भ्रमरगीत-सार/भूमिका
ज्ञान की कोरी वचनावली और योग की थोथी साधनावली का यदि साधारण लोगों में विशेष प्रचार हो तो अव्यवस्था फैलने लगती है। निर्गुन-पंथ ईश्वर की सर्वव्यापकता, भेदभाव की शून्यता, सब मतों की एकता आदि लेकर बढ़ा जिस पर चलकर अपढ़ जनता ज्ञान की अनगढ़ बातों और योग के टेढ़े-मेढ़े अभ्यासों को ही सब कुछ मान बैठी तथा दंभ, अहंकार आदि दुर्वृत्तियों से उलझने लगी। ज्ञान का ककहरा भी न जानने वाले उसके पारंगत पंडितों से मुँहजोरी करने लगे। अज्ञान से जिनकी आँखें बंद थीं वे ज्ञानचक्षुओं को आँख दिखाने लगे——
बादहिं सूद्र द्विजन्ह सन हम तुम्ह तें कछु घाटि।
जानइ ब्रह्म सो विप्रवर आँखि देखावहिं डाँटि॥
——'मानस'
जैसे तुलसी के 'मानस' में यह लोकविरोधो धारा खटकी वैसे ही सूर की आँखों में भी। तुलसी ने स्पष्ट शब्दों में और कड़ाई से इसका परिहार करने की ठानी। प्रबंध का क्षेत्र चुनने से उन्हें इसके लिए विस्तृत भूमि मिल गई। पर गीतों में सूर ने इसका प्रतिवाद प्रत्यक्ष नहीं, प्रच्छन्न रूप में किया। उन्होंने उद्धव-प्रसंग में 'भ्रमरगीत' के भीतर इसके लिए स्थान निकाला। उद्धव के योग एवं ज्ञान का जो प्रतिकार गोपियों ने 'सूरसागर' में किया वह सूर की ही योजना है। श्रीमद्भागवत में, जिसकी स्थूल कथा के आधार पर 'सूरसागर' रचा गया, यह विधान है ही नहीं। उद्धव के ब्रज जाने, उपदेश देने, भ्रमर के आने और उसे खरी-खोटी सुनाने का वृत्त तो वहाँ हैं पर गोपियों द्वारा ज्ञान या योग का विरोध नहीं। ब्रज में उद्धव का केवल स्वागत-सत्कार ही हुआ, फटकार की मार उन पर नहीं पड़ी।[१] अतः यह तत्कालीन उद्वेगजनक प्रवृत्ति ही थी जिसका उच्छेद करने के लिए सूर ने 'सागर' की ये उत्ताल तरंगें लहराई। ज्ञान या योग की साधना भली न हो, सो नहीं। वस्तुतः वह कठिन है, सामान्य विद्या-बुद्धिवालों की पहुँच से परे है। पक्ष में उद्धव ऐसे ज्ञान-वरिष्ठ पुरुष और विपक्ष में ब्रजवासिनी ऐसी ज्ञान-कनिष्ठ स्त्रियों को खड़ा करके सूर ने ज्ञान एवं योग का प्रतिरोध साधारण जनता की दृष्टि से किया। ज्ञान की ऊँची तत्त्वचिंता उनके लिए नहीं। ज्ञानयोग के प्रतिपक्ष में प्रेमयोग का मंडन करके यह प्रतिपन्न किया गया है कि भक्ति की भी वही चरमावधि है जो ज्ञान की––
अहो अजान! ज्ञान उपदेसत ज्ञानरूप हमहीं।
निसिदिन ध्यान सूर प्रभु को अलि! देखत जित तितहीं॥
सूर ने ज्ञान या योगमार्ग को संकीर्ण, कठिन और नीरस तथा भक्तिमार्ग को विशाल, सरल और सरस कहा है। ज्ञान या योग का अभ्यासी विश्व की विभूति से अपनी वृत्ति समेटकर अंतर्मुख हो जाता है। इसलिए गुह्य, रहस्य एवं उलझन की वृद्धि होती है। पर भक्ति का अनुरागी बहिर्मुख रहता है। वह जगत् के विभूतिमत्, श्रीमत् और ऊर्जस्वित रूपों में अपनी वृत्ति रमाए रहता है।[२]। इसलिए दुराव-छिपाव से दूर रहता है। उसके लिए सब कुछ सुलझा हुआ है। इस प्रकार भक्ति का राजमार्ग चौड़ा, निष्कंटक और सीधा है। उसमें गोपन, रहस्य या उलझाव कहीं नहीं––
