भ्रमरगीत-सार/चूर्णिका
चूर्णिका
(बड़े कोष्ठक में पदों की संख्याएँ हैं)
[१] श्रीदामा=कृष्ण के एक ग्वाल सखा। मन्त्री=राधिका से तात्पर्य है। [२] जाए=उत्पन्न। [३] अंक=अँकवार, हाथ फैलाकर भेंटना। आने=अन्य, दूसरे को। [४] नेम=नियम, योग के विधि-विधान। [५] आन=किसी अन्य विषय में। [६] सुरति=स्मरण आने पर। हित-प्रेम। मिथ्या-जात=भ्रम से उत्पन्न। एक=अद्वैत ब्रह्म। 'सदा ...नात'=उद्धव का वचन। [७] क्रम=कर्म। [८] तूलमय=रूई से युक्त। [९] धूमरि=श्यामा, काली। [१०] अबेर-सबेरो=साँझ-सबेरे। [११] परमान-प्रमाण, मान्य। [१२] हेत=प्रेम। जाए=पुत्र। काजै=के लिए। दाँवरि=रस्सी। [१३] दाम=माला। रस=प्रेम। [१४] अनुहारि=बनावट। बसन=वस्त्र। रुचिकारि=रुचिर या कारी रुचि, श्याम वर्ण। बारि=जल। [१५] सुचित=स्वस्थ। [१६] जादवनाथ=श्रीकृष्ण। बरन=वर्ण, रंग। का पर॰=किसे ले जाने के लिए भेजे गए हो। सयानप=चतुरता। जानि॰=भली भांति समझ लिए गए हो। [१७] उत॰=वहाँ से। ब्रजराज=नंद। प्रबोध=समझाना। बोलि=बुलाकर। गुरु=गुरु की भांति। अबिगत=अज्ञेय। अगह=पकड़ में न आनेवाला। आदि अवगत=सर्वप्रथम ज्ञात। निरंजन=माया-रहित। रंजै=सब उसीके कारण शोभित होते हैं ('यस्य भासा विभाति')। निगम=शास्त्र। रसाल=रसमय। छाके=मस्त। हुतो=था। [१८] आहि=है। बासर-गत=दिन बीतने पर। [१९] सक़ट=रथ। रजक=धोबी। हति-तोड़कर। गज=कुबलयापीड़ हाथी। मल्ल=मुष्टिक और चाणूर नाम के पहलवान। मातुल=मामा (कंस)। [२०] उपासी=उपासिका। [२१] जोग-अंग=अष्टांग योग। ईसपुर= शिव की पुरी। [२२] मही=मट्ठा। [२३] हाटक=सोना। साहु=महाजन। दाख=द्राक्षा, अंगूर। [२४] मुक्ताहल=मुक्ताफल, मोती। निरबै हे=साधेगा। [२५] बनजारा=व्यापारी, सौदागर। गति=शरण। पति=प्रतिष्ठा। राँड़े=जिनके और कोई न हो, एकाकी। [२६] लोक॰=लोक मर्यादा। कुल॰=कुल की प्रतिष्ठा। [२८] नातरु=नहीं तो। बरनहीन=हीनवर्ण। [२९] सागर निधि=महासमुद्र। कुलिस=वज्र। [३१] सूर=शूर, वीर; सूरदास। [३२] अनत=अन्यत्र। [३५] मुँडली=जिसके सिर में केश न हों। पाटी पारना=माँग काढ़ना। कौन पै=किससे। नरियर॰=भेंट के लिए आप जो योगरूपी विषैला नारियल लाए हैं उसे प्रणाम ही करते बनता है। [३६] सिरात=ठंढा होता है। हार्यो=हर लिया। आई॰=जैसे आम की खटाई से कलई खुल जाती है वैसे ही प्रेम का भेद खुल गया। बिलग॰=बुरा मत मानो। भँवारे=घूमनेवाला। पखारे=धोए। ता गुन=इसी से। [४०] हित-हानि=प्रेम का त्याग। [४१] काहि जोग=किसके योग्य। [४२] राची=अनुरक्त। सिकत=सिकता, बालू। [४३] काके॰=किसे जँचेगा। [४४] बदन=मुख। बपु=शरीर। सहाई=सहायक, मित्र। [४६] हित=हेतु, निमित्त। अयानि=अज्ञान। छाजन=स्वाँग। सरत=बढ़ता है, लपकता है। भाजन=भागना, जाना। [४७] दाप=दर्प, रोब। [४८] सीस=सिर पर, निकट। [५१] दसहि=दशा को। तिसहि=उसे। [५२] सौं