विनियमित होगा।

(३) इस अनुच्छेद की किसी बात से—

(क) जो कृत्य किसी वर्तमान विधि ने किसी राज्य की सरकार अथवा अन्य प्राधिकारी को दिये हैं वे कृत्य राष्ट्रपति को हस्तान्तरित किये हुए न समझे जायेंगे; अथवा
(ख) राष्ट्रपति के अतिरिक्त अन्य प्राधिकारियों को विधि द्वारा कृत्य देने में संसद् को बाद होगी।

राष्ट्रपति का
निर्वाचन
५४. राष्ट्रपति का निर्वाचन एक निर्वाचक गण के सदस्य करेंगें जिसमें—

(क) संसद् के दोनों सदनों के निर्वाचित सदस्य, तथा
(ख) राज्यों की विधान-सभाओं के निर्वाचित सदस्य, होंगे।

राष्ट्रपति के
निर्वाचन की
रीति
[१]५५. (१) जहाँ तक व्यवहार्य हो, राष्ट्रपति के निर्वाचन में भिन्न भिन्न के राज्यों का प्रतिनिधित्व एकसे मापमान से होगा।

(२) राज्यों में आपस में ऐसी एकरूपता तथा समस्त राज्यों और संघ में समतुल्यता प्राप्त कराने के लिये संसद् तथा प्रत्येक राज्य की विधान-सभा का प्रत्येक निर्वाचित सदस्य इस निर्वाचन में जितने मत देने का हक्कदार है उन की संख्या नीचे लिखे प्रकार से निर्धारित की जायेगी—

(क) किसी राज्य की विधान सभा के प्रत्येक निर्वाचित सदस्य के उतने मत होंगे, जितने कि एक हज़ार के गुणित, उस भागफल में हों जो राज्य की जन संख्या को उस सभा के निर्वाचित सदस्यों की सम्पूर्ण संख्या से भाग देने से आये;
[ २३ ] 

भारत का संविधान
भाग ५—संघ-अनु॰ ५५–५८.

(ख) एक हज़ार के उक्त गुणितों को लेने के बाद यदि शेष पाँच सौ से कम न हो तो उपखंड (क) में उल्लिखित प्रत्येक सदस्य के मतों की संख्या में एक और जोड़ दिया जायेगा,
(ग) संसद के प्रत्येक सदन के प्रत्येक निर्वाचित सदस्य के मतों की संख्या वही होगी जो उपखंड (क) तथा (ख) के अधीन राज्यों की विधान-सभाओं के सदस्यों के लिये नियत सम्पूर्ण मत-संख्या को, संसद के दोनों सदनों के निर्वाचित सदस्यों की सम्पूर्ण संख्या से भाग देने से पाये, जिसमें आधे से अधिक भिन्न को एक गिना जायेगा तथा अन्य भिन्नों की उपेक्षा की जायेगी।

(३) राष्ट्रपति का निर्वाचन, अनुपाती प्रतिनिधित्व-पद्धति के अनुसार एकल संक्रमणीय मत द्वारा होगा तथा ऐसे निर्वाचन में मतदान गूढ़ शलाका द्वारा होगा।

व्याख्या.—इस अनुच्छेद में "जनसंख्या" से, ऐसी अन्तिम पूर्वगत जनगणना में निश्चित की गई जनसंख्या अभिप्रेत है, जिस के तत्सम्बन्धी आंकड़े प्रकाशित हो चुके हैं।

राष्ट्रपति की
पदावधि
५६. (१) राष्ट्रपति अपने पद-ग्रहण की तारीख से पाँच वर्ष की अवधि तक पद धारण करेगा :

परन्तु—
(क) राष्ट्रपति, उपराष्ट्रपति को सम्बोधित अपने हस्ताक्षर सहित लेख द्वारा अपना पद त्याग सकेगा;
(ख) संविधान का अतिक्रमण करने पर राष्ट्रपति अनुच्छेद ६१ में उपबन्धित रीति से किये गये महाभियोग द्वारा पद से हटाया जा सकेगा;
(ग) राष्ट्रपति अपने पद की अवधि समाप्त हो जाने पर भी अपने उत्तराधिकारी के पद ग्रहण तक पद धारण किये रहेगा।

(२) खंड (१) के परन्तुक के खंड (क) के अधीन उपराष्ट्रपति को सम्बोधित किसी त्यागपत्र की सूचना उस के द्वारा लोक सभा के अध्यक्ष को अविलम्ब दी जायेगी।

पुननिर्वाचन के
लिये पात्रता

५७. कोई व्यक्ति जो राष्ट्रपति के रूप में पद धारण कर रहा है अथवा कर चुका है इस संविधान के अन्य उपबन्धों के अधीन रहते हुए, उस पद के लिये पुननिर्वाचन का पात्र होगा।

राष्ट्रपति निर्वा-
चित होने के लिये
अर्हताएं

५८. (१) कोई व्यक्ति राष्ट्रपति निर्वाचित होने का पात्र न होगा जब तक कि वह—

(क) भारत का नागरिक न हो,
(ख) पैंतीस वर्ष की आयु पूरी न कर चुका हो, तथा
(ग) लोक-सभा के लिये सदस्य निर्वाचित होने की अर्हता न रखता हो।
[ २४ ] 

भाग ५—संघ—अनु॰ ५८–६१.

(२) कोई व्यक्ति जो भारत सरकार के अथवा किसी राज्य की सरकार के अधीन अथवा उक्त सरकारों में से किसी से नियंत्रित किसी स्थानीय या अन्य प्राधिकारी के अधीन कोई लाभ का पद धारण किये हुए है, राष्ट्रपति निर्वाचित होने का पात्र न होगा।

व्याख्या.—इस खंड के प्रयोजन के लिये कोई व्यक्ति कोई लाभ का पद धारण किये हुए केवल इसी लिये नहीं समझा जायेगा कि वह संघ का राष्ट्रपति या उपराष्ट्रपति अथवा किसी राज्य का राज्यपाल[२]* * * है अथवा या तो संघ का या किसी राज्य मंत्री है।

राष्ट्रपति के पद के
लिये शर्तें

५९. (१) राष्ट्रपति न तो संसद् के किसी सदन का, और न किसी राज्य के विधान मंडल के सदन का सदस्य होगा तथा यदि संसद् के किसी सदन का अथवा किसी राज्य के विधान-मंडल के सदन का सदस्य राष्ट्रपति निर्वाचित हो जाये तो यह समझा जायेगा कि उस ने उस सदन का अपना स्थान राष्ट्रपति के रूप में अपने पद ग्रहण की तारीख से रिक्त कर दिया है।

(२) राष्ट्रपति अन्य कोई लाभ का पद धारण न करेगा।

(३) राष्ट्रपति को, बिना किराया दिये, अपने पदावासों के उपयोग का हक्क होगा तथा उसको उन उपलब्धियों, भत्तों और विशेषाधिकारों का भी, जो संसद्-निर्मित विधि द्वारा निर्धारित किये जायें तथा जब तक उस विषय में इस प्रकार उपबन्ध नहीं किया जाता तब तक ऐसी उपलब्धियों, भत्तों और विशेषाधिकारों का भी, जैसे कि द्वितीय अनुसूची में उल्लिखित हैं, हक्क होगा।

(४) राष्ट्रपति की उपलब्धियाँ और भत्ते उसके पद की अवधि में घटाये नहीं जायेंगे। राष्ट्रपति द्वारा
शपथ या प्रतिज्ञान

६०. प्रत्येक राष्ट्रपति और प्रत्येक व्यक्ति, जो राष्ट्रपति के रूप में कार्य कर रहा है अथवा उसके कृत्यों का निर्वहन करता है, अपने पद ग्रहण करने से पूर्व भारत के मुख्य न्यायाधिपति अथवा उस की अनुपस्थिति में उच्चतमन्यायालय के प्राप्य अग्रतम न्यायाधीश के समक्ष निम्न रूप में शपथ या प्रतिज्ञान करेगा और उस पर अपने हस्ताक्षर करेगा, अर्थात्—

"मैं, आमुक,. . .ईश्वर की शपथ लेता हूँ/सत्यनिष्ठा से प्रतिज्ञान करता हूँ
कि में श्रद्धा पूर्वक भारत के राष्ट्रपति पद का कार्य पालन (अथवा राष्ट्रपति के कृत्यों का निर्वहन) करूँगा तथा अपनी पूरी योग्यता से संविधान और विधि का परिरक्षण, संरक्षण और प्रतिरक्षण करूँगा और में भारत की जनता की सेवा और कल्याण में निरत रहूँगा।"

राष्ट्रपति पर
महाभियोग
लगाने की प्रक्रिया

६१. (१) संविधान के प्रतिक्रमण के लिये, जब राष्ट्रपति पर महाभियोग चलाना हो तब संसद् का कोई सदन दोषारोप करेगा। [ २५ ] 

भाग ५ संघ—अनु॰ ६१–६४

(२) ऐसा कोई दोषारोप तब तक नहीं किया जायेगा जब तक कि—

(क) ऐसे दोषारोप के करने की प्रस्थापना किसी संकल्प में न हो, जो कम से कम चौदह दिन की ऐसी लिखित सूचना के दिये जाने के पश्चात् प्रस्तुत किया गया है, जिस पर उस सदन के कम से कम एक चौथाई सदस्यों ने हस्ताक्षर कर के, उस संकल्प को प्रस्तावित करने का विचार प्रगट किया है, तथा
(ख) उस सदन के समस्त सदस्यों के कम से कम दो तिहाई बहुमत से ऐसा संकल्प पारित न किया गया हो।

(३) जब दोषारोप संसद् के किसी सदन द्वारा इस प्रकार किया जा चुके तब दूसरा सदन उस दोषारोप का अनुसंधान करेगा या करायेगा तथा इस अनुसंधान में उपस्थित होने का तथा अपना प्रतिनिधित्व कराने का राष्ट्रपति को अधिकार होगा।

(४) यदि अनुसंधान के फलस्वरूप राष्ट्रपति के विरुद्ध किये गये दोषारोप की सिद्धि को घोषित करने वाला संकल्प दोषारोप के अनुसंधान करने या कराने वाले सदन के समस्त सदस्यों के कम से कम दो तिहाई बहुमत से पारित हो जाता है तो ऐसे संकल्प का प्रभाव उसकी पारण तिथि से राष्ट्रपति का अपने पद से हटाया जाना होगा। राष्ट्रपति पद की
रिक्तता-पूर्ति के
लिये निर्वाचन
करने का समय
तथा आकस्मिक
रिक्तता-पूर्ति के
लिये निर्वाचित
व्यक्ति की पदावधि

६२. (१) राष्ट्रपति की पदावधि की समाप्ति से हुई रिक्तता की पूर्ति के लिये निर्वाचन अवधि समाप्ति से पूर्व ही पूर्ण कर लिया जायेगा।

(२) राष्ट्रपति की मृत्यु, पदत्याग या पद से हटाये जाने अथवा अन्य कारण से हुई उस के पद की रिक्तता की पूर्ति के लिये निर्वाचन, रिक्तता होने की तारीख के पश्चात् यथासंभव शीघ्र और हर अवस्था में छः मास बीतने के पहिले किया जायेगा, तथा रिक्तता-पूर्ति के लिये निर्वाचित व्यक्ति अनुच्छेद ५६ के उपबन्धों के अधीन रहते हुए अपने पद ग्रहण की तारीख से पांच वर्ष की पूरी अवधि के लिये पद धारण करने का हक्कदार होगा।

भारत का उप
राष्ट्रपति

६३. भारत का एक उपराष्ट्रपति होगा।

 

उपराष्ट्रपति का
पदेन राज्यसभा
का सभापति होना

 

६४. उपराष्ट्रपति, पदेन, राज्य सभा का सभापति होगा तथा अन्य कोई उपराष्ट्रपति का लाभ का पद धारण न करेगा :

परन्तु जिस किसी कालावधि में उपराष्ट्रपति, राष्ट्रपति के रूप में कार्य करता है अथवा अनुच्छेद ६५ के अधीन राष्ट्रपति के कृत्यों का निर्वहन करता है तब वह राज्य सभा के सभापति पद के कर्तव्यों को न करेगा तथा उसे अनुच्छेद ९७ के अधीन राज्य सभा के सभापति को दिये जाने वाले किसी वेतन अथवा भत्ते का हक्क न होगा। [ २६ ] 

भाग ५—संघ—अनु॰ ६५–६७

राष्ट्रपति के पद की
आकस्मिक
रिक्तता अथवा
उस की अनुप-
स्थिति में उप-
राष्ट्रपति का
राष्ट्रपति के रूप में
कार्य करना
अथवा उस के
कृत्यों का निर्वहन
६५. (१) राष्ट्रपति की मृत्यु, पदत्याग अथवा पद से हटाये जाने अथवा अन्य कारण से उस के पद में हुई रिक्तता की अवस्था में उपराष्ट्रपति उस तारीख तक राष्ट्रपति के रूप में कार्य करेगा जिस तारीख को इस अध्याय के ऐसी रिक्तता-पूर्ति संबंधी उपबन्धों के अनुसार निर्वाचित नया राष्ट्रपति अपने पद को ग्रहण करता है।

(२) अनुपस्थिति, बीमारी अथवा अन्य किसी कारण से जब राष्ट्रपति अपने कृत्यों को करने मैं असमर्थ हो, तब उपराष्ट्रपति उस के कृत्यों का निर्वहन उस तारीख तक करेगा जिस तारीख को कि राष्ट्रपति अपने कर्त्तव्यों को फिर से संभाले।

(३) उपराष्ट्रपति को उस कालावधि में और उस कालावधि के संबंध में, जब कि वह राष्ट्रपति के रूप में इस प्रकार कार्य करता है अथवा उसके कृत्यों का निर्वहन कर रहा है, राष्ट्रपति की सब शक्तियाँ और उन्मुक्तियाँ होंगी तथा उसे ऐसी उपलब्धियों, भत्तों और विशेषाधिकारों का, जिन्हें संसद् विधि द्वारा निश्चित करे, तथा जब तक उस विषय में इस प्रकार उपबन्ध नहीं किया जाता तब तक ऐसी उपलब्धियों, भत्तों और विशेषाधिकारों का, जो द्वितीय अनुसूची में उल्लिखित हैं, हक्क होगा।

उपराष्ट्रपति का
निर्वाचन
६६. (१) संयुक्त अधिवेशन में समवेत संसद् के दोनों सदनों के सदस्यों द्वारा अनुपाती प्रतिनिधित्व-पद्धति के अनुसार एकल संक्रमणीय मत द्वारा उपराष्ट्रपति का निर्वाचन होगा तथा ऐसे निर्वाचन में मतदान गूढ़ शलाका द्वारा होगा।

(२) उपराष्ट्रपति न तो संसद् के किसी सदन का, और न किसी राज्य के विधान मंडल के सदन का सदस्य होगा तथा यदि संसद् के किसी सदन का अथवा किसी राज्य के विधान-मंडल के सदन का सदस्य उपराष्ट्रपति निर्वाचित हो जाये तो यह समझा जायेगा कि उस ने उस सदन का अपना स्थान उपराष्ट्रपति के रूप में अपने पद-ग्रहण की तारीख से रिक्त कर दिया है।

(३) कोई व्यक्ति उपराष्ट्रपति निर्वाचित होने का पात्र न होगा जब तक कि

वह—
(क) भारत का नागरिक न हो;
(ख) पैंतीस वर्ष की आयु पूरी न कर चुका हो; तथा
(ग) राज्य सभा के लिये सदस्य निर्वाचित होने की अर्हता न रखता हो।

(४) कोई व्यक्ति, जो भारत सरकार के अथवा किसी राज्य की सरकार के अधीन अथवा उक्त सरकारों में से किसी से नियंत्रित किसी स्थानीय या अन्य प्राधिकारी के अधीन कोई लाभ का पद धारण किये हुए है, उपराष्ट्रपति निर्वाचित होने का पात्र न होगा।

व्याख्या.—इस अनुच्छेद के प्रयोजन के लिये कोई व्यक्ति कोई लाभ का पद धारण किये हुये केवल इसी लिये नहीं समझा जायेगा कि वह संघ का राष्ट्रपति या उपराष्ट्रपति अथवा किसी राज्य का राज्यपाल [३]* * * अथवा या तो संघ का या किसी राज्य का मंत्री है।

उपराष्ट्रपति की
पदाधि
६७. उपराष्ट्रपति अपने पद ग्रहण की तारीख से पांच वर्ष की अवधि तक पद धारण करेगा : [ २७ ] 

भाग ५—संघ—अनु॰ ६७–७१

परन्तु—
(क) उपराष्ट्रपति, राष्ट्रपति को संबोधित अपने हस्ताक्षर सहित लेख द्वारा, अपना पद त्याग सकेगा;
(ख) उपराष्ट्रपति, राज्य सभा के ऐसे संकल्प द्वारा, अपने पद से हटाया जा सकेगा जिसे सभा के तत्कालीन समस्त सदस्यों के पारित किया हो तथा जिसे लोक सभा ने स्वीकृत किया;
किन्तु इस खंड के प्रयोजन के लिये कोई भी संकल्प तब तक प्रस्तावित न किया जायेगा जब तक कि उसे प्रस्तावित करने के अभिप्राय की सूचना कम से कम चौदह दिन पूर्व न दे दी गई हो;
(ग) उपराष्ट्रपति, अपने पद की अवधि समाप्त जाने पर भी, अपने उत्तराधिकारी के पद ग्रहण तक पद धारण किये रहेगा।

