बनारस: साहित्य-सेवा-सदन, पृष्ठ १२२
मुख औरै अंतर्गत औरै पतियाँ लिखि पठवत हैं बनाय॥ ज्यों कोइलसुत काग जिआवत भाव-भगति भोजनहिं खवाय। कुहकुहाय[१] आए बसंत ऋतु, अंत मिलै कुल अपने जाय॥ जैसे मधुकर पुहुप-बास लै फेरि न बूझै वातहु आय। सूर जहाँ लौं स्यामगात हैं तिनसों क्यों कीजिए लगाय[२]?॥९१॥