भारत का संविधान/भाग ६

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भारत का संविधान  (1957) 
अनुवादक
राजेन्द्र प्रसाद

[ ५७ ] 

भाग—६
[१]* * *राज्य
अध्याय १.—साधारण

परिभाषा १५२. यदि प्रसंग से दूसरा अर्थ अपेक्षित न हो तो इस भाग में "राज्य" पद [२][के अन्तर्गत जम्मू तथा कश्मीर राज्य नहीं है।

अध्याय २.—कार्यपालिका
राज्यपाल

राज्यों के राज्यपाल १५३. प्रत्येक राज्य के लिये एक राज्यपाल होगा।

[३][परन्तु इस अनुच्छेद में की कोई बात एक ही व्यक्ति को दो या अधिक‌ राज्यों के लिये राज्यपाल नियुक्त करने से नहीं रोकेगी।] राज्य की कार्य
पालिका शक्ति

१५४. (१) राज्य की कार्यपालिका शक्ति राज्यपाल में निहित होगी, राज्य की कार्य-तथा वह इस का प्रयोग इस संविधान के अनुसार या तो स्वयं अथवा अपने अधीनस्थ पदाधिकारियों के द्वारा करेगा।

(२) इस अनुच्छेद की किसी बात से—
(क) जो कृत्य किसी वर्तमान विधि ने किसी अन्य प्राधिकारी को दिये हैं वे कृत्य राज्यपाल को हस्तान्तरित किये हुए न समझे जायेंगे; अथवा
(ख) राज्यपाल के अधीनस्थ किसी प्राधिकारी को विधि द्वारा कृत्य देने में संसद् अथवा राज्य के विधानमंडल को बाधा न होगी।

राज्यपाल की
नियुक्ति
१५५. राज्य के राज्यपाल को राष्ट्रपति अपने हस्ताक्षर और मुद्रा सहित अधिपत्र द्वारा नियुक्त करेगा।

राज्यपाल की पदावधि

१५६. (१) राष्ट्रपति के प्रसाद पर्यन्त राज्यपाल पद धारण करेगा।

(२) राज्यपाल राष्ट्रपति को सम्बोधित अपने हस्ताक्षर सहित लेख द्वारा अपना पद त्याग सकेगा।

(३) इस अनुच्छेद के पूर्वगामी उपबन्धों के अधीन रहते हुए राज्यपाल अपने पद ग्रहण की तारीख से पांच वर्ष की अवधि तक पद धारण करेगा : परन्तु अपने पद की अवधि की समाप्ति हो जाने पर भी राज्यपाल अपने उत्तराधिकारी के पद ग्रहण तक पद धारण किये रहेगा। [ ५८ ] 

भाग ६ राज्य—अनु॰ १५७—१६०

राज्यपाल नियुक्त
होने के लिये अंर्हता
१५७. कोई व्यक्ति राज्यपाल नियुक्त होने का पात्र न होगा जब तक कि वह भारत का नागरिक न हो तथा पैंतीस वर्ष की आयु पूरी न कर चुका हो। राज्यपाल के पद के
लिये शर्तें

१५८. (१) राज्यपाल न तो संसद् के किसी सदन् का, और न प्रथम अनुसूची में उल्लिखित किसी राज्य के विधानमंडल के किसी सदन् का सदस्य होगा तथा यदि संसद् के किसी सदन का, अथवा ऐसे किसी राज्य के विधानमंडल के किमी सदन् का सदस्य राज्यपाल नियुक्त हो जाये तो यह समझा जायेगा कि उसने उस सदन में अपना स्थान राज्यपाल के पद ग्रहण की तारीख से रिक्त कर दिया है।

(२) राज्यपाल अन्य कोई लाभ का पद धारण न करेगा।

(३) राज्यपाल को बिना किराया दिये, अपने पदावामों के उपयोग का हक्क होगा तथा उसको उन उपलब्धियों, भत्तों और विशेषाधिकारों का, जो संसद्वि-निर्मित विधि द्वारा निर्धारित किये जायें, तथा जब तक इस विषय में इस प्रकार उपबन्ध नहीं किया जाता तब तक ऐसी उपलब्धियों, भत्तों और विशेषाधिकारों का, जैसे कि द्वितीय अनुसूची में उल्लिखित हैं, हक्क होगा।

[४][(३(क) जहां एक ही व्यक्ति को दो या अधिक राज्यों के लिये राज्यपाल नियुक्त किया जाता है वहां उस राज्यपाल को देय उपलब्धियां और भत्ते उन राज्यों के बीच ऐसे अनुपात में आबंटित किये जायेंगे जैसा कि राष्ट्रपति प्रदेश द्वारा निर्धारित करे।]

(४) राज्यपाल की उपलब्धियां और भने उसकी पद की अवधि में घटाये नहीं जायेंगे। राज्यपाल द्वारा
शपथ या प्रतिज्ञान

१५९. प्रत्येक राज्यपाल, तथा प्रत्येक व्यक्ति, जो राज्यपाल के कृत्यों का राज्यपाल निर्वहन करता है, अपने पद ग्रहण करने से पूर्व उस राज्य के सम्बन्ध में क्षेत्राधिकार का प्रयोग करने वाले उच्चन्यायालय के मुख्य न्यायाधिपति के, अथवा उसकी अनुपस्थिति में उस न्यायालय के प्राप्य अग्रतम न्यायाधीश के समक्ष निम्न रूप में शपथ या प्रतिज्ञान करेगा और उस पर अपने हस्ताक्षर करेगा अर्थात्—

"मैं,....अमुक,ईश्वर की शपथ लेता हूं
सत्यनिष्ठा से प्रतिज्ञान करता हूं
कि में श्रद्धापूर्वक.....(राज्य का नाम) के राज्यपाल का कार्यपालन (अथवा राज्यपाल के कृत्यों का निर्वहन) करूंगा तथा अपनी पूरी योग्यता से संविधान और विधि का परिरक्षण, संरक्षण और प्रतिरक्षण करूंगा और मैं (राज्य का नाम) की जनता की सेवा और कल्याण में निरत रहूंगा।"

कुछ आकस्मिक-
ताओं में राज्य
पाल के कृत्यों का
निर्वहन
१६०. इस अध्याय में उपबन्ध न की हुई किसी आकस्मिकता में राज्य के राज्यपाल के कृत्यों के निर्वहन के लिये राष्ट्रपति जैसा उचित समझे वैसा उपबन्ध बना सकेगा। [ ५९ ] 

भाग ६—राज्य—अनु॰ १६१–१६४

क्षमा आदि की तथा
कुछ अभियोगों
में दंडादेश के
निलम्बन, परि-
हार या लघुकरण
करने की राज्य-
पाल की शक्ति
१६१. जिस विषय पर किसी राज्य की कार्यपालिका शक्ति का विस्तार है उस विषय सम्बन्धी किसी विधि के विरुद्ध किसी अपराध के लिये सिद्धदोष किसी व्यक्ति के दंड की क्षमा, प्रविलम्बन, विराम, या परिहार करने की, अथवा दंडादेश का निलम्बन, परिहार या लघुकरण करने की उस राज्य के राज्यपाल को शक्ति होगी।

 

राज्य की कार्य-
पालिका शक्ति
का विस्तार
१६२. इस संविधान के उपबन्धों के अधीन रहते हुए प्रत्येक राज्य की कार्यपालिका शक्ति का विस्तार उन विषयों तक होगा जिनके बारे विधानमंडल को विधि बनाने की शक्ति है :

परन्तु जिस विषय के बारे में राज्य के विधानमंडल और संसद् को विधि बनाने की शक्ति है उस में राज्य की कोई कार्यपालिका शक्ति इस संविधान द्वारा, अथवा संसद् निर्मित किसी विधि द्वारा संघ या उसके प्राधिकारी को स्पष्टता पूर्वक प्रदत्त शक्ति के अधीन रह कर और से परिसीमित हो कर, ही होवेगी।

मंत्रि-परिषद्

राज्यपाल को सहा-
यता और मंत्रणा
देने के लिये
मंत्रि-परिषद्
१६३. (१) जिन बातों में इस संविधान द्वारा या इसके अधीन राज्यपाल से यह अपेक्षा की जाती है कि वह अपने कृत्यों अथवा उनमें से किसी को स्वविवेक से करे उन बातों को छोड़ कर राज्यपाल को अपने कृत्यों का निर्वहन करने में सहायता और मंत्रणा देने के लिये एक मंत्री-परिषद् होगी जिस का प्रधान मुख्यमंत्री होगा।

(२) यदि कोई प्रश्न उठता है कि कोई विषय ऐसा है या नहीं कि जिस के सम्बन्ध में इस संविधान के द्वारा या अधीन राज्यपाल से अपेक्षित है कि वह स्वविवेक से कार्य करे तो राज्यपाल का स्वविवेक से किया हुआ विनिश्चय अन्तिम होगा तथा राज्यपाल द्वारा की गई किसी बात की मान्यता पर इस कारण से कोई आपत्ति न की जायेगी कि उसे स्वविवेक से कार्य करना, या न करना चाहिये था।

(३) क्या मंत्रियों ने राज्यपाल को कोई मंत्रणा दी, और यदि दी तो क्या दि, इस प्रश्न की किसी न्यायालय में जांच न की जायेगी।

मंत्रियों सम्बन्धी
अन्य उपबन्ध
१६४. (१) मुख्य मंत्री की नियुक्ति राज्यपाल करेगा तथा अन्य मंत्रियों की नियुक्ति राज्यपाल मुख्य मंत्री की मंत्रणा से करेगा तथा राज्यपाल के प्रसाद पर्यन्त मंत्री अपने पद धारण करेंगे :

परन्तु उड़ीसा, बिहार और मध्यप्रदेश राज्यों में आदिमजातियों के कल्याण के लिये भी रसाधक एक मंत्री होगा जो साथ साथ अनुसूचित जातियों और पिछड़े हुए वर्गों के कल्याण का, अथवा किसी अन्य कार्य का भी भार साधक हो सकेगा।

(२) मंत्रि-परिषद् राज्य की विधान-सभा के प्रति सामूहिक रूप से उत्तरदायी होगी। [ ६० ] 

भाग ६—राज्य—अनु॰ १६४–१६७

(३) किसी मंत्रि के अपने पद ग्रहण करने से पहिले राज्यपाल उस से, तृतीय अनुसूची में इस प्रयोजन के लिये दिये हुए प्रपत्रों के अनुसार, पद की और गोपनीयता की शपथें करायेगा।

(४) कोई मंत्री, जो निरन्तर छः मासों की किसी कालावधि तक राज्य के विधानमंडल का सदस्य न रहे उस कालावधि की समाप्ति पर मंत्री न रहेगा।

(५) मंत्रियों के वेतन तथा भत्ते ऐसे होंगे जैसे समय समय पर उस राज्य का विधानमंडल विधि द्वारा निर्धारित करे तथा, जब तक उस राज्य का विधानमंडल इस प्रकार निर्धारित न करे तब तक, ऐसे होंगे जैसे कि द्वितीय अनुसूची में उल्लिखित हैं।

राज्य का महाधिवक्ता

राज्य का महाधिवक्ता १६५. (१) उच्चन्यायालय के न्यायाधीश नियुक्त होने की अंर्हता रखने वाले व्यक्ति को प्रत्येक राज्य का राज्यपाल राज्य का महाधिवक्ता नियुक्त करेगा।

(२) महाधिवक्ता का कर्त्तव्य होगा कि वह उस राज्य की सरकार को ऐसे विधि सम्बन्धी विषयों पर मंत्रणा दे तथा ऐसे विधि-रूप दूसरे कर्तव्यों का पालन करे जो राज्यपाल उसे, समय समय पर भेजे या सौंपें तथा उन कृत्यों का निर्वहन करे जो उसे इस संविधान अथवा अन्य किसी तत्समय प्रवृत्त विधि के द्वारा या अधीन दिये गये हों।

(३) महाधिवक्ता राज्यपाल के प्रसाद पर्यन्त पद धारण करेगा तथा राज्यपाल द्वारा निर्धारित पारिश्रमिक पायेगा।

सरकारी कार्य का संचालन

राज्य की सरकार
के कार्य का
संचालन
१६६. (१) किसी राज्य की सरकार की समस्त कार्यपालिका कार्यवाही राज्यपाल के नाम से की हुई कही जायेगी।

(२) राज्यपाल के नाम से दिये और निष्पादित आदेशों और अन्य लिखतों का प्रमाणीकरण उसी रीति से किया जायेगा जो राज्यपाल द्वारा बनाये जाने वाले नियमों में उल्लिखित हो तथा इस प्रकार प्रमाणीकृत आदेश या लिखित की मान्यता पर आपत्ति इस आधार पर न की जायेगी कि वह राज्यपाल द्वारा दिया या निष्पादित आदेश या लिखत नहीं है।

(३) राज्य की सरकार का कार्य अधिक सुविधा पूर्वक किये जाने के लिये तथा जहां तक वह कार्य ऐसा कार्य नहीं है जिस के विषय में इस संविधान के द्वारा या अधीन अपेक्षित है कि राज्यपाल स्वविवेक से कार्य करे वहां तक उक्त कार्य के बंटवारे के लिये राज्यपाल नियम बनायेगा।

१६७. प्रत्येक राज्य के मुख्य मंत्री का— राज्यपाल को जान-
कारी देने आदि
मंत्रीमुख्य के कर्त्तव्य

(क) राज्यकार्यों के शासन सम्बन्धी मंत्रि-परिषद् के समस्त विनिश्चय तथा विधान के लिये प्रस्थापनायें राज्यपाल को पहुंचाने का,
(ख) राज्य कार्यों के प्रशासन सम्बन्धी तथा विधान के लिये प्रस्थापनाओं सम्बन्धी जिस जानकारी को राज्यपाल मंगावे, उस को देने का, तथा
[ ६१ ] 

भाग—६-राज्य—अनु॰ १६७-१७०

(ग) किसी विषय को, जिस पर मंत्री ने विनिश्चय कर दिया हो किन्तु मंत्रि-परिषद् ने विचार नहीं किया हो, राज्यपाल के अपेक्षा करने पर परिषद् के सम्मुख विचार के लिये रखने का, कर्तव्य होगा।