उपराष्ट्रपति के
पद की रिक्तता-
पूर्ति के लिये
निर्वाचन करने का
समय तथा आकस्मिक रिक्तता-
पूर्ति के
लिये निर्वाचित व्यक्ति
की पदावधि
६८. (१) उपराष्ट्रपति की पदावधि की समाप्ति से हुई रिक्तता की पूर्ति के लिये निर्वाचन अवधि समाप्ति से पूर्व ही पूर्ण कर लिया जायेगा।

(२) उपराष्ट्रपति की मृत्यु, पदत्याग या पद से हटाये जाने अथवा अन्य कारण से हुई उसके पद की रिक्तता की पूर्ति के लिये निर्वाचन रिक्तता होने की तारीख के पश्चात् यथासंभव शीघ्र किया जायेगा तथा रिक्तता पूर्ति के लिये निर्वाचित व्यक्ति अनुच्छेद ६७ के उपबन्धों के अधीन रहते हुए अपने पद ग्रहण की तारीख से पांच वर्ष की पूरी अवधि के लिये पद धारण करने का हक्कदार होगा।

 

उपराष्ट्रपति द्वारा
शपथ या प्रतिज्ञान
६९. प्रत्येक उपराष्ट्रपति अपने पद ग्रहण करने से पूर्व राष्ट्रपति अथवा उस के द्वारा उस लिये नियुक्त किसी व्यक्ति के समक्ष निम्न रूप में शपथ या प्रतिज्ञान करेगा और उस पर अपना हस्ताक्षर करेगा, अर्थात्—

"मैं, अमुक. . .ईश्वर की शपथ लेता हूँ/सत्यनिष्ठा से प्रतिज्ञान करता हूँ
कि मैं विधि द्वारा स्थापित भारत के संविधान के प्रति श्रद्धा और निष्ठा रखूँगा तथा जिस पद को मैं ग्रहण करने वाला हूँ उसके कर्तव्यों का श्रद्धापूर्वक निर्वहन करूँगा।"

अन्य आकस्मिक-
ताओं में राष्ट्रपति
के कृत्यों का
निर्वहन

७०. इस अध्याय में उपबन्धित न की हुई किसी आकस्मिकता में राष्ट्रपति के कृत्यों के निर्वहन के लिये संसद् जैसा उचित समझे वैसा उपबन्ध बना सकेगी। राष्ट्रपति या उप-
राष्ट्रपति के
निर्वाचन से
सम्बन्धित या
संसक्त विषय

७१. (१) राष्ट्रपति या उपराष्ट्रपति के निर्वाचन से उत्पन्न या संसक्त सब शंकाओं और विवादों की जाँच और विनिश्चय उच्चतमन्यायालय करेगा और उसका विनिश्चय अन्तिम होगा।

(२) यदि उच्चतमन्यायालय द्वारा किसी व्यक्ति के राष्ट्रपति या उपराष्ट्रपति के रूप में निर्वाचन को शून्य घोषित कर दिया जाता है तो उस के द्वारा यथास्थिति राष्ट्रपति या उपराष्ट्रपति के पद की शक्तियों के प्रयोग और कर्तव्यों के पालन में उच्चतमन्यायालय के विनिश्चय की तारीख को या से पूर्व किये गये कार्य उस घोषणा के कारण अमान्य न हो जायेंगे। [ २८ ] 

भाग ५—संघ—अनु॰ ७१–७३

(३) इस संविधान के उपबन्धों के अधीन रहते हुए राष्ट्रपति या उपराष्ट्रपति के निर्वाचन से सम्बद्ध या संसक्त किसी विषय का विनियमन संसद् विधि द्वारा कर सकेगी क्षमा, आदि की
तथा कुछ अभि-
योगों में
दंडादेश
के निलम्बन,
परिहार या लघु-
करण करने की
राष्ट्रपति की
शक्ति

७२. (१) किसी अपराध के लिये सिद्धदोष किसी व्यक्ति के दंड को क्षमा, प्रविलम्बन, विराम या परिहार करने की अथवा दंडादेश का निलम्बन, परिहार या लघुकरण की राष्ट्रपति को—

(क) उन सब अवस्थाओं में जिन में कि दंड अथवा दंडादेश सेना-न्यायालय ने दिया है
(ख) उन सब अवस्थाओं में जिन में कि दंड अथवा दंडादेश ऐसे विषय संबंधी किसी विधि के विरुद्ध अपराध के लिये दिया गया हो जिस विषय तक संघ की कार्यपालिका शक्ति का विस्तार है,
(ग) उन सब अवस्थाओं में जिन में कि दंडादेश मृत्यु का हो,

शक्ति होगी।

(२) खंड (१) के उपखंड (क) की कोई बात संघ के सशस्त्र बलों के किसी पदाधिकारी की सेना-न्यायालय द्वारा दिये गये दंडादेश के निलम्बन, परिहार या लघुकरण की विधि द्वारा दी गई शक्ति पर प्रभाव नहीं डालेगी।

(३) खंड (१) के उपखंड (ग) की कोई बात किसी तत्समय प्रवृत्त विधि के अधीन राज्य के राज्यपाल [४]* * * द्वारा प्रयोग की जाने वाली मृत्यु-दंडादेश के निलम्बन, परिहार या लघूकरण की शक्ति पर प्रभाव नहीं डालेगी।

संघ की कार्यपा
लिका शक्ति का
विस्तार
[५]७३. (१) इस संविधान के उपबन्धों के अधीन रहते हुए संघ की कार्यपालिका शक्ति का विस्तार—

(क) जिन विषयों के संबंध में संसद् को विधि बनाने की शक्ति है, उन तक, तथा
(ख) किसी संधि या करार के आधार पर भारत सरकार द्वारा प्रयोग किये जाने वाले अधिकारों, प्राधिकार और क्षेत्राधिकार के प्रयोग तक,

होगा :

परन्तु इस संविधान में, अथवा संसद् द्वारा बनाई गई किसी विधि में, स्पष्टतापूर्व उपबन्धित स्थिति के अतिरिक्त उपखंड (क) में उल्लिखित कार्यपालिका शक्ति का विस्तार [६]* * * किसी राज्य में ऐसे विषयों तक न होगा जिन के बारे में उस राज्य के विधान-मंडल को भी विधि बनाने की शक्ति है। [ २९ ] 

भाग ५—संघ—अनु॰ ७३-७६

(२) जब तक संसद् अन्य उपबन्ध न करे तब तक इस अनुच्छेद में किसी बात के होते हुए भी कोई राज्य तथा राज्य का कोई पदाधिकारी या प्राधिकारी उन विषयों में, जिनके संबंध में संसद् को उस राज्य के लिये विधि बनाने की शक्ति है, ऐसी कार्यपालिका शक्ति का या कृत्यों का प्रयोग करता रह सकता है जैसे कि वह राज्य या उसका पदाधिकारी या प्राधिकारी इस संविधान के प्रारम्भ से ठीक पहिले कर सकता था।

मन्त्रि-परिषद्

राष्ट्रपति को सहा-
यता और मंत्रणा
देने के लिये मंत्रि-
परिषद्
७४. (१) राष्ट्रपति को अपने कृत्यों का सम्पादन करने में सहायता और मंत्रणा देने के लिये एक मंत्रि-परिषद् होगी जिसका प्रधान प्रधान-मंत्री होगा।

(२) क्या मंत्रियों ने राष्ट्रपति को कोई मंत्रणा दी, और यदि दी तो क्या दी, इस प्रश्न की किसी न्यायालय में जाँच न की जायेगी।

मंत्रियों सम्बन्धी
अन्य उपबन्ध
७५. (१) प्रधान मंत्री की नियुक्ति राष्ट्रपति करेगा तथा अन्य मंत्रियों की नियुक्ति राष्ट्रपति प्रधान-मंत्री की मंत्रणा पर करेगा।

(२) राष्ट्रपति के प्रसाद पर्यन्त मंत्री अपने पद धारण करेंगे।

(३) मंत्रि-परिषद् लोक-सभा के प्रति सामूहिक रूप से उत्तरदायी होगी।

(४) किसी मंत्री के अपने पद ग्रहण करने से पहिले राष्ट्रपति उस से तृतीय अनुसूची में इस के लिये दिये हुए प्रपत्रों के अनुसार पद की तथा गोपनीयता की शपथें करायेगा।

(५) कोई मंत्री जो निरन्तर छः मास की किसी कालावधि तक संसद् के किसी सदन का सदस्य न रहे उस कालावधि की समाप्ति पर मंत्री न रहेगा।

(६) मंत्रियों के वेतन तथा भत्ते ऐसे होंगे, जैसे, समय समय पर, संसद् विधि द्वारा निर्धारित करे तथा जब तक संसद् इस प्रकार निर्धारित न करे तब तक ऐसे होंगे जैसे कि द्वितीय अनुसूची में उल्लिखित हैं।

भारत का महान्यायवादी

भारत का महा
न्यायवादी
७६. (१) उच्चतमन्यायालय के न्यायाधीश नियुक्त होने की प्रर्हता रखने वाले व्यक्ति को राष्ट्रपति भारत का महान्यायवादी नियुक्त करेगा।

(२) महान्यायवादी का कर्त्तव्य होगा कि वह भारत सरकार को ऐसे विधि संबंधी विषयों पर मंत्रणा दे तथा ऐसे विधि रूप दूसरे कर्तव्यों का पालन करे जो राष्ट्रपति उसे समय समय पर भेजे या सौंपे, तथा उन कृत्यों का निर्वहन करे जो इस संविधान अथवा अन्य किसी तत्समय प्रवृत्त विधि के द्वारा या अधीन उसे दिये गये हों।

(३) अपने कर्त्तव्यों के पालन के लिये महान्यायवादी को भारत राज्य-क्षेत्र में के सब न्यायालयों में सुनवाई का अधिकार होगा।

(४) महान्यायवादी राष्ट्रपति के प्रसाद पर्यन्त पद धारण करेगा तथा ऐसा पारिश्रमिक पायेगा जैसा राष्ट्रपति निर्धारित करे। [ ३० ] 

भाग ५—संघ—अनु॰ ७७–८०
सरकारी कार्य का संचालन

भारत सरकार के
कार्य का संचालन
७७. (१) भारत सरकार की समस्त कार्यपालिका कार्यवाही राष्ट्रपति के नाम से की हुई कही जायेगी।

(२) राष्ट्रपति के नाम से दिये और निष्पादित आदेशों और अन्य लिखतों का प्रमाणीकरण उस रीति से किया जायेगा जो राष्ट्रपति द्वारा बनाये जाने वाले नियमों[७] में उल्लिखित हो तथा इस प्रकार प्रमाणीकृत प्रदेश या लिखत की मान्यता पर आपत्ति इस आधार पर न की जायेगी कि वह राष्ट्रपति द्वारा दिया या निष्पादित आदेश या लिखत नहीं है।

(३) भारत सरकार का कार्य अधिक सुविधापूर्वक किये जाने के लिये तथा मंत्रियों में उक्त कार्य के बंटवारे के लिये राष्ट्रपति नियम बनायेगा। राष्ट्रपति को जान-
कारी देने आदि
विषयक प्रधान-
मंत्री के कर्त्तव्य

७८. प्रधान-मंत्री का—

(क) संघ कार्यों के प्रशासन संबंधी मंत्रि-परिषद् के समस्त विनिश्चयों तथा विधान के लिये प्रस्थापनायें राष्ट्रपति को पहुँचाने का,
(ख) संघ कार्यों के प्रशासन संबंधी तथा विधान विषयक प्रस्थापनात्रों सम्बन्धी जिस जानकारी को राष्ट्रपति मंगावे उस को देने का, तथा
(ग) किसी विषय को, जिस पर किसी मंत्री ने विनिश्चय कर दिया हो किन्तु मंत्रि-परिषद् ने विचार नहीं किया हो, राष्ट्रपति की अपेक्षा करने पर परिषद् के सम्मुख विचार के लिये रखने का, कर्त्तव्य होगा।

अध्याय २—संसद्
साधारण

संसद् का गठन ७९. संघ के लिये एक संसद् होगी जो राष्ट्रपति और दो सदनों से मिल कर बनेगी जिनके नाम क्रमशः राज्यसभा और लोकसभा होंगे।

राज्यसभा की
रचना
८०. (१) राज्य सभा—

(क) राष्ट्रपति द्वारा खंड (३) के उपबन्धों के अनुसार नामनिर्देशित किये जाने वाले बारह सदस्यों से, तथा
(ख) राज्यों के [और संघ राज्य क्षेत्रों के] दो सौ अड़तीस से अनधिक प्रतिनिधियों से, मिल कर बनेगी।

(२) राज्य सभा में राज्यों के [८][और संघ राज्य क्षेत्रों के] प्रतिनिधियों द्वारा भरे जाने वाले स्थानों का बंटवारा चतुर्थ अनुसूची में अन्तर्विष्ट तद्विषयक उपबन्धों के अनुसार होंगा। [ ३१ ] 

भाग ५—संघ—अनु॰ ८०–८१

(३) खंड १ के उपखंड (क) के अधीन राष्ट्रपति द्वारा नामनिर्देशित किये जाने वाले सदस्य ऐसे व्यक्ति होंगे जिन्हें निम्न प्रकार के विषयों के बारे में विशेष ज्ञान या व्यावहारिक अनुभव है, अर्थात्—

साहित्य, विज्ञान, कला और सामाजिक सेवा।

(४) राज्य-सभा के लिये [९]* * * प्रत्येक राज्य के प्रतिनिधि उस राज्य की विधान-सभा के निर्वाचित सदस्यों द्वारा अनुपाती प्रतिनिधित्व-पद्धति के अनुसार एकल संक्रमणीय मत द्वारा निर्वाचित होंगे।

(५) राज्य-सभा के लिये [१०][संघ राज्य-क्षेत्रों के प्रतिनिधि ऐसी रीति से चुने जायेंगे जैसी कि संसद् विधि द्वारा विहित करे। लोक-सभा की
रचना

[११][१२]८१. (१) अनुच्छेद ३३१ के उपबन्धों के अधीन रहते हुए लोक सभा—

(क) राज्यों में प्रादेशिक निर्वाचन क्षेत्रों से प्रत्यक्ष निर्वाचन द्वारा चुने हुए पांच सो से अनधिक सदस्यों, और
(ख) संघ राज्यक्षेत्रों का प्रतिनिधित्व करने के लिये ऐसी रीति में, जैसी कि संसद् विधि द्वारा उपबन्धित करे, चुने हुए बीस से अनधिक सदस्यों से मिल कर बनगी।

(२) खंड (१) के उपखंड (क) के प्रयोजनों के लिये—

(क) प्रत्येक राज्य के लिये लोकमभा में स्थानों की संख्या की बाँट ऐसी रीति में होगी कि उस संख्या से राज्य की जनसंख्या का अनुपात समस्त राज्यों के लिये यथासाध्य एक ही होगा, और
(ख) प्रत्येक राज्य को प्रादेशिक निर्वाचन क्षेत्रों में ऐसी रीति में विभाजित किया जाएगा कि प्रत्येक निर्वाचन क्षेत्र की जनसंख्या का उस को आबंटित स्थानों की संख्या से अनुपात समस्त राज्य में यथा साध्य एक ही होगा।

(३) इस अनुच्छेद में "जन संख्या" पद से ऐसी अन्तिम पूर्वगत जनगणना में, जिसके तत्संबंधी आंकड़े प्रकाशित हो चुके हैं, निश्चित की गई जनसंख्या अभिप्रेत है। [ ३२ ] 

भाग ५—संघ—अनु॰ ८२–८४

प्रत्येक जनगणना
के पश्चात् पुनः
समायोजन
८२. प्रत्येक जनगणना की समाप्ति पर लोकसभा में राज्यों को स्थानों के आबंटन और प्रत्येक राज्य प्रादेशिक निर्वाचन क्षेत्रों में विभाजन का ऐसे प्राधिकारी द्वारा और ऐसी रीति में पुनः समायोजन किया जायेगा जैसा कि संसद् विधि द्वारा निर्धारित करे;

परन्तु ऐसे पुनः समायोजन से लोकसभा में के प्रतिनिधित्व पर तब तक कोई प्रभाव नहीं पड़ेगा जब तक कि उस समय वर्तमान सदन का विघटन न हो जाये।] संसद् के सदनों की
अवधि

८३. (१) राज्य-सभा का विघटन न होगा, किन्तु उसके सदस्यों में से यथाशक्य निकटतम एक तिहाई, संसद्-निर्मित विधि द्वारा बनाये गये तद्विषयक उपबन्धों के अनुसार, प्रत्येक द्वितीय वर्ष की समाप्ति पर यथासम्भव शीघ्र निवृत्त हो जायेंगे।