तुख=प्रत्यक्ष। [५३] अवरोधन॰=प्राणायाम। [५५] नइ=नीति। जाति॰=खो जाती है। आरति=आर्ति, दुःख; यहाँ अप्रतिष्ठा का खेद। [५७] ताती=गरम। सँघाती=साथी। [५८] तरल=चंचल, हिलते हुए। तरिवन=ताटंक, कान का गहना। [५९] तर=नीचे। [६१] पचत=परेशान होता है। कहा उघारे=खोलने से क्या लाभ। बिलमावत=रोकते हो, आराम देते हो। कापै=किससे। [६२] राजपंथ=राजमार्ग, (सगुण का) चौड़ा रास्ता। धौं=कदाचित्। सुमृति=स्मृति शास्त्र। कहूँ धौं=कहीं भी। छाछ=मट्ठा। मूर=मूलधन। [६३] और॰=कहीं दूसरे पर टिके। प्रेमहिं॰=प्रेम के संबंध से। [६५] अछत=रहते। [६६] पदारथ॰=यद्यपि वह मुक्ति चार पदार्थों (अर्थ, धर्म, काम, मोक्ष) में से है। [६८] दूत=इधर की उधर लगानेवाले। [६९] ज्यों अहि॰=काट लेने से साँप का पेट नहीं भरता पर उसकी यही बान होती है। [७०] भूत॰=आकारहीन, छायामात्र। अँचवत=पीते हैं। [७१] रमत=मग्न होते हैं। भाजत॰=भागते और छिपते रहते हैं। समाने=आए। [७२] झाँई=प्रतिबिंब। मुकुर=दर्पण। बिकट=टेढ़ी। होत त्रिभंग=गले, कमर और पैर पर से टेढ़े होकर। मुकुतमाल=मोती की माला। [७३] गनि=समझकर। गुन=गुण की सीमा, अत्यन्त गुणयुक्त। बिधि-बंधान=ब्रह्मा की रचना। अबतंस=कान का आभूषण, कुंडल। भान=भानु, सूर्य। रुचि=शोभा। कंबु=शंख। उदार=चौड़ा। मनि=मणि, कौस्तुभ। निर्तत=नाचती है, चमकती है। [७४] अंबर=वस्त्र। सर-पंजर=बाणों का घेरा। अमी=अमृत। जैसे सूर॰=साँप काटकर भागता है तो क्या उसके मुख में अमृत की बूंद पड़ जाती है? [७५] कन=दाना। चोप=चेंप, लासा। करि=कर, हाथ। लूक=लू। कलप॰=कल्पवृक्ष, सुख। [७६] मदन॰=काम के बाणों से बिद्ध। [७७] सगुन लै=शकुन बिचारकर। ये सब=योग, जप, व्रत आदि। बिष-बेली=कुब्जा। पायँन॰=पैरों के नीचे करके, तिरस्कार करके। मेली=डाली। [७८] सकुचासन=संकोचरूपी आसन पर बैठकर। परस करि=छूकर, दान करके, त्याग करके। पवन॰=प्राणायाम। क्रम=कर्म। निकंदन=नाश। तरनि=सूर्य। अपजस॰=अपकीर्ति सुनी अनसुनी कर देती हैं। प्रकास=ब्रह्मज्योति दर्शन। चन्द्रसूर=चन्द्रमा और सूर्य का प्रकाश (योगी इड़ा, पिंगला और सुषुम्ना नाड़ियों के मूलप्रदेश में क्रमशः चन्द्रमा, सूर्य और अग्नि का सा प्रकाश मानते हैं)। अनहद=अनाहत शब्द। प्रमाने=मान, समान। समाने=ब्रह्मानन्द में लीन होने की अवस्था। [८०] असित=काले। गौं=घात। [८१] हो=था। धौं=न जाने। तो=था। बारिज॰=कमलनाल तोड़ने से उसमें जो बहुत पतले तंतु निकलते हैं। जहाँ तो=जहाँ से। [८२] अँचै॰=पी गई। [८३] निगम=ब्रहाज्ञान। परेखो=विश्वास। काल-मुख॰=काल के मुख से बचाकर फिर उसी में डाल दिया। घनसार=कपूर। [८७] कमलनयन=श्रीकृष्ण। घाली=भेजी। द्वार ह्वै=द्वार पर से। केतिक=कितनी ही। साली=पीड़ा करने लगी। [८८] बदन॰=मुखचन्द्र। मनिदुति=सूर्यकांत