काहे को रोकत मारग सूधो।
सुनहु मधुप! निर्गुन-कंटक तें राजपंथ क्यों रूँधो॥
राजपंथ तें टारि बतावत उरझ, कुबील, कुपैंड़ो।
सूरजदास समाय कहाँ लौं अज के बदन कुम्हैंड़ो॥
विश्व की विभूति में मन को रमाने का जैसा अवसर भक्तिभावना में है वैसा अंतःसाधना में नहीं। कल्याण का मार्ग अंतर्व्यापी नहीं, बहिर्व्यापी सत्ता से फूटता है––
दूरि नहीं दयाल सब घट कहत एक समान।
निकसि क्यों न गोपाल बोधत दुखिन के दुख जान॥
उर तें निकसि करत क्यों न सीतल जो पै कान्ह यहाँ है।
सगुणोपासना साधार होती है, मन को रमाती है। निर्गुणोपासना निराधार होती है, मन को चक्कर में डालती है––
रूप रेख गुन जाति जुगुति बिनु निरालंब मन चक्कृत धावै।
सब बिधि अगम बिचारहि तातें सूर सगुन-लीला-पद गावै॥
इसी से योग-साधना या निर्गुणोपासना नीरस कही गई है––
ए अलि! कहा जोग में नीको।
तजि रस-रीति नंदनंदन की सिखवत निर्गुन फीको॥
सूर कहौ गुरु कौन करै अलि! कौन सुनै मत फीको।
सगुण-निर्गुण के विवाद से उद्धव-प्रसंग इतना खिला कि और भी कई समर्थ कवि उस पर रीझे। नंददास ने भी भावभरा 'भँवरगीत' गाया। उसकी टेकमिश्रित गीतशैली भ्रमरगीत की विशिष्ट पद्धति ही मान ली गई है। इनका भँवरगीत शुद्ध मुक्तक न होकर पद्य-निबंध के ढंग पर चला है। इसलिए। उसमें गोपी-उद्धव-संवाद सधा हुआ आया है। उत्तर प्रत्युत्तर भी तर्कबद्ध रीति पर है। सूर के भ्रमरगीत की सी विविधता उसमें नहीं, पर निबंध-रूप में होने से रसधारा का आनंद-प्रवाह अवश्य मिलता है। सूर के उद्धव की भाँति नंददास के उद्धव मौनाभ्यासी या अल्पभाषी नहीं है, भारी शास्त्रार्थी या विवादी हैं।
श्रीकृष्ण के वियोगवृत्त पर दो विशिष्ट रचनाएँ आधुनिक काल में भी प्रस्तुत हुई––एक रत्नाकर का 'उद्धव-शतक' और दूसरी सत्यनारायण कवि-रत्न का 'भ्रमर-दूत'। सूर के भ्रमरगीत में जो थोड़ी कमी थी वह 'उद्धव-शतक' में परिपूर्ण हो गई। कवित्त-शैली में कुछ नवीन उद्भावनाओं के साथ 'उद्धव-शतक' प्रस्तुत करके रत्नाकर ने अपनी कवित्व-शक्ति का सच्चा परिचय तो दिया ही, लाक्षणिक प्रयोगों और व्यंजक विधि की कसावट से भाषा-शक्ति का भी पूरा प्रमाण उपस्थित किया। इसमें भ्रमर का वृत्त नहीं आया है। 'भ्रमर-दूत' में देशप्रेम की भी व्यंजना करके कविरत्नजी ने उसे सामयिक रंग में बड़ी ही विदग्धता के साथ रँगा है। यशोदा या भारतमाता 'भ्रमर' को दूत बनाकर श्रीकृष्ण के पास द्वारका भेजती हैं। इसकी रीति नंददासवाली टेकमिश्रित है। इस प्रकार उद्धव एवं भ्रमर के वृत्तांत पर हिंदी में एक पृथक् ही वाङ्मय खड़ा हो गया है, जो बहुत ही रसीला और मर्मस्पर्शी है।
प्रस्तुत 'भ्रमरगीत' सूरसागर की सर्वोत्कृष्ट रत्नराजि है। स्वर्गीय
आचार्य शुक्लजी ने सूरसागर को मथकर भ्रमरगीत-सार कोई चार सौ पदों में संचित किया था। संग्रह थोड़ा-थोड़ा करके कई बार में किया गया था और जैसे जैसे संग्रह होता जाता था पुस्तक छपती जाती थी। इसी से इसमें कुछ पद पुनरुक्त हो गए और कुछ अस्यानस्थ। यहाँ तक कि एक
