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महात्मा शेख़सादी/६ गुलिस्ताँ

विकिस्रोत से
महात्मा शेख़सादी
प्रेमचंद

कलकत्ता: हिन्दी पुस्तक एजेन्सी, पृष्ठ ३३ से – ५३ तक

 

छठवां अध्याय

गुलिस्ताँ

यहां हम गुलिस्ताँ की कुछ कथायें देते हैं जिससे हम पाठकों को भी सादी के लेखनकौशल का परिचय देसकें।

[१] गुलिस्ताँ में आठ परिच्छेद हैं। प्रत्येक परिच्छेद में नीति और सदाचार के भिन्न भिन्न सिद्धान्तों का वर्णन किया गया है। प्रथम प्रकरण में बादशाहों को आचार, व्यवहार और राजनीति विषयक उपदेश दिये गये हैं।

सादी ने राजाओं के लिए निम्नलिखित बातें बहुत आवश्यक और ध्यान देने योग्य बतलाई हैं:—

(१) प्रजा पर कभी स्वयं अत्याचार करे न अपने कर्मचारियों को करने दे।

(२) किसी बात का अभिमान न करे और संसार के वैभव को नश्वर समझता रहे।

(३) प्रजा के धन को अपने भोग-विलास में न उड़ाकर उन्हीं के आराम में खर्च करे।


मैं दमिश़्क में एक औलिया की क़ब्र पर बैठा हुआ था कि अरब देश का एक अत्याचारी बादशाह वहां पूजा करने आया। नमाज़ पढ़ने के पश्चात् वह मुझ से बोला कि मैं आजकल एक बलवान शत्रु के हाथों तंग आगया हूँ। आप मेरे लिए दुआ कीजिये। मैंने कहा कि शत्रु के पंजे से बचने के लिए सब से अच्छा उपाय यह है कि अपनी दीन प्रजा पर दया कीजिये।


एक अत्याचारी बादशाह ने किसी साधु से पूछा 'कि मेरे लिए कौन सी उपासना उत्तम है। उत्तर मिला कि तुम्हारे लिए दोपहर तक सोना सब उपासनाओं से उत्तम है; जिस में उतनी देर तुम किसी को सता न सको।


एक दिन ख़लीफ़ा हारू रशीद का एक शाहज़ादा क्रोध से भरा हुआ अपने पिता के पास आकर बोला कि मुझे अमुक सिपाही के लड़के ने गाली दी है। बादशाह ने मन्त्रियों से पूछा कि क्या होना चाहिए। किसी ने कहा उसे क़ैद कर दीजिये। कोई बोला जान से मरवा डालिये। इस पर बादशाह ने शाहज़ादे से कहा, बेटा उत्तम तो यह है कि उसे क्षमा करो। यदि इतने उदार नहीं हो सक्ते तो उसे भी गाली दे लो।


एक साधु संसार से विरक्त होकर वन में रहने लगा। एक दिन राजा की सवारी उधर से निकली। साधु ने कुछ ध्यान न दिया। तब मन्त्री ने जाकर उससे कहा साधु जी राजा तुम्हारे सामने से निकले और तुमने उनका कुछ सम्मान न किया। साधु ने कहा भगवन् राजा से कहिए कि नमस्कार-प्रणाम की आशा उससे रक्खे जो उन से कुछ चाहता हो। अथच राजा प्रजा की रक्षा के लिए है, न कि प्रजा राजा की बंदगी के लिए।


एक बार न्यायशील नौशेरवां जंगल में शिकार खेलने गया। वहां भोजन बनाने के लिए नमक की ज़रूरत हुई। नौकर को भेजा कि जाकर पासवाले गांव से नमक ले आ। लेकिन बिना दाम दिये मत लाना। नहीं गांव ही उजड़ जायगा। नौकर ने कहा तनिक सा नमक लेने से गांव कैसे उजड़ जायगा? नौशेरवां ने उत्तर दिया:—

अगर राजा प्रजा के बाग़ से एक सेब खाले तो नौकर लोग उस वृक्ष की जड़ तक खोद खाते हैं।