मणि। [८९] कागर=कागज। सर=सरकंडा (जिसकी कलम बनती है)। अरे=बंद। [१०] कबंध=धड़ (शूरों का धड़ सिर कट जाने पर भी लड़ता रहता है और भारी मारकाट मचाता है)। बल=बलपूर्वक। बारुहि॰=बालू की दीवार। [९१] अंतर्गत=मन में। भाव॰=प्रेमपूर्वक। [९३] बई=लगी। ठई=की, बनाई। [९४] राज-गति॰=राजनीति। [९६] मनसाहू=इच्छा तक। चेति=विचार करके। एति=इतनी, ऐसी। [९७] सतरात=चिढ़ता। ब्रजलोचन=श्रीकृष्ण। [९८] निमेख=पलक। अहनिसि=अहर्निश, दिनरात। उघारे=नग्न। [९९] पास=फंदा। रहत न॰=नेत्रों से जल गिरना रुकता नहीं। [१००] स्रमजल=पसीना। अंतर-तनु=भीतर तक, भली भांति। नलिनी=कमलिनी। हिमकर=चन्द्रमा। [१०१] पुरइनि=(पद्मिनी) कमल। पान=पत्र, पत्ता। मिलाइए––'पद्मपत्रमिवाम्भसा'। परागी=अनुरक्त। पागी=चिपटना। [१०३] घट=शरीर। [१०४] पूरब लौं=पूर्व की ओर, मथुरा। मसान जगाना=शव पर बैठकर तंत्रशास्त्र के अनुसार सिद्धि प्रात करना। [१०५] कुहित=बुरी। उपचार= दवा। धुन=रंगढंग। [१०६] चपरि=शीघ्रता से, एकबारगी। कुंतल=केश। भुरै लई=ठग लिया। निरस॰=रसहीन हो गई। करखे तें॰=खींचने पर भी हटी नहीं। घनस्याम=श्रीकृष्ण; बादल। छिजई=घिस डाली। [१०८] मधु=शहद (का छत्ता)। पानि=हाथ। पलक॰=हाथ से पलकें मल रही थी, जगने का प्रयत्न कर रही थी। निरोध=रोक-छेंक। निबरे=निकलकर जा सके। कृपन॰=कृपण का सा व्यवहार (केवल जोड़ती रही) [१०९] बहावै=त्याग दे। [११०] हित=अच्छा, रुचिकर। माहे=में। दाहै=जलन से। [१११] अब किन॰=बेचकर दाम क्यों नहीं खड़े कर लेते। सबरी=सब। [११२] रूख=वृक्ष। [११३] गुनैबो=गुणयुक्त बनाने से। अनखात=बुरा मानती हैं। तन=ओर। बिहात=बीतता है। [११४] स्याम=श्रीकृष्ण और काला। बिरद किए=यश गाया। स्रुति=वेद। बारिज-बदन॰= मेरे नेत्ररूपी भ्रमर श्रीकृष्ण के कमलमुख का मधुपान कब करेंगे, उनके दर्शन कब होंगे? [११५] कूजत=बोलती है। सिंगी=सींग का बाजा। पखान=(पाषाण) शिला, पत्थर। [११६] काढ्यो=खींचा, बनाया। [११७] ऊजर=उजड़े हुए। [११८] अनुसारी=छेड़ी। अहि॰=जैसे सांप केंचली छोड़ देता है वैसे मन शरीर को छोड़कर चला गया। [११९] बोहित=जहाज, बड़ी नाव। [१२०] तुम्हरे॰=तुम्हें ही फबती है। नरियर-ज्यों=देखिए पद ३५ की टिप्पणी। [१२१] परेवा=कबूतर। कंटक॰=स्वयं कांटे की चोट सहता है। निरुवारै=निवारण करते हो, हटाते हो। [१२२] अपाने=अपने। निदाने=अंत में। [१२४] दुसह धुनि=असह्य ध्वनि (कानों को)। [१२५] बिसाहु=मोल ले लें। [१२६] आनि॰=आकर आशा को भी निराशा में परिणत कर दिया। [१२७] ओछो तोल=तौल में कम, हलका। जाति=संप्रदाय, मंडली। [१२८] त्रिदोष=संनिपात। जक=बकवाद। थिरकै=स्थायी रूप से। [१२९] पवन धरि=प्राणायाम करके। [१३१] बरन=वर्ण, रंग। [१३२] आँधरी॰=अंधी यदि अंजन लगाए। [१३३] पय॰=बैल से दूध दुहते हो। [१३४] मोट=गठरी। कर करि=हाथ से। मृगमद=कस्तूरी। मलयज=चंदन। उबटति=मलती थी। तृप्ताति=तृप्त होंगी। [१३५] खरि=खड़िया। [१३७] गुपुत=भेद, रहस्य। [१३८] पुहुमि=पृथ्वी। भरमात=घूमता है। अघात=तृप्त होती है। अमृत फल=मीठे फल। [१३९] खरियै=अत्यंत। सुधि॰=उसे भूलने की वृत्ति ही भूल गई अर्थात् वह भूलता नहीं। आँक=अंक, गोद। खटकती है=कसकती है। [१४१] नए=झुके। उनतें=उनसे बढ़कर या बड़ा। [१४२] बकसियो=क्षमा करना। बौर=मंजरी। [१४३] तन=ओर। धौं=तो। परमारथ =परमार्थ रूपी औषध। राजदोष=प्रबल रोग। [१४४] अनुदिन=प्रतिदिन। [१४६] दे गए=दिए हुए गए। [१४७] बापुरे=बेचारे। छार=धूल। [१४८] आयसु=आदेश, आज्ञा। वारि॰=निछावर करके। नव॰= नौ टुकड़े करके, टुकड़े टुकड़े करके। [१४९] तर=नीचे। सचु=सुख। [१५१] सुखेत=रणक्षेत्र। बारि=पानी; चमक। [१५२] बाय=वात-विकार। पयनिधि=समुद्र। [१५३] अरे=अड़ गए हैं। राचे=अनुरक्त। वक्र॰=अत्यंत टेढ़े। सीतल=जिनके संचार (ध्यान) से हृदय ठंढे हो गए हैं। अमिय॰=अब ये अमृत से विष में जा पड़े। [१५४] बढ़वत॰=उसकी ओर काला सर्प क्यों बढ़ाते हो। हारे=विवश होने पर। अछत=रहते। [१५५] फूलेल=सुगंधित तेल। ग्रंथैं=गाँठें। आघोरी=भारी। ताटंक=कान का गहना। जोति=शोभा। सार=घनसार, कपूर, असवास=(आश्वास) सुगंधित साँस। आक=(अर्क) मदार। [१५६] अधिकारे=अधिक। सारे=तत्व। खारे=कडुए। [१५७] बायस=कौआ। अँचयो=पिया। बजी॰=एक ही ढंग के बाजे बजे, सब एक ही रंगत के हैं। ताँति=तंत्री, बाजा। [१५९] कनियाँ=गोद। [१६०] कलेवर=शरीर। खौरी=लेप। पिछौरी=दुपट्टा। [१६१] ज्यों भुवंग॰=जैसे उस सर्प की फूँक जिसकी मणि छीन ली गई हो। दवा=भीषण ज्वाला। [१६२] अंबर=अच्छे वस्त्र। गुरु॰=जो योग के हमारे गुरु हैं वे कुब्जा के हाथ की माला हैं। उसके इशारे पर नाचनेवाले हैं। [१६३] दाम=रस्सी। पानि=हाथ। चोरी॰=चोरी न खोलूँगी। आनि=आकर। हठिहौं=न देने का हठ न करूँगी। जावक=महावर। बट-तर=बरगद के नीचे। सँकेत=संकेतस्थल। चढ़ाय=बैठाकर। [१६७] निरखि॰=उसे देखकर अश्रु की अखंड धारा बहने लगी। प्रेम॰=प्रेम की व्यथा फिर भी न बुझी। अंतर-गति=हृदय के भीतर। सुचित=स्वस्थ होकर। कमल=योगियों के षट्चक्र जो कमल के रूप में माने जाते हैं। [१६९] लाइ=मन लगाकर। सुमति मति=अच्छी बुद्धि। पै=निश्चय। [१७०] गात=गाते हुए। सुनात=सुनाते थे। परसात=छाई है। [१७२] सिंघी=सींग का, बाजा। [१७३] लहनौ=प्राप्य। बर=दूल्हा, पति, प्रिय। सँघाती=साथी, सखा। [१७५] सरै=(सूर्य के रथ की ओर) जाता है, उसे प्राप्त करता है। [१७६] बल्लभी=प्रेमिका। मधुर=जो मीठी बोली बोलनेवाले हैं। बृक=भेड़िया। बच्छ=वत्स, बछड़े। असन=भोजन। बसन=वस्त्र। सत=शत, सैकड़ों। [१७७] बरस=बर्षा करता है। कर॰=हाथ में कड़ा और दर्पण लेकर (कड़ा ढीला पड़ गया है। दर्पण में मुख विवर्ण दिखाई पड़ता है)। एतो मान=इतना