भाव-विलास/पञ्चम विलास/अलंकार

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भाव-विलास  (1934) 
द्वारा देव
[ १४१ ]
अलंकार
कवित्त

प्रथम स्वभावउक्ति उपमोपमेय संस,
अनन्वय अरु रूपक बखानियें।
अतिसय समास बक्रयुक्ति पर यायउक्ति।
सहित सहोक्ति सविशेष उक्ति जानियें॥
तातें व्यतिरेक हैं बिभाव उतप्रेक्षाक्षेप,
दीपक उदात हैं अपन्हुति आनियें।
अरु असलेखा न्यासअर्थान्तर व्याजस्तुति।
अप्रस्तुत प्रस्तुति सु अलङ्कार मानियें॥
आवृत निर्दसन बिरोध परिवृत्ति हेतु,
रसवत उरज ससूछम बताइये।
प्रियक्रम समाहित तुल्ययोग्यता औ लेस सवै।
भाविक औ संकीरनि आसिख सुनाइये॥
अलङ्कार मुख्य उनतालीस है देव, कहैं,
येई पुराननि मुनि मतनि मैं पाइये।
आधुनि कविन के संमत अनेक और,
इनहीं के भेद और बिबिध बताइये।

शब्दार्थस्वभावोक्ति, उपमा, उपयोपमा, संशय, अनन्वय, रूपक, अतिशयोक्ति, सामासोक्ति, वक्रोक्ति, पर्यायोक्ति, सहोक्ति, विशेषोक्ति, अर्थान्तरन्यास, व्यतिरेक, विभावना, उत्प्रेक्षा, आक्षेप, दीपक, उदात्त, [ १४२ ]अपन्हुति, श्लेष, अप्रस्तुति-स्तुति, व्याजस्तुति, आवृत्तिदीपक, निदर्शना, विरोध, परिवृत्ति, हेतु, उर्जस्वल, रसवत, सूक्षम, प्रेम, क्रम, समाहित, तुल्ययोगिता, लेस, भाविक, सङ्कीर्ण तथा आशिष ये मुख्य ३९ अलङ्कार प्राचीन आचार्यों के मत से हैं। आधुनिक कवियों के मत से इनसे अधिक अलंकार हैं, जो इन्हीं के अनेक भेद और उपभेद कहे जा सकते हैं।

१—स्वभावोक्ति
दोहा

जहाँ स्वभाव बखानिये, स्वभावोक्ति सो नाम।
सुकवि जाति बर्णन करत, कहत सुनत अभिराम॥

शब्दार्थसरल है।

भावार्थजहाँ पर किसी के स्वाभाविक गुण का वर्णन हो वहाँ-स्वभावोक्ति अलंकार होता है।

उदाहरण
कवित्त

आगे आगे आस पास फैलति बिमल बास,
पीछे पीछे भारी भीर भौंरनि के गान की।
तातें अति नीकी किंकिनी की झनकार होति,
मोहनी है मानों मदमोहन के कान की॥
जगर मगर होति जोति नव जोबन की,
देखें गति भलें मति देव देवतान की।
सामुहैं गली के जु अली के संग भली भाँति,
चली जाति देखी वह लली वृषभान की॥

[ १४३ ]

शब्दार्थविमल-निर्मल, स्वच्छ। किंकिनी-करधनी, कमर का आभूषण विशेष। जगर मगर-प्रकाशमान। लली वषभान की-राधा।

२—उपमा
दोहा

 
नून गुनहिं जहँ अधिक गुन, कहिये बरनि समान।
अलङ‍्कार उपमा कहत, ताही सुमति सुजान॥

शब्दार्थनून-न्यून, कम।

भावार्थकिसी वस्तु की किसी अन्य वस्तु के साथ न्यून अथवा अधिक गुण के कारण, समानता की जाय; उसे उपमा अलंकार कहते हैं।

उदाहरण
सवैया

राति जगी अँगिराति इतै, गहि गैल गई गुनकी विधि गोरी।
रोमबली त्रिबली पै लसी, कुसमी अँगियाहू लसी उर ओरी॥
ओछे उरोजनि पै हँसि कें, कसि के पहिरी गहरी रंग बोरी।
पैरि सिवार सरोज सनाल, चढ़ी मनों इन्द्रवधूनि की जोरी॥

शब्दार्थअँगिराति-अंगड़ाती है। गुन की निधि-गुणों की खानि, गुणवती। रोमबली-रोमावलि। त्रिबली-उदर की तीन रेखाएँ। कुसुमी-कुसुम्सी रंग की। पैरि-पहनकर। सिवार-जल में होनेवाली लताविशेष। इन्द्रबधूनि-बीरबहूठी। जोरी-जोड़ी, युग, दो। [ १४४ ] 

३—उपमेयोपमा
दोहा

उपमा अरु उपमेय कौ, जहँ क्रम एकै होइ।
सोई उपमेयोपमा, बरनि कहै सब कोइ॥

शब्दार्थ—सरल है।

भावार्थ—जहाँ उपमा और उपमेय का एक ही क्रम हो, उसे उपमेयोपमा कहते हैं।

उदाहरण
सवैया

तेरी सी बेनी है स्याम अमा अरु, तेरीयो बेनी है स्याम अमा सी।
पूरनमासी सी तू उजरी, अरु तोसी उजारी है पूरनमासी॥
तेरौ सो आनन चंद लसै, तुअ आनन मैं सखी चंद समा सी।
तोसी बधू रमणीय रमा, कविदेव है तू रमणीय रमा सी॥