अध्याय ३.—राज्य का विधानमंडल
साधारण

राज्य के विधान
मंडलों का गठन
१६८. (१) प्रत्येक राज्य के लिय एक विधानमंडल होगा जो राज्यपाल तथा—

(क) बिहार, मुम्बई [५][मध्य प्रदेश], मद्रास [मैसूर], पंजाब, [६][उत्तर प्रदेश] और पश्चिमी बंगाल के राज्यों में दो सदनों से,
(ख) अन्य राज्यों में एक सदन से, मिल कर बनेगा।

(२) जहां किसी राज्य के विधानमंडल के दो सदन हों वहां एक विधान- परिषद् और दूसरा विधान-सभा के नाम से ज्ञात होगा और जहां केवल एक सदन हो वहां वह विधान-सभा के नाम से ज्ञात होगा। राज्यों में विधान-
परिषद का उत्सा-
दन या सृजन
१६९. (१) अनुच्छेद १६८ में किसी बात के होते हुए भी संसद् विधि द्वारा किसी विधान-परिषद् वाले राज्य में विधान परिषद् के उत्सादन के लिये अथवा वैसी परिषद् से रहित राज्य में वैसी परिषद् के सृजन के लिये उपबन्ध कर सकेगी यदि राज्य की विधान-सभा ने इस उद्देश्य का संकल्प सभा की समस्त सदस्य-संख्या के बहुमत से तथा उपस्थित और मत देने वाले सदस्यों की संख्या के दो तिहाई से अन्यन बहुमत से पारित कर दिया हो।

(२) खंड (१) में निर्दिष्ट किसी विधि में इस संविधान के संशोधन के लिये ऐसे उपबन्ध भी अन्तर्विष्ट होंगे जो उस विधि के उपबन्धों को प्रभावी बनाने के लिये आवश्यक हों तथा ऐसे अनपूरक, प्रासंगिक और आनुषंगिक उपबन्ध भी हो सकेंगे जिन्हें संसद् आवश्यक समझे।

(३) पूर्वोक्त प्रकार की ऐसी कोई विधि अनुच्छेद ३६८ के प्रयोजनों के लिये इस संविधान का संशोधन नहीं समझी जायेगी।

विधान-सभाओं की रचना [७][१७०. (१) अनुच्छेद ३३३ के उपबन्धों के अधीन रहते हुए प्रत्येक विधान-सभा उस राज्य में प्रादेशिक निर्वाचन क्षेत्रों से प्रत्यक्ष निर्वाचन रचना द्वारा चुने हुए पांच सौ से अधिक और साठ से अन्यून सदस्यों से मिलकर बनेगी। [ ६२ ] 

भाग ६—राज्य—अनु॰ १७०–१७१

[८](२) खंड (१) के प्रयोजनों के लिये प्रत्येक राज्य को प्रादेशिक निर्वाचन क्षेत्रों में ऐसी रीति में विभाजित किया जायेगा कि प्रत्येक निर्वाचन क्षेत्र की जनसंख्या का उसको आबंटित स्थानों की संख्या से अनुपात समस्त राज्य में यथासाध्य एक ही होगा।

व्याख्या—इस खंड में "जनसंख्या" पद से ऐसी अन्तिम पूर्वगत जनगणना में, जिसके तत्सम्बन्धी आंकड़े प्रकाशित हो चुके हैं, निश्चित की गई जनसंख्या अभिप्रेत है।

(३) प्रत्येक जनगणना की समाप्ति पर प्रत्येक राज्य की विधान सभा में स्थानों की कुल संख्या और प्रत्येक राज्य के प्रादेशिक निर्वाचन क्षेत्रों में विभाजन का ऐसे प्राधिकारी द्वारा और ऐसी रीति से पुनः समायोजन किया जायेगा जैसा कि संसद् विधि द्वारा निर्धारित करे;

परन्तु ऐसे पुनः समायोजन से विधान-सभा में के प्रतिनिधित्व पर तब तक कोई प्रभाव न पड़ेगा, जब तक कि उस समय वर्तमान विधानसभा का विघटन न हो जाये।] विधान परिषदों की रचना

१७१. (१) विधान-परिषद् वाले राज्य की विधान-परिषद् के सदस्यों की समस्त संख्या उस राज्य की विधान-सभा के सदस्यों की समस्त संख्या की एक [९][तिहाई] से अधिक न होगी :

परन्तु किसी अवस्था में भी किसी राज्य की विधान-परिषद् के सदस्यों की समस्त संख्या चालीस से कम न होगी।

(२) जब तक संसद् विधि द्वारा अन्यथा उपबन्ध नहीं करे तब तक किसी राज्य की विधान-परिषद् की रचना खंड (३) में उपबन्धित रीति से होगी।

(३) किसी राज्य की विधान-परिषद् के सदस्यों की समस्त संख्या का—

(क) यथाशक्य तृतीयांश उस राज्य में की नगरपालिकाओं, जिला-मंडलियों तथा अन्य ऐसे स्थानीय प्राधिकारियों के, जैसे कि संसद् विधि द्वारा उल्लिखित करे, सदस्यों से मिल कर बने निर्वाचक-मंडलों द्वारा निर्वाचित होगा;
[ ६३ ] 

भाग ६—राज्य—अनु॰ १७१–१७२

(ख) यथाशक्य द्वादशांश उस राज्य में निवास करने वाले ऐसे व्यक्तियों से मिल कर बने हुए निर्वाचक-मंडलों द्वारा निर्वाचित होगा, जो भारत-राज्य क्षेत्र में के किसी विश्व-विद्यालय के कम से कम तीन वर्ष से स्नातक हैं अथवा, जो कम से कम तीन वर्ष से ऐसी अंर्हताओं को धारण किये हुए हैं जो संसद् निर्मित किसी विधि के द्वारा या अधीन वैसे किसी विश्व विद्यालय के स्नातक की अंर्हताओं के तुल्य विहित की गई हों;
(ग) यथाशक्य द्वादशांश ऐसे व्यक्तियों से मिल कर बने निर्वाचक -मंडलों द्वारा निर्वाचित होगा जो राज्य के भीतर माध्यमिक पाठशालाओं से अनिम्न स्तर की ऐसी शिक्षा संस्थाओं में पढ़ाने के काम में कम से कम तीन वर्ष से लगे हुए हैं जैसी कि संसद्वि-निर्मित विधि के द्वारा या अधीन विहित की जायें;
(घ) यथाशक्य तृतीयांश राज्य की विधान-सभा के सदस्यों द्वारा ऐसे व्यक्तियों में से निर्वाचित होगा जो सभा के सदस्य नहीं हैं;
(ङ) शेष सदस्य राज्यपाल द्वारा उस रीति से नाम-निर्देशित होंगे जो कि इस अनुच्छेद के खंड (५) में उपबन्धित हैं।

(४) खंड (३) के उपखंड (क), (ख) और (ग) के अधीन निर्वाचित होने वाले सदस्य ऐसे प्रादेशिक निर्वाचन क्षेत्रों में चुने जायेंगे, जैसे कि संसद्-निर्मित किसी विधि के अधीन या द्वारा विहित किये जायें तथा उक्त खंड उपखंडों के, और उपखंड (घ) के अधीन होने वाले निर्वाचन अनुपाती-प्रतिनिधित्व-पद्धति के अनुसार एकल संक्रमणीय मत द्वारा होंगे।

(५) खंड (३) के उपखंड (ङ) के अधीन राज्यपाल द्वारा नाम निर्देशित किये जाने वाले सदस्य ऐसे होंगे जिन्हें निम्न प्रकार के विषयों के बारे में विशेष ज्ञान या व्यावहारिक अनुभव है, अर्थात्—

साहित्य, विज्ञान, कला, सहकारी आन्दोलन और सामाजिक सेवा।

राज्यों के विधान-मंडलों की अवधि १७२. (१) प्रत्येक राज्य की प्रत्येक विधान-सभा, यदि पहिले ही विघटित न कर दी जाये तो अपने प्रथम अधिवेशन के लिये नियुक्त तारीख से पांच वर्ष तक चालू रहेगी और इस से अधिक नहीं तथा पांच वर्ष की उक्त कालावधि की समाप्ति का परिणाम विधान सभा का विघटन होगा :

परन्तु उक्त कालावधि को जब तक आपात की उद्घोषणा प्रवर्त्तन में है, संसद् विधि द्वारा किसी कालावधि के लिये बढ़ा सकेगी, जो एक बार एक वर्ष से अधिक न होगी तथा किसी अवस्था में भी उद्घोषणा के प्रवर्त्तन का अन्त हो जाने के पश्चात् छः मास की कालावधि से अधिक विस्तृत न होगी।

(२) राज्य की विधान परिषद् का विघटन न होगा, किन्तु उस के सदस्यों में से यथाशक्ति निकटतम एक तिहाई संसद् निर्मित विधि द्वारा बनाये गये तद्विषयक उपबन्धों के अनुसार, प्रत्येक द्वितीय वर्ष की समाप्ति पर यथासम्भव शीघ्र निवृत्त हो जायेंगे। [ ६४ ] 

भाग ६—राज्य अनु॰ १७३—१७६

राज्य के विधान-
मंडल की सदस्य-
ता के लिये अर्हता
१७३. कोई व्यक्ति किसी राज्य के विधानमंडल में के किसी स्थान की पूर्ति के लिये चुने जाने के लिये अर्ह तब तक न होगा जब तक कि—

(क) वह भारत का नागरिक न हो;
(ख) विधान-सभा के स्थान के लिये कम से कम पच्चीस वर्ष की आयु का, तथा विधान परिषद् के स्थान के लिये कम से कम तीस वर्ष की आयु का, न हो; तथा
(ग) ऐसी अन्य अर्हतायें न रखता हो जो कि इस बारे में संसद् निर्मित किसी विधि के द्वारा या अधीन विहित की जायें।

राज्य के विधान-
मंडल के सत्ता,
सत्तावसान और
विघटन
[१०][१७४. (१) राज्यपाल, समय समय पर, राज्य के विधानमंडल के सदन या प्रत्येक सदन को ऐसे समय तथा स्थान पर, जैसा वह उचित समझे, अधिवेशन के लिये आहूत करेगा किन्तु उस के एक सत्ता की अन्तिम बैठक और आगामी सत्ता की प्रथम बैठक के लिये नियुक्त तारीख के बीच छः मास का अन्तर न होगा। (२) राज्यपाल समय समय पर—

(क) सदन या किसी सदन का सत्तावसान कर सकेगा,
(ख) विधान-सभा का विघटन कर सकेगा।]

सदन या सदनों
को सम्बोधन
करने और संदेश
भेजने का राज्य-
पाल का अधिकार
१७५. (१) विधान-सभा को, अथवा राज्य में विधान परिषद् होने की अवस्था में उस राज्य के विधानमंडल के किसी एक सदन को, अथवा साथ समवेत दोनों सदनों को, राज्यपाल सम्बोधित कर सकेगा तथा इस प्रयोजन के लिये सदस्यों की उपस्थिति की अपेक्षा कर सकेगा।

(२) राज्यपाल राज्य के विधानमंडल में उस समय लम्बित किसी विधेयक विषयक अथवा अन्य विषयक सन्देश उस राज्य के विधानमंडल के सदन अथवा सदनों को भेज सकेगा तथा जिस सदन को कोई सन्देश इस प्रकार भेजा गया हो वह सदन उस संदेश द्वारा अपेक्षित विचारणीय विषय पर यथासुविधा शीघ्रता से विचार करेगा। प्रत्येक सत्तारम्भ
में राज्यपाल का विशेष अभि-
भाषण

१७६. (१) [११][विधान-सभा के लिये प्रत्येक साधारण निर्वाचन के पश्चात् प्रथम सत्ता के आरम्भ में तथा प्रत्येक वर्ष के प्रथम सत्ता के आरम्भ में] विधान-सभा को, अथवा राज्य में विधान परिषद् होने की अवस्था में साथ समवेत हुए दोनों सदनों को, राज्यपाल सम्बोधन करेगा तथा आह्वान का कारण विधानमंडल को बतायेगा।

(२) सदन या किसी भी सदन की प्रक्रिया के विनियामक नियमों से ऐसे अभिभाषण में निर्दिष्ट विषयों की चर्चा के हेतु समय रखने के लिये[१२]* * *उपबन्ध किया जायेगा। [ ६५ ]

भाग ६—राज्य—अनु॰ १७७—१८०

सदनों विषयक
मंत्रियों और
महाधिवक्ता के
अधिकार
१७७. राज्य के प्रत्येक मंत्री और महाधिवक्ता को अधिकार होगा कि वह उस राज्य की विधान-सभा में, अथवा राज्य में विधान-परिषद् होने की अवस्था में दोनों सदनों में, बोले तथा दूसरे प्रकार से उनकी कार्यवाहियों में भाग ले तथा विधान-मंडल की किसी समिति में, जिसमें उसका नाम सदस्य के रूप में दिया गया हो, बोले तथा दूसरे प्रकार से कार्यवाहियों में भाग ले, किन्तु इस अनुच्छेद के आधार पर उसको मत देने का हक्क न होगा।

राज्य के विधानमंडल के पदाधिकारी

विधान-सभा का
अध्यक्ष और
उपाध्यक्ष
१७८. राज्य की प्रत्येक विधान-सभा यथासम्भव शीघ्र अपने दो सदस्यों को क्रमशः अपने अध्यक्ष और उपाध्यक्ष चुनेगी तथा जब जब अध्यक्ष या उपाध्यक्ष का पद रिक्त हो तब तब सभा किसी अन्य सदस्य को यथास्थिति अध्यक्ष या उपाध्यक्ष चुनेगी।

अध्यक्ष और उपाध्यक्ष
की पदरिक्तता,
पदत्याग तथा पद
से हटाया जाना
१७९. विधान-सभा के अध्यक्ष या उपाध्यक्ष के रूप में पद धारण करने वाला सदस्य—

(क) यदि सभा का सदस्य नहीं रहता तो अपना पद रिक्त कर देगा;
(ख) किसी समय भी अपने हस्ताक्षर सहित लेख द्वारा, जो उपाध्यक्ष को सम्बोधित होगा यदि वह सदस्य अध्यक्ष है, तथा अध्यक्ष को सम्बोधित होगा यदि वह सदस्य उपाध्यक्ष है, अपना पद त्याग सकेगा; तथा
(ग) विधान-सभा के तत्कालीन समस्त सदस्यों के बहुमत से पारित संकल्प द्वारा अपने पद से हटाया जा सकेगा;

परन्तु खंड (ग) के प्रयोजन के हेतु कोई संकल्प तब तक प्रस्तावित न किया जायेगा जब तक कि उस संकल्प के प्रस्तावित करने के अभिप्राय की कम से कम चौदह दिन की सूचना न दे दी गई हो;

परन्तु यह और भी कि जब कभी विधान-सभा का विघटन किया जाये तो विघटन के पश्चात् होने वाले विधान-सभा के प्रथम अधिवेशन के ठीक पहिले तक अध्यक्ष अपने पद को रिक्त न करेगा।

अध्यक्ष-पद के
कर्तव्य-पालन की
अथवा अध्यक्ष के
रूप में कार्य करने
की उपाध्यक्ष या अन्य
व्यक्ति की शक्ति
१८०. (१) जब कि अध्यक्ष का पद रिक्त हो तब उपाध्यक्ष अथवा, यदि उपाध्यक्ष का पद भी रिक्त हो, तो विधान-सभा का ऐसा सदस्य, जिसे राज्यपाल उस प्रयोजन के लिये नियुक्त करे, उस पद के कर्तव्यों का पालन करेगा।

(२) विधान-सभा की किसी भी बैठक से अध्यक्ष की अनुपस्थिति में उपाध्यक्ष अथवा, यदि वह भी अनुपस्थित है तो, ऐसा व्यक्ति, जो सभा की प्रक्रिया के नियमों से निर्धारित किया जाये, अथवा यदि ऐसा कोई व्यक्ति उपस्थित नहीं हो तो, अन्य व्यक्ति जिसे सभा निर्धारित करे, अध्यक्ष के रूप में कार्य करेगा। [ ६६ ]

भाग ६—राज्य—अनु॰ १८१—१८४

जब उसके पद से
हटाने का संकल्प
विचाराधीन हो
तब अध्यक्ष या
उपाध्यक्ष सभा
की बैठकों में
पीठासीन न होगा
१८१. (१) विधान-सभा की किसी बैठक में, जब अध्यक्ष को अपने पद से हटाने का कोई संकल्प विचाराधीन हो तब अध्यक्ष, अथवा जब उपाध्यक्ष को अपने पद से हटाने का कोई संकल्प विचाराधीन हो तब उपाध्यक्ष, उपस्थित रहने पर भी पीठासीन न होगा, तथा अनुच्छेद १८० के खंड (२) के उपबन्ध उसी रूप में ऐसी प्रत्येक बैठक के सम्बन्ध में लागू होंगे जिसमें कि वे उस बैठक के संबंध में लागू होते हैं जिससे कि यथास्थिति अध्यक्ष या उपाध्यक्ष अनपस्थित है।

(२) जब कि अध्यक्ष को अपने पद से हटाने का कोई संकल्प विधान-सभा में विचाराधीन हो तब उस को सभा में बोलने तथा दूसरे प्रकार से उस की कार्यवाहियों में भाग लेने का अधिकार होगा तथा, अनुच्छेद १८९ में किसी बात के होते हुए भी, ऐसे संकल्प पर, अथवा ऐसी कार्यवाहियों में किसी अन्य विषय पर प्रथमतः ही मत देने का हक्क होगा किन्तु मत साम्य होने की दशा में न होगा।

विधान-परिषद् के
सभापति और
उपसभापति
१८२. प्रत्येक राज्य की विधान-परिषद्, जहां ऐसी परिषद् हो, यथासम्भव शीघ्र, अपने दो सदस्यों को क्रमशः अपना सभापति और उपसभापति चुनेगी तथा जब जब सभापति या उपसभापति का पद रिक्त हो तब तब परिषद् किसी अन्य सदस्य को यथास्थिति सभापति या उपसभापति चुनेगी।

सभापति और
उपसभापति की
पद रिक्तता,
पदत्याग तथा पद
से हटाया जाना
१८३. विधान-परिषद् के सभापति या उपसभापति के रूप में पद धारण करने वाला सदस्य—

(क) यदि परिषद् का सदस्य नहीं रहता तो अपना पद रिक्त कर देगा;
(ख) किसी समय भी अपने हस्ताक्षर सहित लेख द्वारा, जो उपसभापति को सम्बोधित होगा यदि वह सदस्य सभापति है तथा सभापति को सम्बोधित होगा यदि वह सदस्य उपसभापति है, अपना पद त्याग सकेगा; तथा
(ग) परिषद् के तत्कालीन समस्त सदस्यों के बहुमत से पारित परिषद् के संकल्प द्वारा अपने पद से हटाया जा सकेगा;

परन्तु खंड (ग) के प्रयोजन के लिये कोई संकल्प तब तक प्रस्तावित न किया जायेगा जब तक कि उस संकल्प के प्रस्तावित करने के अभिप्राय की कम से कम चौदह दिन की सूचना न दी गई हो।

उपसभापति या
अन्य व्यक्ति की
सभापति-पद के
कर्तव्यों के पालन
करने की अथवा
सभापति के रूप में
कार्य करने की शक्ति
१८४. (१) जब कि सभापति का पद रिक्त हो तब उपसभापति अथवा यदि उपसभापति का भी पद रिक्त हो तो, विधान-परिषद् का ऐसा सदस्य, जिसे राज्यपाल उस प्रयोजन के लिये नियुक्त करे, उस पद के कर्तव्यों का पालन करेगा।

(२) विधान-परिषद् की किसी बैठक से सभापति की अनुपस्थिति में उपसभापति अथवा, यदि वह भी अनुपस्थित है तो, ऐसा व्यक्ति, जो परिषद् की प्रक्रिया के नियमों से निर्धारित किया जाये, अथवा, यदि ऐसा कोई व्यक्ति उपस्थित नहीं है तो, ऐसा अन्य व्यक्ति जिसे परिषद् निर्धारित करे सभापति के रूप में कार्य करेगा। [ ६७ ]

भाग ६—राज्य—अनु॰ १८५—१८८

जब उस के पद से
हटाने का संकल्प
विचाराधीन हो
तब सभापति या
उपसभापति
पीठासीन न होगा
१८५. (१) विधान-परिषद् की किसी बैठक में, जब सभापति को अपने पद से हटाने का कोई संकल्प विचाराधीन हो तब सभापति, अथवा जब उपसभापति को अपने पद से हटाने का कोई संकल्प विचाराधीन हो तब उपसभापति, उपस्थित रहने पर भी, पीठासीन न होगा तथा अनुच्छेद १८४ के खंड (२) के उपबन्ध उसी रूप में प्रत्येक ऐसी बैठक के सम्बन्ध में लागू होंगे जिसमें कि वे उस बैठक के सम्बन्ध में लागू होते हैं जिससे कि यथास्थिति सभापति या उपसभापति अनुपस्थित है।

(२) जब कि सभापति को अपने पद से हटाने का कोई संकल्प विधान-परिषद् में विचाराधीन हो तब उस को परिषद् में बोलने तथा दूसरे प्रकार से उस की कार्यवाहियों में भाग लेने का अधिकार होगा तथा, अनुच्छेद १८९ में किसी बात के होते हए भी, ऐसे संकल्प पर अथवा ऐसी कार्यवाहियों में किसी अन्य विषय पर प्रथमतः ही मत देने का हक्क होगा किन्तु मत साम्य की दशा में न होगा।

अध्यक्ष और उपाध्यक्ष
तथा सभापति और
उपसभापति के
वेतन और भत्ते
१८६. विधान-सभा के अध्यक्ष और उपाध्यक्ष को तथा विधान परिषद् के सभापति और उपसभापति को, ऐसे वेतन और भत्ते, जैसे क्रमशः राज्य का विधानमंडल विधि द्वारा नियत करे, तथा जब तक उस लिये उपबन्ध इस प्रकार न बने तब तक ऐसे वेतन और भत्ते, जैसे कि द्वितीय अनुसूची में उल्लिखित हैं, दिये जायेंगे।

 

राज्य के
विधानमंडल का
सचिवालय
१८७. (१) राज्य के विधानमंडल के सदन या प्रत्येक सदन का पृथक साचविक कर्मचारी-वृन्द होगा :

परन्तु विधान-परिषद् वाले राज्य के विधानमंडल के बारे में इस खंड की किसी बात का यह अर्थ नहीं किया जायेगा कि वह ऐसे विधानमंडल के दोनों सदनों के लिये सम्मिलित पदों के सृजन को रोकती है।

(२) राज्य का विधानमंडल विधि द्वारा राज्य के विधानमंडल के सदन या सदनों के साचविक कर्मचारी-वृन्द में भरती का, तथा नियुक्त व्यक्तियों की सेवा की शर्तों का, विनियमन कर सकेगा।

(३) खंड (२) के अधीन जब तक राज्य का विधानमंडल उपबन्ध नहीं करता तब तक राज्यपाल यथास्थिति विधान-सभा के अध्यक्ष से, या विधान-परिषद् के सभापति से, परामर्श कर के सभा या परिषद् के साचविक कर्मचारी-वृन्द में भर्ती के तथा नियुक्त व्यक्तियों की सेवा की शर्तों के, विनियमन के लिये नियमों को बना सकेगा तथा इस प्रकार के बने कोई नियम उक्त खंड के अधीन बनी किसी विधि के उपबन्धों के अधीन रह कर ही प्रभावी होंगे।

कार्य-संचालन

सदस्यों द्वारा शपथ
या प्रतिज्ञान
१८८. राज्य की विधान-सभा अथवा विधान-परिषद् का प्रत्येक सदस्य, अपना स्थान ग्रहण करने से पूर्व, राज्यपाल के अथवा उस के द्वारा उस लिये नियुक्त व्यक्ति के सम, तृतीय अनुसूची में इस प्रयोजन के लिये दिये हुए प्रपत्र के अनुसार, शपथ लेगा या प्रतिज्ञान करेगा तथा उस पर हस्ताक्षर करेगा। [ ६८ ]

भाग ६—राज्य—अनु॰ १८९—१९०

सदनों में मतदान,
रिक्तताओं के
होते हुए भी सदनों
की कार्य करने की
शक्ति तथा गणपूर्ति
१८९. (१) इस संविधान में अन्यथा उपबन्धित अवस्था को छोड़ कर किसी राज्य के विधानमंडल के किसी सदन की किसी बैठक में सब प्रश्नों का निर्धारण, अध्यक्ष या सभापति या उस के रूप में कार्य करने वाले व्यक्ति को छोड़ कर, उपस्थित तथा मत देने वाले अन्य सदस्यों के बहुमत से किया जायेगा।

अध्यक्ष अथवा सभापति या उस के रूप में कार्य करने वाला व्यक्ति प्रथमतः मत न देगा, पर मत साम्य की अवस्था में उसका निर्णायक मत होगा और वह उसका प्रयोग करेगा।

(२) सदस्यता में कोई रिक्तता होने पर भी राज्य के विधानमंडल के किसी सदन को कार्य करने की शक्ति होगी, तथा यदि बाद में यह पता चले कि कोई व्यक्ति जिसे ऐसा करने का हक्क न था, कार्यवाहियों में उपस्थित रहा, उस ने मत दिया अथवा अन्य प्रकार से भाग लिया, तो भी राज्य के विधानमंडल में की कार्यवाही मान्य होगी।

(३) जब तक राज्य का विधानमंडल विधि द्वारा अन्यथा उपबन्धित न करे तब तक राज्य के विधानमंडल के प्रत्येक सदन का अधिवेशन गठित करने के लिये गणपूर्ति दस सदस्य अथवा सदन के समस्त सदस्यों की सम्पूर्ण संख्या का दशांश, इस में से जो भी अधिक हो, होगी।

(४) यदि राज्य की विधान-सभा अथवा विधान-परिषद् के अधिवेशन में किसी समय गणपूर्ति न रहे तो अध्यक्ष या सभापति अथवा उस के रूप में कार्य करने वाले व्यक्ति का कर्तव्य होगा कि वह या तो सदन को स्थगित कर दे या अधिवेशन को तब तक के लिये निलम्बित कर दे जब तक कि गणपूर्ति न हो जाये।

सदस्यों की अनर्हताएं

स्थानों की रिक्तता१९०. (१) कोई व्यक्ति राज्य के विधानमंडल के दोनों सदनों का सदस्य न होगा तथा जो व्यक्ति दोनों सदनों का सदस्य निर्वाचित हुआ है उस के एक या दूसरे सदन के स्थान को रिक्त करने के लिये उस राज्य का विधानमंडल विधि द्वारा उपबन्ध बनायेगा।

(२) कोई व्यक्ति प्रथम अनुसूची में उल्लिखित दो या अधिक राज्यों के विधानमंडलों का सदस्य न होगा तथा यदि कोई व्यक्ति दो या अधिक ऐसे राज्यों के विधानमंडलों का सदस्य चुन लिया जाये तो ऐसी कालावधि की समाप्ति के पश्चात्, जो कि राष्ट्रपति द्वारा बनाये गये नियमों में उल्लिखित हो, ऐसे सब राज्यों के विधानमंडलों में ऐसे व्यक्ति का स्थान रिक्त हो जायेगा यदि उस ने एक राज्य के अतिरिक्त अन्य राज्यों में के विधानमंडलों के अपने स्थान को पहिले ही त्याग न दिया हो।

(३) यदि राज्य के विधानमंडल के किसी सदन का सदस्य—

(क) अनुच्छेद १९१ के खंड (१) में वर्णित अनर्हताओं में से किसी का भागी हो जाता है, अथवा
(ख) यथास्थिति अध्यक्ष या सभापति को सम्बोधित अपने हस्ताक्षर सहित लेख द्वारा अपने स्थान का त्याग कर देता है,

तो ऐसा होने पर उसका स्थान रिक्त हो जायेगा।

(४) यदि किसी राज्य के विधानमंडल के किसी सदन का सदस्य साठ दिन की कालावधि तक सदन की अनुज्ञा के बिना उस के सब अधिवेशनों में अनुपस्थित रहे तो सदन उस के स्थान को रिक्त घोषित कर सकेगा :