अधिक कष्ट सहने पर भी। [१७८] सहियो=सहना। मकरध्वज=काम। बहियो=अश्रु-प्रवाह के कारण। [१७९] पय=जल। पय सों=पानी से भी आग लग रही है। हा हरि॰=‘हा हरि, हा हरि’ जो कहती हैं उसी मन्त्र के पढ़ने के कारण इस आग में जलकर भस्म नहीं होतीं। [१८०] गहरु=देर, बिलंब। [१८१] कहा बनै हैं=क्या बात गढ़ लेंगें। अब हम॰=हम चुपचाप वहां पत्र लिख देंगी कि ये तो गोकुल के अहीर हैं, वह पत्र उन्हें मिलेगा भी नहीं। [१८२] रूपहरी=हरि का रूप, सारूप्य मुक्ति। सुक=शुकदेव। स्यामा=युवती स्त्री। [१८४] भनै=कहे। कह॰=क्यों उन कानों में कंकड़ी की चोट करते हो। रंग चुनै=प्रत्न करने पर भी। [१८६] बकी=पूतना। दोषन=दोष अर्थात् विषमय हो जाने से। तृनाव्रत=तृणावर्त। केसी=केशी नाम का दैत्य। [१८७] घाए=घात, चोट। कहि॰=कहना पड़ा। [१८८] रसाल=रसमय, कर्णसुखद। तरनि॰=सिर का तिलक सूर्य की भांति दाहक है। भुवाल=भूपाल, राजा। [१८९] बहिबी=निर्वाह करना। [१९०] दासनिदासि=दासानुदासी, दासों की दासी। [१९१] चेत॰=बेसुध अवस्था। रेती=बालू का मैदान। [१९३] अवगाहैं॰=दुःख में डूबती हैं। [१९४] स्यामसूल॰=श्रीकृष्ण की पीड़ा में पगा हुआ। ऋषि=शुद्ध 'ऋजु', सीधा। [१९६] पुलिन=तट। [१९७] बिरह-बीज=बिरहमय। सलिल॰=अधर-माधुरी के जल में मिलाकर। बल न॰=औषध का कोई बल नहीं लगता, औषध काम नहीं करती। सरै=हो। [१९८] हे=थे। दाम=रस्सी से। पति=प्रतिष्ठा। रसनिधि=आनन्द के सागर। [१९९] नेह-नग=प्रेमरूपी रत्न। बुझानी=समझ में आई। [२००] हमरे॰= हमारे गुण गाँठ में क्यों नहीं बाँधे, हमारे गुणों का विचार क्यों नहीं किया। [२०१] देह॰=शरीर दुःख की सीमा नहीं पाता, दुखों का अन्त नहीं मिलता। [२०२] आन=शपथ। आमिष=मांस। हित=प्रिय। किंगरी=छोटी सारंगी, चिकारा। सुर ध्वनि। लग=तक। ब्रजभान= ब्रजभानु, श्रीकृष्ण। [२०४] बाली=छेड़ी। साली=धँसी। ब्रजबाली=ब्रज की बालाएँ। [२०५] इतने=इतने पक्षी। प्रतिपारे=पाला-पोसा। बिडारे=नष्ट कर दिए। कीर=नासिका। कपोत=गर्दन। कोकिला=वाणी। खंजन=आँखें। [२०६] सत्वर=शीघ्र। मधु-रिपु=श्रीकृष्ण। जगी=जागरण। क्वाथ=काढ़ा। मूरि=जड़ी। सुख=अनुकूल, लाभदायक। [२०८] निबर्ति=पूजा करके। [२१०] अराध=आराधना करे। बरीस=वर्ष। पुरवौ=पूर्ण कर दो। [२११] रीते=रिक्त; खाली। कारन=कालों की। फेरनि=लपेट, पहनावा। घरनि=एकत्र करना, चराना। कौर=कड़ा। [२१३] घोष=ग्वालों का गाँव। संपुट=बन्द। दिनमनि=सूर्य। [२१४] रथ पलान्यो=रथ पर चढ़ कर गए। [२१७] पाहन=(पाषाण) पत्थर, कठिन। [२१८] जावदेक=यावन्मात्र, सबको। [२१९] चित॰=मन। [२२०] विधि॰=ब्रह्मरूपी कुम्हार। घट=घड़ा; शरीर। दरसन॰=देखने की आशा ही घड़ों का फेरा जाना है। कर॰=श्रीकृष्ण के काम आए, उनके लिए शकुन-सूचक हुए। [२२१] काती=कुत्ता, छुरा। सवाती= स्वाती [२२२] निसि लौं=रात