शब्दार्थ—अमा—अमावस्या। उजारी—उज्ज्वल। आनन—मुख। लसै—शोभायमान हो। तुअ—तैरे। तोसी—तेरे समान। रमणीय—सुन्दर। रमा—लक्ष्मी।

४—संशय
दोहा

जहाँ उपमा उपमेय को, आपुस में संदेहु।
ताही सों संसै उकति, सुमति जानि सब लेहु॥

[ १४५ ]

शब्दार्थ—संसै—संशय।

भावार्थ—जहाँ उपमा और उपमेय में संदेह उपस्थित हो, वहाँ संशय अलंकार होता है।

उदाहरण
सवैया

 
श्री वृषभानकुमारी के रूप की, न्यारी कै को उपमा उपजावै।
चंचल नैन के मैन के बान, कि खञ्जन मीनन कोई बतावै॥
आनँद सो बिहसाति जबै, कविदेव तबै बहुधा मनधावै।
कै मुख कैधो कलाधर है, इतनो निहच्योई नहीं चित आवै॥

शब्दार्थ—मैन के बान—कामदेव के बाण। खञ्जन—पक्षी विशेष जिसकी आँखें बहुत सुन्दर मानी गयी है। निहच्योई—निश्चय! कलाधर—चन्द्रमा। कै....आवे—निश्चय नहीं होता कि यह मुख है अथवा चन्द्रमा।

५—अनन्वय
दोहा

तैसो सोई बरनिये, जहाँ न और समान।
ताहि अनन्वय नाम कहि, बरनत देव सुजान॥

शब्दार्थ—सरल है।

भावार्थ—जिसकी उपमा के लिए; कोई अन्य वस्तु न हो अर्थात् उसके समान वही हो उसे अनन्वय अलंकार कहते है।

उदाहरण
सवैया

कस से केस लसे मुख सौ मुख, नैन से नैन रहे रङ्ग सो छकि।
देव कहै सब अङ्ग से अङ्ग, सुरङ्ग दुकूलनि मैं झलकै झकि॥

[ १४६ ]

और नहीं उपमा उपजै जग, ढूंढ़ो सबै सब भांतिन सोंतकि।
राधिका श्री वृषभानुकुमारी, तोसी तुहीं अरु कौन सरै बकि॥

शब्दार्थ—दुकूलनि—वस्त्र। ढूंढ़ो......तकि—हरएक तरह से खोजकर देखने पर भी। तोसी तुही...बकि—तेरे समान तूही है और अधिक बकने से क्या लाभ।

६–७—रूपक और अतिशयोक्ति
दोहा

सम समान जैंसे जनो, जिमि ज्यों मानो तूल।
और सरिस कबिदेव ए, पद उपमा के मूल॥
जहँ उपमा मैं ये न पद, सोई रुपक जानु।
सीमा ते अति बरनिये, अतिसय ताहि बखानु॥

शब्दार्थ—सरल है।

भावार्थ—सम, समान, जैसे, जनो, जिमि, ज्यो, मानो, तुल्य तथा सरिस ये उपमासूचक शब्द जिस उपमा में न आवें, उसे रूपक और जहाँ सीमासे अधिक किसी का वर्णन हो, उसे अतिशय अलंकार कहते हैं।

उदाहरण
कवित्त

मन्दहास चन्द्रका कौ मन्दिर बदन चन्द,
सुन्दर मधुरबानि सुधा सरसाति है।
इन्दिर के ऐन नैन इन्दीबर फूलिरहे,
बिद्रुम अधर देत मोतिन की पांति है॥
ऐसो अद्भुत रूप राधिका कौ देव देखौ,
जाके बिनु देखे छिन छाती न सिराति है।

[ १४७ ]

रसिक कन्हाई बलि पूछन हों आई तुम्हैं,
ऐसी प्यारी पाइ कैसे न्यारी रखि जाति है॥

शब्दार्थ—मन्दहास—मृदुहास। इन्दीबर—नीला कमल। बिद्रुम—मूंगा। मोतिन—मोती। पांति—पंक्ति। छाती न सिराति है—हृदय को शान्ति नहीं मिलती। कैसे...जाति है—भला कैसे अलग रखी जाती है।

८—समासोक्ति
दोहा

कछू बस्तु चाहै कहो, ता सम बरनै और।
सुसमासोक्ति सो जानिये, अलङ्कार सिरमौर॥

शब्दार्थ—सरल है।

'भावार्थ—जहाँ प्रस्तुत किसी वस्तु का वर्णन करते समय उसी के समान किसी अन्य अप्रस्तुत वस्तु का वर्णन किया जाय वहाँ समासोक्ति अलङ्कार होता है।

उदाहरण
सवैया

मालती सों मलिये निस द्योस हू, या सुखदानि ह्वै ज्यों समुझैयै।
प्रीति पुरानी पुरैनि के रैनि, रहौ नियरे न विपत्ति बहैयै॥
ऊपर ही गुनरूप अनूप, निरन्तर अन्तर मैं पतियैयै।
वे अलि दूलह भूलेहू देव जू, चम्पक फूल के मूल न जैयै॥

शब्दार्थ—निसद्योस—रात-दिन। पुरैन—कमल। नियरे—पास, निकट। निरन्तर—सदा, सर्वदा। पतियैयै—विश्वास करिए। भूले हू—भूल-कर भी। [ १४८ ] 