(२) लोक-सभा, यदि पहिले ही विघटित न कर दी जाये तो, अपने प्रथम अधिवेशन के लिये नियुक्त तारीख से पांच वर्ष तक चालू रहेगी और इस से अधिक नहीं तथा पांच वर्षकी उक्त कालावधि की समाप्ति का परिणाम लोकसभा का विघटन होगा :

परन्तु उक्त कालावधि को, जब तक आपात की उद्घोषणा प्रवर्तन में है, संसद्, विधि द्वारा, किसी कालावधि के लिये बढ़ा सकेगी जो एक बार एक वर्ष से अधिक न होगी तथा किसी अवस्था में भी उद्घोषणा के प्रवर्तन का अन्त हो जाने के पश्चात् छः मासकी कालावधि से अधिक विस्तृत न होगी।

संसद् की सदस्यता
के लिये ग्रहता

८४. कोई व्यक्ति संसद् में के किसी स्थान की पूर्ति के लिये चुने जाने के लिये ग्रह न होगा जब तक कि—

(क) वह भारत का नागरिक न हो;
(ख) राज्य सभा के स्थान के लिये कम से कम तीस वर्ष की आयु का, तथा लोक सभा के स्थान के लिये कम से कम पच्चीस वर्ष की आयु का, न हो; तथा
(ग) ऐसी अर्हतायें न रखता हो जो कि इस बारे में संसद्-निर्मित किसी विधि के द्वारा या अधीन विहित की जायें।
[ ३३ ] 

भाग ५—संघ—अनु॰ ८५–८९

संसद् के सत्त्
सत्ता्बसान और
विघटन
[१३][८५. (१) राष्ट्रपति समय समय पर संसद् के प्रत्येक सदन को, ऐसे समय तथा स्थान पर, जैसा कि वह उचित समझे, अधिवेशन के लिये आहूत करेगा, किन्तु उसके एक सत्त् की अन्तिम बैठक और आगामी सत्त् की प्रथम बैठक के लिये नियुक्त तारीख के बीच छः मास का अंतर न होगा।

(२) राष्ट्रापति समय समय पर—
(क) सदनों या किसी सदन का सत्ता्वसान कर सकेगा,
(ख) लोक-सभा का विघटन कर सकेगा।]

सदनों को सम्बोधन
करने और संदेश
भेजने का राष्ट्र-
पति का अधिकार
८६. (१) संसद् के किसी एक सदन को, अथवा साथ समवेत दोनों सदनों को, राष्ट्रपति सम्बोधित कर सकेगा तथा इस प्रयोजन के लिये सदस्यों की उपस्थिति की अपेक्षा कर सकेगा।

(२) राष्ट्रपति संसद् में उस समय लम्बित किसी विधेयक विषयक अथवा अन्य विषयक सन्देश संसद् के किसी सदन को भेज सकेगा तथा जिस सदन को कोई सन्देश इस प्रकार भेजा गया हो वह सदन उस सन्देश द्वारा अपेक्षित विचारणीय विषय पर यथासुविधा शीघ्रता से विचार करेगा।

संसद् के प्रत्येक
सत्ता्रम्भ में
राष्ट्रपति का
विशेष अभि-
भाषण
८७. (१) [१४][लोक-सभा के लिये प्रत्येक साधारण निर्वाचन के पश्चात् प्रथम सत्त् के आरम्भ में तथा प्रत्येक वर्ष के प्रथम सत्त् के आरम्भ में] साथ समवेत संसद के दोनों सदनों को राष्ट्रपति सम्बोधन करेगा तथा संसद् को उस के आह्वान का कारण बतायेगा।

(२) प्रत्येक सदन की प्रक्रिया के विनियामक नियमों से ऐसे अभिभाषण में निर्दिष्ट विषयों की चर्चा के हेतु समय रखने के लिये [१५]* * * उपबन्ध किया जायेगा।

सदनों विषयक
मंत्रियों और
महान्यायवादी के
अधिकार
८८. भारत के प्रत्येक मंत्री और महान्यायवादी को अधिकार होगा कि वह किसी भी सदन में सदनों की किसी भी संयुक्त बैठक में, तथा संसद की किसी समिति में, जिसमें उसका नाम सदस्य के रूप में दिया गया हो, बोले तथा दुसरे प्रकार से कार्यवाहियों में भाग ले, किन्तु इस अनुच्छेद के आधार पर उसको मत देने का हक्क न होगा।

संसद् के पदाधिकारी

राज्य-सभा के
सभापति और
उपसभापति
८९. (१) भारत का उपराष्ट्रपति पदेन राज्य सभा का सभापति होगा।

(२) राज्य सभा यथासम्भव शीघ्र अपने किसी सदस्य को अपना उपसभापति चुनेगी और जब जब उपसभापति का पद रिक्त हो तब तब किसी अन्य सदस्य को अपना उपसभापति चुनेगी। [ ३४ ] 

भाग ५—संघ—अनु॰ ९०–९३

उपसभापति की
पदरिक्तता, पद-
त्याग तथा पद से
हटाया जाना
९०. राज्य सभा के उपसभापति के रूप में पद धारण करने वाला सदस्य—

(क) यदि सभा का सदस्य नहीं रहता तो अपना पद रिक्त कर देगा;
(ख) किसी समय भी अपने हस्ताक्षर सहित लेख द्वारा, जो सभापति को सम्बोधित होगा, अपना पद त्याग सकेगा; तथा
(ग) सभा के तत्कालीन समस्त सदस्यों के बहुमत से पारित, सभा के संकल्प द्वारा अपने पद से हटाया जा सकेगा :

परन्तु खंड (ग) के प्रयोजन के लिये कोई संकल्प तब तक प्रस्तावित न किया जायेगा जब तक कि उस संकल्प के प्रस्तावित करने के भिप्राय की कम से कम चौदह दिन की सूचना न दे दी गई हो।

उपसभापति या
अन्य व्यक्ति की,
सभापति पद के
कर्त्तव्यों के पालन
करने की अथवा
सभापति के रूप
में कार्य करने की
शक्ति
९१. (१) जब कि सभापति का पद रिक्त हो, अथवा किसी कालावधि में जब कि उपराष्ट्रपति राष्ट्रपति के रूप में कार्य कर रहा हो अथवा उस के कृत्यों का निर्वहन कर रहा हो, तब उपसभापति अथवा, यदि उपसभापति का पद भी रिक्त हो तो राज्य सभा का ऐसा सदस्य, जिसे राष्ट्रपति उस प्रयोजन के लिये नियुक्त करें, उस पद के कर्त्तव्यों का पालन करेगा।

(२) राज्य सभा की किसी बैठक में, सभापति की अनुपस्थिति! में उपसभापति, अथवा यदि वह भी अनुपस्थित है तो, ऐसा व्यक्ति, जो सभा की प्रक्रिया के नियमों द्वारा निर्धारित किया जाये, अथवा, यदि ऐसा कोई व्यक्ति उपस्थित नहीं है, तो ऐसा अन्य व्यक्ति, जिसे सभा निर्धारित करे, सभापति के रूप में कार्य करेगा।

जब उसके पद से
हटाने का संकल्प
विचाराधीन हो
तब सभापति
या उपसभापति
पीठासीन न होगा
९२. (१) राज्य सभा की किसी बैठक में, जब उपराष्ट्रपति को अपने पद से हटाने का कोई संकल्प विचाराधीन हो तब सभापति, अथवा जब उपसभापति को अपने पद से हटाने का कोई संकल्प विचाराधीन हो तब उपसभापति, उपस्थित रहने पर भी पीठासीन न होगा तथा अनुच्छेद ९१ के खंड (२) के उपबन्ध उसी रूप में ऐसी प्रत्येक बैठक के सम्बन्ध में लागू होंगे जिसमें कि वे उस बैठक के सम्बन्ध में लागू होते हैं जिस से कि यथास्थिति सभापति या उपसभापति अनुपस्थित है।

(२) जब कि उपराष्ट्रपति को अपने पद से हटाने का कोई संकल्प राज्यसभा में विचाराधीन हो तब सभापति को सभा में बोलने तथा दूसरी प्रकार से उसकी कार्यवाहियों में भाग लेने का अधिकार होगा किन्तु अनुच्छेद १०० में किसी बात के होते हुए भी ऐसे संकल्प पर, अथवा ऐसी कार्यवाहियों में किसी अन्य विषय पर मत देने का बिल्कुल हक्क न होगा।

लोक-सभा का
अध्यक्ष और
उपाध्यक्ष
९३. लोक सभा यथासम्भव शीघ्र अपने दो सदस्यों को क्रमशः अपने अध्यक्ष और उपाध्यक्ष चुनेगी तथा जब जब अध्यक्ष या उपाध्यक्ष का पद रिक्त हो तब तब सभा किसी अन्य सदस्य को यथास्थिति अध्यक्ष या उपाध्यक्ष चुनेगी। [ ३५ ] 

भाग ५—संघ—अनु॰ ९४–९६

अध्यक्ष और उपा-
ध्यक्ष की पद-
रिक्तता, पदत्याग
तथा पद से हटाया
जाना

९४. लोक-सभा के अध्यक्ष या उपाध्यक्ष के रूप में पद धारण करने वाला सदस्य—

(क) यदि लोक-सभा का सदस्य नहीं रहता तो अपना पद रिक्त कर देगा;
(ख) किसी समय भी अपने हस्ताक्षर सहित लेख द्वारा, जो उपाध्यक्ष को सम्बोधित होगा यदि वह सदस्य अध्यक्ष है, तथा अध्यक्ष को सम्बोधित होगा यदि वह सदस्य उपाध्यक्ष है, अपना पद त्याग सकेगा तथा
(ग) लोक-सभा के तत्कालीन समस्त सदस्यों के बहुमत से पारित संकल्प द्वारा अपने पद से हटाया जा सकेगा;
परन्तु खंड (ग) के प्रयोजन के हेतु कोई संकल तब तक प्रस्तावित न किया जायेगा जब तक कि उस संकल्प के प्रस्तावित करने के अभिप्राय की कम से कम चौदह दिन की सूचना न दे दी गयी हो;
परन्तु यह और भी कि जब कभी लोक-सभा का विघटन किया जाये तो विघटन के पश्चात् होने वाले लोक-सभा के प्रथम अधिवेशन के ठीक पहिले तक अध्यक्ष अपने पद को रिक्त न करेगा।

अध्यक्ष-पद के
कर्त्तव्य पालन की,
अथवा अध्यक्ष के
रूप में कार्य करने
की, उपाध्यक्ष या
अन्य व्यक्ति की
शक्ति

९५. (१) जब कि अध्यक्ष का पद रिक्त हो, तब उपाध्यक्ष, अथवा, यदि उपाध्यक्ष का पद भी रिक्त हो तो, लोक-सभा का ऐसा सदस्य, जिसे राष्ट्रपति उस प्रयोजन के लिये नियुक्त करे, उस पद के कर्त्तव्यों का पालन करेगा।

(२) लोक-सभा की किसी बैठक से अध्यक्ष की अनुपस्थिति में उपाध्यक्ष, अथवा यदि वह भी अनुपस्थिति हो तो, ऐसा व्यक्ति, जो सभा की प्रक्रिया के नियमों से निर्धारित किया जाये, अथवा यदि ऐसा कोई व्यक्ति उपस्थिति नहीं हो तो, ऐसा अन्य व्यक्ति, जिसे सभा निर्धारित करे, अध्यक्ष के रूप में कार्य करेगा।

जब उसके पद से
हटाने का संकल्प
विचाराधीन हो
तब अध्यक्ष या
उपाध्यक्ष लोक-
सभा की बैठकों
में पीठासीन न
होगा

९६. (१) लोक-सभा की किसी बैठक में, जब अध्यक्ष को अपने पद से हटाने का कोई संकल्प विचाराधीन हो तब अध्यक्ष, अथवा जब उपाध्यक्ष को अपने पद से हटाने का कोई संकल्प विचाराधीन हो तब उपाध्यक्ष, उपस्थित रहने पर भी, पीठासीन न होगा तथा अनुच्छेद ९५ के खंड (२) के उपबन्ध उसी रूप में ऐसी प्रत्येक बैठक के सम्बन्ध में लागू होंगे जिसमें कि वे उस बैठक के सम्बन्ध में लागू होते हैं जिससे कि यथास्थिति अध्यक्ष या उपाध्यक्ष अनुपस्थित हैं।

(२) जब कि अध्यक्ष को अपने पद से हटाने का कोई संकल्प लोक- सभा में विचाराधीन हो तब उसको लोक सभा में बोलने तथा दूसरे प्रकार से उसकी कार्यवाहियों में भाग लेने का अधिकार होगा तथा अनुच्छेद १०० में किसी बात के होते हुए भी ऐसे संकल्प पर, अथवा ऐसी कार्यवाहियों में किसी अन्य विषय पर, प्रथमतः ही मत देन का हक्क होगा किन्तु मत साम्य होने की दशा में न होगा। [ ३६ ] 

भाग ५—संघ—अनु॰ ९७-१००

सभापति और उप-
सभापति तथा
अध्यक्ष और उपा-
ध्यक्ष के वेतन
और भत्ते
९७. राज्य सभा के सभापति और उपसभापति को, तथा लोक-सभा के अध्यक्ष और उपाध्यक्ष को, ऐसे वेतन और भत्ते, जैसे क्रमशः संसद् विधि द्वारा नियत करे, तथा जब तक उसके लिये उपबन्ध इस प्रकार न बनें तब तक ऐसे वेतन और भत्ते, जैसे कि द्वितीय अनुसूची में उल्लिखित है, दिये जायेंगे।

संसद् का सचिवालय ९८. (१) संसद् के प्रत्येक सदन का अपना पृथक् साचविक कर्मचारी-वृन्द होगा :

परन्तु इस खंड की किसी बात का यह अर्थ नहीं किया जायेगा कि वह संसद् के दोनों सदनों के लिये सम्मिलित पदों के सृजन को रोकती है।

(२) संसद् विधि द्वारा, संसद् के प्रत्येक सदन के साचविक कर्मचारी-वृन्द में भर्ती का तथा नियुक्त व्यक्तियों की सेवा की शर्तों का, विनियमन कर सकेगी।

(३) खंड (२) के अधीन जब तक संसद् उपबन्ध नहीं करती तब तक राष्ट्रपति, यथास्थिति, लोक-सभा के अध्यक्ष से, या राज्य सभा के सभापति से परामर्श कर के लोक सभा के या राज्य सभा के साचविक कर्मचारी-वृन्द में भर्ती के, तथा नियुक्त व्यक्तियों की सेवा की शर्तों के, विनियमन के लिये नियमों को बना सकेगा तथा इस प्रकार बने कोई नियम उक्त खंड क अधीन बनी किसी विधि के उपबन्धों के अधीन रह कर ही प्रभावी होंगे।

कार्य संचालन

सदस्यों द्वारा शपथ
या प्रतिज्ञान
९९. संसद के प्रत्येक सदन का प्रत्येक सदस्य अपना स्थान ग्रहण करने से पूर्व, राष्ट्रपति के अथवा राष्ट्रपति द्वारा उस लिये नियुक्त व्यक्ति के समक्ष, तृतीय अनुसूची में प्रयोजन के लिये दिये हुए प्रपत्र के अनुसार, शपथ लेगा या प्रतिज्ञान करेगा तथा उस पर हस्ताक्षर करेगा।

सदनों में मतदान
रिक्तताओं के
होते हुए भी
सदनों की कार्य
करने की शक्ति
तथा गणपूर्ति
१०० (१) इस संविधान में अन्यथा उपबन्धित अवस्था को छोड़ कर किसी सदन की किसी बैठक में अथवा सदनों की संयुक्त बैठक में सब प्रश्नों का निर्धारण, अध्यक्ष या सभापति अथवा अध्यक्ष रूप में कार्य करने वाले व्यक्ति को छोड़ कर उपस्थित तथा मत देने वाले अन्य सदस्यों के बहुमत से किया जायेगा।

सभापति या अध्यक्ष अथवा उसके रूप में कार्य करने वाला व्यक्ति प्रथमतः मत न देगा, किन्तु मतसाम्य की अवस्था में उसका निर्णायक मत होगा और वह उसका प्रयोग करेगा।

(२) सदस्यता में कोई रिक्तता होने पर भी संसद् के किसी सदन को कार्य करने की शक्ति होगी, तथा यदि बाद में यह पता चले कि कोई व्यक्ति, जिसे ऐसा करने का हक्क न था, कार्यवाहियों में उपस्थित रहा, उसने मत दिया अथवा अन्य प्रकार से भाग लिया, तो भी संसद में की गई कार्यवाही मान्य होगी। [ ३७ ] 

भाग ५—संघ—अनु॰ १००–१०१

(३) जब तक संसद् विधि द्वारा अन्यथा उपबन्धित न करें तब तक संसद् के प्रत्येक सदन का अधिवेशन गठित करने के लिये गणपूर्ति सदन के सदस्यों की सम्पूर्ण संख्या का दशांश होगी।

(४) यदि सदन के अधिवेशन में किसी समय गणपूर्ति न तो सभापति या अध्यक्ष अथवा उसके रूप में कार्य करने वाले व्यक्ति का कर्तव्य होगा कि वह या तो सदन को स्थगित कर दे या अधिवेशन को तब तक के लिये निलम्बित कर दे जब तक कि गणपूर्ति न हो जाये।

