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भ्रमरगीत-सार/१०७-ऊधो! अब यह समुझ भई

विकिस्रोत से
भ्रमरगीत-सार
रामचंद्र शुक्ल

बनारस: साहित्य-सेवा-सदन, पृष्ठ १२८

 

राग सारंग
ऊधो! अब यह समुझ भई।

नँदनंदन के अंग अंग प्रति उपमा न्याय दई[]
कुंतल, कुटिल, भँवर, भरि भाँवरि मालति भुरै लई।
तजत न गहरु[] कियो कपटी जब जानी निरस गई॥
आनन-इंदुबरन-सँमुख तजि करखे तें न नई।
निरमोही नहिं नेह, कुमुदिनी अंतहि हेम[] हई॥
तन घनस्याम सेइ निसिबासर, रटि रसना छिजई।
सूर विवेकहीन चातक-मुख बूँदौ तौ न सई[]॥१०७॥

  1. उपमा न्याय दई=उचित उपमाएँ दीं, अर्थात् अंगों ने उपमानों के अनुरूप ही आचरण किया।
  2. गहरु=देर।
  3. हेम हई=पाले से मारा या पाला मार गई। हेम=हिम, पाला। चन्द्रमा को हिमकर कहते हैं।
  4. सई=गई।