९—वक्रोक्ति
दोहा

काकु बचन अश्लेष करि, और अरथ ह्वै जाइ।
सो बक्रोक्ति सु बरनियें, उत्तम काव्य सुभाइ॥

शब्दार्थ—सरल है।

भावार्थ—किसी के द्वारा कही हुई बात का सुनने वाला जहाँ ध्वनि विशेष से अर्थ लगा लेता है वहाँ वक्रोक्ति अलङ्कार होता है।

उदाहरण
सवैया

मति कोप करै पति सो कबहूँ, मति को पकरै पतिसो निबहैं।
कबि देव न मानबधूरत हैं, सब भाखत आन बधूरत है॥
अब लौं न कहूँ अबलोकि तुम्हैं, अब लोक तुम्हैं सुख देत रहैं।
किनि नाम कहौ हमसो तिन कौ, हम सौतिन कौ किहिमांति कहै॥

शब्दार्थ—मति कोप करै—क्रोध मत कर। मति को पकरै—बुद्धि को काम में लाने से। अबलोकि—देख कर। किनि—क्यो नही। हम सोतिनको—हमसें उनका। हम सौतिन कौं—हम सोतो से। किह...कहैं—किस तरह कहे।

१०—पर्यायोक्ति
दोहा

मन की कहे न ताल ये, बरने और प्रकार।
परजायोक्ति सुनाम जो, अलङ्कार निरधार॥

शब्दार्थ—सरल है।

भावार्थ—जब किसी बात को व्यङ्गपूर्वक स्पष्ट न कह कर, हेर फेर से कहा जाय तब पर्यायोक्ति अलंकार होता है। [ १४९ ] 

उदाहरण
सवैया

मैं सुनी कालि परो लगि सासुरे, जैहो सुसांची कहौ किनि सोऊ।
देव कहै केहि भांति मिलै अब, को जाने काहि कहा कब कोऊ॥
भेटि तो लेहु भटू उठि स्याम को, आजुही की निस आये हैं ओऊ।
हौं अपने दृग मूंदति हो धरि, धाइ के आज मिलो तुम दोऊ॥

शब्दार्थ—साँची कहो किनि—सच सच क्यों नहीं कहतीं। हौ मैं। द्रग—आँखें।

११—सहोक्ति
दोहा

सो सहोक्ति जहँ सहित गुन, कीजे सहज बखान।
अलङ्कार कवि देव कहि, सो सहोक्ति उर आनि॥

शब्दार्थ—सरल है।

भावार्थ—'सहित' शब्द के साथ जहाँ किसी गुण का वर्णन किया जाय वहाँ सहोक्ति अलंकार होता है।

उदाहरण
सवैया

प्यारी के प्रान समेत पियो, परदेस पयान की बात चलावै।
देव जू छोभ समेत छपा, छतियाँ मैं छपाकर की छबि छावै॥
बोलि अली बन बीच बसन्त कौ, मीचु समेत नगीच बतावै।
काम के तीर समेत समीर, सरीर में लागत पीर बढ़ावै॥

[ १५० ]

शब्दार्थ—छपा—शोभा। छपाकर—चन्द्रमा। मीचु—मृत्यु। नगीच—पास, निकट। समीर—हवा, वायु। पीर—पीड़ा।

१२—विशेषोक्ति
दोहा

जाति कर्म गुन भेद की, बिकल्पता करि जाहि।
वस्तुहि बरनि दिखाइये, विशेषोक्ति कहु ताहि॥

शब्दार्थ—सरल है।

भावार्थ—जहाँ किसी वस्तु के गुण कर्मादि की विकल्पता वर्णन की जाय वहाँ विशेषोक्ति अलंकार होता है।

उदाहरण
सवैया

जोबन व्याधु नहीं अरु बैननि, मोहनी मन्त्र नहीं अवरोह्यो।
भौंह कमान न बान बिलोचन, तानि तऊ पति कौ चितु पोह्यो॥
देव घृताची सची न रची तूं, दियो नहीं देवता को तन तो ह्यो।
तापर बीर अहीर की जाई री, तै मनमोहन कौ मन मोह्यो॥

शब्दार्थ—जोबन—यौवन। भौंह...पोह्यो—न तो तेरी भौंहे कमान हैं और न नेत्र वाण परन्तु फिर भी तुने पति का वित्त वेत्र लिया है। मोह्यो—मोहित किया।

१३—व्यतिरेक
दोहा

जहँ समान बिवि वस्तु की, कीजे भेद बखानु।
अलङ्कार व्यतिरेक सो, देव लुमति पहिचानु॥

शब्दार्थ—विवि—दो।

भावार्थ—जहाँ दो समान वस्तुओं का वर्णन कर के, एक में कुछ विशेषता वर्णन की जाय वहाँ व्यतिरेक अलंकार होता है। [ १५१ ] 

उदाहरण
सवैया

कौन के होइ नहीं मैं हुलासु, सुजात सबै दुःख देखत ही दवि।
जाहि लखैं बिलखैं यह भाँति, परै मनु सौति सरोजन पै पबि॥
याही तें प्यारी तिहारी मुखद्युति, चन्दसमान बखानत हैं कबि।
आनन ओप मलीन न होति, पै छीनि कै जाति छपाकर की छबि।

