महात्मा शेख़सादी/६/१ बोस्तां

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महात्मा शेख़सादी  (1917) 
द्वारा प्रेमचंद
[ ५४ ]

बोस्तां

फ़ारसी साहित्य की पाठ्य पुस्तकों में गुलिस्तां के बाद बोस्तां ही का प्रचार है। यह कहने में कुछ अत्युक्ति न होगी कि काव्यग्रन्थों में बोस्तां का वही आदर है जो गद्य में गुलिस्तां का है। निज़ामी का सिकन्दरनामा, फ़िरदौसी का शाहनामा, मौलाना रूम की मसनवी, और दीवान-हाफ़िज़, यह चारों ग्रन्थ बोस्तां ही के समान गिने जाते हैं। निज़ामी और फ़िरदौसी वीर-रस में अद्वितीय हैं। मौलाना रूम की मसनवी भक्ति सम्बन्धी ग्रन्थों में अपना जवाब नहीं रखती, और हाफ़िज़ प्रेम-रस के राजा हैं। इन चारों काव्यों का आदर किसी न किसी अंश में उनके विषय पर निर्भर है। लेकिन बोस्तां एक नीति-ग्रन्थ है और नीति के ग्रन्थ बहुधा जनता को प्रिय नहीं हुआ करते। अतएव बोस्तां का जो आदर और प्रचार है वह सर्वथा उसकी सरलता और विचारोत्कर्ष पर निर्भर है। मौलाना रूम ने जीवन के गूढ़ तत्वों का वर्णन किया है और धार्मिक विचार के मनुष्यों में उसका बड़ा मान है। भाषा की मधुरता, और प्रेम के भाव में हाफ़िज़ सादी से बहुत बढ़ा हुआ है। उसकी सी मर्मस्पर्शिनी कविता फ़ारसी में और किसी ने नहीं की। उसके ग़ज़लों के कितने ही शेर जीवन की साधारण बातों पर ऐसे घटते हैं मानो [ ५५ ]उसी अवसर के लिए लिखे गये हो। धन्य है शीराज़ की वह पवित्र भूमि जिसने सादी और हाफ़िज़ जैसे दो ऐसे अमूल्य रत्न उत्पन्न किये। भाषा और भाव की सरलता में सादी सर्वश्रेष्ठ माने जाते हैं। फ़िरदौसी और निज़ामी बहुधा अलौकिक बातों का वर्णन करते हैं; पर सादी ने कहीं अलौकिक घटनाओं का सहारा नहीं लिया है। यहांतक कि उसकी अत्युक्तियां भी अस्वाभाविक नहीं होतीं। उन्होंने समयानुसार सभी रसों का वर्णन किया है लेकिन करुणा-रस उन में सर्वप्रधान है। दया के वर्णन में उनकी लेखनी बहुत ही कम हो गई है। सादी निमाज़ और रोज़े के पाबन्द तो थे किन्तु सेवाधर्म को उस से भी श्रेष्ठ समझते थे। उन्होंने बारम्बार सेवा पर ज़ोर दिया है। उनका दूसरा प्रिय विषय राजनीति है। बादशाहों को न्याय, धर्म, दीनपालन और क्षमा का उपदेश करने से वह कभी नहीं थकते। उनकी राजनीति पर लायलटी (राजभक्ति) का ऐसा रंग नहीं चढ़ा था कि वह खरी खरी बातों के कहने से चूक जायं। उनके राजनीति विषयक विचारों की स्वतन्त्रता पर आज भी आश्चर्य होता है। इस बीसवीं शताब्दि में भी हमारे यहां बेगार की प्रथा क़ायम है। लेकिन आज के कई सौ वर्ष पहले अपने ग्रन्थों में सादी ने कई जगह इसका विरोध किया है।

बोस्तां में १० अध्याय हैं उनकी विषय सूची देखने [ ५६ ]से विदित होता है कि सादी की नीतिशिक्षा कितनी विस्तीर्ण है— प्रथम अध्याय द्वितीय ,

प्रथम अध्याय न्याय और राजनीति
द्वितीय अध्याय दया
तृतीय अध्याय प्रेम
चतुर्थ अध्याय विनय
पञ्चम अध्याय धैर्य्य
षष्ठ अध्याय सन्तोष
सप्तम अध्याय शिक्षा
अष्टम अध्याय कृतज्ञता
नवम अध्याय प्रायश्चित्त
दशम अध्याय ईश्वर प्रार्थना