परन्तु साठ दिन की उक्त कालावधि की संगणना में किसी ऐसी कालावधि को सम्मिलित न किया जायेगा जिस में सदन सत्तावसित अथवा निरन्तर चार से अधिक दिनों के लिये स्थगित रहा है। [ ६९ ]

भाग ६—राज्य—अनु॰ १९१—१९४

सदस्यता के लिए
अनर्हतायें
१९१. (१) कोई व्यक्ति किसी राज्य की विधान-सभा या विधान परिषद् का सदस्य चुने जाने के लिये तथा सदस्य होने के लिये अनर्ह होगा—

(क) यदि वह भारत सरकार के अथवा प्रथम अनुसूची में उल्लिखित किसी राज्य की सरकार के अधीन, ऐसे पद को छोड़ कर जिसे धारण करने वाले का अनर्ह न होना उस राज्य के विधानमंडल ने विधि द्वारा घोषित किया है, कोई अन्य लाभ का पद धारण किये हुए है;
(ख) यदि वह विकृतचित्त है तथा सक्षम न्यायालय की ऐसी घोषणा विद्यमान है;
(ग) यदि वह अनुन्मुक्त दिवालिया है;
(घ) यदि वह भारत का नागरिक नहीं है अथवा किसी विदेशी राज्य की नागरिकता को स्वेच्छा से अर्जित कर चुका है, अथवा किसी विदेशी राज्य के प्रति निष्ठा या अनुषक्ति को अभिस्वीकार किये हुए है;
(ङ) यदि वह संसद् निर्मित किसी विधि के द्वारा या अधीन इस प्रकार अनर्ह कर दिया गया है।

(२) इस अनुच्छेद के प्रयोजनों के लिये कोई व्यक्ति भारत सरकार के अथवा प्रथम अनुसूची में उल्लिखित किसी राज्य की सरकार के अधीन लाभ का पद धारण करने वाला केवल इसी लिये नहीं समझा जायेगा कि वह संघ का या ऐसे राज्य का मंत्री है।

सदस्यों की
अनर्हताओं विषयक
प्रश्नों पर विनिश्चय
१९२. (१) यदि कोई प्रश्न उठता है कि राज्य के विधानमंडल का सदस्य अनुच्छेद १९१ के खंड (१) में वर्णित अनर्हताओं का भागी हो गया है या नहीं तो वह प्रश्न राज्यपाल को विनिश्चय के लिये सौंपा जायेगा तथा उसका विनिश्चय अन्तिम होगा।

(२) ऐसे किसी प्रश्न पर विनिश्चय देने से पूर्व राज्यपाल निर्वाचन आयोग की राय लेगा तथा ऐसी राय के अनुसार कार्य करेगा।

अनुच्छेद १८८ के
अधीन शपथ या
प्रतिज्ञान करने
से पूर्व अथवा अनर्ह
होते हुए अथवा
अनर्ह किये जाने
पर बठने और मत
देने के लिये दण्ड
१९३. यदि राज्य की विधान-सभा या विधान-परिषद् में कोई व्यक्ति सदस्य के रूप में, अनुच्छेद १८८ की अपेक्षाओं की पूर्ति करने से पूर्व, अथवा यह जानते हुए कि मैं उसकी सदस्यता के लिये अर्ह नहीं हूं अथवा अनर्ह कर दिया गया हूं अथवा संसद् द्वारा या राज्य के विधानमंडल द्वारा निर्मित किसी विधि के उपबन्धों से ऐसा करने से प्रतिषिद्ध कर दिया गया हूं, बैठता या मतदान करता है, तो वह प्रत्येक दिन के लिये जब कि वह इस प्रकार बैठता है या मतदान करता है, पांच सौ रुपये के दंड का भागी होगा जो संघ को देय ऋण के रूप में वसूल होगा।

 

राज्य के विधानमंडलों और उन के सदस्यों की शक्तियां, विशेषाधिकार और उन्मुक्तियां

 

विधानमंडलों के
सदनों की तथा उन
के सदस्यों और
समितियों की शक्तियां,
विशेषाधिकार आदि
१९४. (१) इस संविधान के उपबन्धों के तथा विधानमंडल की प्रक्रिया के विनियामक नियमों और स्थायी आदेशों के अधीन रहते हुए प्रत्येक राज्य के विधानमंडल में वाक स्वातंत्र्य होगा।

 
[ ७० ]

भाग ६—राज्य—अनु॰ १९४—१९६

(२) राज्य के विधानमंडल में या उस की किसी समिति में कही हुई किसी बात अथवा दिये हए किसी मत के विषय में विधानमंडल के किसी सदस्य के विरुद्ध किसी न्यायालय में कोई कार्यवाही न चल सकेगी और न किसी व्यक्ति के विरुद्ध ऐसे विधानमंडल के किसी सदन के प्राधिकार के द्वारा या अधीन किसी प्रतिवेदन, पत्र, मतों या कार्यवाहियों के प्रकाशन के विषय में इस प्रकार की कोई कार्यवाही चल सकेगी।

(३) अन्य बातों में राज्य के विधानमंडल के प्रत्येक सदन की, ऐसे विधान-मंडल के तथा प्रत्येक सदन के सदस्यों और समितियों की शक्तियां, विशेषाधिकार और उन्मुक्तियां ऐसी होंगी, जैसी वह विधानमंडल समय समय पर विधि द्वारा परिभाषित करे, तथा जब तक इस प्रकार परिभाषित नहीं की जातीं तब तक वे ही होंगी जो इस संविधान के प्रारम्भ पर इंग्लिस्तान की पार्लियामेंट के हाउस आफ कामन्स की तथा उसके सदस्यों और समितियों की हैं।

(४) जिन व्यक्तियों को इस संविधान के आधार पर राज्य के विधानमंडल के किसी सदन अथवा उस की किसी समिति में बोलने का, अथवा अन्य प्रकार से उसकी कार्यवाहियों में भाग लेने का अधिकार है उनके सम्बन्ध में खंड (१), (२) और (३) के उपबन्ध उसी प्रकार लाग होंगे जिस प्रकार वे उस विधानमंडल के सदस्यों के सम्बन्ध में लागू हैं।

सदस्यों के वेतन
और भत्ते
१९५. राज्य की विधान-सभा और विधान-परिषद् के सदस्यों को ऐसे वेतनों और भत्तों के, जिन्हें उस राज्य का विधान मंडल, विधि द्वारा, समय समय पर निर्धारित करे, तथा जब तक तद्विषयक उपबन्ध इस प्रकार नहीं बनाया जाता, तब तक ऐसे वेतन, और भत्तों के, ऐसी दरों से और ऐसी शर्तों पर, जैसी कि इस संविधान के प्रारम्भ से ठीक पहिले उस राज्य की प्रान्तीय विधान-सभा के सदस्यों के विषय में लागू थीं, पाने का हक्क होगा।

विधान प्रक्रिया

विधेयकों के
पुर:स्थापन और
पारण विषयक
उपबन्ध
१९६. (१) धन-विधेयकों तथा अन्य वित्त-विधेयकों के विषय में अनुच्छेद १९८ और २०७ के उपबन्धों के अधीन रहते हए, कोई विधेयक, विधान-परिषद् वाले राज्य के विधान-मंडल के किसी सदन में आरम्भ हो सकेगा।

(२) अनुच्छेद १९७ और १९८ के उपबन्धों के अधीन रहते हुए कोई विधेयक, विधान-परिषद् वाले, राज्य के विधानमंडल के सदनों द्वारा तब तक पारित न समझा जायेगा जब तक कि या तो बिना संशोधन के या केवल ऐसे संशोधनों के सहित, जो दोनों सदनों द्वारा स्वीकृत कर लिये गये हैं, दोनों सदनों द्वारा वह स्वीकृत न कर लिया गया हो।

(३) किसी राज्य के विधानमंडल में लम्बित-विधेयक उसके सदन या सदनों के सत्तावसान के कारण व्यपगत न होगा।

(४) किसी राज्य की विधान-परिषद् में लम्बित-विधेयक, जिसको विधान-सभा ने पारित नहीं किया है, विधान-सभा के विघटन पर व्यपगत न होगा। [ ७१ ]

भाग ६—राज्य—अनु॰ १९६—१९८

(५) कोई विधेयक जो किसी राज्य की विधान-सभा में लम्बित है, अथवा, जो विधान-सभा से पारित हो कर विधान-परिषद् में लम्बित है, विधान-सभा के विघटन पर व्यपगत हो जायेगा।

धन-विधेयकों से
अन्य विधेयकों
के बारे में
विधान-परिषद् की
शक्तियों का
निबन्धन
१९७. (१) यदि विधान-परिषद् वाले राज्य की विधान-सभा द्वारा किसी विधेयक के पारित हो जाने तथा विधान-परिषद् को पहुंचाये जाने के पश्चात्—

(क) परिषद् द्वारा विधेयक अस्वीकार कर दिया जाता है; अथवा
(ख) परिषद् के समक्ष विधेयक रखे जाने की तारीख से उस से विधेयक पारित हुए बिना तीन मास से अधिक समय व्यतीत हो जाता है; अथवा
(ग) परिषद् द्वारा विधेयक ऐसे संशोधनों सहित पारित होता है जिनसे सभा सहमत नहीं होती;

तो विधान-सभा विधेयक को, अपनी प्रक्रिया के विनियमन करने वाले नियमों के अधीन रह कर, उसी या किसी आगे आने वाले सत्र में ऐसे किन्हीं संशोधनों सहित या बिना, यदि कोई हों, जो विधान-परिषद् ने किये हैं, सुझायें हैं या स्वीकार किये हैं, पुनः पारित कर सकेगी तथा तब इस प्रकार पारित विधेयक को विधान-परिषद् को पंहुचा सकेगी।

(२) यदि विधान-सभा द्वारा विधेयक के इस प्रकार दोबारा पारित हो जाने तथा विधान-परिषद् को पहुंचाये जाने के पश्चात्—

(क) परिषद् द्वारा विधेयक अस्वीकार कर दिया जाता है, अथवा
(ख) परिषद् के समक्ष विधेयक रखे जाने की तारीख से, उस से विधेयक पारित हुए बिना एक मास से अधिक समय व्यतीत हो जाता है, अथवा
(ग) परिषद् द्वारा विधेयक ऐसे संशोधनों सहित पारित होता है जिन्हें सभा स्वीकार नहीं करती;

तो विधेयक राज्य के विधानमंडल के सदनों द्वारा उस रूप में पारित समझा जायेगा जिस में कि वह विधान-सभा द्वारा ऐसे संशोधनों सहित, यदि कोई हों, जो कि विधान-परिषद् द्वारा किये गये या सुझाये गये हों तथा विधान-सभा ने स्वीकार कर लिये हों, दूसरी बार पारित किया गया था।

(३) इस अनुच्छेद की कोई बात किसी धन-विधेयक को लागू नहीं होगी।

धन-विधेयकों
विषयक विशेष
प्रक्रिया
१९८. (१) विधान परिषद में धन विधेयक पुरःस्थापित न किया जायेगा।

(२) विधान-परिषद् वाले राज्य की विधान-सभा से पारित हो जाने के पश्चात, धन-विधेयक विधान-परिषद् को, उसकी सिफारिशों के लिये पहुंचाया जायेगा तथा विधान-परिषद् विधेयक की प्राप्ति की तारीख से चौदह दिन की कालावधि के भीतर विधेयक को अपनी सिपारिशों सहित विधान-सभा को लौटा देगी तथा ऐसा होने पर विधान-सभा, विधान-परिषद् की सिपारिशों में से सब को, या किसी को, स्वीकार या अस्वीकार कर सकेगी। [ ७२ ]

भाग ६—राज्य—अनु॰ १९८—१९९

(३) यदि विधान-परिषद् की सिपारिशों में से किसी को विधान-सभा स्वीकार कर लेती है तो धन-विधेयक विधान-परिषद् द्वारा सिपारिश किये गये तथा विधान-सभा द्वारा स्वीकृत संशोधनों सहित दोनों सदनों द्वारा पारित समझा जायेगा

(४) यदि विधान-परिषद् की सिफारिशों में से किसी को भी विधान-सभा स्वीकार नहीं करती है तो धन-विधेयक, विधान-परिषद् द्वारा सिपारिश किये गये किसी संशोधन के बिना, उस रूप में दोनों सदनों द्वारा पारित समझा जायेगा जिसमें कि वह विधान-सभा द्वारा पारित समझा गया था।

(५) यदि विधान-सभा द्वारा पारित तथा विधान-परिषद् को उसकी सिपारिशों के लिये पहुंचाया गया धन-विधेयक उक्त चौदह दिन की कालावधि के भीतर विधान-सभा को लौटाया नहीं जाता तो उक्त कालावधि की समाप्ति पर वह दोनों सदनों द्वारा उस रूप में पारित समझा जायेगा जिस में विधान सभा ने उसको पारित किया था।

धन-विधेयकों की
परिभाषा
१९९. (१) इस अध्याय के प्रयोजनों के लिये कोई विधेयक धन-विधेयक समझा जायेगा यदि उसमें निम्नलिखित विषयों में से सब अथवा किसी से सम्बन्ध रखने वाले उपबन्ध ही अन्तर्विष्ट हैं, अर्थात्—

(क) किसी कर का आरोपण, उत्सादन, परिहार बदलना या विनियमन;
(ख) राज्य द्वारा धन उधार लेने का, अथवा कोई प्रत्याभूति देने का विनियमन, अथवा राज्य द्वारा लिये गये अथवा लिये जाने वाले किन्हीं वित्तीय आभारों से सम्बद्ध विधि का संशोधन;
(ग) राज्य की संचित् निधि अथवा आकस्मिकता निधि की अभिरक्षा, ऐसी किसी निधि में धन डालना अथवा उसमें से धन निकालना;
(घ) राज्य की संचित निधि में से धन का विनियोग;
(ङ) किसी व्यय को राज्य की संचित निधि पर भारित व्यय घोषित करना अथवा ऐसे किसी व्यय की राशि को बढ़ाना;
(च) राज्य की संचित निधि के या राज्य के लोक लेखे मध्ये धन प्राप्त करना अथवा ऐसे धन की अभिरक्षा या निकासी करना; अथवा
(छ) उपखंड (क) से (च) तक में उल्लिखित विषयों में से किसी का आनुषंगिक कोई विषय।