शब्दार्थ—पबि—पत्थर। ओप—प्रकास, शोभा। आनन...छवि—मुख की शोभा कभी मलीन नही होती परन्तु चन्द्रमा की कलाक्षीण हो जाती है।

१४—विभावना
दोहा

हेतु प्रसिद्धि निरास करि, कहिये हेतु सुभाउ।
अलङ्कार कबिदेव कहि, सो बिभावना गाउ॥

शब्दार्थ—सरल है।

भावार्थ—जहाँ प्रसिद्ध हेतु के विनाही कार्य का वर्णन किया जाय वहाँ विभावना अलंकार होता है।

उदाहरण
सवैया

ये अँखियाँ बिनु काजर कारी, अयाँरी चितै चित्त में चपटीसी।
मीठी लगे बतियाँ मुख सीठी, यों सौतनि के उरमैं दपटीसी॥
अङ्गहू राग बिना अँग अङ्ग, झकोरें सुगन्धन की झपटी सी।
प्यारी तिहारी ये एड़ी लसै, बिन जावक पावक की लपटी सी॥

[ १५२ ]

शब्दार्थ—सीठी—फीकी। एडी...... लपटीसी—एडी में बिना, महावर के लगे हुए भी वे अग्नि की लो के समान लाल लगती हैं।

१५—उत्प्रेक्षा
दोहा

और बस्तु कौ तर्ककरि, बरने निहचै और।
सो कहिये उतप्रेक्षा, अनुमानादिक दौर॥

शब्दार्थ—निहचै—निश्चय।

भावार्थ—किसी वस्तु का तर्क कर के अनुमान द्वारा किसी दूसरी वस्तु की कल्पना कर ली जाय वहाँ उत्प्रेक्षा अलंकार होता है।

उदाहरण
कवित्त

हियौ हरै लेती पशु पक्षी बस करै लेतीं,
छिनो बिछुरे ही छिदि छिदि उठे छतियां।
सुनि सुनि मोही हिय जानति हौ कोही,
अब ओही रूप रहै अबरोही दिन रतियां॥
रह्यो न परत मौन मान को करैरी कौन,
भूल्यो भौन गौन गई लोक लाज घतियां।
मेरे मान आवति मनिन मन मोहिवे कों,
मोहनी के मंत्र हैं री मोहनी की बतियां॥

शब्दार्थ—छिद छिद उठै—छाती में बार बार पीड़ा हो उठती है। मेरे...........बतियाँ—मुझे ऐसा ज्ञात होता है मानो मोहन की बाते मोहनी मंत्र है जो मुनियो तक का मन मोह लेती हैं। [ १५३ ] 

१६–१७—आक्षेप और उदात्त
दोहा

करत कहत कछु फेर सौ, बर्जन बच आक्षेप।
उदात्त मैं अति बरनिये, सम्पति दुति अवलेप॥

शब्दार्थ—फेर सौ—हेर फेर से।

भावार्थ—जो बात कहनी हो उसे विशेष जोर देने के लिए हेर फेर के साथ, ऊपर से मना करते हुए वर्णन करना आक्षेप कहलाता है और जहाँ असम्भव धनादि का वर्णन हो वहाँ उदात्त अलंकार होता है।

उदाहरण (आक्षेप)
कवित्त

नूतन गुलाल नूत मञ्जरी की मालनि सों,
कोजे गजमुख सन मुख सनमान कौ।
करिहै सकल सुख विमुख बियोग दुःख,
जानियो न न्यारे ये हमारे पिय प्रान कौ॥
बाये बोलैं मोर पिक सोर कर सामुहे हूँ,
दाहिने सुनोजू मत्त मधुकर गान को।
सगुन भले हैं चलिवे को जो पै चलो चितु,
आवतु बसन्त फन्त करिये पयान को॥

शब्दार्थ—बायें—बायी ओर। सामुहे—सामने। सगुन—शकुन। —कन्त-पति। [ १५४ ] 

उदाहरण (उदात्त)
सवैया

बाल कों न्योति बुलाइवे कों, बरसाने लों हौं पठई नन्दरानी।
श्रीवृषभान की संपति देखि, थकी अतिही गति औ मति बानी॥
भूलि परी मनिमन्दिर मैं, प्रतिबिंबन देखि विशेष भुलानी।
चारि घरी लों चितौत चितौत, मरू करि चन्दमुखी पहिचानी॥

शब्दार्थ—न्योति—न्योता देकर, निमन्त्रण देकर। बरसाने लौं—बरसाने (ग्राम विशेष) तक। पठई—भेजी। चारि पहिचानी—वार घड़ी तक देखती रही तब कही कठिनता से चन्द्रमुखी को पहचान सकी। मरू करि—मुश्किल से, कठिनता से।

१८—दीपक
दोहा

अरथ कहैं एकै क्रिया, जहाँ आदि मधि अन्त।
अथवा जहँ प्रतिपद क्रिया, दीपक कहत सुसंत॥

शब्दार्थ—आदि—आरम्भ। मधि—बीच।

भावार्थ—जहाँ किसी समस्त पद के आदि, मध्य और अन्त की क्रिया एक ही हो वहाँ दीपक अलंकार होना है।

उदाहरण
सवैया

मोहि लई हिरनी लखि कै, हरि नीरज सी बड़री अँखियानसों।
सारिका, सारसिका, रसिका, सुकपोत कपोती पिकी मृदुबानिसों॥
देव कहै सब भूपसुता अनुरूप, अनूपम रूप कलानिसों।
गोपबधू बिधु से मुख की घन, सुन्दर हेरि हरी मुसक्यानियों॥