नीतिग्रन्थों की आवश्यकता यों तो जन्म भर रहती है लेकिन पढ़ने का सब से उपयुक्त समय बाल्यावस्था है। उस समय उनके मानवचरित्र का आरंभ होता है। इसी लिए पाठ्यपुस्तकों में बोस्तां का इतना प्रचार है। संसार की कई प्रसिद्ध भाषाओं में इसके अनुवाद हो चुके हैं। सर्वसाधारण में इस के जितने शेर लोकोक्ति के रूप में प्रचलित हैं उतने गुलिस्तां के नहीं। यहां हम उदाहरण की भांति दो चार कथायें देकर ही सन्तोष करेंगे—

(१) सीरिया देश के एक बादशाह जिसका नाम [ ५७ ]"सालेह" था कभी कभी अपने एक गुलाम के साथ भेष बदल कर बाज़ारों में निकला करता था। एक बार उसे एक मस्जिद में दो फ़क़ीर मिले। उन में से एक दूसरे से कहता कि अगर यह बादशाह लोग जो भोग-विलास में जीवन व्यतीत करते हैं स्वर्ग में आवेंगे तो मैं उनकी तरफ़ आंख उठाकर भी न देखूंगा। स्वर्ग पर हमारा अधिकार है क्योंकि हम इस लोक में दुःख भोग रहे हैं। अगर सालेह वहां बाग़ की दीवार के पास भी आया तो जूते से उसका भेजा निकाल लूंगा। सालेह यह बात सुन कर वहां से चला आया। प्रातःकाल उसने दोनों फ़क़ीरों को बुलाया और यथोचित आदर सत्कार करके उच्चासन पर बैठाया। उन्हें बहुत सा धन दिया। तब उन में से एक फ़कीर ने कहा हे बादशाह, तू हमारी किस बात से ऐसा प्रसन्न हुआ? बादशाह हर्ष से गद्‌गद् होकर बोला मैं वह मनुष्य नहीं हूं कि ऐश्वर्य के अभिमान में दुर्बलों को भूल जाऊं। तुम मेरी ओर से अपना हृदय साफ़ कर लो और स्वर्ग में मुझे ठोकर मारने का विचार मत करो। मैंने आज तुम्हारा सत्कार किया है, तुम कल मेरे सामने स्वर्ग का द्वार न बन्द करना।

(२) सुना है कि ईरान देश का बादशाह दारा एक दिन शिकार खेलने गया और अपने साथियों से छूट गया। कहीं खड़ा इधर उधर ताक रहा था कि एक चरवाहा दौड़ता हुआ उसके सामने आया। बादशाह ने [ ५८ ]इस भय से कि यह कोई शत्रु न हो तुरंत धनुष चढ़ाया। चरवाहे ने चिल्ला कर कहा "हे महाराज, मैं आपका वैरी नहीं हूं। मुझे मारने का विचार मत कीजिये। मैं आपके घोड़ों को इसी चरागाह में चराने लाया करताहूं।" तब बादशाह को धीरज हुआ। बोला "तू बड़ा भाग्यवान था कि आज मरते मरते बच गया"। चरवाहा हंस कर बोला "महाराज, यह बड़े खेद की बात है कि राजा अपने मित्रों और शत्रुओं को न पहचान सके। मैं हज़ारों बार आपके सामने गया हूं। आपने घोड़े के सम्बन्ध में मुझ से बातें की हैं। आज आप मुझे ऐसा भूल गये। मैं तो अपने घोड़ों को लाखों घोड़ों में पहचान सकता हूं। आपको आदमियों की पहचान होना चाहिए।"

(३) बादशाह "उमर" के पास एक ऐसी बहुमूल्य अंगूठी थी कि बड़े बड़े जौहरी दंग रह जाते। उसका नगीना रात को तारे की तरह चमकता था। संयोग से एक बार देश में अकाल पड़ा। बादशाह ने अंगूठी बेच दी और उससे एक सप्ताह तक अपनी भूखी प्रजा का उदर पालन किया। बेचने के पहले बादशाह के शुभचिन्तकों ने उसे बहुत समझाया कि ऐसी अपूर्व अंगूठी मत बेचिये, फिर न मिलेगी। उमर ने न माना। बोला "जिस राजा की प्रजा दुःख में हो उसे यह अंगूठी शोभा नहीं देती। रत्नजटित आभूषणों [ ५९ ]को ऐसी दशा में पहिनना कब उचित कहा जा सकता है कि जब मेरी प्रजा दाने को तरसती हो।"

