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भाव-विलास/प्रथम विलास/३ अनुभाव

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भाव-विलास
देव, संपादक लक्ष्मीनिधि चतुर्वेदी

वाराणसी: तरुण भारत ग्रंथावली कार्यालय, पृष्ठ १४ से – १९ तक

 

 

३—अनुभाव
दोहा

जिनकों निरखत परस्पर, रस कौ अनुभव होइ।
इनहीं कौ अनुभाव पद, कहत सयाने लोइ॥१॥
आपुहि ते उपजाय रस, पहिले होंहि विभाव।
रसहि जगावैं जो बहुरि, तौ तेऊ अनुभाव॥२॥
आनन, नयन-प्रसन्नता, चलि-चितौनि मुसक्यानि।
ये अभिनय सिंगार के, अङ्ग भङ्ग जुत जानि॥३॥

शब्दार्थ—निरखत—देखने पर। सयाने—विद्वान। लोइ—लोग। बहुरि—फिर।

भावार्थ—जिनको देखकर परस्पर रस का अनुभव हो उन्हें बुद्धिमान लोग अनुभाव कहते हैं। पहले रस की उत्पत्ति करनेवाले विभाव और फिर उसको अनुभव करानेवाले अनुभाव कहलाते हैं। मुख, आँखों की प्रसन्नता, कटाक्ष, मुस्काना, अङ्ग भङ्ग आदि अनुभावों के साधन हैं।

उदाहरण पहला—(आनन-प्रसन्नता)
सवैया

ठाढ़ो चितौत चकोर भयो, अनतै न इतौ तु कहूँ चित दीजतु।
सामुहैं नंद क़िसोर सखी, कवि को मुसक्यानि सुधारस भीजतु॥
भाग ते आइ उऔ 'कवि देव', सुदेख भटू भरि लोचन लीजतु।
तेरे री चंदमुखी मुखचंद पै, पूरन चंद निछावरि कीजतु॥

  शब्दार्थ—ठाढो—खड़ा हुआ। चितौत—देखता है। चकोर—एक पक्षी जो चन्द्रमा को प्यार करता है। अनतै—दूसरी जगह। इतौ—इतना। चित—मन। सामुहैं—सामने। भागते—भाग्यवश। उऔ—उगा।

उदाहरण दूसरा—(नयन-प्रसन्नता)
सवैया

आई ही गाय दुहाइवे कों, सु चुखाइ चली न बछानको घेरति।
नैकु डराय नहीं कब की, वह माइ रिसाय अटा चढ़ि टेरति॥
यों कविदेव बड़े खन की, बड़रे द्दग बीच बड़े द्दग फेरति।
हौं मुख हेरति ही कबकी, जबकी यह मोहन को मुख हेरति॥

शब्दार्थ—बछान—बछड़े। नैकु—थोड़ा भी। डराय नहीं—नहीं डरती। माइ—माता। रिसाय—नाराज़ होती है। बड़े खन—बड़ी देर। बड़रे—बड़े। द्दग—आँखें। हौं—मैं। हेरति ही—देखती थी।

उदाहरण तीसरा—(चल-चितौनि)
सवैया

हरि को इतै हेरत हेरत हेरि, उतै डर आलिन को परसै।
तनु तोरि के जोरि मरोरि भुजा, मुख मोरि कै बैन कहे सरसै॥
मिस सों मुसक्याइ चितै समुहें, 'कविदेव' दरादर सों दरसै।
द्दगकोर कटाक्ष लगे सरसान, मनो सरसान धरैं बरसै॥

शब्दार्थ—इतै—इधर। हेरत हेरत—देखते देखते। उतै—उधर। आलिन—सखियाँ। तनु—शरीर। मरोरि—मरोड़ कर के। भुजा—बाहे। बैन—   बातें। मिस—बहाना। दरसै—देखती है। द्दगकोर—आँखों की कोर।

उदाहरण चौथा—(मुसक्यानि)
सवैया

जब तें जदुराई दई दुहिगाय, गये मुसक्याइ पूछे घर के।
तब तें तन व्याकुल बालबधू, लखि लोग लुगाई सबै घर के॥
'कविदेव' न पावत बेदन बेद, रहे कुलदेवन के डर के।
नहिं जानत कान्ह तिहारे कटाछ, को कोरै करेजन मैं कर के॥

शब्दार्थ—बेदन—वेदना। बेद—वैद्य। कुलदेवन—कुल के देवता। तिहारे—तुम्हारे। कटाछ—कटाक्ष। कोरै—कोर। करेजन—कलेजे में। करके—कसकती हैं।

उदाहरण पांचवाँ—(अंगभंग)
सवैया

चंपक पात से गात मरोरि, करोरिक आप सुभाइ सचैयत।
मो मिस भेंटि भटू भरि अङ्क, मयङ्क से आनन ओठ अचैयत॥
देव कहे बिन बात चले नव, नील सरोज से नैन नचैयत।
जनति हौं भुजमूल उचाय, दुकूल लचाइ लला ललचैयत।

शब्दार्थ—चंपक—चंपा का फूल। पात—पत्ते। गात—शरीर। करोरिक—करोड़ों। मयङ्क—चन्द्रमा। नव-नली-सरोज—नये नीले कमल। नैन—आँखें। भुजमूल—बाँह का अग्रभाग। उचाय—उठाकर। दूकूल—कपड़ा। लचाइ—झुकाकर ललचैयत—लुभाये जाते हैं।  

दोहा

औरौ बिबिध बिभाव के, बहु अनुभावनु जानु।
जिन सें रस जान्यो परै, ते कविदेव बखानु॥

शब्दार्थ—बहु आहे—बहुत। जान्यों परै—ज्ञात हो।

भावार्थ—भिन्न भिन्न विभावों के और भी अनेक तरह के अनुभाव होते है। जिनसे रसों का अनुभव हो वे सभी अनुभाव कहलाते है।

सवैया

आवति जाति गली मैं लली, हरि हेरि हरै हियरा हहरैगी।
बैरी बसैं घर घाल घरी मैं, घरै घर घेरि घरी उघरैगी॥
हौं कविदेव डरौं मन मैं, मनमोहनी तू मन मैं न डरैगी।
हाहा बलाइ ल्यौं पीठ दै बैठुरी, काहू अनीठि की दीठि परैगी॥

शब्दार्थ—बैरी—शत्रु। हौं—मैं। बलाइल्यौं—बलिहारी जांऊ, बलैया लूँ। दीठि—दृष्टि, नज़र।  

अनुभाव

औरौ बिबिध बिभाव के, बहु अनुभावनु जानु।
जिन सें रस जान्यो परै, ते कविदेव बखानु॥

शब्दार्थ—बहु—अनेक, बहुत। जान्यो परै—ज्ञात हो।

भावार्थ—भिन्न भिन्न विभावों के और भी अनेक तरह के अनुभाव होते हैं। जिनसे रसों का अनुभव हो वे सभी अनुभाव कहलाते हैं।

 

आवति जाति गली मैं लली, हरि हेरि हरैं हियरा हहरैगी।
बैरी बसैं घर घाल घरी मैं, घरै घर घेरि घरी उघरैगी॥
हौं कविदेव डरौं मन मैं, मनमोहनी तू मन मैं न डरैगी।
हाहा बलाइ ल्यौ पीठ दै बैठुरी, काहू अनीठि की दीठि परैगी॥

शब्दार्थ—बैरी—शत्रु। हौं—मैं। बलाइल्यौं—बलिहारी जांऊ, बलैया लूँ। दीठि—दृष्टि, नज़र।
 

प्रथम विलास

 

समाप्त