[ १५५ ]

शब्दार्थ—मोहिलई—मोहित करली। नीरजसी—कमल के समान। बड़री—बड़ी। सारिवा—मैना। सरासिका—सारसी (मादा सारस)

१९—अपन्हुति
दोहा

मन को अरथ छिपाइये, औरे अर्थ प्रकास।
श्लेष बचन काकु स्वरनि, कहत अपन्हुति तास॥

शब्दार्थ—तास—उसे

भावार्थ—मनका अर्थ छिपा कर जहाँ दूसरा अर्थ (काकु अथवा श्लेष) से प्रकट किया जाय वहाँ अपन्हुति अलंकार होता है।

उदाहरण
सवैया

हौहीं हौ और कि ये सब और कि, डोलत आजु कौ औरे समीरौ।
यातें इन्हें तन ताप सिरातु पै, मेरे हिये न थिरातु है धीरौ॥
ये कहैं कोकिल कूक भली, मुहि कान सुने जम आवतु नीरौ।
लोग ससी को सराहतरी सब, तोहूँ लगै सखी सांचैहू सीरौ॥

शब्दार्थ—सिरातु—ठंडा होता है। थिरातु..धीरौ—धैर्य नहीं रहता। कान..नीरौ—सुनते ही ऐसा जान पड़ा है मानो यम पास आ गया अर्थात् कोयल की वाणी अत्यन्त बुरी लगती है। साँचै हूँ—सचमुच ही। सीरौ—ठंडा। [ १५६ ]
२०-श्लेष
दोहा

जहाँ काव्य के पदनि मै, उपजै अरथ अनंत।
अलंकार अश्लेष सो, बरनत कवि मतिमंत॥

शब्दार्थ--पदनि-पदो मे।

भावार्थ-जहाँ काव्य के पदो मे अनेक अर्थ निकलें वहाँ श्लेष अलंकार होता है।

उदाहरण
सवैया

ऐसौ गुनी गरे लागतही न, रहै तन मै सनताप री एकौ।
देव महारस बास निवास, बड़ो सुख जा उर बास किये को॥
रूप निधान अनूप बिधान, सुप्राननि कौ फल जासो जिये कौ।
सांचेहूँ है सखी नन्दकुमार, कुमार नहीं यह हार हिये कौ॥
[इसमे हार और नन्दकुमार दोनो का वर्णन है।]

शब्दार्थ--गरे लागतही-गले लगतेही। एकौ एक भी। साँचेहू .....हिये कौ-हे सखी, यह नन्दकुमार नहीं, मेरे हृदय का हार है।

२१-अर्थान्तरन्यास
दोहा

युक्त अरथ दृढ़ करन कों, वाक्य जु कहिये और।
सो अर्थान्तरन्यास कहि, बरनत रस बस भोर॥

शब्दार्थ -- सरल है। [ १५७ ]

भावार्थ—जहाँ अर्थ की पुष्टि के लिए कोई और वाक्य कहा जाय वहाँ अर्थान्तरन्यास होता है।

उदाहरण
सवैया

चैन के ऐन ये नैन निहारत, मैन के कोउ कर मैं न परै री।
तापर नैसिक अञ्जन देत, निरञ्जनहू के हिये कों हरै री॥
साधुओं होइ असाधु कहू, कविदेव जो कारे के संग परै री।
स्याही रह्यो अरु स्याह सुतौ, सखी आठहू जाम कुकाम करै री॥

शब्दार्थ—ऐन—स्थान, घर। मैन—कामदेव। नैसिक—थोड़ा, नेक। निरञ्जन—निष्काम, स्याह—काला। आठहूजाम—आठो याम, रात दिन।

२२–२३—अप्रस्तुति प्रशंसा और व्याजस्तुति
दोहा

 
जहाँ सु अप्रस्तुति अस्तुती, निंदा की अचान।
निंदै और जहाँ सराहियै, सो व्याजस्तुति जान॥

शब्दार्थ—सरल है।

भावार्थ—जहाँ प्रस्तुत के वर्णन करने के लिए अप्रस्तुत का वर्णन किया जाय वहाँ अप्रस्तुत प्रशंसा और निंदा के बहाने स्तुति की जाय वहाँ व्याजस्तुति अलंकार होता है।

उदाहरण (अप्रस्तुति प्रशंसा)
सवैया

बड़भागिन येई बिरंच रची, न इतौ सुख आन कहूँ तिय के।
बिछुरै न छिनौ भरि बालम ते, कविदेव जू संग रहैं जिय के॥

[ १५८ ]

तृन चारु चरै रुचि सों चहुँ ओर, चलै चितवै सुचि सों हिय के।
सब तें सब भांति भली हरिनी, निसिबासर पास रहै पिय के॥

शब्दार्थ—येई–येही, इन्हीं को। विरंच—ब्रह्मा। इतौ—इतना। छिनौ भर—क्षण भर भी। बालम—पति। सबतें.....पिय के—सब से बढ़कर तो हिरनी ही है जो सदा अपने पति के पास रहती है।

उदाहरण (व्याजस्तुति)
सवैया

को हमकों तुमसे तपसी बिनु, जोग सिखावन आइ है ऊधौ।
पै यह पूछियै जू उनको सुधि, पाहिली आवति है कबहूँ धौ।
एक भली भई भूप भये अरु, भूलि गये दधि माखन दूधौ॥
कूबरी सी अति सूधी बधू को, मिल्यो बर देव जू स्याम सौ सूधो।