[२] दूसरे प्रकरण में सादी ने पाखण्डी साधुओं, मौलवियों और फ़क़ीरों को शिक्षा दी है। जिन्हें उस प्राचीन काल में भी इसकी कुछ कम आवश्यकता न थी। सादी को पण्डितों, मौलवी-मुल्लाओं के साथ रहने के बहुत अवसर मिले थे। अतएव वह उनके रंग-ढंग को भली भांति जानते थे। इन उपदेशों में बारम्बार समझाया है कि मौलवियों को सन्तोष रखना चाहिये। उन्हें राजा रईसों की खुशामद करने की ज़रूरत नहीं। गेरुवे बाने की भाड़ में स्वार्थ सिद्ध करने को वह अत्यन्त घृणा की दृष्टि से देखते थे। उनके कथनानुसार किसी बने हुए साधु से भोग-विलास में फँसा हुआ मनुष्य अच्छा है क्योंकि वह किसी को धोखा तो देना नहीं चाहता।

मुझे याद है कि एक बार जब मैं बाल्यावस्था में सारी रात क़ुरान पढ़ता रहा तो कई आदमी मेरे पास पड़े खर्राटे ले रहे थे। मैंने अपने पूज्य पिता से कहा इन सोने वालों को देखिये, निमाज़ पढ़ना तो दूर रहा कोई सिर भी नहीं उठाता। पिता जी ने उत्तर दिया, बेटा, तू भी सो जाता तो अच्छा होता कि इस छिद्रान्वेषण से तो बच जाता।


किसी बादशाह ने एक ईश्वर-भक्त से पूछा कि कभी आप मुझे भी तो याद करते होंगे। भक्त ने कहा, हाँ, जब ईश्वर को भूल जाता हूं तो आप याद आ जाते हैं।


एक बादशाह ने किसी विपत्ति के अवसर पर निश्चय किया कि यदि यह विपत्ति टल जाय तो इतना धन साधु सन्तों को दान कर दूंगा। जब उसकी कामना पूरी हो गई तो उसने अपने नौकर को रुपयों की एक थैली साधुओं को बाँटने के लिए दी। वह नौकर चतुर था। संध्या को वह थैली ज्यों की त्यों दर्बार में वापस ले आया और बोला, दीन बन्धू, मैंने बहुत खोज की किन्तु इन रुपयों का लेने वाला कोई न मिला। बादशाह ने कहा तुम भी विचित्र आदमी हो, इसी शहर में चार सौ से अधिक साधु होंगे। नौकर ने विनय की कि भगवन् जो सन्त हैं वह तो द्रव्य को छूते नहीं और जो माया सक्त हैं उन्हें मैं ने दिया नहीं।


किती महात्मा से पूछा गया कि दान ग्रहण करना आप उचित समझते हैं वा अनुचित? उन्होंने उत्तर दिया कि यदि उस से किसी साकार्य की पूर्त्ति हो तब तो उचित है, यदि केवल संग्रह और व्यापार के निमित्त हो तो अत्यन्त अनुचित है।


एक साधु किसी राजा का अतिथि हुआ। जब भोजन का समय आया तो उस ने बहुत अल्प भोजन किया। लेकिन जब नमाज़ का वक्त आया तो उसने खूब लंबी नमाज़ पढ़ी। जिस में राजा के मन में श्रद्धा उत्पन्न हो। वहाँ से विदा हो कर घर पर आये तो भूख के मारे बुरा हाल था। आते ही भोजन माँगा। पुत्र ने कहा पिता जी क्या राजा ने भोजन नहीं दिया। बोले भोजन तो दिया किन्तु मैंने स्वयं जान बूझ कर कुछ नहीं खाया जिस में बादशाह को मेरे योगसाधन पर पूरा विश्वास हो जाय। बेटे ने कहा, तो भोजन करके नमाज़ भी फिर से पढ़िये। जिस तरह वहाँ का भोजन आप का पेट नहीं भर सका, वैसे ही वहाँ की नमाज़ भी सिद्ध नहीं हुई।