(२) कोई विधेयक केवल इस कारण से धन-विधेयक न समझा जायेगा कि वह जुर्मानों या अन्य अर्थ-दंडों के आरोपण का, अथवा अनुज्ञप्तियों के लिये फीसों की, या की हुई सेवाओं के लिए फीसों की अभियाचना का या देने का उपबन्ध करता है अथवा, इस कारण से कि वह किसी स्थानीय प्राधिकारी या निकाय द्वारा स्थानीय प्रयोजनों के लिये किसी कर के आरोपण, उत्सादन, परिहार बदलने या विनियमन का उपबन्ध करता है।

(३) यदि यह प्रश्न उठता है कि विधान-परिषद् वाले किसी राज्य के विधानमंडल में पुरःस्थापित कोई विधेयक धन-विधेयक है या नहीं तो उस पर उस राज्य की विधान-सभा के अध्यक्ष का विनिश्चय अन्तिम होगा। [ ७३ ]

भाग ६—राज्य—अनु॰ १९९—२०२

(४) अनुच्छेद १९८ के अधीन जब धन-विधेयक विधान परिषद् को भेजा जाता है तथा जब वह अनुच्छेद २०० के अधीन अनुमति के लिये राज्य के राज्यपाल के समक्ष उपस्थित किया जाता है तब प्रत्येक धन-विधेयक पर विधान-सभा के अध्यक्ष के हस्ताक्षर सहित यह प्रमाण अंकित रहेगा कि वह धन-विधेयक है।

विधेयकों पर
अनुमति
२००. जब राज्य की विधान सभा द्वारा, अथवा विधान-परिषद् वाले राज्य में विधानमंडल के दोनों सदनों द्वारा, कोई विधेयक पारित कर दिया गया हो तब वह राज्यपाल के समक्ष उपस्थित किया जायेगा तथा राज्यपाल यह घोषित करेगा कि वह विधेयक पर या तो अनुमति देता है या अनुमति रोक लेता है अथवा विधेयक को राष्ट्रपति के विचारार्थ रक्षित कर लेता है :

परन्तु राज्यपाल अनुमति के लिये अपने समक्ष विधेयक रखे जाने के पश्चात् यथाशीघ्र उस विधेयक को, यदि वह धन-विधेयक नहीं है तो, सदन या सदनों को ऐसे संदेश के साथ लौटा सकेगा कि सदन या दोनों सदन विधेयक पर अथवा उस के किन्हीं उल्लिखित उपबन्धों पर पुनर्विचार कर तथा विशेषतः किन्हीं ऐसे संशोधनों के पुर:स्थापन की वांछनीयता पर विचार करें जिन की उसने अपने संदेश में सिपारिश की हो तथा जब विधेयक इस प्रकार लौटा दिया गया हो तब सदन या दोनों सदन विधेयक पर तदनुसार पुनर्विचार करेंगे तथा यदि विधेयक सदन या सदनों द्वारा संशोधन सहित या रहित पुनः पारित हो जाता है तथा राज्यपाल के समक्ष अनुमति के लिये रखा जाता है तो राज्यपाल उस पर अनुमति न रोकेगा :

परन्तु यह और भी कि जिस विधेयक से, यदि वह विधि हो गया तो, राज्यपाल की राय में उच्चन्यायालय की शक्तियों का ऐसा अल्पीकरण होगा कि वह स्थान, जिस की पूर्ति के लिये वह न्यायालय इस संविधान द्वारा बनाया गया है, संकटापन्न हो जायेगा, उस विधेयक पर राज्यपाल अनुमति न देगा किन्तु उसे राष्ट्रपति के विचारार्थ रक्षित रखेगा।

विचारार्थ रक्षित
विधेयक
२०१. राज्यपाल द्वारा जब कोई विधेयक राष्ट्रपति के विचारार्थ रक्षित कर लिया जाये तब राष्ट्रपति यह घोषित करेगा कि वह विधेयक पर या तो सम्मति देता है या सम्मति रोक लेता है :

परन्तु जहां विधेयक धन-विधेयक नहीं है, वहां राष्ट्रपति राज्यपाल को यह आदेश दे सकेगा कि वह विधेयक को यथास्थिति राज्य के विधानमंडल के सदन को या सदनों को ऐसे संदेश सहित, जैसा कि अनुच्छेद २०० के पहिले परन्तुक में वर्णित है, लौटा दे, तथा जब कोई विधेयक इस प्रकार लौटा दिया जाये तब ऐसे संदेश के मिलने की तारीख से छ:महीने की कालावधि के अंदर सदन या सदनों द्वारा उस पर तदनुसार फिर से विचार किया जायेगा तथा, यदि वह संशोधन के सहित या बिना सदन या सदनों द्वारा फिर से पारित हो जाता है, तो राष्ट्रपति के समक्ष उस के विचार के लिये पुनः उपस्थित किया जायेगा।

वित्तीय विषयों में प्रक्रिया

वार्षिक-वित्त
विवरण
२०२. (१) प्रत्येक वित्तीय वर्ष के बारे में, राज्य के विधानमंडल के सदन अथवा सदनों के समक्ष, राज्यपाल उस राज्य की उस वर्ष के लिये प्राक्कलित प्राप्तियों और व्ययों का विवरण रखवायेगा जिसे इस संविधान के इस भाग में "वार्षिक-वित्त-विवरण" के नाम से निर्दिष्ट किया गया है। [ ७४ ]

भाग ६—राज्य—अनु॰ २०२—२०४

(२) वार्षिक-वित्त-विवरण व्यय के प्राक्कलन में दिये हुए—

(क) जो व्यय इस संविधान में राज्य की संचित निधि पर भारित व्यय के रूप में वर्णित है उसकी पूर्ति के लिये अपेक्षित राशियां; तथा
(ख) राज्य की संचित निधि से किये जाने वाले अन्य प्रस्थापित व्यय की पूर्ति के लिये अपेक्षित राशियां;

पृथक् पृथक् दिखायी जायेंगीं, तथा राजस्व-लेखे पर होने वाले व्यय का अन्य व्यय से भेद किया जायेगा

(३) निम्नवर्ती व्यय प्रत्येक राज्य की संचित निधि पर भारित व्यय होगा—

(क) राज्यपाल की उपलब्धियां और भत्ते तथा उसके पद से सम्बद्ध अन्य व्यय;
(ख) विधान-सभा के अध्यक्ष और उपाध्यक्ष के, तथा किसी राज्य में विधान-परिषद् होने की अवस्था में विधान-परिषद् के सभापति और उपसभापति के भी वेतन, और भत्ते;
ऐसे ऋण-भार जिनका दायित्व राज्य पर है जिनके अन्तर्गत ब्याज, निक्षेप-निधि-भार, और मोचन-भार, उधार लेने और ऋण-सेवा और ऋण मोचन सम्बन्धी अन्य व्यय, भी हैं;
(घ) किसी उच्चन्यायालय के न्यायाधीशों के वेतनों और भत्तों विषयक व्यय;
(ङ) किसी न्यायालय या मध्यस्थ-न्यायाधिकरण के निर्णय आज्ञप्ति या पंचाट के भुगतान के लिये अपेक्षित कोई राशियां;
(च) इस संविधान से या राज्य के विधान-मंडल से विधि द्वारा इस प्रकार भारित घोषित किया गया कोई अन्य व्यय।

विधान-मंडल में
प्राक्कलनों के
विषय में प्रक्रिया
२०३. (१) राज्य की संचित निधि पर भारित व्यय से सम्बद्ध प्राक्कलन विधान-सभा में मतदान के लिये न रखे जायेंगे, किन्तु इस खंड की किसी बात का यह अर्थ न किया जायेगा कि वह विधानमंडल में उन प्राक्कलनों में से किसी पर चर्चा को रोकती है।

(२) उक्त प्राक्कलनों में से जितने अन्य व्यय से सम्बद्ध हैं वे विधान-सभा के समक्ष अनुदान-मांग के रूप में रखे जायेंगे तथा विधान-सभा को शक्ति होगी कि किसी मांग को स्वीकार या अस्वीकार करे अथवा किसी मांग को, उस में उल्लिखित राशि को कम कर के, स्वीकार करे।

(३) राज्यपाल की सिपारिश के बिना किसी भी अनुदान की मांग न की जायेगी।

विनियोग-विधेयक २०४. (१) विधान-सभा द्वारा अनुच्छेद २०३ के अधीन अनुदान किये जाने के बाद यथासम्भव शीघ्र राज्य की संचित निधि में से—

(क) सभा द्वारा इस प्रकार किये गये अनुदानों की, तथा
(ख) राज्य की संचित निधि पर भारित किन्तु सदन या सदनों के समक्ष पहिले रखे गये विचरण में दी हुई राशि से किसी भी अवस्था में अनधिक व्यय की,

प्रति के लिये अपेक्षित सब धनों के विनियोग के लिये विधेयक पुरःस्थापित किया जायेगा। [ ७५ ]

भाग ६—राज्य—अनु॰ २०४—२०६

(२) इस प्रकार किये गये किसी अनुदान की राशि में फेरफार करने अथवा अनुदान के लक्ष्य को बदलने अथवा राज्य की संचित निधि पर भारित व्यय की राशि में फेरफार करने का प्रभाव रखने वाला कोई संशोधन ऐसे किसी विधेयक पर राज्य के विधान-मंडल के सदन में या किसी सदन में प्रस्थापित न किया जायेगा तथा कोई संशोधन इस खंड के अधीन अप्रवेश्य है या नहीं इस बारे में पीठासीन व्यक्ति का विनिश्चय अन्तिम होगा।

(३) अनुच्छेद २०५ और २०६ के उपबन्धों के अधीन रहते हुए, राज्य की संचित निधि में से, इस अनुच्छेद के उपबन्धों के अनुसार पारित विधि द्वारा किये गये विनियोग के अधीन निकालने के अतिरिक्त और कोई धन निकाला न जायेगा।

अनुपूरक,
अतिरिक्त या
अधिक अनुदान
२०५. (१) यदि—

(क) अनुच्छेद २०४ के उपबन्धों के अनुसार निर्मित किसी विधि द्वारा किसी विशेष सेवा पर चालू वित्तीय वर्ष के वास्ते व्यय किये जाने के लिये प्राधिकृत कोई राशि उस वर्ष के प्रयोजन के लिये अपर्याप्त पाई जाती है अथवा उस वर्ष के वार्षिक-वित्त-विवरण में अवेक्षित न की गई किसी नई सेवा पर अनुपूरक अथवा अपर व्यय की चालू वित्तीय वर्ष में आवश्यकता पैदा हो गई है, अथवा।
(ख) किसी वित्तीय वर्ष में किसी सेवा पर, उस सेवा और उस वर्ष के लिये अनुदान की गई राशि से अधिक कोई धन व्यय हो गया है,

तो राज्यपाल यथास्थित राज्य के विधानमंडल के सदन अथवा सदनों के समक्ष उस व्यय की प्राक्कलित की गई राशि को दिखाने वाला दूसरा विवरण रखवायेगा अथवा यथास्थिति राज्य की विधानसभा में ऐसी अधिकाई के लिये मांग उपस्थित करायेगा।

(२) ऐसे किसी विवरण और व्यय या मांग के सम्बन्ध में तथा राज्य की संचित निधि में से ऐसे व्यय अथवा ऐसी मांग से सम्बन्धित अनुदान की पूर्ति के लिये धनों का विनियोग प्राधिकृत करने के लिये बनाई जाने वाली किसी विधि के सम्बन्ध में भी, अनुच्छेद २०२, २०३ और २०४ के उपबन्ध वैसे ही प्रभावी होंगे, जैसे कि वे वार्षिक-वित्त-विवरण तथा उसमें वर्णित व्यय अथवा अनुदान की किसी मांग तथा राज्य की संचित निधि में से ऐसे किसी व्यय या अनुदान की पूर्ति के लिये धनों का विनियोग प्राधिकृत करने के लिये बनाई जाने वाली विधि के सम्बन्ध में प्रभावी हैं।

लेखानुदान,
प्रत्ययानुदान और
अपवादानुदान
२०६. (१) इस अध्याय के पूर्वगामी उपबन्धों में किसी बात के होते हुए भी किसी राज्य की विधान-सभा को—

(क) किसी वित्तीय वर्ष के भाग के लिये प्राक्कलित व्यय के बारे में किसी अनुदान को, उस अनुदान के लिये मतदान करने के लिये अनुच्छेद २०३ में विहित प्रक्रिया की पूर्ति लम्बित रहने तक तथा उस व्यय के सम्बन्धमें अनुच्छेद २०४ के उपबन्धों के अनुसार विधि के पारण के लम्बित रहने तक, पेशगी देने की,
(ख) जब कि किसी सेवा की महत्ता या अनिश्चित रूप के कारण मांग ऐसे ब्योरे के साथ वर्णित नहीं की जा सकती जैसा कि वार्षिक-वित्त-विवरण में साधारणतया दिया जाता है, तब राज्य के सम्पत्ति-स्रोतों पर अप्रत्याशित मांग की पूर्ति के लिये अनुदान करने की,
[ ७६ ]

भाग ६—राज्य—अनु॰ २०६—२०८

(ग) किसी वित्तीय वर्ष की चालू सेवा का जो अनुदान भाग न हो ऐसा आपवादिक अनुदान करने की,

शक्ति होगी तथा उक्त अनुदान जिन प्रयोजनों के लिये किये गये हैं उनके लिये राज्य की संचित निधि में से धन निकालना विधि द्वारा प्राधिकृत करने की शक्ति राज्य के विधानमंडल को होगी।

(२) खंड (१) के अधीन किये जाने वाले किसी अनुदान तथा उस खंड के अधीन बनाई जाने वाली किसी विधि के सम्बन्ध में अनुच्छेद २०३ और २०४ के उपबन्ध वैसे ही प्रभावी होंगे जैसे कि वे वार्षिक-वित्त-विवरण में वर्णित किसी व्यय के बारे में किसी अनुदान के करने के तथा राज्य की संचित निधि में ऐसे व्यय की पूर्ति के लिये धनों का विनियोग प्राधिकृत करने के लिये बनाई जाने वाली विधि के सम्बन्ध में प्रभावी हैं।