सदस्यों की अनर्हताएँ

स्थानों की रिक्तता १०१. (१) कोई व्यक्ति संसद् के दोनों सदनों का सदस्य न होगा तथा जो व्यक्ति दोनों सदनों का सदस्य निर्वाचित हुआ है उसके एक या दूसरे सदन क स्थान को रिक्त करने के लिये संसद् विधि द्वारा उपबन्ध बनायेगी।

(२) कोई व्यक्ति संसद् तथा [१६]* * * किसी राज्य के विधान-मंडल के किसी सदन, इन दोनों का सदस्य न होगा तथा यदि कोई व्यक्ति संसद् तथा [१७]* * * किसी राज्य के विधान-मंडल के किसी सदन, इन दोनों का सदस्य चुन लिया जाये तो ऐसी कालावधि की समाप्ति के पश्चात्, जो कि राष्ट्रपति द्वारा बनाये गये [१८]नियमों में उल्लिखित हो, संसद् में ऐसे व्यक्ति का स्थान रिक्त हो जायेगा यदि उसने राज्य के विधान-मंडल में के अपने स्थान को पहिले ही त्याग न दिया हो।

(३) यदि संसद् के किसी सदन का सदस्—

(क) अनुच्छेद १०२ के खंड (१) में वर्णित अनर्हताओं में से किसी का भागी हो जाता है, अथवा
(ख) यथास्थिति सभापति या अध्यक्ष को सम्बोधित अपने हस्ताक्षर सहित लेख द्वारा अपने स्थान का त्याग कर देता है,

तो ऐसा होने पर उसका स्थान रिक्त हो जायेगा।

(४) यदि संसद् के किसी सदन का सदस्य साठ दिन की कालावधि तक सदन की अनुज्ञा के बिना उसके सब अधिवेशनों से अनुपस्थित रहे तो सदन उसके स्थान को रिक्त घोषित कर सकेगा :

परन्तु साठ दिन की उक्त कालावधि की संगणना में किसी ऐसी कालावधि को सम्मिलित न किया जायेगा जिस में सदन सत्तावसित अथवा निरन्तर चार से अधिक दिनों के लिये स्थगित रहा है। [ ३८ ] 

भाग ५—संघ—अनु॰ १०—१०५

सदस्यता के लिये
अनर्हताएँ
१०२. (१) कोई व्यक्ति संसद के किसी सदन का सदस्य चुने जाने के लिये और सदस्य होने के लिये अनर्ह होगा—

(क) यदि वह भारत सरकार के अथवा किसी राज्य की सरकार के अधीन, ऐसे पद को छोड़ कर जिसे धारण करने वाले का अनर्ह न होना संसद् ने विधि द्वारा घोषित किया है, कोई अन्य लाभ का पद धारण किये हुए है;
(ख) यदि वह विकृतचित्त है तथा सक्षम न्यायालय की ऐसी घोषणा विद्यमान है;
(ग) यदि वह अनुन्मुक्त दिवालिया है;
(घ) यदि वह भारत का नागरिक नहीं है अथवा किसी विदेशी राज्य की नागरिकता को स्वेच्छा से अर्जित कर चुका है, अथवा किसी विदेशी राज्य के प्रति निष्ठा या अनुषक्ति को अभिस्वीकार किये हुए है;
(ङ) यदि वह संसद्-निर्मित किसी विधि के द्वारा या अधीन इस प्रकार अनर्ह कर दिया गया है।
(२) इस अनुच्छेद के प्रयोजनों के लिये कोई व्यक्ति भारत सरकार के अथवा किसी राज्य की सरकार के अधीन लाभ का पद धारण करने वाला केवल इसी लिये नहीं समझा जायेगा कि वह संघ का या ऐसे राज्य का मंत्री है।

सदस्यों की अनर्ह-
ताओं विषयक
प्रश्नों पर विनि-
श्चयन

१०३. (१) यदि कोई प्रश्न उठता है कि संसद् के किसी सदन का सदस्य अनुच्छेद १०२ के खंड (१) में वर्णित अनर्हताओं का भागी हो गया है या नहीं तो वह प्रश्न राष्ट्रपति को विनिश्चय के लिये सौंपा जायेगा तथा उसका विनिश्चय अन्तिम होगा।
(२) ऐसे किसी प्रश्न पर विनिश्चय देने से पूर्व राष्ट्रपति निर्वाचन-आयोग की राय लेगा तथा ऐसी राय के अनुसार कार्य करेगा।

अनुच्छेद ९९ के
अधीन शपथ या
प्रतिज्ञान करने से
पूर्व अथवा अर्ह
न होते हुए अथवा
अनर्ह किये जाने
पर बैठने, और मत देने के लिये
दंड
१०४. यदि संसद् के किसी सदन में कोई व्यक्ति सदस्य के रूप में अनुच्छेद ९९ की अपेक्षाओं की पूर्ति करने से पूर्व, अथवा यह जानते हुए कि मैं उसकी सदस्यता के लिये नहीं हूँ अथवा अनर्ह कर दिया गया हूँ अथवा संसद् द्वारा निर्मित किसी विधि के उपबन्धों से ऐसा करने से प्रतिषिद्ध कर दिया गया हूँ, बैठता या मतदान करता है, तो वह प्रत्येक दिन के लिये, जब कि वह इस प्रकार बैठता है या मतदान करता है पाँच सौ रुपये के दंड का भागी होगा जो संघ को देय ऋण के रूप में वसूल होगा।

संसद् और उसके सदस्यों की शक्तियाँ, विशेषाधिकार और उन्मुक्तियांशँ

संसद् के सदनों की
तथा उस के
सदस्यों और
समितियों की
शक्तियाँ, विशे-
षाधिकार आदि
१०५. (१) इस संविधान के उपबन्धों के तथा संसद् की प्रक्रिया के विनियामक नियमों और स्थायी आदेशों के अधीन रहते हुए संसद् में वाक्-स्वातन्त्र्य होगा।

(२) संसद में या उसकी किसी समिति में कही हुई किसी बात अथवा दिये हुए किसी मत के विषय में संसद् के किसी सदस्य के विरुद्ध किसी न्यायालय में कोई कार्यवाही न चल सकेगी और न किसी व्यक्ति के विरुद्ध, संसद् के किसी सदन के प्राधिकार के द्वारा या अधीन किसी प्रतिवेदन, पत्र, मतों या कार्यवाहियों के प्रकाशन के विषय में इस प्रकार की कोई कार्यवाही चल सकेगी। [ ३९ ] 

भाग ५—संघ—अनु॰ १०५–१०८

(३) अन्य बातों में संसद् के प्रत्येक सदन की तथा प्रत्येक सदन के सदस्यों और समितियों की शक्तियाँ, विशेषाधिकार और उन्मुक्तियाँ ऐसी होंगी, जैसी संसद्, समय समय पर, विधि द्वारा परिभाषित करे, तथा जब तक इस प्रकार परिभाषित नहीं की जातीं, तब तक वे ही होंगी जो इस संविधान के प्रारम्भ पर इंग्लिस्तान की पार्लियामेंट के हाउस आफ कामन्स की तथा उसके सदस्यों और समितियों की हैं।

(४) जिन व्यक्तियों को इस संविधान के आधार पर संसद् के किसी सदन अथवा उसकी किसी समिति में बोलने का, अथवा अन्य प्रकार से उसकी कार्यवाहियों में भाग लेने का अधिकार है उनके सम्बन्ध में खंड (१), (२) और (३) के उपबन्ध उसी प्रकार लागू होंगे जिस प्रकार वे संसद् के सदस्यों के सम्बन्ध में लागू हैं। सदस्यों के वेतन
और भत्ते

१०६. संसद् के प्रत्येक सदन के सदस्यों को ऐसे वेतनों और भत्तों को, जिन्हें संसद्, विधि द्वारा, समय समय पर निर्धारित करे, तथा जब तक तद्विषयक उपबन्ध इस प्रकार नहीं बनाया जाता तब तक ऐसे भत्तों को, ऐसी दरों से और ऐसी शर्तों पर, जैसी कि भारत डोमीनियन की संविधान सभा के सदस्यों को इस संविधान के प्रारम्भ से ठीक पहिले लागू थीं, पाने का हक्क होगा।

विधान प्रक्रिया

विधेयकों के पुर:-
स्थापन और
पारण विषयक
उपबन्ध

१०७ (१) धन विधेयकों तथा अन्य वित्तीय विधेयकों के विषय में अनुच्छेद १०६ और ११७ के उपबन्धों के अधीन रहते हुए कोई विधेयक संसद् के किसी सदन में आरम्भ हो सकेगा।

(२) अनुच्छेद १०८ और १०९ के उपबन्धों के अधीन रहते हुए कोई विधेयक संसद् के सदनों द्वारा तब तक पारित न समझा जायेगा जब तक कि, या तो बिना संशोधन के या केवल ऐसे संशोधनों के सहित, जो दोनों सदनों द्वारा स्वीकृत कर लिये गये हैं, दोनों सदनों द्वारा वह स्वीकृत न कर लिया गया हो।

(३) संसद् में लम्बित विधेयक सदनों के सत्तावसान के कारण व्यपगत न होगा।

(४) राज्य सभा में लम्बित विधेयक, जिसको लोक-सभा ने पारित नहीं किया है, लोक सभा के विघटन पर व्यपगत न होगा।

(५) कोई विधेयक, जो लोक-सभा में लम्बित है, अथवा जो लोक-सभा से पारित होकर राज्य सभा में लम्बित है, अनुच्छेद १०८ के उपबन्धों के अधीन रहते हुए, लोक-सभा के विघटन पर व्यपगत हो जायेगा।

किन्हीं अवस्थाओं
में दोनों सदनों
की संयुक्त बैठक
१०८. (१) यदि किसी विधेयक के एक सदन में पारित होने तथा दूसरे किन्हीं अवस्थाओं सदन को पहुँचाये जाने के पश्चात्—

(क) दूसरे सदन द्वारा वह विधेयक अस्वीकृत कर दिया जाता है, अथवा
(ख) विधेयक में किये जाने वाले से असहमत हो चुके हैं, अथवा
(ग) विधेयक-प्राप्ति की तारीख से, बिना इसको पारित किये, दूसरे सदन को छः मास से अधिक बीत चुके हैं,
[ ४० ] 

भाग ५—संघ—अनु॰ १०८–१०९

तो लोक-सभा के विघटन होने के कारण यदि विधेयक व्यपगत नहीं हो गया है, तो विधेयक पर पर्यालोचन करने और मत देने के प्रयोजन के लिये संयुक्त बैठक में अधिवेशित होने के लिये आहूत करने के अभिप्राय की अधिसूचना सदनों को, यदि वे बैठक में हैं तो संदेश द्वारा, अथवा यदि बैठक में नहीं हैं तो लोक अधिसूचना द्वारा, राष्ट्रपति देगा :

परन्तु इस खंड में की कोई बात किसी धन विधेयक को लागू न होगी।

(२) ऐसी किसी छः मास की कालावधि की संगणना में, जो कि खंड (१) में निर्दिष्ट है, किसी ऐसी कालावधि को सम्मिलित न किया जायेगा जिसमें उक्त खंड के उपखंड (ग) में निर्दिष्ट सदन सत्तावसित अथवा निरन्तर चार से अधिक दिनों के लिये स्थगित रहता है।

(३) सदनों को संयुक्त बैठक में अधिवेशित होने के लिये आहूत करने के अभिप्राय को जब राष्ट्रपति खंड (१) के अधीन अधिसूचित कर चुका हो, तो कोई सदन विधेयक पर आगे कार्यवाही न करेगा, किन्तु राष्ट्रपति अधिसूचना की तारीख के पश्चात् किसी समय सदनों को अधिसूचना में उल्लिखित प्रयोजन के लिये संयुक्त बैठक में अधिवेशित होने के लिये आहूत कर सकेगा तथा यदि वह ऐसा करता है तो सदन तदनुसार अधिवेशित होंगे।

(४) यदि सदनों की संयुक्त बैठक में विधेयक ऐसे संशोधनों सहित, यदि कोई हों, जिनको संयुक्त बैठक में स्वीकार कर लिया गया है, दोनों सदनों के उपस्थित तथा मत देने वाले समस्त सदस्यों के बहुमत से पारित हो जाता है तो इस संविधान के प्रयोजनों के लिए वह दोनों सदनों से पारित समझा जायेगा :

परन्तु संयुक्त बैठक में—

(क) यदि विधेयक एक सदन से पारित होकर दूसरे सदन द्वारा संशोधनों सहित पारित नहीं किया गया है तथा उस सदन को, जिसमें वह आरम्भित हुआ था, लौटा नहीं दिया गया है तो ऐसे संशोधनों के सिवाय (यदि कोई हों), जो कि विधेयक के पारण में देरी के कारण आवश्यक हो गये हैं, विधेयक पर कोई और संशोधन प्रस्थापित न किया जायेगा;
(ख) यदि विधेयक इस प्रकार पारित और लौटाया जा चुका है तो विधेयक पर केवल ऐसे संशोधन, जैसे कि ऊपर कथित हैं, तथा ऐसे अन्य संशोधन, जो उन विषयों से सुसंगत हैं जिन पर सदनों में सहमति नहीं हुई है, प्रस्थापित किये जायेंगे;

और पीठासीन व्यक्ति का विनिश्चय, कि इस खंड के अधीन कौन से संशोधन प्रवेश्य हैं, अन्तिम होगा।

(५) सदनों को संयुक्त बैठक में अधिवेशित होने के लिये आहूत करने के अभिप्राय की राष्ट्रपति की अधिसूचना के पश्चात्, यद्यपि लोक-सभा का विघटन बीच में हो चुका है तो भी, इस अनुच्छेद के अधीन संयुक्त बैठक हो सकेगी तथा उसमें विधेयक पारित हो सकेगा। धन-विधेयकों विष-
यक विशेष प्रक्रिया

१०९. (१) राज्य सभा में धन-विधेयक पुरःस्थापित न किया जायेगा।

(२) लोक-सभा से पारित हो जाने के पश्चात्, धन विधेयक, राज्य-सभा को, उसकी सिपारिशों के लिये पहुँचाया जायेगा तथा राज्य-सभा, विधेयक की अपनी प्राप्ति की तारीख से चौदह दिन की कालावधि के भीतर, विधेयक को अपनी सिपारिशों सहित लोक-सभा को लौटा देगी तथा ऐसा होने पर लोक-सभा राज्य-सभा की सिपारिशों में से सबको या किसी को स्वीकार या अस्वीकार कर सकेगी। [ ४१ ] 

भाग ५—संघ—अनु॰ १०९–११०

(३) यदि राज्य सभा की सिफारिशों में से किसी को लोक-सभा स्वीकार कर लेती है तो धन विधेयक राज्य सभा द्वारा सिपारिश किये गये तथा लोक-सभा द्वारा स्वीकृत संशोधनों सहित दोनों सदनों द्वारा पारित समझा जायेगा।

(४) यदि राज्य सभा की सिपारिशों में से किसी को भी लोक-सभा स्वीकार नहीं करती है तो धन विधेयक, राज्य सभा द्वारा सिफारिश किये गये संशोधनों में से किसी के बिना, उस रूप में दोनों सदनों द्वारा पारित समझा जायेगा जिसमें कि वह लोक-सभा द्वारा पारित किया गया था।

(५) यदि लोक-सभा द्वारा पारित तथा राज्य-सभा को उसकी सिपारिशों ये पहुँचाया गया धन विधेयक उक्त चौदह दिन की कालावधि के भीतर लोक-सभा को लौटाया नहीं जाता तो उक्त कालावधि की समाप्ति पर यह दोनों सदनों द्वारा, उस रूप में पारित समझा जायेगा जिसमें लोक-सभा ने उसको पारित किया था।

धन-विधेयकों की
परिभाषा
११० (१) इस अध्याय के प्रयोजनों के लिये कोई विधेयक धन विधेयक समझा जायेगा यदि उसमें निम्नलिखित विषयों में से सब अथवा किसी से सम्बन्ध रखने वाले उपबन्ध ही अन्तर्विष्ट हैं, अर्थात्—

(क) किसी कर का आरोपण, उत्सादन, परिहार, बदलना या विनियमन;
(ख) भारत सरकार द्वारा धन उधार लेने का, अथवा कोई प्रत्याभूति देने का विनियमन अथवा भारत सरकार द्वारा लिये गये अथवा लिये जाने वाले किन्हीं वित्तीय प्रभारों से सम्बद्ध विधि का संशोधन;
(ग) भारत की संचित निधि अथवा आकस्मिकतानिधि की अभिरक्षा, ऐसी किसी निधि में धन डालना अथवा उसमें से धन निकालना;
(घ) भारत की संचित निधि में से धन का विनियोग;
(ङ) किसी व्यय को भारत की संचित निधि पर भारित व्यय घोषित करना अथवा ऐसे किसी व्यय की राशि को बढ़ाना;
(च) भारत की संचित निधि के या भारत के लोक-लेखे के मध्ये धन प्राप्त करना अथवा ऐसे धन की अभिरक्षा या निकासी करना अथवा संघ या राज्य के लेखाओं का लेखा-परीक्षण; अथवा
(छ) उपखंड (क) से (च) तक में उल्लिखित विषयों में से किसी का आनुषंगिक कोई विषय।