भर। सीति=शीत, ठंढा। पुरवा=पूर्व से आनेवाली वायु, पुरवैया। गए॰=उसने हमारे शरीर सरलता से जीत लिए हैं। [२२३] चौरासी=अनेक प्रकार की। हरि=हरकर। [२२४] लोकडर॰=हमारा प्रेम प्रकट करने से श्रीकृष्ण को लोकापवाद का भय है (लोग कहेंगे कि ये गँवारों के साथ रहते थे।) [२२५] सो कुल=वह वंश (यादवों का), जिससे जन्म लेने पर बिछुड़ गए थे। गर्ग॰=गर्ग ने कहा था कि श्रीकृष्ण मथुरा और फिर द्वारका में जा बसेंगे। जो कुल=वह सब। ज्ञाति=जाति। [२२६] अनहद=अनाहत नाद। कुष्मांड=कुम्हड़ा। अजा=बकरी। अघाना=तृप्त होना। [२२७] न परानी=नहीं हटी। चलमति=चंचल बुद्धिवाला। घेरि॰=छेंकते फिरते हैं। [२२८] पति=प्रतिष्ठा दुरहु=हटो। बसीठ=दूत। मति-फेरी=बुद्धि का फेर। कै सँग=मिलकर; जुड़कर। श्री निकेत॰=शोभा के घर। पानि=हाथ में। बिषान=सींग। [२३०] नवतन=(नूतन) नए ढंग से। राचे=अनुरक्त हुए। रनछोर=श्रीकृष्ण [२३१] कारे=काले; मालिन, कपटी [२३४] ऐन=घर। [२३५] कोय॰=कौन स्त्री थी। राजपथ=राजमार्ग (भक्ति का चौड़ा मार्ग)। उरझ=उलझानेवाला। कुबील=ऊबड़-खाबड़, ऊँचा-नीचा। अज=बकरा। बदन=मुख। [२३६] कुमोदिनि=कुईं। जलजात=कमल। घनसार=कपूर। जीरन=जीर्ण, पुराना [२३७] बिदमान=विद्यमान, उपस्थित। [२३८] स्यंदन=रथ। बाय॰=वात-व्याधि से पगली सी होकर। [२३९] कुम्भ=घड़ा। जलचरी॰=बेचारी मछली। [२४१] धूरि=मिट्टी, व्यर्थ [२४३] कुबजा=कूबरी के प्रेम में मतवाले! लेस=थोड़ा भी। हरिखंड=मोरपंख। स्यामा=षोडशवर्षीया युवती स्त्री, राधिका। कछु॰=सुध-बुध खो गई। प्रबाल=नए निकले कोमल पत्तों की भाँति। ततछन=तत्क्षण, तुरन्त। सुहेस=मंगल। सुरेस=इन्द्र। रस=आनन्द से भ्रमित गतिवाले होकर, आनन्द में मग्न होकर। सेस=शेषनाग। [२४४] अङ्गराज=सुगन्धित लेप। मेदिनी=भूमि। [२४६] बरन=वर्ण, रंग। बाने=ढंग के। मीड़ी=मलकर। [२४७] समतूलहु=समान। [२४८] बास॰=वासस्थान। मन्दे=मन्दे बाजार में। [२४९] कहु॰=उसे भस्म लगाने से कैसे सुख मिलेगा। [२५०] चाँड़=अभिलाष। बिसासि=विश्वासघाती। तीजो पंथ=तीसरा पन्थ (मुरारेस्तृतीयः पन्थाः)। यह=ऊधो। साधु=सज्जन, सीधा। [२५२] कटु=कड़वी। अङ्गनिधि॰=श्रीकृष्ण के सगुणरूप के समुद्र से। अनमिल=बेमेल (निर्गुण)। अमोलत=अमूल्य या बहुमूल्य ठहरा रहे हो (सगुण से निर्गुण को बढ़कर बतला रहे हो) [२५३] अतीत=परे। [२५५] स्याम-तन॰=श्रीकृष्ण की ओर देखकर, उनका विचार करके। [२५६] बारे=बालपन से ही। [२५७] अगाऊ=आगे आगे। [२५८] कचोरा=कटोरा। ताटंक, खुभी, खुटिला=कान के गहने। फूली=फूल, लौंग (गहना)। सारी॰=कमल और चन्द्र से अंकित साड़ी। सारस=कमल। गूदर=फटी। [२५९] भेद=पता न चला। बदन को=कहने के लिए, निश्चित करने। बायु॰=प्राणायाम। ताए=तपाए। [२६०] सँचि॰=एकत्र कर रखी थीं। छार=धूल। सरवरि॰= कूबरी के योग्य। घटी॰=बुरा किया। हम