बनारस: साहित्य-सेवा-सदन, पृष्ठ १६१
मेरे कहे बिलग मानौगे, कोटि कुटिल लै जोरे॥ वै अक्रूर क्रूर कृत तिनके, रीते भरे, भरे गहि ढोरे[१]। वै घनस्याम, स्याम अंतरमन, स्याम काम महँ बोरे॥ ये मधुकर दुति निर्गुन गुनते, देखे फटकि पछोरे। सूरदास कारन संगति के कहा पूजियत[२] गोरे?॥२११॥