[३] तीसरे प्रकरण में सन्तोष की महिमा वर्णन की गई है। सादी की नीति शिक्षा में सन्तोष का पद बहुत ऊँचा है। और यथार्थ भी यही है। सन्तोष सदाचार का मूल मन्त्र है। सन्तोषरूपी नौका पर बैठ कर हम इस भवसागर को निर्विघ्न पार कर सक्त हैं।


मिश्र देश में एक धनवान मनुष्य के दो पुत्र थे। एक ने विद्या पढ़ी, दूसरे ने धन संचय किया। एक पण्डित हुवा, और दूसरा मिश्र का प्रधान मन्त्री कोषाध्यक्ष। इस ने अपने विद्वान् भ्राता से कहा, देखो मैं राजपद पर पहुंचा और तुम ज्यों के त्यों रह गये। उसने उत्तर दिया ईश्वर ने मुझ पर विशेष कृपा की है, क्योंकि मुझ को विद्या दी जो देव दुर्लभ पदार्थ है और तुम को मिश्र की उस गद्दी का मन्त्री बनाया जो []*फिरऊन की थी।


ईरान के बादशाह बहमन के सँबन्ध में कहा जाता है कि उसने अरब के एक हकीम से पूछा कि नित्य कितना भोजन करना चाहिये। हकीम ने उत्तर दिया, २९ तोले। बादशाह बोला भला, इतने से क्या होगा। उत्तर मिला, इतने आहार से तुम ज़िन्दा रह सकते हो। इसके उपरान्त जो कुछ खाते हो वह बोझ है जो तुम व्यर्थ अपने ऊपर लादते हो।

एक मनुष्य पर किसी बनिये के कुछ रुपये चढ़ गये थे। वह उससे प्रतिदिन माँगा करता और कड़ी कड़ी बातें कहता। बेचारा सुन सुन कर दुःखी होता था, सहने के सिवा कोई दूसरा उपाय न था। एक चतुर ने यह कौतुक देख कर कहा इच्छाओं का टालना इतना कठिन नहीं है जितना बनियों को। क़साइयों के तगादे सहने की अपेक्षा माँस की अभिलाषा में मरजाना कहीं अच्छा है।


एक फ़कीर को कोई काम आ पड़ा। लोगों ने कहा अमुक पुरुष बड़ा दयाल है। यदि उससे जा कर अपनी आवश्यकता कहो तो वह तुम्हें कदापि निराश न करेगा। फ़क़ीर पूछते पूछते उस पुरुष के घर पहुंचा। देखा तो वह रोनी सूरत बनाये, क्रोध में भरा बैठा है। उल्टे पाँव लौट आया। लोगों ने पूछा क्यों भाई क्या हुआ? बोले सूरत ही देखकर मन भर गया। यदि माँगना ही पड़े तो किसी प्रसन्न चित्त आदमी से मांगो, मनहूस आदमी से न मागना ही अच्छा है। सूरत ही निराशा-जनक न हो।


लोगों ने []*हातिमताई से पूछा, क्या तुमने संसार में कोई अपने से अधिक प्रतिभाशाली मनुष्य देखा वा सुना है? बोला, हां एक दिन मैंने लोगों की बड़ी भारी दावत की। संयोग से उस दिन किसी कार्यवश मुझे जंगल की तरफ जाना पड़ा। एक लकड़हारे को देखा बोझ लिये आ रहा है। उससे पूछा, भाई, हातिम के महमान क्यों नहीं बन जाते? आज देश भर के आदमी उसके अतिथि हैं। बोला जो अपनी मेहनत की रोटी खाता है वह हातिम के सामने हाथ क्यों फैलावे?