जोही=हमें देखते रहे, हमें ग्राहक समझते रहे। [२६१] राहत=रहते हैं। कोट=बाँस की कोठी। [२६२] परेखो=पछतावा। बारे=छोटे। भीर=संकट, कष्ट, कठिनाई। सर्यो=पूरा हुआ। बायस॰=कौए का भाई, कौआ। [२६३] पत्यानो=विश्वास किया। [२६४] करसायल=मृग। अबिधि सों=अन्याय से। [२६५] सूर=शूर, वीर; सूरदास। [२६७] बारक=एक बार। [२६८] सोधियो॰=उनसे पूछना। घात=हत्या। [२६९] ज्यों॰=जैसे माता अपने जने बच्चे का पालन करती है। [२७०] गुरु॰=गुड़ दिखाकर बहलाओ। कोऊ॰=किसी प्रकार। [२७१] अन्तरमुख=भीतर। पांडु॰=कामला रोग जिसमें शरीर पीला पड़ जाता है। उजरो=उजड़ा हुआ। छपद=भ्रमर। [२७२] मदिरा॰=शराब पीकर। पराग०=पराग की पीक की रेखा। कुंभ॰ 'विषकुंभं पयोमुखम्', विष का भरा घड़ा, जिसमें ऊपर दूध हो। उघारे=खोले। कृत कर्म से। [२७४] पुहुप=पुष्प। नेरे=निकट। [२७५] पिछौं हैं=पीछे की ओर। उर॰=जब छाती छेदकर पीछे जा निकले। पाछे॰=पीछे हटते हुए भागे नहीं। कबंध=धड़। संमुख॰=सामना करने, भिड़ने के लिए। [२७६] चिहुर=चिकुर, केश। यह॰=इस प्रकार से। नयन॰=नेत्रों की इच्छा पूर्ण करते हुए। बटमारे=डाकू, चोर। [२७७] कागर=कागज, पत्र। [२७८] पंक॰=कीचड़ ही मैली साड़ी है। ब्याज=बहाने से। अनुहारी=समता। [२७९] भीति=दीवार। [२८०]= हठिहि=हठपूर्वक। प्रबेसनि=जल की धारा के प्रवेश से। बिसेषनि=विशेष रूप से। [२८१] धावन=दूत। कहा॰=क्या वश है। बल=बलदाऊ। [२८२] दादुर॰=माना जाता है कि वर्षा के प्रथम जल से मरे हुए मेढक जी उठते हैं। निबिड़=घना। [२८३] सारँग=चातक। सूरमा=वीर। [२८४] खरे=तीव्र। [२८५] इते मान=इतना अधिक। अन्त=मार मत डालो। [२८६] सिंधुतीर=द्वारका में। [२८७] बयन=बचन, बोली। भीषम=भीष्म पितामह की भाँति। डासि= बिछाकर। दच्छिन॰=भीष्म पितामह जब युद्ध में घायल हुए तब सूर्य दक्षिणायण थे, उत्तरायण होने पर उन्होंने प्राण त्यागे। उन्हें इच्छामरण का वरदान था। [२८८] निमेष॰=पलकरूपी तट। गोलक=पुतली। तट=ओठ और कपोल ही तट का मैदान हैं। [२८९] पोच=बुरा (सोच का विशेषण)। [२९०] एक अङ्ग=(एकांग) केवल, निरन्तर। ज्यों मुख॰=जब वह पूर्ण मुखचन्द्र सामने था। रई=रँगी, डूबी। सकति=शक्तिभर। [२९१] सारि= निकालकर; पूरा करके। [२९३] कुहू=अमावस्या। तमचुर=ताम्रचूड़, मुर्गा। [२९६] आरि=अड़, मुद्रा। बसन=वस्त्र। दसन=दाँत। [२९७] बह्नि=आग धारण करता है। छपा=रात्रि। [२९८] मोपै=मुझसे। भख=काट न ले। [२९९] दुख॰=वृक्षों का गिरना ही दुख है। सिव=स्तन। [३००] तन-दगध=शरीर का जलना। [३०१] सन=से। [३०३] सोध=पता। गहरु=बिलंब। अम्बर=आकाश। [३०७] सीरे=ठंडे। सूरमा=वीर। [३१०] राम कृस्न॰=बलराम और श्रीकृष्ण के कारण किसी को कुछ नहीं समझती थी। [३११] चिलक=शुद्ध 'तिलक', एक वृक्ष जो बसंत में फूलता