शब्दार्थ—पाछिली—पिछली। कबहूंधौ—कभी। माखन दूधौं—मक्खन और दूध। सूधौं—सरल।

२४—आवृत्ति दीपक
दोहा

आवृति दीपक भेद है, ताहू त्रिविधि बखान।
आवृति अर्थावृत्ति अरु, पर पदार्थवृति जानु॥

शब्दार्थ—सरल है।

भावार्थ—आवृति दीपक, दीपक अलंकार का ही एक भेद है। यह भी तीन प्रकार का होता है। १—आवृत्ति २—अर्थावृत्ति ३—पदार्थावृत्ति। [ १५९ ]

उदाहरण
सवैया


बेली लसैं विलसैं नव पल्लव, फूल खिलैं न खिलैं नव कोर।
मोरत मान को गान अलीनि के, कूकि पिकी मुनि कौ मन मोरे॥
डोलत पौन सुगन्ध चलै अरु, मैन के बान सुगन्ध को डोरे।
चंचल नैननि सो तरुनी अरु, नैन कटाछन सों चितु चोरे॥

शब्दार्थ—मोरत मान को—मान का चूर्ण करते है, हटाते हैं। अलीन—भौरे। पौन—हवा। चितु चोरे—मन को चुराती है।

२५—निदर्शना
दोहा


औरै बन्तु बखानिये, फल तब ताहि समान।
जहां दिखाइय और महि, ताहि निदर्शन जान॥

शब्दार्थ—और महि—दूसरे में, अन्य में।

भावार्थ—जब किसी वस्तु का वर्णन करते समय उसका फल उसीके समान किसी अन्य वस्तु में दिखलाया जाय तब निदर्शना अलंकार होता हैं।

उदाहरण
सवैया


देखिबे को जिनको दिन राति, रहै उर में अति आतुर ह्वै हरि।
कोटि उपाइन पाइये जे न, रहे जिनके बिरहज्वर सों जरि॥
पार न पैयतु आनद कौ तिन, आनि भटू उठि भेटें भुजा भरि।
जानी परै नहिं देव दया, बिप देत मिली बिपया जु मया करि॥

शब्दार्थ—कोटि—करोड़ों। [ १६० ] 

२६—विरोध
दोहा

जहाँ विरोधी पदारथ, मिलै एकही ठोर।
अलङ्कार सुविरोध बिनु, विष पियूष विष कोर॥

शब्दार्थ—सरल है।

भावार्थ—जहाँ विरोधी पदार्थ एक ही स्थान पर वर्णित हो वहाँ विरोध अलंकार होता है। जैसे अगृत और विष।

उदाहरण
सवैया

आयो बसन्त लग्यो बरसाउन, नैननि तें सरिता उमहे री।
कौ लगि जीव छिपावै छपा मैं, छपाकर की छबि छाइ रहै री॥
चंदन सों छिरके छतिया अति, आगि उठै दुःख कौन सहैरी।
देव जू सीतल मन्द सुगन्ध, सुगन्ध बहौ लगि देह दहै री॥

शब्दार्थ—नैननि तें—आँखों से। सरिता—नदी। उमहेरी—बह रही है।

२७—परिवृत्ति
दोहा

जहाँ बस्तु बरननि पदनि, फिरि आवतु है अर्थ।
ताही सों परिवृत्ति कहि, बरनत सुमति समर्थ॥

शब्दार्थ—सुमति—बुद्धिमान।

भावार्थ—जहाँ पर (सम, कम या अधिक) वस्तुओं के बदले में (सम, कम या अधिक) वस्तुओं को लिया जाय उसे परिवृत्ति अलंकार कहते है। [ १६१ ] 

उदाहरण
कवित्त

केवली समूढ़ लाज ढूढ़त ढिठाइ पैये,
चातुरी अगूढ़ गूढ़ मूढ़ता के खोज हैं।
सोभा सील भरत अरति निकरत सब,
मुहि चले खेल पुरि चले चित्त चोज हैं॥
हीन होति कटि तट पीन होत जघन,
सघन सोच लोचन ज्यो नाचत सरोज हैं।
जाति लरिकाई तरुनाई तन आवत सु,
बैठत मनोज देव उठत उरोज हैं॥

शब्दार्थ—हीन..कटि—कमर पतली होती है। पीन—पुष्ट। जधन—जंघाएँ। सरोज—कमल। लरिकाई—लड़कपन। तरुनाई—तारुण्य, यौवन। मनोज—कामदेव। उरोज—कुच।

२८–२९—हेतु और रसवत
दोहा

हेतु सहित जँह अरथ पद, हेतु बरनिये सोइ।
नौहू रस मैं सरसता, जहाँ सुरसवत होइ॥

शब्दार्थ—सरल है।

भावार्थ—जहाँ हेतु सहित किसी वस्तु का वर्णन किया जाय वहाँ हेतु अलंकार होता है, और जिसके कारण नवो रसो में सरसता आजाय वहाँ रसवत अलंकार होता है। [ १६२ ] 

उदाहरण (पहला)
सवैया

देव यहै दिन राति कहै हरि, कैसेहूँ राधे सो बात कहैबी।
केलि के कुंज अकेली मिलै, कबहूं भरिके भुज भेटिन पैबी॥
आठहू सिद्धि नवोनिधि की निधि, है विरची विधि सान्निधि ऐबी।
मेटि बियोग समेटि हियो, भरि भेटि कबै मुखचन्द अचैबी॥

