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भाव-विलास

विकिस्रोत से
भाव-विलास  (1934) 
देव, संपादक लक्ष्मीनिधि चतुर्वेदी

वाराणसी: तरुण भारत ग्रंथावली कार्यालय, पृष्ठ आवरण-पृष्ठ से – विषय-सूची तक

 

 

तरुण-भारत-ग्रन्थावली–सं॰ ३५
भाव-विलास
(देवकवि-कृत)

 

सम्पादक
साहित्य-रत्न पं॰ लक्ष्मीनिधि चतुर्वेदी,
हिन्दी-प्रभाकर, कविरत्न

 

प्रकाशक
तरुण-भारत-ग्रन्थावली-कार्यालय
दारागंज, प्रयाग

 
प्रथमावृत्ति २००० संवत् १९९१ मूल्य १॥)
 

मुद्रक—पं॰ प्रतापनारायण चतुर्वेदी, भारतवासी प्रेस, दारागंज, प्रयाग।

 

प्रस्तावना

महाकवि देवदत्त उपनाम 'देव' हिन्दी भाषा के महाकवियों में गिने जाते हैं। हिन्दी के अन्यान्य महाकवियों की तरह इनके जीवन की अनेक बातों के सम्बन्ध में भी अबतक सन्देह बना हुआ है। कुछ विद्वान् इन्हें सनाढ्य ब्राह्मण मानते है और कुछ कान्यकुब्ज। यही हाल इनके जन्मस्थान के सम्बन्ध में भी है। कोई इन्हें इटावे का निवासी बतलाते हैं और कोई मौजा समान, ज़िला मैनपुरी का। शिवसिंह-सरोज में इन्हें समान जिला मैनपुरी का निवासी सनाढ्य ब्राह्मण लिखा गया है। परन्तु 'मिश्रबन्धु' इन्हें कान्यकुब्ज ब्राह्मण और इटावा-निवासी मानते हैं। अपने इस कथन के प्रमाण में उन्होंने निम्न दोहे दिये हैं:—

द्योसरिहा कविदेव को, नगर इटायो वास।

xxxx
कास्यप गोत्र द्विवेदि कुल, कान्यकुब्ज कमनीय।

देवदत्त कवि जगत मैं, भए देव रमनीय॥

आप लोगों ने कुसुमरा ज़िला मैनपुरी से देव जी के वंशजों द्वारा प्राप्त एक वंशवृक्ष भी दिया है। इससे ज्ञात होता है कि देव जी के पिता का नाम बिहारीलाल था। जन्म के सम्बन्ध में देवजी ने इसी भाव-विलास में एक दोहा लिखा है कि:—

सुभ सत्रहसौ छियालिस, चढ़त सोरहीं वर्ष॥
कढ़ी देव मुख देवता, भाव-विलास सहर्ष॥

इस हिसाब से संवत् १७४६ में जब इनकी अवस्था सोलह वर्ष की थी तब संवत् १७३० में इनका जन्म निश्चित है।

देव जी बहुत थोड़ी अवस्था से ही कविता करने लगे थे। 'भाव-विलास' उन्होंने केवल १६ वर्ष की अवस्था में ही बनाया था। यह उनकी प्रखर प्रतिभा का पक्का प्रमाण है। परन्तु इतने प्रतिभा-सम्पन्न होने पर भी, हिन्दी के अन्य कवियों की तरह, इन्हें किसी राजा अथवा महाराजा द्वारा विशेष सम्मान नहीं मिला। इन्होंने स्वयं लिखा है कि

आजु लगि केते नर-नाहन की 'नाहीं' सुनि,
नेह सो निहारि हारि बदन निहारतो।

हाँ, भोगीलाल नामक एक गुणज्ञ राजा ने इनका अवश्य सम्मान किया। इन्होंने भी अपना 'रसविलास' नामक ग्रन्थ इन्हीं गुणज्ञ राजा के लिए बनाया तथा अन्य कई स्थलों पर भी इनकी बड़ी प्रशंसा की है।

पर इन गुणज्ञ राजा के यहाँ भी ये बहुत दिनों तक नहीं रहे। यह इनके ग्रन्थों से विदित होता है। इसके दो कारण हो सकते हैं। या तो भोगीलाल का देहान्त हो गया हो अथवा ये ही किसी कारणवश वहाँ से चले आए हो।