(२) कोई विधेयक केवल इस कारण से धन विधेयक न समझा जायेगा कि वह जुर्मानों या अन्य अर्थ-दण्डों के आरोपण का अथवा अनुज्ञप्तियों के लिये फीसों की, अथवा की हुई सेवाओं के लिये फीसों की, अभियाचना का या देने का, उपबन्ध करता है, अथवा इस कारण से कि वह किसी स्थानीय प्राधिकारी या निकाय द्वारा स्थानीय प्रयोजनों के लिये किसी कर के आरोपण, उत्सादन, परिहार, बदलने या विनियमन का उपबन्ध करता है।

(३) यदि यह प्रश्न उठता है कि कोई विधेयक धन विधेयक है या नहीं तो उस पर लोक सभा के अध्यक्ष का विनिश्चय अन्तिम होगा। [ ४२ ] 

भाग ५—संघ—अनु॰ ११०–११२

(४) अनुच्छेद १०९ के अधीन जब धन-विधेयक राज्य-सभा को भेजा जाता है तथा जब वह अनुच्छेद १११ के अधीन अनुमति के लिये राष्ट्रपति के समक्ष उपस्थित किया जाता है तब प्रत्येक धन विधेयक पर लोक-सभा के अध्यक्ष के हस्ताक्षर सहित यह प्रमाण अंकित रहेगा कि वह धन-विधेयक है। विधेयकों पर अनुमति १११. जब संसद् के सदनों द्वारा कोई विधेयक पारित कर दिया गया हो तब वह राष्ट्रपति के समक्ष उपस्थित किया जायेगा तथा राष्ट्रपति घोषित करेगा कि वह विधेयक पर या तो अनुमति देता है या अनुमति रोक लेता है :

परन्तु राष्ट्रपति अनुमति के लिये अपने समक्ष विधेयक रखे जाने के पश्चात् यथाशीघ्र उस विधेयक को, यदि वह धन विधेयक नहीं है तो, सदनों को संदेश के साथ लौटा सकेगा कि वे उस विधेयक पर अथवा उसके किसी उल्लिखित उपबन्धों पर पुनर्विचार करें तथा विशेषतः किन्हीं ऐसे संशोधनों के पुरः स्थापन की वांछनीयता पर विचार करें जिनकी उसने अपने संदेश में सिपारिश की हो तथा जब विधेयक इस प्रकार लौटा दिया गया हो तब सदन विधेयक पर तदनुसार पुनर्विचार करेंगे तथा यदि विधेयक सदनों द्वारा संशोधन सहित या रहित पुनः पारित हो जाता है तथा राष्ट्रपति के समक्ष अनुमति के लिये रखा जाता है तो राष्ट्रपति उस पर अपनी अनुमति न रोकेगा।

वित्तीय विषयों में प्रक्रिया

वार्षिक-वित्त-विवरण ११२. (१) प्रत्येक वित्तीय वर्ष के बारे में संसद् के दोनों सदनों के समक्ष राष्ट्रपति भारत सरकार की उस वर्ष के लिये प्राक्कलित प्राप्तियों और व्यय का विवरण रखवायेगा जिसे इस संविधान के इस भाग में "वार्षिक-वित्त-विवरण" नाम से निर्दिष्ट किया गया है।

(२) वार्षिक-वित्त-विवरण में दिये हुए व्यय के प्राक्कलनों में—

(क) जो व्यय इस संविधान में भारत की संचित निधि पर भारित व्यय के रूप में वर्णित है उसकी पूर्ति के लिये अपेक्षित राशियाँ, तथा
(ख) भारत की संचित निधि से किये जाने वाले अन्य प्रस्थापित व्यय की पूर्ति के लिये अपेक्षित राशियाँ,

पृथक् पृथक् दिखाई जायेंगी तथा राजस्व लेखे पर होने वाले व्यय का अन्य व्यय से भेद किया जायेगा।

(३) निम्नवर्ती व्यय भारत की संचित निधि पर भारित व्यय होगा—

(क) राष्ट्रपति की उपलब्धियाँ और भत्ते तथा उसके पद से सम्बद्ध अन्य व्यय;
(ख) राज्य सभा के सभापति और उपसभापति तथा लोक सभा के अध्यक्ष और उपाध्यक्ष के वेतन और भत्ते;
(ग) ऐसे ऋण भार जिनका दायित्व भारत सरकार पर है, जिनके अन्तर्गत व्याज, निक्षेप-निधि भार और मोचन भार तथा उधार लेने और ऋण सेवा और ऋण मोचन सम्बन्धी अन्य व्यय भी हैं;
(घ) (१) उच्चतमन्यायालय के न्यायाधीशों को, या के बारे में दिये जाने वाले वेतन, भत्ते और निवृत्ति-वेतन;
(२) फेडरलन्यायालय के न्यायाधीशों को, या के बारे में, दिये जाने वाले निवृत्ति-वेतन;
[ ४३ ] 

भाग ५—संघ—अनु॰ ११२–११४

(३) जो उच्चन्यायालय भारत राज्य-क्षेत्र में के अन्तर्गत किसी क्षेत्र के सम्बन्ध में क्षेत्राधिकार का प्रयोग करता है अथवा जो [१९][भारत डोमीनियन के राज्यपाल के प्रान्त] में के अन्तर्गत किसी क्षेत्र के सम्बन्ध में इस संविधान के प्रारम्भ से पूर्व किसी भी समय क्षेत्राधिकार का प्रयोग करता था उसके न्यायाधीशों को, या के बारे में, दिये जाने वाले निवृत्ति-वेतन;
(ङ) भारत के नियंत्रक-महालेखापरीक्षक के, या के बारे में दिये जाने वाले वेतन, भत्ते और निवृत्ति-वेतन;
(च) किसी न्यायालय या मध्यस्थ न्यायाधिकरण के निर्णय, आज्ञप्ति या पंचाट के भुगतान के लिये अपेक्षित कोई राशियाँ;
(छ) इस संविधान द्वारा, अथवा संसद् से विधि द्वारा इस प्रकार भारित घोषित किया गया कोई अन्य व्यय।

संसद् में प्राक्कलनों
के विषय में
प्रक्रिया
११३. (१) भारत की संचित निधि पर भारित व्यय से सम्बद्ध प्राक्कलन संसद् में मतदान के लिये न रखे जायेंगे, किन्तु इस खंड की किसी बात का यह अर्थ के विषय न किया जायेगा कि वह संसद् के किसी सदन में उन प्राक्कलनों में से किसी पर चर्चा को रोकती है।

(२) उक्त प्राक्कलनों में से जितने अन्य व्यय से सम्बद्ध हैं वे लोक-सभा के समक्ष अनुदानों की मांगों के रूप में रखे जायेंगे तथा लोक-सभा को शक्ति होगी कि किसी मांग को स्वीकार या अस्वीकार करे अथवा किसी मांग को, उसमे उल्लिखित राशि को कम कर के, स्वीकार करे।

(३) राष्ट्रपति की सिफारिश के बिना किसी भी अनुदान की मांग न की जायेगी।

विनियोग विधेयक ११४. (१) लोक-सभा द्वारा अनुच्छेद ११३ के अधीन अनुदान किये जानें के बाद यथासम्भव शीघ्र भारत की संचित निधि में से—

(क) लोक-सभा द्वारा इस प्रकार किये गये अनुदानों की; तथा
(ख) भारत की संचित निधि पर भारित, किन्तु संसद् के समक्ष पहिले रखे गये विवरण में दी हुई राशि से किसी भी अवस्था में अनधिक व्यय की,

पूर्ति के लिये अपेक्षित सब धनों के विनियोग के लिये विधेयक पुरःस्थापित किया जायेगा।

(२) इस प्रकार किये गये किसी अनुदान की राशि में फेरफार करने, अथवा अनुदान के लक्ष्य को बदलने, अथवा भारत की संचित निधि पर भारित व्यय की राशि में फेरफार करने का प्रभाव रखने वाला कोई संशोधन ऐसे किसी विधेयक पर, संसद् के किसी सदन में प्रस्थापित न किया जायेगा तथा कोई संशोधन इस खंड के अधीन प्रवेश्य है या नहीं इस बारे में पीठासीन व्यक्ति का विनिश्चय अन्तिम होगा। [ ४४ ] 

भाग ५—संघ—अनु॰ ११४–११६

(३) अनुच्छेद ११५ और ११६ के उपबन्धों के अधीन रहते हुए, भारत की संचित निधि में से इस अनुच्छेद के उपबन्धों के अनुसार पारित विधि द्वारा किये गये विनियोग के अधीन निकालने के अतिरिक्त और कोई धन निकाला न जायेगा। अनुपरक, अपर या
अधिकाई अनुदान

११५. (१) यदि—

(क) अनुच्छेद ११४ के उपबन्धों के अनुसार निर्मित किसी विधि द्वारा किसी विशेष सेवा पर चालू वित्तीय वर्ष के लिये व्यय किये जाने के लिये प्राधिकृत कोई राशि उस वर्ष के प्रयोजनों के लिये अपर्याप्त पाई जाती है अथवा जब उस वर्ष के वार्षिक वित्त-विवरण में अपेक्षित न की गई किसी नई सेवा पर अनुपूरक अथवा अपर व्यय की चालू वित्तीय वर्ष में आवश्यकता पैदा हो गई है, अथवा
(ख) किसी वित्तीय वर्ष में किसी सेवा पर, उस सेवा और उस वर्ष के लिये अनुदान की गई राशि से अधिक कोई धन व्यय हो गया है,

तो राष्ट्रपति यथास्थिति संसद के दोनों सदनों के समक्ष उस व्यय की प्राक्कलित की गई राशि को दिखाने वाला दूसरा विवरण रखवायेगा अथवा लोक-सभा में ऐसी अधिकाई के लिये मांग उपस्थित करायेगा।

(२) ऐसे किसी विवरण और व्यय या मांग के संबंध में, तथा भारत की संचित निधि में से ऐसे व्यय अथवा ऐसी मांग के बारे में, अनुदान की पूर्ति के लिये धनों का विनियोग प्राधिकृत करने के लिये बनाई जाने वाली किसी विधि के संबंध में भी, अनुच्छेद ११२, ११३ और ११४ के उपबन्ध वैसे ही प्रभावी होंगे जैसे कि वे वार्षिक वित्त विवरण तथा उस में वर्णित व्यय अथवा अनुदान की किसी मांग तथा भारत की संचित निधि में से ऐसे किसी व्यय या मांग से संबंधित अनुदान की पूर्ति के लिये धनों का विनियोग प्राधिकृत करने के लिये बनाई जाने वाली विधि के संबंध में प्रभावी हैं।

लेखानुदान, प्रत्यया-
नुदान और अप-
वादानुदान
११६. (१) इस अध्याय के पूर्वगामी उपबन्धों में किसी बात के होते हुए भी लोक-सभा को—

(क) किसी वित्तीय वर्ष के भाग के लिये प्राक्कलित व्यय के बारे में किसी अनुदान को, ऐसे अनुदान के लिये मतदान करने के लिये अनुच्छेद ११३ में विहित प्रक्रिया की पूर्ति के लम्बित रहने तक, तथा उस व्यय के संबंध में अनुच्छेद ११४ के उपबन्धों के अनुसार विधि के पारण के लम्बित रहने तक, पेशगी देने की,
(ख) जब कि किसी सेवा की महत्ता या अनिश्चित रूप के कारण की गई मांग वैसे ब्योरे के साथ वर्णित नहीं की जा सकती जैसा कि वार्षिक-वित्त विवरण में साधारणतया दिया जाता है तब भारत के सम्पत्ति स्त्रोतों पर अप्रत्याशित मांग की पूर्ति के लिये अनुदान करने की,
(ग) किसी वित्तीय वर्ष की चालू सेवा का जो अनुदान भाग न हो ऐसा कोई अपवादानुदान करने की,

शक्ति होगी तथा उक्त अनुदान जिन प्रयोजनों के लिये किये गये हैं उन के लिये भारत की संचित निधि में से धन निकालना विधि द्वारा प्राधिकृत करने की शक्ति संसद् को होगी। [ ४५ ] 

भाग ५—संघ—अनु॰ ११६—११८

(२) खंड (१) के अधीन किये जाने वाले किसी अनुदान तथा उस खंड के अधीन बनाई जाने वाली किसी विधि के संबंध में अनुच्छेद ११३ और ११४ के उपबन्ध वैसे ही प्रभावी होंगे जैसे कि ये वार्षिक वित्त विवरण में वर्णित किसी व्यय के बारे में किसी अनुदान के करने के तथा भारत की संचित निधि में से ऐसे व्यय की पूर्ति के लिये धनों का विनियोग प्राधिकृत करने के लिये बनाई जाने वाली विधि के संबंध में प्रभावी हैं।

वित्त-विधेयकों के
लिये विशेष
उपबन्ध

११७ (१) अनुच्छेद ११० के खंड (१) के (क) से (च) तक के उपखंडों में उल्लिखित विषयों में से किसी के करने वाला विधेयक या संशोधन लिये विशेष राष्ट्रपति की सिफारिश के बिना पुरःस्थापित या प्रस्तावित न किया जायेगा तथा ऐसे उपबन्ध करने वाला विधेयक राज्य-सभा में पुरःस्थापित न किया जायेगा;

परन्तु किसी कर के घटाने या उत्सादन के लिये उपबन्ध बनाने वाले किसी संशोधन के प्रस्ताव के लिये इस खंड के अधीन किसी सिपारिश की अपेक्षा न होगी।

(२) कोई विधेयक या संशोधन उक्त विषयों में से किसी के लिये उपबन्ध करने वाला केवल इस कारण से न समझा जायेगा कि वह जुर्मानों या अन्य अर्थ-दण्डों के आरोपण का, अथवा अनुज्ञप्तियों के लिये फीसों की, अथवा की हुई सेवाओं के लिये फीसों की, अभियाचना का या देने का उपबन्ध करता है, अथवा इस कारण से कि वह किसी स्थानीय प्राधिकारी या निकाय द्वारा स्थानीय प्रयोजनों के लिये किसी कर के आरोपण, उत्सादन, परिहार, बदलने या विनियमन का उपबन्ध करता है।

(३) जिस विधेयक के अधिनियमित किये जाने और प्रवर्तन में लाये जाने पर भारत की संचित निधि से व्यय करना पड़ेगा वह विधेयक संसद् के किसी सदन द्वारा तब तक पारित न किया जायेगा जब तक कि ऐसे विधेयक पर विचार करने के लिये उस सदन से राष्ट्रपति ने सिफारिश न की हो।

साधारणतया प्रक्रिया

प्रक्रिया के नियम

११८. (१) इस संविधान के उपबन्धों के अधीन रहते हुए संसद् का प्रत्येक सदन अपनी प्रक्रिया के, तथा अपने कार्य संचालन के विनियमन के लिये नियम बना सकेगा।

(२) जब तक खंड (१) के अधीन नियम नहीं बनाये जाते तब तक इस संविधान के प्रारम्भ से ठीक पहिले भारत डोमीनियन के विधान-मंडल के बारे में जो प्रक्रिया के नियम और स्थायी आदेश प्रवृत्त थे वे ऐसे रूपभेदों और अनुकूलनों के साथ, जिन्हें, यथास्थिति, राज्य सभा का सभापति या लोक-सभा का अध्यक्ष करे, संसद् के संबंध में प्रभावी होंगे।

(३) राज्य-सभा के सभापति और लोक-सभा के अध्यक्ष से परामर्श करने के पश्चात् राष्ट्रपति दोनों सदनों की संयुक्त बैठकों सम्बन्धी, तथा उन में परस्पर संचार सम्बन्धी, प्रक्रिया के नियम बना सकेगा।

(४) दोनों सदनों की संयुक्त बैठक में लोक-सभा का अध्यक्ष अथवा उसकी अनुपस्थिति में ऐसा व्यक्ति पीठासीन होगा जिसका खंड (३) के अधीन बनाई गई प्रक्रिया के नियमों के अनुसार निर्धारण हो। [ ४६ ] 

भाग ५—संघ—अनु॰ ११९—१२३

संसद् में वित्तीय
कार्य सम्बन्धी
प्रक्रिया का विधि
द्वारा विनियमन
११९. वित्तीय कार्य को समय के अन्दर समाप्त करने के प्रयोजन से संसद् विधि द्वारा, किसी वित्तीय विषय से, अथवा भारत की संचित निधि में से धन का विनियोग करने वाले किसी विधेयक से सम्बन्धित संसद् के प्रत्येक सदन की प्रक्रिया और कार्य संचालन का विनियमन कर सकेगी, तथा यदि, और जहाँ तक, इस प्रकार बनाई हुई किसी विधि का उपबन्ध अनुच्छेद ११८ के खंड (१) के अधीन संसद् के किसी सदन द्वारा बनाये गये नियम से, अथवा उस अनुच्छेद के खंड (२) के अधीन संसद् के सम्बन्ध में प्रभावी किसी नियम या स्थायी आदेश से, असंगत है तो, ऐसा उपबन्ध अभिभावी होगा।