कहते हैं कि एक भिक्षुक ने बहुतसा धन जमा कर रक्खाथा। वहां के बादशाह ने उसे बुला कर कहा, सुना है कि तुम्हारे पास बड़ी सम्पत्ति है। मुझे आजकल द्रव्य की बड़ी आवश्यकता आपड़ी है। यदि उसमें से कुछ दे दो तो कोष में रुपये आतेही मैं तुम्हें चुका दूंगा। फ़क़ीर ने कहा जहां-पनाह, मुझ जैसे भिखारी का धन आप के काम का नहीं है क्योंकि मैंने मांग मांग कर कौड़ी कौड़ी बटोरी है। बादशाह ने कहा इसकी कुछ चिन्ता नहीं, मैं यह रुपये काफ़िरों, अधर्मियों कोही दूंगा। जैसा धन है वैसा।


एक वृद्ध पुरुष ने एक युवती कन्या से विवाह किया अपने कमरे को फूलों से खूब सजाया। उसके साथ एकान्त में बैठा हुआ उसकी सुन्दरता का आनंद उठाया करता। रात भर जागता रहता और रोचक कहानियां कहा करता कि कदाचित् उसके हृदय में कुछ प्रेम उत्पन्न हो जाय। एक दिन उससे बोला तेरा नसीब अच्छा था कि तेरा विवाह मेरे जैसे बूढ़े से हुआ जिसने बहुत ज़माना देखा है, सुख-दुःख का बहुत अनुभव कर चुका है। जो मित्रधर्म का पालन करना जानता है, और जो मृदुभाषी, प्रसन्न चिन्त, और शीलवान है। नहीं तू किसी अभिमानी युवक के पाले पड़ी होती, जो रात दिन सैर सपाटे किया करता, अपने ही बनाव सिंगार में भूला रहता, नित्य नये प्रेम की खोज में रहता, तो तुझसे रोते न बनता। युवक लोग सुन्दर और रसिक होते हैं किन्तु प्रीति-पालन करना नहीं जानते। बूढ़े ने समझा कि इस भाषण ने कामिनी को मोहित कर लिया लेकिन अकस्मात युवती ने एक गहरी साँस ली और बोली "आपने बहुत अच्छी अच्छी बातें कहीं लेकिन उनमें से एक भी मुझे इतनी नहीं जचती जितनी मेरी दाई का यह वाक्य कि युवती को तीर का घाव उतना दुखदाई नहीं होता जितना वृद्ध मनुष्य का सरवास।"


दयारेबक्र में मैं एक वृद्ध धनवान मनुष्य का अतिथि था। उसके एक रूपवान पुत्र था। एक दिन उसने कहा "इस लड़के के सिवा मेरे और कोई सन्तान नहीं हुई। यहां से पासही एक पवित्र वृक्ष है, लोग वहां जाकर मन्नतें मानते हैं। कितनी ही रात मैंने उस वृक्ष के नीचे ईश्वर से विनती की, तब मुझे यह पुत्र प्राप्त हुआ।" उधर लड़का धीरे धीरे मित्रों से कह रहा था "यदि मुझे उस वृक्ष का पता होता तो जा कर ईश्वर से पिता की मृत्यु के लिए विनय करता।"


मेरे मित्रों में एक युवक बड़ा प्रसन्न-चित्त, हंस-मुख और रसिक था। शोक उसके हृदय में घुसने भी न पाता था। कुछ दिनों तक उस से मिलने का संयोग न हुआ इसके बाद जब भेंट हुई तो देखा कि उसके घर में स्त्री और बच्चे हैं। साथही न वह पहले की सी मनोरञ्जकता है न उत्साह। पूछा क्या हाल है? बोला, जब बच्चों का बोप हो गया तो बच्चों का खिलाड़ीपन कहां से लाऊं? अवस्थानुकूल ही सब बातें शोभा देती हैं।


एक बार युवावस्था में मैंने अपनी माता से कुछ कठोर बातें कह दीं। माता दुःखी होकर एक कोने में जा बैठी और रो कर कहने लगी, बचपन भूल गया, इसी लिये अब मुंह से ऐसी बातें निकलती हैं।


एक बूढ़े से लोगों ने पूछा विवाह क्यों नहीं करते? वह बोला वृद्धा स्त्रियों से मैं विवाह नहीं करना चाहता लोगों ने कहा, तो किसी युवती से ब्याह करलो। बोला, जब मैं बूढ़ा हो कर बूढ़ी स्त्रियों से भागता हूं तो वह युवती हो कर बूढ़े मनुष्य को कैसे चाहैंगी?