जो हो, देवजी प्रतिभासम्पन्न महाकवि थे, इसमें कोई सन्देह नहीं। इनके बनाए हुए ५२ ग्रन्थ कहे जाते हैं। कोई कोई इन्हे ७२ ग्रन्थों का रचयिता भी मानते हैं। इनके बनाये हुए दो एक ग्रन्थ खोज में मिले हैं और अन्य ग्रन्थों के मिलने की भी आशा है। अतः अभी निश्चय-पूर्वक नहीं कहा जा सकता कि इन्होंने कितने ग्रन्थ लिखे। अब तक इनके लिखे हुए २५ ग्रन्थों का पता चल चुका है:—

१—भाव-विलास २-—अष्टयाम ३—भवानी-विलास ४—सुंदरी-सिंदूर ५—सुजान-विनोद ६—प्रेमतरंग ७—रागरत्नाकर ८—कुशल-विलास ९—देवचरित्र १०—प्रेमचंद्रिका ११—जातिविलास १२—रसविलास १३—काव्यरसायन १४—सुखसागरतरंग १५—देवमाया-प्रपंच-नाटक १६—वृक्षविलास १७—पावसविलास १८—देवशतक १९—प्रेमदर्शन २०—रसानंदलहरी २१—प्रेमदीपिका २२—सुमिलविनोद २३—रधिका-विलास २४—नखशिख २५—दुर्गाष्टक।  

भाव-विलास

यह देवजी की प्रथम रचना है। हिन्दी भाषा के रीति-ग्रन्थों में यह उच्चकोटि का ग्रन्थ माना जाता है। इन्होंने केवल सोलह वर्ष की अवस्था में इसकी रचना की थी। यह इनकी प्रथम रचना होने पर भी इसके छन्दो में कहीं भी शैथिल्य नहीं है और प्रौढ़ कविता में जो गुण होने चाहिए वे सभी इसमें विद्यमान हैं। इस ग्रन्थ को इन्होंने पहले-पहल बादशाह औरंगज़ब के बड़े पुत्र आजमशाह को सुनाया। आजमशाह हिन्दी के प्रेमी तथा जानकार और गुणज्ञ थे। उन्होंने उक्त ग्रन्थ की बड़ी प्रशंसा की। भाव-विलास के अंत में लिखा है कि :—

दिल्लीपति नवरंग के, आज़मसाहि सपूत।
सुन्यो, सराह्यो ग्रन्थ यह, अष्टयाम संजूत॥

इस ग्रन्थ मे इन्होंने भाव, विभाव, अनुभाव, हाव, नायक, नायिका और अलंकारों का वर्णन किया है। परन्तु अन्य आचार्यों द्वारा वर्णित रसादि के वर्णनों से इन्होने कुछ विशेषता रखी है।

भावविलास की विशेषता—भरतादि आचार्यों ने संचारी भावों के केवल ३३ भेद माने हैं; परन्तु देवजी ने 'छल' को एक चौतीसवाँ भेद और माना है। रसो के इन्होंने दो भेद माने हैं। लौकिक और अलौकिक। फिर लौकिक के तीन भेद स्वप्न, मनोरथ और उपनायक तथा अलौकिक के शृंगार, हास्य आदि नौ भेद लिखे हैं। अलंकारों में इन्होंने केवल ३९ मुख्य माने हैं और उन्हीं का इस ग्रन्थ में वर्णन किया है। शेष अलंकारों के सम्बन्ध में इनका मत है कि वे इन्हीं के भेद और उपभेद हैं।

इस ग्रन्थ का सम्पादन करके मैंने प्रत्येक दोहा, सवैया और कवित्त के आवश्यकतानुसार शब्दार्थ और भावार्थ दे दिये हैं; जिससे ग्रन्थ को समझने में कठिनाई न हो। जहाँ शब्दार्थ अथवा भावार्थ बोधगम्य सरल प्रतीत हुआ वहां शब्दार्थ अथवा भावार्थ नहीं दिया गया। प्रत्येक 'विलास' के आदि मे उसमें वर्णित विषय की एक तालिका भी दे दी गयी है। इससे उस विलास में वर्णित विषय और भी स्पष्ट हो जाता है।

प्राचीन कविता के विद्यार्थियो और प्रेमियों ने यदि इस ग्रन्थ का कुछ भी आदर किया तो मैं अपने परिश्रम को सफल समझूंगा।