संसद् में प्रयोग
होने वाली भाषा
१२०. (१) भाग (१७) में किसी बात के होते हुए भी, किन्तु अनुच्छेद ३४८ के उपबन्धों के अधीन रहते हुए संसद् में कार्य हिन्दी में या अंग्रेजी में किया जायेगा :

परन्तु यथास्थिति राज्य सभा का सभापति या लोक सभा का अध्यक्ष अथवा ऐसे रूप में कार्य करने वाला व्यक्ति किसी सदस्य को, जो हिन्दी या अंग्रेजी में अपनी पर्याप्त अभिव्यक्ति नहीं कर सकता, अपनी मातृभाषा में सदन को सम्बोधित करने की अनुज्ञा दे सकेगा।

(२) जब तक संसद् विधि द्वारा अन्यथा उपबन्ध न करे तब तक इस संविधान के प्रारम्भ से पंद्रह वर्ष की कालावधि की समाप्ति के पश्चात् यह अनुच्छेद ऐसे प्रभावी होगा मानो कि "या अंग्रेजी में" ये शब्द उस में से लुप्त कर दिये गये हैं।

संसद् में चर्चा पर
निर्बन्धन
१२१. उच्चतमन्यायालय या उच्चन्यायालय के किसी न्यायाधीश को आगे उपबन्धित रीति से हटाने की प्रार्थना करने वाले समावेदन को राष्ट्रपति के समक्ष रखने के प्रस्ताव पर चर्चा के अतिरिक्त कोई और चर्चा संसद् में ऐसे किसी न्यायाधीश के अपने कर्त्तव्य पालन में किये गये आचरण के विषय में न होगी।

न्यायालय संसद्
की कार्यवाहियों
की जाँच न करेंगे
१२२. (१) प्रक्रिया में किसी कथित अनियमिता के आधार पर संसद् की किसी कार्यवाही की मान्यता पर कोई आपत्ति न की जायेगी।

(२) संसद् का कोई पदाधिकारी या सदस्य, जिस में इस संविधान के द्वारा या अधीन संसद् में प्रक्रिया को, या कार्यसंचालन को विनियमन करने की, अथवा व्यवस्था रखने की, शक्तियाँ निहित हैं, उन शक्तियों के अपने द्वारा किये गये प्रयोग के विषय में किसी न्यायालय के क्षेत्राधिकार के अधीन न होगा।

अध्याय ३.—राष्ट्रपति की विधायिनी शक्तियाँ

संसद् के विश्रान्ति-
काल में राष्ट्रपति
की अध्यादेश
प्रख्यापन-शक्ति
१२३. (१) उस समय को छोड़ कर जब कि संसद् के दोनों सदन सत्त में हैं यदि किसी समय राष्ट्रपति का समाधान हो जाये कि तुरन्त कार्यवाही करने के लिये उसे बाधित करने वाली परिस्थितियाँ वर्तमान हैं तो वह ऐसे अध्यादेशों का प्रख्यापन कर सकेगा जो उसे परिस्थितियों से अपेक्षित प्रतीत हों।

(२) इस अनुच्छेद के अधीन प्रख्यापित अध्यादेश का वही बल और प्रभाव होगा जो संसद् के अधिनियम का होता है, किन्तु प्रत्येक ऐसा अध्यादेश—

(क) संसद् के दोनों सदनों के समक्ष रखा जायेगा, तथा संसद् के पुनः समवेत होने से छः सप्ताह की समाप्ति पर, अथवा, यदि उस कालावधि की समाप्ति से पूर्व दोनों सदन उस के निरनुमोदन के संकल्प पार कर देते हैं तो, इनमें से दूसरे संकल्प के पारण होने पर, प्रवर्तन में न रहेगा; तथा
[ ४७ ] 

भाग ५—संघ—अनु॰ १२३-१२४

(ख) राष्ट्रपति द्वारा किसी समय लौटा लिया जा सकेगा।

व्याख्या—जब संसद् के सदन भिन्न भिन्न तारीखों में पुनः समवेत होने के लिये आहूत किये जाते हैं तो इस खंड के प्रयोजनों के लिये छः सप्ताह की कालावधि की गणना उन तारीखों में से पिछली तारीख से की जायेगी।

(३) यदि, और जिस मात्रा तक, इस अनुच्छेद के अधीन अध्यादेश कोई ऐसा उपबन्ध करता है जिसे अधिनियमित करने के लिये संसद् इस संविधान के अधीन सक्षम नहीं है तो वह शून्य होगा।

अध्याय ४.—संघ को न्यायपालिका

उच्चतमन्यायालय
की स्थापना और
गठन
१२४. (१) भारत का एक उच्चतमन्यायालय होगा जो भारत के मुख्य न्यायाधिपति तथा, जब तक संसद् विधि द्वारा और अधिक संख्या निर्धारण नहीं करती तब तक, अन्य सात से अनधिक न्यायाधीशों से मिल कर बनेगा।

(२) उच्चतमन्यायालय के, तथा राज्यों के उच्चन्यायालयों के, ऐसे न्यायाधीशों से परामर्श करके, जिन से कि इस प्रयोजन के लिये परामर्श करना राष्ट्रपति आवश्यक समझे, राष्ट्रपति अपने हस्ताक्षर और मुद्रा सहित अधिपत्र द्वारा उच्चतमन्यायालय के प्रत्येक न्यायाधीश को नियुक्त करेगा तथा वह न्यायाधीश तब तक पद धारण करेगा जब तक कि वह पैंसठ वर्ष की आयु प्राप्त न कर ले :

परन्तु मुख्य न्यायाधिपति से भिन्न किसी अन्य न्यायाधीश की नियुक्ति के विषय में भारत के मुख्य न्यायाधिपति से सर्वदा परामर्श किया जायेगा :

परन्तु यह और भी कि—

(क) कोई न्यायाधीश राष्ट्रपति को सम्बोधित अपने हस्ताक्षर सहित लेख द्वारा अपने पद को त्याग सकेगा;
(ख) खंड (४) में उपबन्धित रीति से कोई न्यायाधीश अपने पद से हटाया जा सकेगा।

(३) उच्चतमन्यायालय के न्यायधीश के रूप में नियुक्ति के लिये कोई व्यक्ति तब तक अर्ह न होगा जब तक कि वह भारत का नागरिक न हो तथा—

(क) किसी उच्चन्यायालय का अथवा ऐसे दो या अधिक न्यायालयों का लगातार कम से कम पाँच वर्ष तक न्यायाधीश न रह चुका हो; अथवा
(ख) किसी उच्चन्यायालय का, अथवा दो या अधिक न्यायालयों का लगातार कम से कम दस वर्ष तक अधिवक्ता न रह चुका हो; अथवा
(ग) राष्ट्रपति की राय में पारंगत विधिवेत्ता न हो।

व्याख्या १—इस खंड में "उच्चन्यायालय" से वह उच्चन्यायालय अभिप्रेत है वो भारत राज्य-क्षेत्र के किसी भाग में क्षेत्राधिकार का प्रयोग करता है अथवा इस संविधान के प्रारम्भ से पहिले किसी समय भी, प्रयोग करता था। [ ४८ ] 

भाग ५—संघ—अनु॰ १२४–१२७

व्याख्या २.—इस खंड के प्रयोजन के लिये किसी व्यक्ति के अधिवक्ता रहने की कालावधि की संगणना में वह कालावधि भी अन्तर्गत होगी जिस में कि उस व्यक्ति अधिवक्ता होने के पश्चात् ऐसे न्यायिक पद को, जो जिला-न्यायाधीश के पद से छोटा नहीं है, धारण किया हो।

(४) उच्चतमन्यायालय का कोई न्यायाधीश अपने पद से तब तक हटाया न जायेगा जब तक कि सिद्ध कदाचार अथवा असमर्थता के लिये ऐसे हटाये जाने के हेतु प्रत्येक सदन की समस्त सदस्य संख्या के बहुमत द्वारा, तथा उपस्थित और मतदान करने वाले सदस्यों में से कम से कम दो तिहाई के बहुमत द्वारा समर्थित समावेदन के राष्ट्रपति के समक्ष संसद् के प्रत्येक सदन द्वारा उसी सत्त में रखे जाने पर राष्ट्रपति ने प्रदेश न दिया हो।

(५) खंड (४) के अधीन किसी समावेदन के रखे जाने की, तथा न्यायाधीश कदाचार या असमर्थता के अनुसंधान तथा सिद्ध करने की प्रक्रिया का संसद् विधि द्वारा विनियमन कर सकेगी।

(६) उच्चतमन्यायालय के न्यायाधीश होने के लिये नियुक्त प्रत्येक व्यक्ति अपने पद ग्रहण करने से पूर्व, राष्ट्रपति के अथवा उस के द्वारा उस लिये नियुक्त किसी व्यक्ति के समक्ष तृतीय अनुसूची में इस प्रयोजन के लिये दिये हुए प्रपत्र के अनुसार शपथ या प्रतिज्ञान करेगा और उस पर हस्ताक्षर करेगा।

(७) कोई व्यक्ति, जो उच्चतम न्यायालय के न्यायाधीश के रूप में पद धारण कर चुका है, भारत राज्य-क्षेत्र के भीतर किसी न्यायालय अथवा किसी प्राधिकारी के समक्ष वकालत या कार्य न करेगा।

न्यायाधीशों के वेतन
आदि

१२५. (१) उच्चतम न्यायालय के न्यायाधीशों को ऐसे वेतन दिये जायेंगे जैसे कि द्वितीय अनुसूची में उल्लिखित हैं।

(२) प्रत्येक न्यायाधीश को ऐसे विशेषाधिकारों और भत्तों का, तथा अनुपस्थिति छुट्टी और निवृत्ति वेतन के बारे में ऐसे अधिकारों का, जैसे कि संसद्-निर्मित विधि के द्वारा या अधीन समय समय पर निर्धारित किये जायें, तथा जब तक इस प्रकार निर्धारित न हों, तब तक ऐसे विशेषा-धिकारों, भत्तों, और अधिकारों का, जैसे कि द्वितीय अनुसूची में उल्लिखित हैं, हक्क होगा

परन्तु किसी न्यायाधीश के न तो विशेषाधिकारों में और न भत्तों में और न अनुपस्थिति छुट्टी या निवृत्ति वेतन विषयक उसके अधिकारों में उसकी नियुक्ति के पश्चात् उसको अलाभकारी कोई परिवर्तन किया जायेगा।

कार्यकारी मुख्य
न्यायाधिपति की
नियुक्ति

१२६. जब भारत के मुख्य न्यायाधिपति का पद रिक्त हो अथवा जब मुख्य न्यायाधिपति, अनुपस्थिति या अन्य कारण से, अपने पद के कर्तव्यों का पालन करने असमर्थ हो तब न्यायालय के अन्य न्यायाधीशों में से ऐसा एक, जिसे राष्ट्रपति उस प्रयोजन के लिये नियुक्त करे, उस पद के कर्तव्यों का पालन करेगा।

तदर्थ न्यायाधीशों
की नियुक्ति

१२७. (१) यदि किसी समय उच्चतमन्यायालय के सत्त को करने या चालू रखने के लिये उस न्यायालय के न्यायाधीशों की गणपूर्ति प्राप्य न हो तो राष्ट्रपति की की नियुक्ति पूर्व सम्मति से तथा सम्बद्ध उच्चन्यायालय के मुख्य न्यायाधिपति से परामर्श करके भारत का मुख्य न्यायाधिपति किसी उच्चन्यायालय के किसी ऐसे न्यायाधीश से, जो उच्चतम न्यायालय के न्यायाधीश नियुक्त होने के लिये यथारीति अर्ह है तथा जिसे भारत का मुख्य न्यायाधिपति नामोद्दिष्ट करे, न्यायालय की ठकों में इतनी कालावधि के लिये, जितनी आवश्यक हो, तदर्थन्यायाधीश के रूप में उपस्थित रहने के लिये लेख द्वारा प्रार्थना कर सकेगा। [ ४९ ] 

भाग ५—संघ—अनु॰ १२७—१३१

(२) इस प्रकार नामोद्दिष्ट न्यायाधीश का कर्तव्य होगा कि अपने पद के अन्य कर्तव्यों पर पूर्ववर्तिता देकर उच्चतमन्यायालय की बैठकों में, उस समय, तथा उस कालावधि के लिये, जिसके लिये उस की उपस्थिति अपेक्षित है, उपस्थित हो, तथा जब वह इस प्रकार उपस्थित हो तब उस को उच्चतमन्यायालय के न्यायाधीश के सब क्षेत्राधिकार, शक्तियाँ और विशेषाधिकार प्राप्त होंगे तथा वह उक्त न्यायाधीश के कर्तव्यों का निर्वहन करेगा।

सेवानिवृत्त न्याया-
धीशों की उच्च-
तमन्यायालयों
की बैठकों में उपस्थिति

१२८. (१) इस अध्याय में किसी बात के होते हुए भी, भारत का मुख्य न्यायाधिपति किसी समय भी राष्ट्रपति की पूर्व सम्मति से किसी व्यक्ति से, जो उच्चतम न्यायालय के या फेडरलन्यायालय के न्यायाधीश का पद धारण कर चुका है, उच्चतमन्यायालय में न्यायाधीश के रूप में बैठने और कार्य करने की कर सकेगा, तथा इस प्रकार प्रार्थित प्रत्येक ऐसे व्यक्ति को, इस प्रकार बैठने और कार्य करने के काल में, ऐसे भत्तों का, जैसे कि राष्ट्रपति आदेश द्वारा निर्धारित करे, तथा उस न्यायालय के न्यायाधीश के सब क्षेत्राधिकार, शक्तियों और विशेषाधिकारों का, हक्क होगा किन्तु वह अन्यथा उस न्यायालय का न्यायाधीश न समझा जायेगा :

परन्तु जब तक पूर्वोक्त कोई व्यक्ति उस न्यायालय के न्यायाधीश के रूप में बैठने और कार्य करने की सम्मति न दे तब तक इस अनुच्छेद की कोई बात उससे ऐसा करने की अपेक्षा करने वाली न समझी जायेगी।

उच्चतम न्यायालय
अभिलेख न्याया-
लय होगा

१२९. उच्चतमन्यायालय अभिलेख न्यायालय होगा तथा उसे अपने अवमान के लिये दंड देने की शक्ति के सहित ऐसे न्यायालय की सब शक्तियाँ होंगी।

उच्चतमन्यायालय
का स्थान

१३०. उच्चतम न्यायालय दिल्ली में अथवा ऐसे अन्य स्थान या स्थानों में, जिन्हें भारत का मुख्य न्यायाधिपति राष्ट्रपति के अनुमोदन से समय समय पर नियुक्त करे, बैठेगा।

उच्चतमन्यायालय
का प्रारम्भिक
क्षेत्राधिकार

१३१. इस संविधान के उपबन्धों के अधीन रहते हुए—

(क) भारत सरकार तथा एक या अधिक राज्यों के बीच के, अथवा
(ख) एक ओर भारत सरकार और कोई राज्य या राज्यों तथा दूसरी ओर एक या अधिक अन्य राज्यों के बीच के, अथवा
(ग) दो या अधिक राज्यों के बीच के,

किसी विवाद में, यदि और जहाँ तक उस विवाद में ऐसा कोई प्रश्न अन्तर्ग्रस्त है (चाहे तो विधि का चाहे तथ्य का) जिस पर किमी वैध अधिकार का अस्तित्व या विस्तार निर्भर है तो और वहाँ तक, अन्य न्यायालयों का अपवर्जन कर के उच्चतमन्यायालय का आरम्भिक क्षेत्राधिकार होगा :

[२०][परन्तु उक्त क्षेत्राधिकार का विस्तार उस विवाद पर न होगा जो किसी ऐसी संधि, करार, प्रसंविदा, वचनबंध, सनद या अन्य तत्सम लिखत से, जो इस संविधान के प्रारम्भ से पहिले की गयी या निष्पादित थी तथा ऐसे प्रारम्भ के पश्चात्प्र वर्तन में है, या जो उपबन्ध करती है कि वैसे क्षेत्रा-धिकार का विस्तार ऐसे विवाद न होगा, पैदा हुआ है।] [ ५० ] 

भाग ५—संघ—अनु॰ १३२–१३३

किन्हीं मामलों में
उच्चन्यायालयों
से अपील में
उच्चतमन्यायालय
का अपीलीय
क्षेत्राधिकार

१३२. (१) भारत राज्य क्षेत्र में के किसी उच्चन्यायालय के, चाहे तो व्यवहार विषयक चाहे दाण्डिक चाहे अन्य कार्यवाही में दिये निर्णय, आज्ञप्ति या अन्तिम आदेश की अपील उच्चतमन्यायालय में हो सकेगी यदि वह उच्च न्यायालय प्रमाणित कर दे कि उस मामले में इस संविधान के निर्वचन का कोई सारवान विधि प्रश्न अन्तर्ग्रस्त है।