वित्तविधेयकों के
लिये उपबन्ध
२०७. (१) अनुच्छेद १९९ के खंड (१) के (क) से (च) तक उपखंडों में उल्लिखित विषयों में से किसी के लिये उपबन्ध करने वाला विधेयक या संशोधन राज्यपाल की सिपारिश के बिना पुरःस्थापित या प्रस्तावित न किया जायेगा तथा ऐसे उपबन्ध करने वाला विधेयक विधान-परिषद् में पुरःस्थापित न किया जायेगा :

परन्तु किसी कर के घटाने अथवा उत्सादन के लिये उपबन्ध बनाने वाले किसी संशोधन के प्रस्ताव के लिये इस खंड के अधीन किसी सिपारिश की अपेक्षा न होगी।

(२) कोई विधेयक या संशोधन उक्त विषयों में से किसी के लिये उपबन्ध करने वाला केवल इस कारण से न समझा जायेगा कि वह जुर्माने या अन्य अर्थ-दण्ड के आरोपण का, अथवा अनुज्ञप्तियों के लिये फीस की, या की हुई सेवाओं के लिये फीस की, अभियाचना का या देने का, उपबन्ध करता है, अथवा इस कारण से कि वह किसी स्थानीय प्राधिकारी या निकाय द्वारा स्थानीय प्रयोजनों के लिये किसी कर के आरोपण, उत्सादन, परिहार, बदलने या विनियमन का उपबन्ध करता है।

(३) जिस विधेयक के अधिनियमित किये जाने और प्रवर्तन में लाये जाने पर राज्य की संचित निधि से व्यय करना पड़ेगा वह विधेयक राज्य के विधान मंडल के किसी सदन द्वारा तब तक पारित न किया जायेगा जबतक कि ऐसे विधेयक पर विचार करने के लिये उस सदन से राज्यपाल ने सिपारिश न की हो।

साधारणतया प्रक्रिया

प्रक्रिया के नियम२०८. (१) इस संविधान के उपबन्धों के अधीन रहते हुए, राज्य के विधानमंडल का कोई सदन अपनी प्रक्रिया के तथा अपने कार्य-संचालन के विनियमन के लिये नियम बना सकेगा।

(२) जब तक खंड (१) के अधीन नियम नहीं बनाये जाते तब तक इस संविधान के प्रारम्भ से ठीक पहिले, तत्स्थानी राज्य के प्रान्तीय विधानमंडल के सम्बन्ध में, जो प्रक्रिया के नियम और स्थायी आदेश प्रवृत्त थे वे, ऐसे रूपभेदों और अनुकूलनों के साथ जिन्हें यथास्थिति विधानसभा का अध्यक्ष अथवा विधान-परिषद् का सभापति करे, उस राज्य के विधानमंडल के सम्बन्ध में प्रभावी होंगे।

(३) विधान-परिषद् वाले राज्य में विधान-सभा के अध्यक्ष तथा विधान-परिषद् के सभापति से परामर्श करने के पश्चात् राज्यपाल, उनमें परस्पर संचार सम्बन्धी प्रक्रिया के नियम बना सकेगा। [ ७७ ]

भाग ६—राज्य—अनु॰ २०९—२१३

राज्य के विधान-
मंडल में वित्तीय
कार्य सम्बन्धी
प्रक्रिया का विधि
द्वारा विनियमन
२०९. वित्तीय कार्य को समय के अन्दर समाप्त करने के प्रयोजन से किसी राज्य का विधानमंडल विधि द्वारा, किसी वित्तीय विषय से अथवा राज्य की संचित निधि में से धन का विनियोग करने वाले किसी विधेयक से सम्बन्धित राज्य के विधानमंडल के सदन या सदनों की प्रक्रिया और कार्य-संचालन का विनियमन कर सकेगा तथा यदि, और जहां तक, इस प्रकार बनाई हुई किसी विधि का कोई उपबन्ध अनुच्छेद २०८ के खंड (१) के अधीन राज्य के विधानमंडल के सदन या किसी सदन द्वारा बनाये गये, नियम से, अथवा उस अनुच्छेद के खंड (२) के अधीन राज्य के विधानमंडल के सम्बन्ध में प्रभावी किसी नियम या स्थायी आदेश से, असंगत है तो, और वहां तक, ऐसा उपबन्ध अभिभावी होगा।

विधानमंडल में
प्रयोग होने वाली
भाषा
२१०. (१) भाग १७ में किसी बात के होते हुए भी किन्तु अनुच्छेद ३४८ के उपबन्धों के अधीन रहते हुए राज्य के विधानमंडल में कार्य राज्य की राजभाषा या भाषाओं में या हिन्दी में या अंग्रेजी में किया जायेगा :

परन्तु यथास्थिति विधान सभा का अध्यक्ष या विधान-परिषद् का सभापति अथवा ऐसे रूप में कार्य करने वाला व्यक्ति किसी सदस्य को, जो उपर्युक्त भाषाओं में से किसी में अपनी पर्याप्त अभिव्यक्ति नहीं कर सकता, अपनी मातृभाषा में सदन को सम्बोधित करने की अनुज्ञा दे सकेगा।

(२) जब तक राज्य का विधानमंडल विधि द्वारा अन्यथा उपबन्ध न करे, तब तक इस संविधान के प्रारम्भ से पंद्रह वर्ष की कालावधि की समाप्ति के पश्चात यह अनुच्छेद ऐसे प्रभावी होगा मानो कि "या अंग्रेजी में" ये शब्द उसमें से लुप्त कर दिये गये हैं।

विधानमंडल में
चर्चा पर निर्बन्धन
२११. उच्चतमन्यायालय या किसी उच्चन्यायालय के किसी न्यायाधीश के अपने कर्तव्य पालन में किये गये आचरण के विषय में राज्य के विधान-मंडल में कोई चर्चा न होगी।

 

न्यायालय विधान-
मंडल की
कार्यवाहियों की
जांच न करेंगे
२१२. (१) प्रक्रिया में किसी कथित अनियमिता के आधार पर राज्य के विधानमंडल की किसी कार्यवाही की मान्यता पर कोई आपत्ति न की जायेगी।

(२) राज्य के विधानमंडल का कोई पदाधिकारी या सदस्य, जिसमें इस संविधान के द्वारा या अधीन उस विधानमंडल में प्रक्रिया को या कार्य-संचालन को विनियमन करने की अथवा व्यवस्था रखने की शक्तियां निहित हैं उन शक्तियों के अपने द्वारा किये गये प्रयोग के विषय में किसी न्यायालय के क्षेत्राधिकार के अधीन न होगा।

अध्याय ४.—राज्यपाल की विधायिनी शक्तियां

विधानमंडल
विश्रान्तिकाल में
राज्यपाल की
अध्यादेश प्रख्यापन
शक्ति
२१३. (१) उस समय को छोड़ कर जब कि राज्य की विधान-सभा, तथा विधान-परिषद् वाले राज्य में विधानमंडल के दोनों सदन सत्र में हैं यदि किसी समय राज्यपाल का समाधान हो जाये कि तुरन्त कार्यवाही करने के लिये उसे बाधित करने वाली परिस्थितियां वर्तमान हैं तो वह ऐसे अध्यादेशों का प्रख्यापन कर सकेगा जो उसे परिस्थितियों से अपेक्षित प्रतीत हों :

परन्तु राष्ट्रपति के अनुदेशों के बिना राज्यपाल कोई ऐसा अध्यादेश प्रख्यापित न करेगा यदि–

(क) वैसे ही उपबन्ध अन्तर्विष्ट रखने वाले विधेयक को विधानमंडल में पुरःस्थापित किये जाने के लिये राष्ट्रपति की पूर्व मंजूरी की अपेक्षा होती, अथवा।
[ ७८ ]

भाग ६—राज्य—अनु॰ २१३—२१४

(ख) वैसे ही उपबन्ध अन्तर्विष्ट रखने वाले विधेयक को राष्ट्रपति के विचारार्थ रक्षित करना वह आवश्यक समझता; अथवा
(ग) वैसे ही उपबन्ध अन्तर्विष्ट रखने वाले राज्य के विधानमंडल का अधिनियम इस संविधान के अधीन तब तक अमान्य होता जब तक कि राष्ट्रपति के विचारार्थ रक्षित रखे जाने पर उसे राष्ट्रपति की अनुमति प्राप्त न हो चुकी होती।

(२) इस अनुच्छेद के अधीन प्रख्यापित अध्यादेश का वही बल और प्रभाव होगा जो राज्यपाल द्वारा अनुमत राज्य के विधानमंडल के अधिनियम का होता है, किन्तु प्रत्येक ऐसा अध्यादेश—

(क) राज्य की विधानसभा के समक्ष, तथा जहां राज्य में विधान-परिषद् है वहां दोनों सदनों के समक्ष रखा जायेगा तथा विधानमंडल के पुनः समवेत होने से छः सप्ताह की समाप्ति पर, अथवा यदि उस कालावधि की समाप्ति से पूर्व उसके निरनुमोदन का संकल्प विधान-सभा से पारित, और यदि विधान-परिषद् है तो उससे स्वीकृत हो जाता है तो यथास्थिति संकल्प पारण होने पर, अथवा परिषद् द्वारा संकल्प स्वीकृत होने पर, प्रवर्तन में न रहेगा; तथा
(ख) राज्यपाल द्वारा किसी समय भी लौटा लिया जा सकेगा।

व्याख्या—जब विधान परिषद् वाले राज्य के विधानमंडल के सदन भिन्न-भिन्न तारीखों में पुनः समवेत होने के लिये आहूत किये जाते हैं तो इस खंड के प्रयोजनों के लिये छः सप्ताह की कालावधि की गणना उन तारीखों में से पिछली तारीख से की जायेगी।

(३) यदि, और जिस मात्रा तक, इस अनुच्छेद के अधीन अध्यादेश कोई ऐसा उपबन्ध करता है जो विधानमंडल द्वारा अधिनियमित तथा राज्यपाल द्वारा अनुमत अधिनियम के रूप में अमान्य होता तो वह अध्यादेश उस मात्रा तक शून्य होगा :

परन्तु राज्य के विधानमंडल के ऐसे अधिनियम के, जो समवर्ती सूची में प्रगणित किसी विषय के बारे में संसद् के किसी विधि के विरुद्ध है, प्रभाव को दिखाने वाले इस संविधान के उपबन्धों के प्रयोजनों के लिये कोई अध्यादेश, जो राष्ट्रपति के अनुदेशों के अनुसरण में इस अनुच्छेद के अधीन प्रख्यापित किया गया है, राज्य के विधानमंडल का ऐसा अधिनियम समझा जायेगा जो राष्ट्रपति के विचारार्थ रक्षित किया गया था तथा उसके द्वारा अनुमत हो चुका है।

अध्याय ५—राज्यों के उच्चन्यायालय

राज्यों के लिये
उच्चन्यायालय
२१४. [१३]* * * प्रत्येक राज्य के लिये एक उच्च न्यायालय होगा। [१३] [ ७९ ]

भाग ६—राज्य—अनु॰ २१५—२१७

उच्चन्यायालय
अभिलेख
न्यायालय होंगे
२१५. प्रत्येक उच्चन्यायालय अभिलेख-न्यायालय होगा तथा उसे अपने अवमान के लिये दंड देने की शक्ति के सहित ऐसे न्यायालय की सब शक्तियां होंगी।

 

उच्चन्यायालयों
का गठन
२१६. प्रत्येक उच्चन्यायालय मुख्य न्यायाधिपति तथा ऐसे अन्य न्यायाधीशों से मिल कर बनेगा जिन्हें राष्ट्रपति समय समय पर नियुक्त करना आवश्यक समझे।

[१४]

उच्चन्यायालय के
न्यायाधीश की
नियुक्ति तथा उस
के पद की शर्तें
२१७. (१) भारत के मुख्य न्यायाधिपति से, उस राज्य के राज्यपाल से तथा मुख्य न्यायाधिपति को छोड़ कर अन्य न्यायाधीश की नियुक्ति की दशा में, उस राज्य के उच्चन्यायालय के मुख्य न्यायाधिपति से परामर्श करके राष्ट्रपति अपने हस्ताक्षर और मुद्रा सहित अधिपत्र द्वारा उच्चन्यायाल के प्रत्येक न्यायाधीश को नियुक्त करेगा तथा वह न्यायाधीश [१५][अपर या कार्यकारी न्यायाधीश की अवस्था में अनुच्छेद २२४ में यथा उपबन्धित के अनुसार, और किसी अन्य दशा में तब तक जब तक कि वह साठ वर्ष की आयु प्राप्त न करले, पद धारण करेगा]

परन्तु—

(क) कोई न्यायाधीश राष्ट्रपति को सम्बोधित अपने हस्ताक्षर सहित लेख द्वारा अपने पद को त्याग सकेगा;
(ख) उच्चतमन्यायालय के न्यायाधीश के हटाने के हेतु इस संविधान के अनुच्छेद १२४ के खंड (४) में उपबन्धित रीति से कोई न्यायाधीश अपने पद से राष्ट्रपति द्वारा हटाया जा सकेगा;
(ग) किसी न्यायाधीश का पद, राष्ट्रपति द्वारा उसे उच्चतमन्यायालय का न्यायाधीश नियुक्त किये जाने पर अथवा राष्ट्रपति द्वारा उसे भारत राज्यक्षेत्र में के अन्य उच्चन्यायालय को स्थानान्तरित किये जाने पर, रिक्त कर दिया जायेगा।

(२) किसी उच्चन्यायालय के न्यायाधीश के रूप में नियुक्ति के लिये कोई व्यक्ति तब तक अर्ह न होगा जब तक कि वह भारत का नागरिक न हो, तथा—

(क) भारत राज्य-क्षेत्र में कम से कम दस वर्ष तक न्यायिक पद धारण न कर चुका हो; अथवा
(ख) [१६]* * * उच्चन्यायालय का अथवा ऐसे दो या अधिक न्यायालयों का लगातार कम से कम दस वर्ष तक अधिवक्ता न रह चुका हो।