दारागंज, प्रयाग लक्ष्मीनिधि चतुर्वेदी
विजयादशमी, १९९१
 

निवेदन

सन्तोष की बात है कि इधर कई वर्षों से हिन्दी की प्राचीन कविता के पठन-पाठन की ओर हिन्दी-पाठकों की रुचि बढ़ रही है। इसमें सन्देह नहीं कि कुछ साहित्य-प्रेमी अब भी ऐसे हैं, जो प्राचीन कविता पर अश्लीलता इत्यादि् का लाञ्छन लगाकर उसकी ओर से नाक-भौं सिकोडते रहते हैं; परन्तु इनकी संख्या अब दिन पर दिन कम ही होती जाती है। लोग प्राचीन कवियों के काव्यसौन्दर्य और रचना-कौशल को समझने लगे हैं। कहना नहीं होगा कि पहले पहल हिन्दी-साहित्य-सम्मेलन ने ही अपनी ऊँची साहित्यिक परीक्षाएं प्रचलित कर के प्राचीन साहित्य के अध्ययन की ओर हिन्दी जनता का ध्यान आकर्षित किया; और अब तो भारत के कई सरकारी शिक्षाविभागों और अन्य कई सरकारी तथा और ग़ैर-सरकारी संस्थाओं ने साहित्य की परीक्षाएं प्रचलित की हैं। इन सब संस्थानों के परीक्षार्थियों को इस प्रकार के काव्यशास्त्र के ग्रन्थों के अध्ययन की आवश्यकता पड़ती है। उनकी सुविधा के लिए साहित्यरत्न पंडित लक्ष्मीनिधि चतुर्वेदी का यह प्रयत्न अत्यन्त प्रशंसनीय है। "भावविलास" का कोई भी सुसम्पादित संस्करण अभी तक हमारे देखने में नहीं आया था। चतुर्वेदी जी ने इस ग्रन्थ का सम्पादन करके इस त्रुटि को कई अंशों में दूर कर दिया है। पं॰ लचमीनिधि जी महाकवि देव के ही प्रान्त के निवासी हैं; और माथुर होने के कारण आप की मातृभाषा भी ब्रजभाषा ही है। अतएव ब्रजभाषा से आप का स्वाभाविक प्रेम है, जो आप को मातृस्तन्य के साथ मिला है। ऐसे होनहार साहित्यप्रेमी नवयुवकों की इस ओर सुरुचि होना सचमुच ही अभिनन्दनीय है। हमें विश्वास है कि प्राचीन साहित्य के प्रेमी और प्रचारक सज्जन इस ग्रन्थ का समुचित समादर करके चतुर्वेदी जी का उत्साह बढ़ावेंगे।

लक्ष्मीधर वाजपेयी

 
विषय-सूची
विषय
१—प्रथम विलास
वंदना
ग्रन्थपरिचय
स्थायी भाव
विभाव
अनुभाव १४
२—द्वितीय विलास
सात्त्विक भाव २०
संचारी भाव २८
३—तृतीय विलास
रस ६५
हाव ७०
४—चतुर्थ विलास
नायक ९७
नर्म सचिव १००
नायिका १०३
सखी १३५
दूती १३६
५—पंचम विलास
अलंकार १४२

यह कार्य भारत में सार्वजनिक डोमेन है क्योंकि यह भारत में निर्मित हुआ है और इसकी कॉपीराइट की अवधि समाप्त हो चुकी है। भारत के कॉपीराइट अधिनियम, 1957 के अनुसार लेखक की मृत्यु के पश्चात् के वर्ष (अर्थात् वर्ष 2024 के अनुसार, 1 जनवरी 1964 से पूर्व के) से गणना करके साठ वर्ष पूर्ण होने पर सभी दस्तावेज सार्वजनिक प्रभावक्षेत्र में आ जाते हैं।


यह कार्य संयुक्त राज्य अमेरिका में भी सार्वजनिक डोमेन में है क्योंकि यह भारत में 1996 में सार्वजनिक प्रभावक्षेत्र में आया था और संयुक्त राज्य अमेरिका में इसका कोई कॉपीराइट पंजीकरण नहीं है (यह भारत के वर्ष 1928 में बर्न समझौते में शामिल होने और 17 यूएससी 104ए की महत्त्वपूर्ण तिथि जनवरी 1, 1996 का संयुक्त प्रभाव है।