बनारस: साहित्य-सेवा-सदन, पृष्ठ २०२ से – २०३ तक
आछे कमल कोस-रस लोभी द्वै अलि[१] सोच करे। कनक बेलि औ नवदल के ढिग बसते उझकि[२] परे॥ कबहुँक पच्छ सकोचि मौन ह्वै अंबुप्रवाह झरे। कबहुँक कंपित चकित निपट ह्वै लोलुपता बिसरे॥ बिधु-मंडल[३] के बीच बिराजत अंमृत अंग भरे । एतेउ जतन बचत नहिं तलफत बिनु मुख सुर उचरे॥
कीर, कमठ, कोकिला उरग-कुल[४] देखत ध्यान धरे। आपुन क्यों न पधारौ सूर प्रभु, देखे कह बिगरे॥३१७॥