शब्दार्—कैसे हूं—किसी प्रकार। पैबी—पाँऊ, पासकूँ। सान्निधि—निकट, पास।

उदाहरण (दूसरा)
सवैया

बेली नवेली लतानि सों केली के, प्रात अन्हाइ सरोवर पावन।
पिंजर मंजर का छहराइ, रजक्षति छाइ छपाइ छपावन॥
सीतल मन्द सुगन्ध महा, बपुरे बिरही बपुरी नित पावन।
आजु को आयो समीर सखीरी, सरोज कँपाइ करेजो कँपावन॥

शब्दार्थअन्हाइ—नहाकर, स्नान करके। समीर—हवा। करेजो—कलेजा, हृदय।

३०–३१—ऊर्जस्वल और सूक्ष्म
दोहा

अहङ्कार गर्ब्बित बचन, सो ऊर्जस्वल होइ।
संज्ञा सो प्रगटे अरथ, सूछम कहिये सोइ॥

शब्दार्थ—सरल है।

भावार्थ—जहाँ गर्वयुक्त वचनों का वर्णन हो वहाँ ऊर्जस्वल और जहाँ संकेत से विषय की जानकारी हो वहाँ सूक्ष्म अलंकार होता है। [ १६३ ]

उदाहरण (ऊर्जस्वल)
सवैया


देव दुरन्त दमी अचयो जिहि, कालिय को लै घरयो सुब ह्वै है।
कौलो बको हौं बकी बकवक्ष, अघारिक को अघु कै—कै अघैहै॥
कान्ह के आगे न काहू को कोप, कहूँ कबहूँ निबह्यो न निबैहै।
छाड़ि दै मानरी मान कह्यौ, कहुँ भानु को तेज कृसानु पै रैहै॥

शब्दार्थ—भानु—सूर्य। कुसानु—अग्नि।

उदाहरण (सूक्ष्म)
सवैया


बैठी बहू गुरुलोगनि में लखि, लाल गये करिके कछु औल्यो।
ना चितई न भई तिय चंचल, देव इते उनतें चितु डोल्यो॥
चातुर आतुर जानि उन्हें, छलही छल चाहि सखीन सों बोल्यो।
त्योंही निसङ्क मयङ्कमुखी दृग, मूदि कै घूघट को पट खोल्यो॥

शब्दार्थ—औल्यो—बहाना। मयङ्कमुखी—चन्द्रमा के समान मुख वाली। दृग मूंदि कैं—आँखें मूंदकर।

३२-३३—प्रेम और क्रम
दोहा


कहिये जो अति प्रिय बचन, प्रेम बखानौ ताहि।
उपमा अरु उपमेय को, क्रम सुक्रमोक्ती आहि॥

शब्दार्थ—सरल है।

भावार्थ—जहाँ अतिप्रिय वचनों का वर्णन किया जाय वहाँ प्रेम और जहाँ उपमा उपमेय क्रम से वर्णन किये जाँय वहाँ क्रमालंकार होता है। [ १६४ ] 

उदाहरण
कवित्त

केस भाल भृकुटी नयन श्रुति औ कपोल,
नासिका अधर देत चिबुक बिचारिये।
कंठ कुच नाभी त्रौली रोमावलि और कटि,
भुज कर जानु पग प्यारी के निहारिये॥
कहूँ तम चन्द चांप खञ्जन कनक पुट,
पत्र, सुक, बिंव, मोती, चंपकली बारिये।
कंबु, निंबु, कूप, नदी, सैबाल, मृनाललता,
पल्लव कदलि, कञ्ज चेरे करि डारिये॥

शब्दार्थ—चिबुक—ठोड़ी। त्रौली—त्रिबली। बिंव—बिंवाफल। चेरे करि डारिए—निछावर करिए। कंबु—शंख। कदलि—केला।

३४—समाहित
दोहा

जँह कारज करतव्य कौ, साधन विधि बल होइ।
अकसमात ही देव कहि, कहौ समाहित सोइ॥

शब्दार्थ—सरल है।

भावार्थ—जहाँ कार्य का साधन विधिबल से अकस्मात होजाय वहाँ समाहित अलंकार होता है।

उदाहरण
सवैया

गुन गौरि कियो गुरु मान सु मैन, लला के हिये लहराइ उठ्यो।
मनुहारि के हारि सखी गुन औरंग, भौनहि ते भहराइ उठ्यो॥

[ १६५ ]

तब लों चहूँघाई घटा घहराइ कें, बिज्जु छटा छहराइ उठ्यो।
कवि देवजू भाग तें भामती कौ, भय ते हियरा हहराइ उठ्यो॥

शब्दार्थ—मनुहारि—ख़ुशामद, विनती। चहुधांई—चारों ओर। हियरा—हृदय।

३५—तुल्ययोगिता
दोहा

जहँ समकरि गुन दोष कै, कीजै बस्तु बखान।
स्तुतिन पदारथ कौ तहाँ, तुल्ययोगिता जान॥

शब्दार्थ—सरल है।

भावार्थ—जहाँ वस्तुओं के गुण दोषों का वर्णन समान रूप से किया जाय वहाँ तुल्ययोगिता अलंकार होता है।