व्याख्या—इस खंड के प्रयोजनों के लिये—

(क) किसी उच्चन्यायालय के अधिवक्ता रहने की कालावधि की संगणना के अन्तर्गत वह कोई कालावधि भी होगी जिसमें किसी व्यक्ति ने अधिवक्ता होने के पश्चात् न्यायिक पद धारण किया हो;
[ ८० ]

भाग ६—राज्य—अनु॰ २१७—२२१

(ख) उस कालावधि की संगणना के अंतर्गत, जिसमें कि कोई व्यक्ति भारत राज्य-क्षेत्र में न्यायिक पद धारण कर चुका है अथवा किसी उच्चन्यायालय का अधिवक्ता रह चुका है इस संविधान के प्रारम्भ से पूर्व की वह कोई कालावधि भी होगी जिसमें उसने किसी क्षेत्र में, जो १५ अगस्त, १९४७ से पूर्व, भारत शासन-अधिनियम, १९३५ में परिभाषित भारत में समाविष्ट था, यथास्थिति न्यायिक पद धारण किया हो अथवा ऐसे किसी क्षेत्र के किसी उच्चन्यायालय का अधिवक्ता रह चुका हो।

उच्चतमन्यायालय
सम्बन्धी कुछ
उपबन्धों का
उच्चन्यायालयों को
लागू होना
२१८. अनुच्छेद १२४ के खंड (४) और (५) के उपबन्ध जहां जहां उनमें उच्चतमन्यायालय के निर्देश हैं वहां वहां उच्चन्यायालय के निर्देश रख कर, उच्चन्यायालय के सम्बन्ध में वैसे ही लागू होंगे जैसे कि वे उच्चतमन्यायालय के सम्बन्ध में लागू है।

 

उच्चन्यायालयों के
न्यायाधीशों द्वारा
शपथ या प्रतिज्ञान
२१९. [१७]* * * उच्चन्यायालय के न्यायाधीश होने के लिये नियुक्त प्रत्येक व्यक्ति, अपने पद ग्रहण करने के पूर्व उस राज्य के राज्यपाल के, अथवा उसके द्वारा उस लिये नियुक्त किसी व्यक्ति के, समक्ष तृतीय अनुसूची में इस प्रयोजन के लिये दिये हुए प्रपत्र के अनुसार शपथ या प्रतिज्ञान करेगा और उस पर हस्ताक्षर करेगा।

स्थायी न्यायाधीश
रहने के पश्चात
विधि वृत्ति पर
निर्बन्धन
२२०. [१८][कोई व्यक्ति जो इस संविधान के प्रारम्भ के बाद उच्चन्यायालय के स्थायी न्यायाधीश का पद धारण कर चुका है, उच्चतमन्यायालय या अन्य उच्चन्यायालयों के सिवाय भारत के किसी न्यायालय अथवा किसी प्राधिकारी के समक्ष वकालत या कार्य न करेगा।

व्याख्या—इस अनुच्छेद में "उच्च न्यायालय" पदावलि के अन्तर्गत संविधान (सप्तम संशोधन) अधिनियम, १९५६ के [१९]प्रारम्भ से पूर्व यथा वर्तमान प्रथम अनुसूची के भाग (ख) में उल्लिखित राज्य के लिए उच्च न्यायालय नहीं है।]

न्यायाधीशों के
वेतन इत्यादि
२२१. (१) प्रत्येक उच्चन्यायालय के न्यायाधीशों को ऐसे वेतन दिये जायेंगे जैसे कि द्वितीय अनुसूची में उल्लिखित हैं।

(२) प्रत्येक न्यायाधीश को ऐसे भत्तों का तथा अनुपस्थिति-छुट्टी के और निवृत्ति-वेतन के बारे में से अधिकारों का, जैसे कि संसद्-निर्मित विधि के द्वारा या अधीन समय समय पर निर्धारित किये जायें तथा जब तक इस प्रकार निर्धारित न हों तब तक ऐसे भत्तों और अधिकारों का, जैसे द्वितीय अनुसूची में उल्लिखित हैं हक्क होगा :

परन्तु किसी न्यायाधीश के न तो भत्ते और न उसकी अनुपस्थिति-छुट्टी या निवृत्ति-वेतन विषयक उसके अधिकारों में उसकी नियुक्ति के पश्चात् उसको अलाभकारी कोई परिवर्तन किया जायेगा। [ ८१ ]

भाग ६—राज्य—अनु॰ २२२—२२५

एक उच्चन्यायालय
से दूसरे को
किसी न्यायाधीश
का स्थानान्तरण
२२२. राष्ट्रपति भारत के मुख्य न्यायाधिपति से परामर्श कर के [२०]* * * एक उच्चन्यायालय से किसी दूसरे उच्चन्यायालय को किसी न्यायाधीश का स्थानान्तरण कर सकेगा।

[२१]******

 

कार्यकारी मुख्य
न्यायाधिपति की
नियुक्ति
२२३. जब किसी उच्चन्यायालय के मुख्य न्यायाधिपति का पद रिक्त हो अथवा जब मुख्य न्यायाधिपति, अनुपस्थिति या अन्य कारण से अपने पद के कर्तव्यों का पालन करने में असमर्थ हो तब न्यायालय के अन्य न्यायाधीशों में से ऐसा एक, जिसे राष्ट्रपति उस प्रयोजन के लिये नियुक्त करे, उस पद के कर्तव्यों का पालन करेगा।

अपर और
कार्यकारी
न्यायाधीशों की
नियुक्ति
[२२][२२४. (१) यदि किसी उच्चन्यायालय के कार्य में किसी अस्थायी वृद्धि के कारण या उसमें काम की बकाया के कारण राष्ट्रपति को यह प्रतीत होता है कि उस न्यायालय के न्यायाधीशों की संख्या को तत्समय के लिये बढ़ा देना चाहिये तो राष्ट्रपति सम्यक‍्‍रूपेण अर्ह व्यक्तियों को दो वर्ष से अनधिक की ऐसी कालावधि के लिये, जैसी कि वह उल्लिखित करे, उस न्यायालय के अपर न्यायाधीश होने के लिये नियुक्त कर सकेगा।

(२) जब किसी उच्चन्यायालय के मुख्य न्यायाधिपति से भिन्न कोई न्यायाधीश अनुपस्थिति के कारण से या किसी अन्य कारण के लिये अपने पद के कर्तव्यों का पालन करने के लिये अयोग्य है या मुख्य न्यायाधिपति के रूप में अस्थायीरूपेण कार्य करने के लिये नियुक्त किया जाता है तब राष्ट्रपति सम्यक‍्‍रूपेण अर्ह किसी व्यक्ति को तब तक के लिये उस न्यायालय के एक न्यायाधीश के रूप में कार्य करने के लिये नियुक्त कर सकेगा जब तक कि स्थायी न्यायाधीश अपने कर्तव्यों को पुनर्गृहीत नहीं कर लेता।

(३) उच्चन्यायालय के अपर या कार्यकारी न्यायाधीश के रूप में नियुक्त कोई व्यक्ति साठ वर्ष की आयु प्राप्त कर लेने के पश्चात् पद धारण न करेगा।]

वर्तमान
उच्चन्यायालयों के
क्षेत्राधिकार
२२५. इस संविधान के उपबन्धों के अधीन रहते हये, तथा इस संविधान द्वारा विधानमंडल को प्रदत्त शक्तियों के आधार पर समुचित विधानमंडल द्वारा बनाई हुई किसी विधि के उपबन्धों के अधीन रहते हुये, किसी वर्तमान उच्चन्यायालय का क्षेत्राधिकार तथा उस में प्रशासित विधि तथा उस न्यायालय में न्याया-प्रशासन के संबंध में उस के न्यायाधीशों की अपनी अपनी शक्तियां, जिन के अन्तर्गत न्यायालय के नियम बनाने की तथा उस न्यायालय की बैठकों और उस के सदस्यों के अकेले या खंड-न्यायालयों में बैठने का विनियमन करने की कोई शक्ति भी है, वैसी ही रहेंगी, जैसी इस संविधान के प्रारंभ से ठीक पहिले थीं;

परन्तु राजस्व संबंधी, अथवा उस के संगृहीत करने में आदेशित अथवा किये हुए किसी कार्य संबंधी विषय में उच्चन्यायालयों में से किसी के आरम्भिक क्षेत्राधिकार का प्रयोग, जिस किसी निर्बन्धन के अधीन इस संविधान के प्रारंभ से ठीक पहिले था, वह निर्बन्धन ऐसे क्षेत्राधिकार के प्रयोग पर आगे लागू न होगा। [ ८२ ]

भाग ६—राज्य—अनु॰ २२६—२२८

कुछ लेखों के
निकालने के लिये
उच्चन्यायालयों
की शक्ति
२२६. (१) अनुच्छेद ३२ में किसी बात के होते हुये भी प्रत्येक उच्चन्यायालय को उन क्षेत्रों में सर्वत्र, जिन के संबंध में वह अपने क्षेत्राधिकार का प्रयोग करता है, इस संविधान के भाग (३) द्वारा प्रदत्त अधिकारों में से किसी को प्रवर्तित कराने के लिये तथा किसी अन्य प्रयोजन के लिये उन राज्य-क्षेत्रों में के किसी व्यक्ति या प्राधिकारी के प्रति, या समुचित मामलों में किसी सरकार को ऐसे निदेश या आदेश या लेख, जिन के अन्तर्गत बन्दी प्रत्यक्षीकरण, परमादेश, प्रतिषेध, अधिकार-पृच्छा और उत्प्रेषण के प्रकार के लेख भी है, अथवा उन में से किसी को निकालने की शक्ति होगी।

(२) खंड (१) द्वारा उच्चन्यायालय को प्रदत्त शक्ति से इस संविधान के अनुच्छेद ३२ के खंड (२) द्वारा उच्चतमन्यायालय को प्रदत्त शक्ति का अल्पीकरण न होगा।

सब न्यायालयों के
अधीक्षण की
उच्चन्यायालय की
शक्ति
२२७. (१) प्रत्येक उच्चन्यायालय उन राज्य-क्षेत्रों में सर्वत्र, जिन के संबंध में वह क्षेत्राधिकार का प्रयोग करता है, सब न्यायालयों और न्यायाधिकरणों का अधीक्षण करेगा।

(२) पूर्वगामी उपबन्ध की व्यापकता पर बिना प्रतिकूल प्रभाव हुए उच्चन्यायालय—

(क) ऐसे न्यायालयों से विवरणी मंगा सकेगा;
(ख) ऐसे न्यायालयों की कार्य-प्रणाली और कार्यवाहियों के विनियमन के हेतु साधारण नियम बना और निकाल सकेगा तथा प्रपत्रों को विहित कर सकेगा; तथा
(ग) किन्हीं ऐसे न्यायालयों के पदाधिकारियों द्वारा रखी जाने वाली पुस्तकों, प्रविष्टियों और लेखाओं के प्रपत्रों को विहित कर सकेगा।

(३) उच्चन्यायालय उन फीसों की सारणियां भी स्थिर कर सकेगा जो ऐसे न्यायालयों के शेरीफ को तथा समस्त लिपिकों को और पदाधिकारियों को तथा इन में वृत्ति करने वाले न्यायवादियों, अधिवक्ताओं, और वकीलों को मिल सकेंगी :

परन्तु खंड (२) या खंड (३) के अधीन बनाय हुये कोई नियम अथवा विहित कोई प्रपत्र अथवा स्थिरीभूत कोई सारणी किसी तत्समय प्रवृत्त विधि के उपबन्धों से असंगत न होगी, तथा इन के लिये राज्यपाल के पूर्व अनुमोदन की अपेक्षा होगी।

(४) अनुच्छेद की कोई बात उच्चन्यायालय को सशस्त्र बलों संबंधी किसी विधि के द्वारा या अधीन गठित किसी न्यायालय या न्यायाधिकरण पर अधीक्षण की शक्तियां देने वाली न समझी जायेगी।

विशेष मामलों का
उच्चन्यायालय को
हस्तान्तरण
२२८. यदि उच्चन्यायालय का समाधान हो जाये कि उस के अधीन न्यायालय में लंबित किसी मामले में इस संविधान के निर्वचन का कोई सारवान विधि-प्रश्न अन्तर्ग्रस्त है जिस का निर्धारित होना मामले को निबटाने के लिये आवश्यक है तो वह उस मामले को अपने पास मंगा लेगा तथा–

(क) या तो मामले को स्वयं निबटा सकेगा; या
(ख) उक्त विधि-प्रश्न का निर्धारण कर सकेगा तथा ऐसे प्रश्न पर अपने निर्णय की प्रतिलिपि सहित उस मामले को उस न्यायालय को, जिस से मामला इस प्रकार मंगा लिया गया है, लौटा सकेगा तथा उसके प्राप्त होने पर उक्त न्यायालय ऐसे निर्णय का अनुसरण करते हुये उस मामले को निबटाने के लिये आगे कार्यवाही करेगा।
[ ८३ ]

भाग ६—राज्य—अनु॰ २२९—२३१

उच्चन्यायालयों के
पदाधिकारी और
सेवक और व्यय
२२९. (१) उच्चन्यायालय के पदाधिकारियों और सेवकों की नियुक्तियां न्यायालय का मुख्य न्यायाधिपति अथवा उस के द्वारा निर्दिष्ट उस न्यायालय का अन्य न्यायाधीश या पदाधिकारी करेगा :

परन्तु उस राज्य का राज्यपाल [२३]* * * नियम द्वारा यह अपेक्षा कर सकेगा कि ऐसी किन्हीं अवस्थाओं में, जैसी कि नियम में उल्लिखित हों, किसी ऐसे व्यक्ति को, जो पहिले ही न्यायालय में लगा हुआ नहीं है, न्यायालय से संबंधित किसी पद पर राज्य लोकसेवा-आयोग से परामर्श किये बिना नियुक्त न किया जायेगा।