(२) जहाँ कि उच्चन्यायालय ने ऐसा प्रमाण-पत्र देना अस्वीकार कर दिया हो वहाँ, यदि उच्चतमन्यायालय का समाधान हो जाये कि उस मामले में इस संविधान के निर्वाचन का सारवान विधि प्रश्न अन्तर्ग्रस्त है तो, वह ऐसे निर्णय, आज्ञप्ति या अन्तिम आदेश की अपील के लिये विशेष इजाजत दे सकेगा।

(३) जहाँ ऐसा प्रमाण पत्र अथवा ऐसी इजाजत दे दी गई हो वहाँ मामले में कोई पक्ष ऐसे किसी पूर्वोक्त प्रश्न के अशुद्ध निर्णय हो जाने के आधार पर, तथा उच्चतमन्यायालय की इजाजत से अन्य किसी आधार पर, उच्च-तमन्यायालय में अपील कर सकेगा।

व्याख्या.—इस अनुच्छेद के प्रयोजनार्थ "अन्तिम आदेश" पदावलि के अन्तर्गत ऐसे वाद-पद का विनिश्चयात्मक आदेश भी है जो, यदि अपीलार्थी के पक्ष में विनिश्चित हो तो, उस मामले के अन्तिम निबटारे के लिये पर्याप्त होगा।

उच्चन्यायालयों से
व्यवहार विषयों
के बारे की
अपीलों में उच्च-
तमन्यायालय का
अपीलीय क्षेत्राधिकार

१३३. (१) भारत राज्य क्षेत्र में के उच्चन्यायालय की व्यवहार कार्यवाही में के किसी निर्णय, आज्ञप्ति या अन्तिम आदेश की अपील उच्च तमन्यायालय में होगी यदि उच्चन्यायालय प्रमाणित करे—

(क) कि विवाद-विषय की राशि या मूल्य प्रथम बार के न्यायालय में बीस हजार रुपये से या ऐसी अन्य राशि से, जो इस बारे में संसद् से विधि द्वारा उल्लिखित की जाये, कम न थी और अपीलगत विवाद में भी उससे कम नहीं है; अथवा
(ख) कि निर्णय, आज्ञप्ति या अन्तिम आदेश में उतनी राशि या मूल्य की सम्पत्ति से सम्बद्ध कोई दावा या प्रश्न प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप में अन्तर्ग्रस्त है; अथवा
(ग) कि मामला उच्चतमन्यायालय में अपील के लायक है;

तथा जहाँ कि अपीलकृत निर्णय, आज्ञप्ति या अन्तिम प्रदेश उपखंड (ग) में निर्दिष्ट मामले से भिन्न किसी मामले में विनान्तर नीचे के न्यायालय के विनिश्चय की पुष्टि करता है वहां यदि उच्चन्यायालय यह भी प्रमाणित करे कि अपील में कोई सारवान्वि विधि-प्रश्न अन्तर्ग्रस्त है।

(२) अनुच्छेद १३२ में किसी बात के होते हुए भी खंड (१) के अधीन उच्चतमन्यायालय में अपील करने वाला कोई पक्ष ऐसी अपील के कारणों में यह कारण भी बता सकेगा कि इस संविधान के निर्वचन के सारवान विधि प्रश्न का अशुद्ध विनिश्चय किया गया है।

(३) इस अनुच्छेद में किसी बात के होते हुए भी उच्चन्यायालय के एक न्यायाधीश के निर्णय, आज्ञप्ति या अन्तिम आदेश की अपील उच्चतम न्यापालय में न होगी जब तक कि संसद् विधि द्वारा अन्यथा उपबन्धित न करे। [ ५१ ] 

भाग ५—संघ—अनु॰ १३४–१३६

दंड विषयों सम्बन्धी
उच्चतमन्यायालय
का अपीलीय
क्षेत्राधिकार

[२१]१३४. (१) भारत राज्य क्षेत्र में के किसी उच्चन्यायालय के किसी दंड-कार्यवाही में दिये हुए निर्णय, अन्तिम प्रदेश या दंडादेश की उच्चतमन्यायालय में अपील होगी यदि—

(क) उस उच्चन्यायालय ने अपील में किसी अभियुक्त व्यक्ति की विमुक्ति के आदेश को उलट दिया है तथा उसको मृत्यु-दंडादेश दिया है; अथवा
(ख) उस उच्चन्यायालय ने अपने अधीन न्यायालय से किसी मामले को परीक्षण करने के हेतु अपने पास मंगा लिया है तथा ऐसे परीक्षण में अभियुक्त व्यक्ति को सिद्ध-दोष ठहराया है और मृत्यु दंडादेश दिया है; अथवा
(ग) उच्चन्यायालय प्रमाणित करता है कि मामला उच्चतमन्यायालय में अपील किये जाने लायक है :

परन्तु उपखंड (ग) के अधीन होने वाली अपील ऐसे उपबन्धों के अधीन रह कर, जो अनुच्छेद १४५ के खंड (१) के अधीन उस लिये बनाये जायें तथा ऐसी शर्तों के अधीन रहकर जो उच्चन्यायालय द्वारा स्थापित या अपेक्षित की जायें, ही होगी।

(२) संसद् विधि द्वारा ऐसी शर्तों और परिसीमाओं के अधीन, जो ऐसी विधि में उल्लिखित की जायें, उच्चतमन्यायालय को भारत राज्य क्षेत्र में के किसी उच्चन्यायालय के दंडकार्यवाही में दिये गये किसी निर्णय अन्तिम आदेश अथवा दंडादेश की अपील लेने और सुनने की और भी शक्ति दे सकेगी।

वर्तमान विधि के
अधीन फेडरल-
न्यायालय का
क्षेत्राधिकार और
शक्तियों का
उच्चतमन्यायालय
द्वारा प्रयोक्तव्य
होना

[२२]१३५. जब तक संसद् विधि द्वारा अन्यथा उपबन्ध न करे तब तक उच्चतम न्यायालय को भी किसी विषय के बारे में, जिस पर अनुच्छेद १३३ या अनुच्छेद १३४के उपबन्ध लागू नहीं होते, क्षेत्राधिकार और शक्तियाँ होंगी यदि उस विषय सम्बन्ध में इस संविधान के प्रारम्भ से ठीक पहिले किमी वर्तमान विधि के अधीन क्षेत्राधिकार और शक्तियाँ फेडरलन्यायालय द्वारा प्रयोक्तव्य थीं।

 

अपील के लिये
उच्चतमन्यायालय
की विशेष इजाजत
[२३]१३६. (१) इस अध्याय में किसी बात के होते भी उच्चतमन्यायालय स्वविवेक से भारत राज्य क्षेत्र में के किसी न्यायालय या न्यायाधिकरण द्वारा किमी वाद या विषय में दिये हुए किसी निर्णय, आज्ञप्ति, निर्धारण, दंडादेश या प्रदेश की अपील के लिये विशेष इजाजत दे सकेगा।

(२) सशस्त्र बलों से सम्बद्ध किसी विधि के द्वारा या अधीन गठित किमी न्यायालय या न्यायाधिकरण द्वारा पारित या दत्त किमी निर्णय, निर्धारण, दंडादेश या आदेश को खंड (१) की कोई बात लागू न होगी। [ ५२ ] 

भाग ५—संघ —अनु॰ १३७–१४२

निर्णयों या आदेशों
पर उच्चतमन्या-
यालय द्वारा पुन
र्विलोकन
१३७. संसद् द्वारा बनाई गई किसी विधि के उपबन्धों के, अथवा अनुच्छेद १४५ के अधीन बनाये गये किसी नियम के अधीन रहते हुए उच्चतमन्यायालय को अपने द्वारा सुनाये गये निर्णय या दिये गये आदेश पर पुनर्विलोकन करने का अधिकार होगा।

 

उच्चतमन्यायालय
के क्षेत्राधिकार
की वृद्धि
१३८. (१) संघ-सूची के विषयों में से किसी के बारे में उच्चतमन्यायालय को ऐसे और क्षेत्राधिकार और शक्तियाँ होंगी जिसे संसद् विधि द्वारा प्रदान करे।

(२) यदि संसद् न्यायालय के लिये ऐसे क्षेत्राधिकार और शक्तियों के प्रयोग का विधि द्वारा उपबन्ध करे तो किसी विषय के बारे में उच्चतम-न्यायालय को ऐसे और क्षेत्राधिकार तथा शक्तियां होंगी जिन्हें भारत सरकार और किसी राज्य की सरकार विशेष करार द्वारा प्रदान करे।

 

कुछ लेखों के
निकालने की
शक्ति का उच्च-
तमन्यायालय को
प्रदान
[२४]१३९. अनुच्छेद ३२ के खंड (२) में वर्णित प्रयोजनों से भिन्न किन्हीं प्रयोजनों के लिये ऐसे निदेश, आदेश या लेख जिनके अन्तर्गत बन्दीप्रत्यक्षीकरण, परमादेश, प्रतिषेध, अधिकार-पृच्छा और उत्प्रेषण के प्रकार के लेख भी हैं, अथवा इन में से किसी को, निकालने की शक्ति संसद् विधि द्वारा उच्चतमन्यायालय को प्रदान कर सकेगी।

 

उच्चतमन्यायालय
की सहायक शक्तियाँ
१४०. ऐसी अनुपूरक शक्तियों को, जो इस संविधान के उपबन्धों में से किसी से असंगत न हों, संसद् विधि द्वारा उच्चतमन्यायालय को प्रदान करने के लिये उपबन्ध कर सकेगी, जैसी कि उस न्यायालय को इस संविधान के द्वारा या अधीन प्रदत्त क्षेत्राधिकार के अधिक कार्य-साधक रूप से प्रयोग करने के योग्य बनाने के लिये आवश्यक या वांछनीय प्रतीत हों।

 

उच्चतमन्यायालय
द्वार घोषित
विधि सब न्याया-
लयों को बन्धन-
कारी होगी
१४१. उच्चतमन्यायालय द्वारा घोषित विधि भारत राज्य क्षेत्र के भीतर सब न्यायालयों को बन्धनकारी होगी।

 

उच्चतमन्यायालय
की आज्ञाप्तियों
और आदेशों का,
प्रवृत्त कराना तथा
प्रकटन आदि के
आदेश
१४२. (१) अपने क्षेत्राधिकार के प्रयोग में उच्चतमन्यायालय ऐसी आज्ञप्ति या ऐसा आदेश दे सकेगा जैसा कि उसके समक्ष लम्बित किसी वाद या विषय में पूर्ण न्याय करने के लिये आवश्यक हो तथा इस प्रकार दी हुई आज्ञप्ति या आदेश भारत राज्य क्षेत्र में सर्वत्र ऐसी रीति से, जैसी कि संसद् किसी विधि के द्वारा या अधीन विहित करे, तथा, जब तक उस लिये उपबन्ध नहीं किया जाता तब तक, ऐसी रीति से, जसी कि राष्ट्रपति[२५] आदेश द्वारा विहित करे, प्रवर्तनीय होगा।

(२) संसद् द्वारा इस बारे में बनाई हुई किसी विधि के उपबन्धों के अधीन रहते हुए उच्चतम न्यायालय को भारत के समस्त राज्य क्षेत्र के बारे में किसी व्यक्ति को हाजिर कराने के, किन्हीं दस्तावेजों को प्रकट या पेश कराने के, अथवा अपने किसी अवमान का अनुसंधान कराने या दंड देने के प्रयोजन के लिये कोई आदेश देने की समस्त और प्रत्येक शक्ति होगी। [ ५३ ] 

भाग ५—संघ—अनु॰ १४३–१४५

उच्चतमन्यायालय
से परामर्श करने
की राष्ट्रपति की
शक्ति
१४३. (१) यदि किसी समय राष्ट्रपति को प्रतीत हो कि विधि या तथ्य का कोई ऐसा प्रश्न उत्पन्न हुआ है, अथवा उसके उत्पन्न होने की सम्भावना है, जो इस प्रकार का और ऐसे सार्वजनिक महत्त्व का है कि उस पर उच्चतमन्यायालय की राय प्राप्त करना इष्टकर है, तो वह उस प्रश्न को उस न्यायालय को विचारार्थ सौंप सकेगा तथा वह न्यायालय ऐसी सुनवाई के पश्चात्, जैसी कि वह उचित समझे, राष्ट्रपति को उस पर अपनी राय प्रतिवेदित कर सकेगा।

(२) राष्ट्रपति, अनुच्छेद १३१ के परन्तुक [२६]* * * में किसी बात के होते हुए भी उक्त परन्तुक[२७] में वर्णित प्रकार के विवाद को उच्चतम न्यायालय को राय देने के लिये सौंप सकेगा तथ उच्चतम न्यायालय ऐसी सुनवाई के पश्चात्, जमी कि वह उचित समझे, राष्ट्रपति को उस पर अपनी राय प्रतिवेदित करेगा।

असैनिक तथा न्या-
यिक प्राधिकारी
उच्चतमन्यायालय
की सहायता में
कार्य करेंगे

१४४. भारत राज्य क्षेत्र के सभी असेनिक और न्यायिक प्राधिकारी उच्चतमन्यायालय की सहायता में कार्य करेंगे।

 

न्यायालय के नियम
आदि
१४५. (१) संसद् द्वारा बनाई हुई किसी विधि के उपबन्धों के अधीन रहते हुए उच्चतमन्यायालय, समय समय पर, राष्ट्रपति के अनुमोदन से न्यायालय की कार्यप्रणाली और प्रक्रिया के साधारण विनियमन के लिये नियम बना सकेगा तथा जिनके अन्तर्गत—

(क) उस न्यायालय में वृत्ति करने वाले व्यक्तियों के बारे में नियम,
(ख) अपीलें सुनने के लिये प्रक्रिया के बारे में तथा अपीलों सम्बन्धी अन्य विषयों के, जिनके अन्तर्गत वह समय भी है जिसके भीतर अपीलें न्यायालय में दाखिल की जानी हैं, बारे में नियम,
(ग) भाग ३ द्वारा दिये गये अधिकारों में से किसी की पूर्ति कराने के लिये उस न्यायालय में कार्यवाहियों के बारे में नियम,
(घ) अनुच्छेद १३४ के खंड (१) के उपखंड (ग) के अधीन अपीलों के लिये जाने के बारे में नियम,
(ङ) उस न्यायालय द्वारा सुनाया गया कोई निर्णय अथवा दिया गया आदेश जिन शर्तों के अधीन रह कर पुनर्विलोकित किया जा सकेगा उनके बारे में, तथा ऐसे पुनर्विलोकन के लिये प्रक्रिया के बारे में, जिसके अन्तर्गत वह समय भी है जिसके भीतर ऐसे पुनर्विलोकन के लिये आवेदन पत्र न्यायालय में दाखिल किये जाने हैं, नियम,
(च) उस न्यायालय में किन्हीं ख़र्च के बारे में, तथा उसमें कार्यवाहियों में के और तत्प्रासंगिक ख़र्च के बारे में, तथा उसमें-कार्यवाहियों के विषय में ली जाने वाली फीसों के बारे में, नियम,
[ ५४ ] 

भाग ५—संघ—अनु॰ १४५-१४६

(छ) जामिन की मंजूरी के बारे में नियम,
(ज) कार्यवाहियों के रोकने के बारे में नियम,
(झ) ऐसी अपील जो उस न्यायालय को तुच्छ या तंग करने वाली अथवा विलम्ब करने के प्रयोजन से की हुई प्रतीत होती है उसके संक्षेपतः निर्धारण के लिये उपबन्ध करने वाले नियम,
(ञ) अनुच्छेद ३१७ के खंड (१) में निर्दिष्ट जाँचों के लिये प्रक्रिया के बारे में नियम, भी हैं।

(२) खंड (३) के उपबन्धों के अधीन रहते हुए इस अनुच्छेद के अधीन बने नियम, उन न्यायाधीशों की न्यूनतम संख्या नियत कर सकेंगे जो किसी प्रयोजन के लिये बैठेंगे तथा, अकेले न्यायाधीशों और खंड-न्यायालयों की शक्ति के लिये उपबन्ध कर सकेंगे।

(३) इस संविधान के निर्वचन का कोई सारवान् विधि प्रश्न जिस मामले में अन्तर्ग्रस्त है उसका विनिश्चय करने के प्रयोजन के लिये, अथवा इस संविधान के अनुच्छेद १४३ के अधीन सौंपे गये प्रश्न सुनने के प्रयोजन के लिये बैठने वाले न्यायाधीशों की न्यूनतम संख्या पाँच होगी :

परन्तु जहाँ इस अध्याय में के अनुच्छेद १३२ से भिन्न उपबन्धों के अधीन अपील सुनने वाला न्यायालय पाँच न्यायधीशों से कम से मिल कर बना है तथा अपील सुनने के दौरान में उस न्यायालय का समाधान हो जाता है कि अपील में संविधान के निर्वाचन का ऐसा सारवान विधि-प्रश्न अन्तर्ग्रस्त है जिसका निर्धारण अपील के निबटारे के लिये आवश्यक है, वहाँ वह न्यायालय ऐसे प्रश्न को उस न्यायालय को, जो ऐसे प्रश्न को अन्तर्ग्रस्त रखने वाले किसी मामले के विनिश्चय के लिये इस खंड द्वारा अपेक्षित रूप में गठित किया जाये, उसकी राय के लिये सौंपेगा तथा राय की प्राप्ति पर उस अपील को वैसी राय के अनुसार निबटायेगा।