(४) दमिश्क़ में एक बार ऐसा अकाल पड़ा कि बड़ी बड़ी नदियां और नाले सूख गये, और पानी का कहीं नाम न रहा। कहीं था तो अनाथों की आंखों में। यदि किसी घर से धुआं उठता था तो वह चूल्हे का नहीं किसी विधवा, दीनों की आह का धुआं था। उस समय मैं ने अपने एक धनवान मित्र को देखा, जो उदासीन, सूख कर कांटा हो गया था। मैंन कहा, भाई तुम्हारी यह क्या दशा हो रही है, तुम्हारे घर में किस बात की कमी है? यह सुनते ही उसके नेत्र सजल हो गये। बोला, मेरी यह दशा अपने दुःख से नहीं, वरन दूसरों के दुःख से हुई है। अनाथों को क्षुधा से बिलखते देखकर मेरा हृदय फटा जाता है। वह मनुष्य पशु से भी नीच है जो अपने देशवासियों के दुःख से व्यथित न हो।

(५) एक दुष्ट सिपाही किसी कुंए में गिर पड़ा। सारी रात पड़ा रोता चिल्लाता रहा। कोई सहायक न हुआ। एक आदमी ने उलटे यह निर्दयता की कि उस के सिर पर एक पत्थर मार कर बोला कि दुरात्मा, तूने भी कभी किसी के साथ नेकी की है आज दूसरों से सहायता की आशा रखता है। जब हज़ारों हृदय तेरे अन्याय से तड़प रहे हैं, तो तेरे धायों की सुधि कौन लेगा। कांटे बो कर फूल की आशा मत रख। [ ६० ]

(६) एक अत्याचारी राजा देहातियों के गधे बेगार में पकड़ लिया करता था। एक बार यह शिकार खेलने गया और एक हिरन के पीछे घोड़ा दौड़ाता हुआ अपने आदमियों से बहुत आगे निकल गया। यहांतक कि संध्या हो गई। इधर उधर अपने साथियों को देखने लगा। लेकिन कोई देख न पड़ा। विवश होकर निकट के एक गांव में रात काटने की ठानी। वहां क्या देखता है कि एक देहाती अपने मोटे ताजे गधे को डंडों से मार मार कर उसके धुएँ उड़ा रहा है। राजा को उसकी यह कठोरता बुरी मालूम हुई। बोला, अरे भाई क्या तू इस दीन पशु को मार ही डालेगा? तेरी निर्दयता पराकाष्ठा को पहुंच गई। यदि ईश्वर ने तुझे बल दिया है तो उसका ऐसा दुरुपयोग मत कर। देहाती ने बिगड़ कर कहा तुम से क्या मतलब है? मैं जाने क्या समझ कर इसे मारता हूं। राजा ने कहा, अच्छा बहुत बक-बक मत कर, तेरी बुद्धि भ्रष्ट होगई है, शराब तो नहीं पी ली? देहाती ने गम्भीरभाव से कहा मैंने न शराब पी है, न पागल हूं, मैं इसे केवल इसी लिये मारता हूं जिस में यह इस देश के अत्याचारी राजा के किसी काम का न रहे। लंगड़ा और बीमार होकर मेरे द्वार पर पड़ा रहे, यह मुझे स्वीकार है। लेकिन राजा को बेगार में देना स्वीकार नहीं। राजा यह उत्तर सुनकर चुप रह गया। रात तारे गिन-गिन कर काटी। प्रातःकाल उसके आदमी खोजते हुए वहां आ पहुंचे [ ६१ ]जब खा पी कर निश्चिन्त हुआ तो राजा को उस गंवार की याद आई। उसे पकड़वा मंगाया और तलवार खींच कर उसका सिर काटने पर तैयार हुआ। देहाती जीवन से निराश होगया और निर्भय होकर बोला, हे राजा, तेरे अत्याचार से सारे देश में हाय हाय मची हुई है। कुछ मैं ही नहीं बल्कि तेरी समस्त प्रजा तेरे अत्याचार से घबड़ा उठी है। यदि तुझे मेरी बात कड़ी लगती है तो न्याय कर कि फिर ऐसी बातें सुनने में न आवें। इसका उपाय मेरा लिर काटना नहीं, बल्कि अत्याचार को छोड़ देना है। राजा के हृदय में ज्ञान उत्पन्न होगया। देहाती को क्षमा कर दिया और उस दिन से प्रजा पर अत्याचार करना छोड़ दिया।