है। मृगपशु=पशुजाति। बलित=युक्त। [३१३] दागर=नाशक। [३१५] साधौ=उत्कंठा। [३२७] पच्छ= पँख; पलक! अम्बु=जल; आँसू। अमृत=अधरामृत। कीर= सुग्गा, नासिका। कमठ=शुद्ध 'कमल', मुख या नेत्र। कोकिला=वाणी। [३१८] मूल संस्कृत श्लोक यह है––जटा नेयं वेणी कृतकचकलापो न गरलं, गले कस्तूरीयँ शिरसि शशिलेखा न कुसुमम्; इयं भूतिर्नाङ्गे प्रियविरहजन्मा धवलिमा, पुरारातिर्भ्रान्त्या कुसुमशर! किं मां व्यथयसि। [३२४] छपाकर=चन्द्र, मुख। सारस=कमल। [३२६] परेखो=सोच। पौरि=द्वार। [३२८] उमापति=शिव। सोध॰= पता पा गया। दसन॰=दाँत से काटने का। नैनन॰=खारा होने से। [३३०] भवभूति की रचना यों है––धत्ते चक्षुर्मुकुलिनि रणत्कोकिले बालचूते, मार्गे गात्रं क्षिपति बकुलामोदगर्भस्य चायोः; दावप्रेम्णा सरसविसनोपत्रमात्रोत्तरीयः, ताम्यन्मूर्तिः श्रयति बहुशो मृत्यवे चन्द्रपादान्। [३३२] उघारी=खुली। सलाका=सलाई (अंजन लगानेवाली)। आरति=दुःख। [३३५] हंस=परमहंस, ब्रह्मज्ञानी। [३३७] कैसे=समान। आगरे=बढ़कर। [३३८] जल॰=जल में शीशी डुबाने से बुल्ले निकलते हैं। बार=देर। [३४०] पास=पाश, जाल! सायक=बाण। दवा=दावाग्नि। [३४१] अभास्यो=प्रकाशित हुआ। सुमन=सुगंधित तेल, फुलेल। रहि=रुके नहीं। निरंजन=निर्लिप्त। सलभ=फतींगे। करम की=उत्तम। [३४३] धार बही=तलवार चली। [३४८] परी=गिरी, पृथक् हुई। बहिबो=बहना, नहीं रुकता। उपचारै॰=हमारा क्या उपचार हो, कष्ट किस प्रकार दूर हो। [३४९] आसी=खाने वाले। [३५०] आहु=हो। भोरो=ठगते हो। साहु=साधु, महाजन, वणिक्। [३५१] चारी=चारों मुक्ति (सालोक्य, सामीप्य, सायुज्य, सारूप्य) मारग॰= रास्ते पर आइए। [३५५] ही=थी। छपद-भ्रमर। दई=ईश्वर का भी डर नहीं। [३६०] सुसारना=समझाकर कहना [३६२] कुसुँभ=हलका लाल। करनि=अपने हाथों। [३६४] दोष=जोड़ की त्रुटि। काँजी=खट्टा। दिगम्बर=नंगे लोग। रजक=धोबी। [३७१] नँदलाल॰=श्रीकृष्ण से। ही=थी। ढही=गिर पड़ी। [३७५] तातो=तप्त, गरम! करम॰= धीरे धीरे, क्रमशः। [३७६] आगो लेना=सेवा करना। राम=बलराम। [३७७] गिरहिनी=गृहिणी, पत्नी (देवकी)। परिधान=वस्त्र। [३७९] बिकट=टेढ़ी। कल=मधुर। उडुगन=तारे। पदिक=माला में बोचोबीच का बड़ा गहना। दारा=पत्नी। राम॰=रामजन्म के तपस्वी, रामावतार में तपस्या की थी। मोट=गठरी। [३८०] ब्याज=बहाने से। हम॰=मुझ दाल का वश नहीं चलता। [३८२] नेरो=निकट। बेरो=बेड़ा, नाव। [३८४] बायस=कौए को वे पति के आगमन का शकुन विचारने के लिए उड़ा देती हैं। [३८५] कस=कैसा। फेरि॰=बेसुध हो जाना पड़ता है। [३८७] छाक=कलेवा। [३८८] परिहस=खेद। [३८९] अगाऊँ=पहले ही। कंथा=कथरी, गुदड़ी। षटदरसी=षट्शास्त्री, छहों शास्त्रों का ज्ञाता। [३९१] बार न॰=गोपियों को सिखा-पढ़ाकर लौटने में उसे देर न लगेगी, मुझे तो देर लगी। [३९२] खरिक=गायों के रहने का स्थान, गोशाला। जाहीं=जिसमें। निबाहीं=निर्वाह किया, सहा।