(४) उच्चतम न्यायालय कोई निर्णय खुले न्यायालय में के सिवाय नहीं सुनायेगा तथा अनुच्छेद १४३ के अधीन कोई प्रतिवेदन खुले न्यायालय में ही सुनाई गई राय से अन्यथा न दिया जायेगा;

(५) कोई निर्णय और ऐसी कोई राय उच्चतम न्यायालय द्वारा मामले की सुनवाई में उपस्थित न्यायाधीशों में के बहुसंख्यक की सहमति से अन्यथा, न दी जायेगी किन्तु इस खंड की कोई बात सहमत न होने वाले किसी न्यायाधीश को अपने विमत-निर्णय या राय देने से न रोकेगी।

उच्चतमन्य
के पदाधिकारी
और सेवक तथा
व्यय
१४६. (१) उच्चतमन्यायालय के पदाधिकारियों और सेवकों की नियुक्तियाँ भारत का मुख्य न्यायाधिपति अथवा उसके द्वारा निर्देशित उस न्यायालय का अन्य न्यायाधीश या पदाधिकारी करेगा :

 

परन्तु राष्ट्रपति नियम द्वारा यह अपेक्षा कर सकेगा कि ऐसी किन्हीं अवस्थाओं में, जैसी कि नियम में उल्लिखित हों, किसी ऐसे व्यक्ति को, जो पहिले ही न्यायालय में लगा हुआ नहीं है, न्यायालय से संसक्त किसी पद पर, संघ लोक सेवा प्रयोग से परामर्श किये बिना, नियुक्त न किया जायेगा। [ ५५ ] 

भाग ५—संघ—अनु॰ १४६–१४८

(२) संसद् द्वारा निर्मित विधि के उपबन्धों के अधीन रहते हुए उच्चतम- न्यायालय के पदाधिकारियों और सेवकों की सेवा की शत ऐसी होंगी जैसी कि भारत का मुख्य न्यायाधिपति अथवा उस न्यायालय का ऐसा अन्य न्यायाधीश या पदाधिकारी, जिसे भारत के मुख्य न्यायाधिपति ने उस प्रयोजन के लिये नियम बनाने को प्राधिकृत किया है, नियमों द्वारा विहित करे :

परन्तु इस खंड के अधीन बनाये गये नियमों के लिये जहां तक कि वे वेतनो, भत्तों, छुट्टी या निवृत्तिवेतनों से सम्बद्ध हैं, राष्ट्रपति के अनुमोदन की अपेक्षा होगी।

(३) उच्चतमन्यायालय के प्रशासन-व्यय, जिनके अन्तर्गत उस न्यायालय के पदाधिकारियों और सेवकों को, या के बारे में, दिये जाने वाले सब वेतन, भत्ते और निवृत्ति वेतन भी हैं, भारत की संचित निधि पर भारित होंगे तथा उस न्यायालय द्वारा ली गई फीसें और अन्य धन उस निधि का भाग होंगी। निर्वाचन १४७. इस अध्याय में तथा भाग ६ के अध्याय ५ में इस संविधान के निर्वाचन के सारवान् विधि-प्रश्न के बारे में जो निर्देश हैं उनका अर्थ ऐसा किया जायेगा कि मानो उनके अन्तर्गत भारत-शासन अधिनियम, १९३५ के (जिसके अन्तर्गत उस अधिनियम को संशोधित या अनुपूरित करने वाली कोई अधिनियमिति भी है) अथवा उसके अधीन बनाये गये किसी परिषदादेश या आदेश के अथवा भारतीय स्वतन्त्रता अधिनियम, १९४७ के अथवा उसके अधीन बनाये गये किसी आदेश के निर्वचन के सारवान् विधि प्रश्न के निर्देश भी हैं।

अध्याय ५ भारत का नियंत्रक-महालेखापरीक्षक

भारत का नियंत्रक
महालेखापरीक्षक
१४८. (१) भारत का एक नियंत्रक-महालेखापरीक्षक होगा जिस को राष्ट्रपति अपने हस्ताक्षर और मुद्रा सहित अधिपत्र द्वारा नियुक्त करेगा तथा वह अपने पद से केवल उसी रीति और उन्हीं कारणों से हटाया जायेगा जिस रीति और जिन कारणों से उच्चतमन्यायालय का न्यायाधीश हटाया जाता है।

(२) प्रत्येक व्यक्ति, जो भारत का नियंत्रक-महालेखापरीक्षक नियुक्त किया जाता है, अपने पद ग्रहण से पूर्व राष्ट्रपति अथवा उसके द्वारा उस लिये नियुक्त व्यक्ति के समक्ष तृतीय अनुसूची में इस प्रयोजन के लिये दिये हुये प्रपत्र के अनुसार शपथ या प्रतिज्ञान करेगा और उस पर हस्ताक्षर करेगा।

(३) नियंत्रक-महालेखापरीक्षक के वेतन तथा सेवा की शर्तें ऐसी होंगी जैसी कि संसद् विधि द्वारा निर्धारित करे तथा जब तक संसद् इस प्रकार निर्धारित न करे तब तक ऐसी होंगी जैसी कि द्वितीय अनुसूची में उल्लिखित हैं :

परन्तु न तो नियंत्रक-महालेखापरीक्षक के वेतन में और न उस की अनुपस्थिति-छुट्टी, निवृत्ति-वेतन या निवृत्ति-वयस् सम्बन्धी अधिकारों में उसकी नियुक्ति के पश्चात् उस को अलाभकारी कोई परिवर्तन किया जायेगा।

(४) अपने पद पर न रह जाने के पश्चात् नियंत्रक महालेखापरीक्षक भारत सरकार के अथवा किसी राज्य की सरकार के अधीन और पद का पात्र न होगा। [ ५६ ] 

भाग ५—संघ—अनु॰ १४९–१५१

(५) इस संविधान के तथा संसद्-निर्मित किसी विधि के उपबन्धों के अधीन रहते हुए भारतीय लेखापरीक्षा और लेखा विभाग में सेवा करने वाले व्यक्तियों की सेवा शर्ते तथा नियंत्रक-महालेखापरीक्षक की प्रशासनीय शक्तियाँ ऐसी होंगी जैसी कि नियंत्रक-महालेखापरीक्षक से परामर्श करने के पश्चात् राष्ट्रपति नियमों द्वारा विहित करे।

(६) नियंत्रक-महालेखापरीक्षक के कार्यालय के प्रशासन-व्यय, जिनके अन्तर्गत उस कार्यालय में सेवा करने वाले व्यक्तियों को, या के बारे में, देय सब वेतन, भत्ते और निवृत्ति वेतन भी हैं, भारत की संचित निधि पर भारित होंगे।

नियंत्रक महालेखा-
परीक्षक के कर्तव्य
और शक्तियां

[२८]१४९. नियंत्रक-महालेखापरीक्षक संघ के और राज्यों के तथा अन्य प्राधिकारी या निकाय के, लेखाओं के सम्बन्ध में ऐसे कर्त्तव्यों का पालन और ऐसी शक्तियों का प्रयोग करेगा जैसे कि संसद्-निर्मित विधि के द्वारा या अधीन विहित किये जायें तथा, जब तक उस बारे में इस प्रकार उपबन्ध नहीं किया जाता तब तक, संघ के और राज्यों के लेखाओं के सम्बन्ध में ऐसे कर्तव्यों का पालन और ऐसी शक्तियों का प्रयोग करेगा जैसी कि इस संविधान के प्रारम्भ से ठीक पहले क्रमशः भारत डोमिनियन के और प्रान्तों के लेखाओं के सम्बन्ध में भारत के महालेखापरीक्षक को प्रदत्त थीं या के द्वारा प्रयोक्तव्य थीं।

लेखाओ के विषय
में निर्देश देने
की नियंत्रक-महा
लेखा परीक्षक की
शक्ति

[२९]१५०. संघ के और राज्यों के लेखाओं को ऐसे रूप में रखा जायेगा जैसा कि लेखाओं के विषय भारत का नियंत्रक-महालेखापरीक्षक, राष्ट्रपति के अनुमोदन से, विहित करे

 

लेखा परीक्षा प्रति-
वेदन
१५१. (१) भारत के नियंत्रक-महालेखापरीक्षक के संघलेखा सम्बन्धी प्रतिवेदनों को राष्ट्रपति के समक्ष उपस्थित किया जायेगा जो उन को संसद् के प्रत्येक सदन के समक्ष रखवायेगा।

[३०](२) भारत के नियंत्रक-महालेखापरीक्षक के राज्य के लेखा सम्बन्धी प्रतिवेदनों को राज्यपाल [३१]* * * के समक्ष उपस्थित किया जायेगा जो उनको उस राज्य के विधान-मंडल के समक्ष रखवायेगा।

  1. जम्मू और कश्मीर राज्य को लागू होने में अनुच्छेद ५४ और ५५ में लोक सभा के निर्वाचित सदस्यों के प्रति और प्रत्येक ऐसे सदस्य के प्रति निर्देशों के अन्तर्गत उस सदन में जम्मू और कश्मीर राज्य के प्रतिनिधियों के प्रति निर्देश होंगे; और राज्य की जनसंख्या चवालीस लाख दस हज़ार समझी जायेगी।
  2. "या राजप्रमुख या उपराजप्रमुख" शब्द संविधान (सप्तम संशोधन) अधिनियम, १९५६, धारा २९ और अनुसूची द्वारा लुप्त कर दिये गये।
  3. "या राजप्रमुख या उपराजप्रमुख" शब्द संविधान (सप्तम संशोधन) अधिनियम, १९५६, धारा २६ और अनुसूची द्वारा लुप्त कर दिये गये।
  4. "या राज्यप्रमुख" शब्द संविधान (सप्तम संशोधन) अधिनियम १९५९, धारा २९ और अनुसूची द्वारा लुप्त कर दिये गये।
  5. जम्मू और कश्मीर राज्य को लागू होने में अनुच्छेद ७३ के खंड (१) के परन्तु क में "अथवा संसद् द्वारा बनाई गई किसी विधि में" शब्द लुप्त कर दिये जायेंगे।
  6. प्रथम अनुसूची के भाग (क) या भाग (ख) में उल्लिखित "शब्द और अक्षर संविधान (सप्तम संशोधन) अधिनियम १९५६, धारा २६ और अनुसूची द्वारा लुप्त कर दिये गये।
  7. देखिये अधिसूचना संख्या एस॰ आर॰ ओ॰ १६७, तारीख १९ जून, १९५०, भारत का गज़ट भाग २, अनुभाग ३, पृष्ठ १७३, यथा समय समय पर संशोधित।
  8. संविधान (सप्तम संशोधन) अधिनियम १९५६, धारा ३ द्वारा जोड़े गये।
  9. "प्रथम अनुसूची के भाग (क) या भाग (ख) में उल्लिखित" शब्द और अक्षर संविधान (सप्तम संशोधन) अधिनियम १९५६, धारा ३ द्वारा लुप्त कर दिये गये।
  10. "प्रथम अनुसूची के भाग (ग) में उल्लिखित राज्यों" के स्थान पर उपरोक्त के ही द्वारा रखे गये।
  11. अनुच्छेद ८१ और ८२ के स्थान पर उपरोक्त की ही धारा ४ द्वारा रखे गये।
  12. टिप्पणी:—संविधान (कठिनाइयाँ दूर करना) आदेश संख्या ८ की कंडिका २ में निम्नलिखित उपबन्ध किया गया है—
    संविधान की षष्ठ अनुसूची की कंडिका २० से संलग्न सारणी के भाग (ख) या उसके किन्हीं भागों में उल्लिखित आदिमजाति क्षेत्रों का जिस कालावधि के लिये उक्त अनुसूची की कंडिका १८ की उपकंडिका (२) के बल पर राष्ट्रपति द्वारा प्रशासन किया जाता है उस के दौरान भारत का संविधान निम्नलिखित अनुकूलनों के अध्यधीन प्रभावी होगा, अर्थात—
    (१) अनुच्छेद ८१ में,—
    (क) खंड (१) के उपखंड (ख) में "संघ राज्य क्षेत्रों" शब्दों के पश्चात् "और षृष्ठ अनुसूची की कंडिका २० से संलग्न सारणी के भाग (ख) में उल्लिखित आदिमजाति क्षेत्रों" शब्द, अक्षर और अंक अन्तःस्थापित कर दिये जायेंगे, और
    (ख) खंड (२) में निम्नलिखित परन्तु क जोड़ दिया जाएगा, अर्थात्—
    "परन्तु आसाम राज्य जिन निर्वाचन क्षेत्रों में विभाजित किया जाए उनमें षष्ठ अनुसूची की कंडिका २० से संलग्न सारणी के भाग (ख) में उल्लिखित आदिमजाति क्षेत्र समाविष्ट न होंगे।"
    अनुच्छेद ८१ जम्मू और कश्मीर राज्य को इस रूपभेद के अधीन रह कर लागू होगा कि लोकसभा में उस राज्य के प्रतिनिधि उस राज्य के विधान-मंडल की सिपारिश पर राष्ट्रपति द्वारा नियुक्त होंगे।
  13. संविधान (प्रथम संशोधन) अधिनियम, १९५१, धारा ६ द्वारा मूल अनुच्छेद के स्थान पर रखा गया।
  14. संविधान (प्रथम संशोधन) अधिनियम, १९५१, धारा ७ द्वारा "प्रत्येक सत्त् के आरम्भ में" के स्थान पर रखे गये।
  15. "तथा सदन के अन्य कार्य पर इस चर्चा को पूर्ववर्तिता देने के लिये" शब्द उपरोक्त के ही द्वारा लूप्त कर दिये गये।
  16. "प्रथम अनुसूची के भाग (क) या भाग (ख) में उल्लिखित" शब्द और अक्षर संविधान (सप्तम संशोधन) अधिनियम, १९५६, धारा २९ और अनुसूची द्वारा लुप्त कर दिये गये।
  17. "ऐसे" शब्द संविधान (सप्तम संशोधन) अधिनियम १९५६, धारा २९ और अनुसूची द्वारा लुप्त कर दिया गय।
  18. 'देखिये, विधि मंत्रालय अधिसूचना संख्या एफ॰ ४६ / ५०—सी, तारीख २६ जनवरी, १९५०, के साथ भारत के आसाधारण ग़जट के पृष्ठ ६७८ पर प्रकाशित समसामयिक सदस्यता प्रतिषेध नियम १९५०।
  19. संविधान (सप्तम संशोधन) अधिनियम, १९५६, धारा २९ और अनुसूची द्वारा "प्रथम अनुसूची के भाग (क) में उल्लिखित राज्य के तत्स्थानी प्रान्त" के स्थान पर रखे गये।
  20. संविधान (सप्तम संशोधन) अधिनियम, १९५६, धारा ५ द्वारा मूल परन्तुक के स्थान पर रखा गया।
  21. जम्मू और कश्मीर राज्य को लागू होने में अनुच्छेद १३४, खंड (२) में "संसद्" शब्द के पश्चात "राज्य के विधान मंडल की प्रार्थना पर" शब्द अन्तः स्थापित किये जायेंगे।
  22. अनुच्छेद १३५ और १३६ जम्मू और कश्मीर राज्य को लागू न होंगे।
  23. अनुच्छेद १३५ और १३६ जम्मू और कश्मीर राज्य को लागू न होंगे।
  24. अनुच्छेद १३९ जम्मू और कश्मीर राज्य को लागू न होगा।
  25. विधि मंत्रालय अधिसूचना संख्या सी॰ ओ॰ ४७, तारीख १४ जनवरी, १९५०, के साथ भारत सरकार के असाधारण गजट अनुभाग ३, पृष्ठ ७५ में प्रकाशित उच्चतम न्यायालय (आज्ञप्तियाँ और आदेश) प्रवर्तन आदेश १९५४ देखिये।
  26. "के खंड (१)" शब्द संविधान, (सप्तम संशोधन) अधिनियम, १९५६, धारा २६ और अनुसूची द्वारा लुप्त कर दिये गये।
  27. संविधान (सप्तम संशोधन) अधिनियम, १९५६, धारा २६ और अनुसूची द्वारा "खंड" के स्थान पर रखा गया।
  28. अनुच्छेद १४९ और १५० में राज्यों के प्रति निर्देशों का अर्थ ऐसे किया जाएगा मानो कि उनके अन्तर्गत जम्मू और कश्मीर राज्य नहीं है।
  29. अनुच्छेद १४९ और १५० में राज्यों के प्रति निर्देशों का अर्थ ऐसे किया जाएगा मानो कि उनके अन्तर्गत जम्मू और कश्मीर राज्य नहीं है।
  30. जम्मू और कश्मीर राज्य को लागू होने में अनुच्छेद १५१ में खंड (२) लुप्त कर दिया जाएगा।
  31. "या राजप्रमुख" शब्द संविधान (सप्तम संशोधन) अधिनियम, १९५६ धारा २९ और अनुसूची द्वारा लुप्त कर दिये गये।