(७) सुना है कि एक फ़कीर ने किसी बादशाह से उसके अत्याचारों की निन्दा की। बादशाह को यह बात बुरी लगी और उसे कै़द कर दिया। फ़क़ीर के एक मित्र ने उससे कहा, तुम ने यह अच्छा नहीं किया। बादशाहों से ऐसी बातें नहीं कहनी चाहियें। फ़क़ीर बोला, मैंने जो कुछ कहा वह सत्य है, इस क़ैद का क्या डर, दो चार दिन की बात है। बादशाह के कान में यह बात पहुंची। फ़क़ीर को कहला भेजा, इस भूल में न रहना कि दो चार दिन में छुट्टी हो जायगी, तुम उसी कै़द में मरोगे। फ़क़ीर यह सुन कर बोला, जाकर बादशाह से कहदो कि मुझे यह धमकी न दें। यह [ ६२ ]ज़िन्दगी दो चार दिन से ज़्यादा न रहेगी, मेरे लिए दुःख सुख दोनों बराबर हैं। तू ऊंचे आसन पर बैठा दे तो उसका खुशी नहीं, सिर काट डाल तो उसका कुछ रंज नहीं। मरने पर हम और तुम दोनों बराबर हो जायंगे। दयाहीन बादशाह यह सुनकर और भी बिगड़ा, और हुक्म दिया कि इसकी ज़बान तालू से खींच ली जाय। फ़क़ीर बोला मुझको इसका भी भय नहीं है। खुदा मेरे मन का हाल बिना कहे ही जानता है। तू अपने को रो जिस शुभ दिन को मरेगा देश में आनन्दोत्सव की तरंगें उठने लगेंगी।

(८) एक कवि किसी सज्जन के पास जाकर बोला कि मैं बड़ी विपत्ति में पड़ा हुआ हूं, एक नीच आदमी के मुझ पर दस रुपये आते हैं। इस ऋण के बोझ से मैं दबा जाता हूं। कोई दिन ऐसा नहीं जाता कि वह मेरे द्वार का चक्कर न लगाता हो। उसकी वाण सरीखी बातों ने मेरे हृदय को चलनी बना दिया है। वह कौन सा दिन होगा कि मैं इस ऋण से मुक्त हो जाऊंगा। सज्जन पुरुष ने यह सुन कर उसे एक अशरफी दी। कवि अति प्रसन्न हो कर चला गया। एक दूसरा मनुष्य वहां बैठा था। बोला, आप जानते हैं यह कौन है। यह ऐसा धूर्त है कि बड़े बड़े दुष्टों के भी कान काटता है। यह अगर मर भी जाय तो रोना न चाहिये। [ ६३ ]उसका गला छूट गया। लेकिन यदि उसने मुझ से धूर्तता की है तब भी मुझे पछताने की ज़रूरत नहीं क्योंकि रुपये न पाता तो वह मेरी निन्दा करने लगता।

(९) मैंने सुना है कि हिजाज़ के रास्ते पर एक आदमी पग पग पर निमाज़ पढ़ता जाता था। इस सद्‌मार्ग में इतना लीन हो रहा था कि पैरों से कांटे भी न निकालता था। निदान उसे अभिमान हुआ कि ऐसी कठिन तपस्या दूसरा कौन कर सक्ता है। तब आकाशवाणी हुई कि भले आदमी तू अपनी तपस्या का अभिमान मत कर। किसी मनुष्य पर दया करना पग पग पर नमाज़ पढ़ने से उत्तम है।

(१०) एक दीन मनुष्य किसी धनी के पास गया और कुछ मांगा। धनी मनुष्य उसे कुछ देता तो क्या, उलटे नौकर से धके दिलवाकर उसे बाहर निकलवा दिया। कुछ काल उपरान्त समय पलटा। धनी का धन नष्ट हो गया, सारा कारोबार बिगड़ गया। खाने तक का ठिकाना न रहा। उसका नौकर एक ऐसे सज्जन के हाथ पड़ा, जिसे किसी दीन को देख कर वही प्रसन्नता होती थी जो दरिद्र को धन से होती है। अन्य नौकर चाकर छोड़ भागे। इस दुरवस्था में बहुत दिन बीत गये। एक दिन रात को इस धर्मात्मा के द्वार पर किसी साधु ने आकर भोजन मांगा। उस ने नौकर से कहा उसे भोजन दे दो। नौकर जब भोजन देकर [ ६४ ]लौटा तो उसके नेत्रों से आंसू बह रहे थे। स्वामीने पूछा, क्यों रोता है? बोला, इस साधु को देख कर मुझे बड़ा दुःख हुआ। किसी समय मैं उसका सेवक था। उसके पास धन, धरती सब था। आज उसकी यह दशा है कि भीख मांगता फिरता है। स्वामी सुन कर हंसा और कहा बेटा, संसार का यही रहस्य है। मैं भी वही दीन मनुष्य हूँ जिसे इसने तुझ से धक्के देकर बाहर निकलवा दिया था।

