भ्रमरगीत-सार/१०५-ऊधो! तुम अपनो जतन करौ
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ऊधो! तुम अपनो जतन करौ।
हित की कहत कुहित की लागै, किन बेकाज ररौ?
जाय करौ उपचार आपनो, हम जो कहत हैं जी की।
कछू कहत कछुवै कहि डारत, धुन देखियत नहिं नीकी।
साधु होय तेहि उत्तर दीजै तुमसों मानी हारि।
याही तें तुम्हैं नँदनंदनजू यहाँ पठाए टारि॥
मथुरा बेगि गहौ इन पाँयन, उपज्यौ है तन रोग।
सूर सुबैद बेगि किन ढूँढ़ौ भए अर्द्धजल[१] जोग॥१०५॥
- ↑ अर्द्धजल-जोग हुए=मरने के निकट हुए। (शव को दाह के पूर्व अर्द्धजल देते हैं)।