उदाहरण
सवैया

एक तुहीं वृषभानसुता अरु, तीनि हैं वे जु समेत सची हैं।
औरन केतिक राजन के, कबिराजन की रसनायै मची हैं॥
देवी रमा कबि देव उमा ये, त्रिलोक मैं रूप को रासि मची हैं।
पै वर नारि महा सुकुमारि, ये चारि बिरश्च बिचारि रचीं हैं॥

शब्दार्थ—तुहीं—तूही। केतिक—कितनी ही। रमा—लक्ष्मी। रूप की रासि—सौंदर्य की खानि। बिरञ्च रची हैं—ब्रह्मा ने विचारपूर्वक बनाया है। [ १६६ ]
३६-लेस
दोहा

प्रगट अरथ जहँ लेस करि, कीजे ताहि निगृढ़।
लेस कहत तासों सुकबि, जे बुधि बल आरूढ॥

शब्दार्थ-सरल है।

भावार्थ-जहाँ किसी वस्तु के प्रकट अर्थ को छिपा कर वर्णन किया जाय वहाँ लेस अलङ्कार होता है।

उदाहरण
सवैया

बाल बिलोकत हीं झलकी सी, गुपाल गरै जलबिन्द की मालै।
अपुस मै मुसक्यानी सखी, हरिदेव जू बाते बनाइ बिसालै॥
साँप ज्यों पौन गिलै उगिलै, बिपयो रबि ऊषम आनि उगालै।
जात घुस्यो घरही में घने, तपधीनु भयो तनुघाम के घालै॥

शब्दार्थ-बिसालै-बड़ी-बड़ी। गिलै-निगल जाय। उगिलै-बाहर निकाले।

३७-भाविक
दोहा

भूत रु भावी अरथ कों, बर्त्तमान सु बखानु।
भाविक बस्तु गंभीर कों, सोई भाविक जानु॥

शब्दार्थ-सरल है।

भावार्थ-जहाँ भूत, और भविष्य को वर्त्तमान की भाँति वर्णन किया जाय वहाँ भाविक अलंकार होता है। [ १६७ ] 

उदाहरण पहला
सवैया

जादिन तें वृजनाथ भटू, इह गोकुल ते मथुराहि गए हैं।
छकि रही तब तें छबि सों छिन, छूटति न छतिया मैं छए हैं॥
वैसिय भांति निहारति हौं हरि, नाचत कालिन्दी कूल ठये हैं।
शत्रु सँहारि के छत्र धर्यो सिर, देखत द्वारिकानाथ भये हैं॥

शब्दार्थ—वैसिय—उसी तरह, उसी प्रकार।

उदाहरण दूसरा (गम्भीरोक्ति)
सवैया

सबही के मनों मृग वा गुरजे, दृग मीनन कौ गुन जाल लियें।
बसुधा सुख सिन्धु सुधारसु पूरन, जात चले वृज की गलियें॥
कबि देव कहे इहि भांति उठी, कहि काहू की कोई कहूँ अलियें।
तबलों सबही यह सोरु परौ, कि चलौ चलिये जू चलौ चलिये॥

शब्दार्थ—गलियें—गलियों में। सोरु—शोर, हल्ला।

३८–३९—संकीर्ण और आशिष
दोहा

अलङ्कार जामें बहुत, सो सङ्कीरन होइ।
चाह चित्त अभिलाख को, असिख बरनै सोइ॥

शब्दार्थ—अभिलाख—अभिलाषा।

भावार्थ—जिस पद्य में बहुत से अलंकार एक साथ वर्णित हों वह सकीर्ण ओर जिसमें चित्त की अभिलाषा का वर्णन हो वह आशिष अलंकार कहलाता है। [ १६८ ] 

उदाहरण (संकीर्ण)
सवैया

डोलति हैं यह कामलतासु, लचीं कुच गुच्छ दरूह उधा की।
कौल सनाल किवाल के हाथ, छिपी कटि कान्ति की भाति मुधाकी।
देव यही मन आवति है, सबिलास बधू बिधि हैं बहुधा की।
भाल गुही मुक्तालर माल, सुधाधर मैं मनौ धार सुधा की॥

शब्दार्थ—सुधाधर–चन्द्रमा।

उदाहरण (आशिष)
सवैया

भाग सुहाग भरी अनुराग सों, राधे जू मोहन कौ मुख जोवै।
भूषन भेष बनावें नये नित, सौतिन के चित बंछित खोवै॥
रोधन गोधन पुञ्ज चरौ पय, दास दुहों दधि दासी बिलोवैं।
पूरन काम ह्वै आठहू जाम, जु स्याम की सेज सदा सुख सोवैं॥

शब्दार्थ—जोवै–देखो। बिलोवैं–मन्थन करती हैं।

दोहा

अलङ्कार ये मुख्य हैं, इनके भेद अनन्त।
आन ग्रंथ के पन्थ लखि, जानि लेहु मतिमन्त॥
शुभ सत्रह सै छयालिस, चढ़त सोरही बर्ष।
कढ़ी देव मुख देवता, भावबिलास सहर्ष॥
दिल्ली पति अवरङ्ग के, आजमसाह सपूत।
सुन्यो सराह्यो ग्रन्थ यह, अष्ट जाम संयूत॥

भावार्थ—ये ३९ अलंकार मुख्य हैं। इनके अनेक भेद हैं। वे किसी बड़े ग्रन्थ से जाने जा सकते हैं। शेष सरल है।