(११) याद नहीं आता कि मुझ से किस ने यह कथा कही थी कि किसी समय यमन में एक बड़ा दानी राजा था। वह धन को तृणवत समझता था। जैसे मेघ से जल की वर्षा होती है उसी तरह उसके हाथों से धन की वर्षा होती थी। हातिम का नाम भी कोई उसके सामने लेता तो चिढ़ जाता। कहा करता कि उसके पास न राज्य है न ख़ज़ाना, उसकी और मेरी क्या बराबरी? एक बार उसने किसी आनन्दोत्सव में बहुत से मनुष्यों को निमन्त्रण किया। बात चीत में प्रसंगवश हातिम की भी चर्चा आ गई और दो चार मनुष्य उसकी प्रशंसा करने लगे। राजा के हृदय में ज्वाला सी दहक उठी। तुरंत एक आदमी को आज्ञा दी कि हातिम का सिर काट ला। वह आदमी हातिम की खोज में निकला। कई दिन के बाद रास्ते में उसकी एक युवक से भेंट हुई। वह गुण और शील में निपुण था। घातक को अपने [ ६५ ]घर लेगया, और बड़ी उदारता से उसका आदर सम्मान किया। जब प्रातःकाल घातक ने विदा मांगी तो युवक ने अत्यन्त विनीतभाव से कहा कि यह आपही का घर है, इतनी जल्दी क्यों करते हैं। घातक ने उत्तर दिया कि मेरा जी तो बहुत चाहता है कि ठहरूं लेकिन एक कठिन कार्य करना है, उसमें विलम्ब हो जायगा। हातिम ने कहा यदि कोई हानि न हो तो मुझ से भी बतलाओ कौन सा काम है, मैं भी तुम्हारी सहायता करूं। मनुष्य ने कहा, यमन के बादशाह ने मुझे हातिम को वध करने भेजा है। मालूम नहीं, उनमें क्या विरोध है। तू हातिम को जानता हो तो इसका पता बता दे। युवक निर्भीकता से बोला हातिम मैं ही हूं तलवार निकाल और शीघ्र अपना काम पूरा कर। ऐसा न हो कि विलम्ब करने से तू कार्य्य सिद्ध न करसके। मेरे प्राण तेरे काम आवें तो इस से बढ़ कर मुझे और क्या आनन्द होगा। यह सुनते ही घातक के हाथ से तलवार छूट कर ज़मीन पर गिर पड़ी। वह हातिम के पैरों पर गिर पड़ा और बड़ी दीनता से बोला हातिम तू वास्तव में दानवीर है। तेरी जैसी प्रशंसा सुनता था उससे कहीं बढ़ कर पाया। मेरे हाथ टूट जायें अगर तुझ पर एक कंकरी भी फेंकूं। मैं तेरा दास हूं और सदैव रहूंगा। यह कह कर वह यमन लौट आया। बादशाह का मनोरथ पूरा न हुआ तो उसने उस मनुष्य का बहुत तिरस्कार किया, और बोला मालूम होता है [ ६६ ]कि तू हातिम से डरकर भाग पाया। अथवा तुझे उसका पता न मिला। उस मनुष्य ने उत्तर दिया, राजन् हातिम से मेरी भेंट हुई लेकिन मैं उसका शील और आत्मसमर्पण देख कर उसके वशीभूत हो गया। इसके पश्चात् उसने सारा वृत्तान्त कह सुनाया। बादशाह सुनकर चकित हो गया और स्वयं हातिम की प्रशंसा करते हुए बोला, वास्तव में वह दानियों का राजा है, उसकी जैसी कीर्ति है वैसे ही उसमें गुण हैं।

(१२) बायज़ीद के विषय में कहा जाता है कि वह अतिथिपालन में बहुत उदार था। एक बार उसके यहां एक बूढ़ा आदमी आया जो भूख प्यास से बहुत दुखी मालूम होता था। वायज़ीद ने तुरंत उसके सामने भोजन मंगवाया। वृद्ध मनुष्य भोजन पर टूट पड़ा। उसकी जिह्वा से 'बिस्मिल्लाह' शब्द न निकला। बायज़ीद को निश्चय हो गया कि वह क़ाफिर है। उसे अपने घर से निकलवा दिया। उसी समय आकाशवाणी हुई कि बायज़ीद मैंने इस क़ाफिर का १०० वर्ष तक पालन किया, और तुझ से एक दिन भी न करते बन पड़ा।