(२) राज्य के विधानमंडल द्वारा निर्मित विधि के उपबन्धों के अधीन रहते हुये उच्चन्यायालय के पदाधिकारियों और सेवकों की सेवा की शर्तें ऐसी होंगी जैसी कि उस न्यायालय का मुख्य न्यायाधिपति अथवा उस न्यायालय का ऐसा अन्य न्यायाधीश या पदाधिकारी, जिसे मुख्य न्यायाधिपति ने उस प्रयोजन के लिये नियम बनाने को प्राधिकृत किया है, नियमों द्वारा विहित करे :

परन्तु इस खंड के अधीन बनाये गये नियमों के लिये, जहां तक कि वे वेतनों भत्तों, छुट्टी या निवृत्ति-वेतनों से सम्बद्ध हैं, उस राज्य के राज्यपाल के [२३]* * * अनुमोदन की अपेक्षा होगी

(३) उच्चन्यायालय के प्रशासनीय व्यय, जिन के अन्तर्गत उस न्यायालय के पदाधिकारियों और सेवकों को, या के बारे में, दिये जाने वाले सब वेतन, भत्ते और निवृत्ति-वेतन भी हैं, राज्य की संचित निधि पर भारित होंगे तथा उस न्यायालय द्वारा ली गई फीसें और अन्य धन उस निधि का भाग होंगी।

उच्चन्यायालयों
के क्षेत्राधिकार का
संघ राज्य-क्षेत्रों
में विस्तार
[२४]२३०. (१) संसद् विधि द्वारा किसी उच्चन्यायालय के क्षेत्राधिकार का विस्तार अथवा किसी उच्चन्यायालय के क्षेत्राधिकार का अपवर्जन किसी संघ राज्य-क्षेत्र में या से कर सकेगी।

(२) जहां किसी राज्य का कोई उच्चन्यायालय किसी संघ राज्य-क्षेत्र के संबंध में क्षेत्राधिकार का प्रयोग करता है वहां—

(क) इस संविधान की किसी बात का यह अर्थ न किया जायेगा कि वह उस राज्य के विधानमंडल को उस क्षेत्राधिकार के वर्धन, निर्बन्धन या उत्सादन की शक्ति प्रदान करती है, और
(ख) अनुच्छेद २२७ में राज्यपाल के प्रति जो निर्देश हैं उनका अर्थ उस राज्यक्षेत्र में के अधीनस्थ न्यायालयों के लिये किन्हीं नियमों, प्रपत्रों, या सारणियों के संबंध में यह लगाया जायेगा कि वह राष्ट्रपति के प्रति निर्देश है।

दो या अधिक राज्यों
के लिए एक उच्च
न्यायालय की स्थापना
२३१. (१) इस अध्याय के पूर्वगामी उपबन्धों में अन्तर्विष्ट किसी बात के होते हुये भी संसद् विधि द्वारा दो या अधिक राज्यों के लिये अथवा दो या अधिक राज्यों और एक संघ राज्य-क्षेत्र के लिये एक उच्चन्यायालय स्थापित कर सकेगी। [ ८४ ]

भाग ६—राज्य—अनु॰ २३२—२३५

(२) किसी ऐसे उच्चन्यायालय के संबंध में,—

(क) उस निर्देश का अर्थ, जो कि अनुच्छेद २१७ में उस राज्य के राज्यपाल के प्रति है, यह लगाया जायेगा कि वह उन सब राज्यों के राज्यपालों के प्रति निर्देश है जिनके संबंध में वह उच्चन्यायालय क्षेत्राधिकार का प्रयोग करता है,
(ख) उस निर्देश का अर्थ, जो अनच्छेद २२७ में राज्यपाल के प्रति है, अधीनस्थ न्यायालयों के लिये किन्हीं नियमों, प्रपत्रों या सारणियों के संबंध में यह लगाया जायेगा कि वह उस राज्य के राज्यपाल के प्रति है, जिसमें वे अधीनस्थ न्यायालय अवस्थित है; और
(ग) उन निर्देशों का अर्थ जो कि अनुच्छेद २१९ और २२९ में राज्य के प्रति हैं यह लगाया जायेगा कि वे उस राज्य के प्रति हैं जिसमें उस उच्चन्यायालय का मुख्य स्थान है;

परन्तु यदि ऐसा मुख्य स्थान किसी संघ राज्य-क्षेत्र में है तो अनुच्छेद २१९ और २२९ में राज्य के राज्यपाल, लोकसेवा-आयोग, विधानमंडल और संचित निधि के प्रति जो निर्देश हैं उनका यह अर्थ लगाया जायेगा कि वे क्रमशः राष्ट्रपति, संघ लोकसेवाआयोग, संसद् और भारत की संचित निधि के प्रति निर्देश हैं।]

अध्याय ६.—अधीन न्यायालय

जिला-न्यायाधीशों
की नियुक्ति
२३३. (१) किसी राज्य में जिला-न्यायाधीश नियुक्त होने वाले व्यक्तियों की नियुक्ति तथा उन की पद-स्थापना और पदोन्नति ऐसे राज्य के संबंध में क्षेत्राधिकार प्रयोग करने वाले उच्चन्यायालय से परामर्श कर के राज्य का राज्यपाल करेगा।

(२) कोई व्यक्ति, जो संघ की या राज्य की सेवा में पहिले से ही नहीं लगा हुआ है, जिला-न्यायाधीश होने के लिये केवल तभी पात्र होगा जब कि वह सात से अन्यून वर्षों तक अधिवक्ता या वकील रह चुका है तथा उसकी नियुक्ति के लिये उच्चन्यायालय ने सिफारिश की है।

न्यायिक सेवा में
जिला न्यायाधीशों
से अन्य व्यक्तियों
की भर्ती
२३४. जिला-न्यायाधीशों से अन्य व्यक्तियों की राज्य की न्यायिक सेवा में नियुक्ति राज्यपाल द्वारा, राज्य-लोकसेवा-आयोग तथा ऐसे राज्य के संबंध में क्षेत्राधिकार का प्रयोग करने वाले उच्चन्यायालय से परामर्श के पश्चात् उस के द्वारा इस लिये बनाये गये नियमों के अनुसार की जायेगी।

 

अधीन न्यायालयों
पर नियंत्रण
२३५. जिला-न्यायाधीश के पद से निचले किसी पद को धारण करने वाले राज्य की न्यायिक सेवा के व्यक्तियों की पद-स्थापना, पदोन्नति और उन को छुट्टी देने के सहित जिला-न्यायालयों तथा उन के अधीन न्यायालयों का नियंत्रण उच्चन्यायालयों में निहित होगा, किन्तु इस अनुच्छेद की किसी बात का यह अर्थ नहीं किया जायेगा कि मानों वह ऐसे किसी व्यक्ति से उस अपील के अधिकार को छीनती है जो कि उस की सेवा की शर्तों का विनियमन करने वाली विधि के अधीन उसे प्राप्त है अथवा उच्चन्यायालय को अधिकार देती है कि वह उस की सेवा की ऐसी विधि के अधीन विहित शर्तों के अनुसरण से अन्यथा उस से व्यवहार करे। [ ८५ ]

भाग ६—राज्य—अनु॰ २३६—२३७

निर्वचन२३६. (१) इस अध्याय में—

(क) "जिला-न्यायाधीश" पदावलि के अन्तर्गत नगर-व्यवहार-न्यायालय का न्यायाधीश, अपर जिला न्यायाधीश, संयुक्त जिला-न्यायाधीश, सहायक जिला-न्यायाधीश, लघुवाद-न्यायालय का मुख्य न्यायाधीश, मुख्य प्रेसीडेन्सी-दंडाधिकारी, अपर मुख्य प्रेसीडेन्सी-दंडाधिकारी, सत्त्-न्यायाधीश, अपर सत्त्-न्यायाधीश और सहायक सत्त्-न्यायाधीश भी हैं।
(ख) "न्यायिक सेवा" पदावलि से ऐसी सेवा अभिप्रेत है, जो केवल ऐसे व्यक्तियों से मिल कर बनी है, जो जिला-न्यायाधीश के पद तथा जिला-न्यायाधीश-पद से निचले अन्य व्यवहार न्यायिक पदों को भरने के लिये उद्दिष्ट है।

कुछ प्रकार या
प्रकारों के दंडा-
धिकारियों पर इस
अध्याय के उपबन्धों
का लागू होना
२३७. राज्यपाल सार्वजनिक अधिसूचना द्वारा निदेश दे सकेगा कि इस अध्याय के पूर्वगामी उपबन्ध तथा उन के अधीन बनाये गये कोई नियम ऐसी तारीख से, जो कि वह उस बारे में नियत करे, राज्य के किसी प्रकार या प्रकारों के दंडाधिकारियों के संबंध में ऐसे अपवादों और रूपभेदों के अधीन रह कर, जैसे कि अधिसूचना में उल्लिखित हों, वैसे ही लागू होंगे जैसे कि वे राज्य की न्यायिक सेवा में नियुक्त व्यक्तियों के संबंध में लागू होते हैं।

  1. "प्रथम अनुसूची के भाग (क) में के" शब्द संविधान (सप्तम संशोधन) अधिनियम, १९५६, धारा २९ और अनुसूची द्वारा लुप्त कर दिये गये।
  2. उपरोक्त के ही द्वारा "का अर्थ प्रथम अनुसूची के भाग (क) में उल्लिखित राज्य है" के स्थान पर रख दिये गये।
  3. उपरोक्त की ही धारा ६ द्वारा जोड़ा गया।
  4. संविधान (सप्तम संशोधन) अधिनियम, १९५६ धारा ७ द्वारा अन्तःस्थापित किया गया।
  5. संविधान (सप्तम संशोधन) अधिनियम, १९५६, धारा ८ द्वारा अन्तःस्थापित (जब अधिसूचित हो)।
  6. संविधान (प्रथम और चतुर्थ अनुसूचियों का संशोधन) आदेश १९५० (सी॰ प्रो॰ ३, तारीख २५ जनवरी, १९५०) द्वारा "युक्त प्रान्त" के स्थान पर रखा गया।
  7. संविधान (सप्तम संशोधन) अधिनियम, १९५६, धारा ८ द्वारा मूल अनुच्छेद के स्थान पर रखा गया।
  8. टिप्पणी—संविधान (कठिनाइ निवारण) आदेश संख्या ८ की कंडिका २ में निम्नलिखित उपबन्ध किया गया है—
    संविधान की षष्ठ अनुसूची की कंडिका २० से संलग्न सारणी के भाग (ख) या उसके किन्हीं भागों में उल्लिखित आदिमजाति क्षेत्रों का जिस कालावधि के लिए उक्त अनुसूची की कंडिका १८ की उपकंडिका (२) के बल पर राष्ट्रपति द्वारा प्रशासन किया जाता है उसके दौरान में भारत का संविधान निम्नलिखित अनुकूलनों के अध्यधीन प्रभावी होगा, अर्थात्—
    अनुच्छेद १७० के खंड (२) में "यथासाध्य एक ही होगा" शब्दों के पश्चात् निम्नलिखित परन्तुक अन्तःस्थापित कर दिया जाएगा, अर्थात—
    "परन्तु आसाम राज्य जिन निर्वाचन क्षेत्रों में विभाजित किया जाए उनमें वे आदिमजाति क्षेत्र समाविष्ट न होंगे जो कि षष्ठ अनुसूची की कंडिका २० से संलग्न सारणी के भाग (ख) में उल्लिखित हैं।"
  9. संविधान (सप्तम संशोधन) अधिनियम, १९५६, धारा १० द्वारा "चौथाई" के स्थान पर रखा गया।
  10. संविधान (प्रथम संशोधन) अधिनियम, १९५१, धाग ८ द्वारा मूल अनुच्छेद के स्थान पर रखा गया।
  11. उपरोक्त की ही धारा ९ द्वारा "प्रत्येक सत्ता के आरम्भ में" के स्थान पर रखे गये।
  12. "तथा सदन के अन्य कार्य पर इस चर्चा को पूर्ववतिता देने के लिये" शब्द संविधान (प्रथम संशोधन) अधिनियम, १९५१, धारा ९ द्वारा लुप्त कर दिये गये।
  13. १३.० १३.१ कोष्ठक और अंक "(१)" तथा खंड (२) और (३) संविधान (सप्तम संशोधन) अधिनियम १९५६, धारा २९ और अनुसूची द्वारा लुप्त कर दिये गये।,
  14. परन्तुक संविधान (सप्तम संशोधन) अधिनियम, १९५६, धारा ११ द्वारा लुप्त कर दिया गया।
  15. उपरोक्त की ही धारा १२ द्वारा "तब तक पद धारण करेगा, जब तक कि वह साठ वर्ष की आयु प्राप्त न कर ले" के स्थान पर रखे गये।
  16. "प्रथम अनुसूची में उल्लिखित किसी राज्य में के" शब्द संविधान (सप्तम संशोधन) अधिनियम, १९५६, धारा २९ और अनुसूची द्वारा लुप्त कर दिये गये।
  17. "किसी राज्य के" शब्द संविधान (सप्तम संशोधन) अधिनियम १९५६, धारा २९ और अनुसूची द्वारा लुप्त कर दिये गये।
  18. संविधान (सप्तम संशोधन) अधिनियम, १९५६, धारा १३ और अनुसूची द्वारा मूल अनुच्छेद २२० के स्थान पर रखा गया।
  19. १ नवम्बर, १९५६
  20. "भारत राज्य-क्षेत्र में के" शब्द संविधान (सप्तम संशोधन) अधिनियम, १९५६, धारा १४ द्वारा लुप्त कर दिये गये।
  21. खंड (२) उपरोक्त के ही द्वारा लुप्त कर दिया गया।
  22. संविधान (सप्तम संसोधन) अधिनियम, १९५६, धारा १५ द्वारा मूल अनुच्छेद २२४ के स्थान पर रखा गया।
  23. २३.० २३.१ "जिसमें उच्चन्यायालय का मुख्य स्थान है" शब्द संविधान (सप्तम संशोधन) अधिनियम, १९५६, धारा २९ और अनुसूची द्वारा लुप्त कर दिये गये।,
  24. संविधान (सप्तम संशोधन) अधिनियम, १९५६, धारा १६ द्वारा मूल अनुच्छेद २३०, २३१ और २३२ के स्थान पर रखे गये।