बनारस: साहित्य-सेवा-सदन, पृष्ठ १६०
दिन नहिं चैन, रैन नहिं सोवत, पावक भई जुन्हैया सरद॥ जब ते अक्रूर लै गए मधुपुरी, भई बिरह तन बाय[१] छरद[२]। कीन्हीं प्रबल जगी अति, ऊधो! सोचन भइ जस पीरी हरद[३]। सखा प्रवीन निरंतर हौ तुम ताते कहियत खोलि परद[४]। काथ रूप दरसन बिन हरि के सूर मूरि नहिं हियो सुरद[५]॥२०७॥