पद संयोग-शृंगार का भी चिपका रह गया। पुस्तक का अधिक प्रचार हुआ और शुक्लजी के जीवनकाल में ही इसकी कई आवृत्तियाँ हो गईं। न तो प्रकाशक को पुनरावृत्ति रोक रखने का अवकाश मिला और न संपादक को उसकी पुनरावृत्ति करने का। फलस्वरूप पुस्तक प्रायः ज्यों की त्यों छपती रही। केवल थोड़ी सी छापे की वे अव्यवस्थाएँ दूर कर दी गईं जो पहली आवृत्ति होते ही ज्ञात हो गई थीं। अतः शुक्लजी जैसा चाहते थे वैसा परिष्कार करने की बारी ही नहीं आई।
काशी-हिंदू-विश्वविद्यालय में यह ग्रन्थ पढ़ाते समय मुझे शुक्लजी से कई स्थानों पर विचार-विमर्श करने का भी सुअवसर प्राप्त हो चुका है। प्रस्तुत आवृत्ति के समय जब प्रकाशक ने मुझसे इसके उपपादन का अनुरोध किया तो मैंने शुक्लजी की नीति के अनुकूल इसमें कुछ उलट-फेर करने का दुस्साहस भी किया। फेर-फार करने में जो विशेषता आ गई हो उसे स्वर्गीय शुक्लजी का प्रसाद और जो त्रुटि बन पड़ी हो उसे मेरा ही प्रमाद समझना चाहिए।
छानबीन करने से निम्नलिखित पद संयोग-शृंगार का दिखाई पड़ा। अतः इसे हटा देना पड़ा––
- देखु री, हरि जू के नैनन की छबि।
- यह अनुमान, मानि मन मानी अंबुज सेवत रबि॥
- खंजरीट अतिब्यथा चपल भए, बन मृग, जल महँ मीन रहे दबि।
- एते पै मानत न, कछू न कछू कहत हैं कुकबि॥
- इन से तो एई हरि, आवै न कछु फबि।
- सूरदास उपमा जु गई सब ज्यों होमत हबि॥
उद्धव-गोपी-संवाद के एक ही लंबे पद (संख्या ३७९) के छः टुकड़े हो गए थे और उनमें पृथक् पृथक् संख्याएँ लग गई थीं। ये संख्याएँ भी
हटा दी गईं। पाँच पद दो दो बार छप गए थे। ये पुनरुक्त पद भी कम कर दिए गए। ग्रन्थ में पहले कुल पद-संख्या ४०३ थी। उक्त परिशुद्धि से ११ संख्याएँ कम हो गईं और अब कुल पद-संख्या ३९२ ही रह गई। ८-९ पद नए जोड़ कर ४०० या ४०१ पद-संख्या कर देने का विचार था, पर कई कारणों से ऐसा नहीं किया।
भ्रमरगीत के कुछ पदों का आवश्यक अंश शुक्लजी ने अपनी भूमिका में भी उद्धृत किया है। मिलाने पर भूमिका और मूल के पदों में कहीं थोड़ा और कहीं विशेष पाठभेद दिखाई पड़ा। अधिकतर भूमिका के पाठ को ठीक मानकर जहाँ तक बन सका दोनों की एकरूपता स्थापित की गई। पदों में जो छापे की अशुद्धियाँ रह गई थीं उन्हें भी शुद्ध कर दिया गया। ब्रज में तालव्य 'श' नहीं होता इसलिए, सर्वत्र दंत्य 'स' का ही व्यवहार किया गया है। पहले इस नियम का पालन कहीं था कहीं नहीं।
पदों की दो-चार टिप्पणियों में मतभेद दिखाई पड़ा। इनमें कोई परिवर्तन न करके संपादक की मूल टिप्पणियों के नीचे दूसरे अक्षरों में नई टिप्पणियाँ अलग से लगा दी गई हैं। शुक्लजी की टिप्पणियों के अतिरिक्त बहुत से ऐसे शब्द और प्रयोग और दिखाई पड़े जिनकी व्याख्या आवश्यक प्रतीत हुई। इसलिए 'चूर्णिका' नाम से पुस्तक के अंत में कुछ और टिप्पणियाँ भी जोड़ देनी पड़ीं। अब आशा की जा सकती है कि यह पढ़ने-पढ़ानेवालों के लिए सुगम हो गया होगा।
ब्रह्मनाल, काशी रथयात्रा, १९९९ |
विश्वनाथ प्रसाद मिश्र |