[४] चौथा प्रकरण बहुत छोटा है और उसमें मितभाषी होने का जो उपदेश किया गया है उसकी सभी बातों से आजकल के शिक्षित लोग सहमत न होंगे, जिनका सिद्धान्त ही है कि अपनी राई भर बुद्धि को पर्वत बनाकर दिखाया जाय। आजकल विनय अयोग्यता की द्योतक समझी जाती है और वही मनुष्य चलते-पुरज़े और में युवावस्था दूसरे में वृद्धावस्था का। युवावस्था में हमारी मनोवृत्तियां कैसी होती हैं, हमारे क्या कर्तव्य होते हैं, हम वासनाओं में किस प्रकार लिप्त हो जाते हैं बुढ़ापे में हमें क्या अनुभव होते हैं, मन में क्या अभिलाषायें रहती हैं हमारे क्या कर्तव्य होने चाहिये। इन सब विषयों को सादी ने इस तरह वर्णन किया है मानो वह भी सदाचार के अङ्ग हैं। इस में कितनी ही कथायें ऐसी हैं कि जिनसे मनोरञ्जन के सिवा कोई नतीजा नहीं निकलता, वरन कुछ कथायें ऐसी भी हैं जिन को गुलिस्ताँ जैसे ग्रन्थ में स्थान न मिलना चाहिये था। विशेषतः युवावस्था का वर्णन करते हुए तो ऐसा मालूम होता है मानो सादी को जवानी का नशा चढ़ गया था।


[७] सातवां प्रकरण शिक्षा से सम्बन्ध रखता है। सादी को शिक्षकों के दोष और गुण, शिष्य और गुरु के पारस्परिक व्यवहार और शिक्षा के फल और विफल का अच्छा वर्णन किया है। उनका सिद्धान्त था कि शिक्षा चाहे कितनी ही उत्तम हो मानव स्वभाव को नहीं बदल सकती, और शिक्षक चाहे कितना ही विद्वान् और सच्चरित्र क्यों न हो कठोरता के बिना अपने कार्य में सफल नहीं हो सकता। यद्यपि आजकल यह सिद्धान्त निर्भ्रान्त नहीं माने जा सकते तथापि यह नहीं कहा जा सक्ता कि उनमें कुछ भी तत्व नहीं है। कोई शिक्षा पद्धति अबतक ऐसी नहीं निकली है जो दण्ड का निषेध करती हो, हां कोई शारीरिक दण्ड के पक्ष में है, कोई मानसिक दण्ड के पक्ष में।


एक विद्वान् किसी बादशाह के लड़के को पढ़ाता था। वह उसे बहुत मारता और डांटता था। राजपुत्र ने एक दिन अपने पिता से जा कर अध्यापक की शिकायत की। बादशाह को भी क्रोध आया। अध्यापक को बुलाकर पूछा "आप मेरे लड़के को इतना क्यों मारते हैं? इतनी निर्दयता आप अन्य लड़कों के साथ नहीं करते?" अध्यापक ने उत्तर दिया "महाराज, राजपुत्र में नम्रता और सदाचार की विशेष आवश्यकता है क्योंकि बादशाह लोग जो कुछ कहते या करते हैं वह प्रत्येक मनुष्य की जिह्वा पर रहता है जिसे बचपन में सत्‌चरित्रता की शिक्षा नहीं कठोर पूर्वता मिलती उसमें बड़े होने पर कोई अच्छा गुण नहीं आ सकता। हरी लकड़ी को जितना चाहो मोड़ लो लेकिन सूख जाने पर वह नहीं मुड़ सकती।"


मैंने अफ़्रीका देश में एक मौलवी को देखा। वह अत्यन्त कुरूप कठोर, और कटुभाषी था। लड़कों को पढ़ाता कम, और मारता ज़्यादा। लोगों ने उसे निकाल कर उसकी जगह एक धार्मिक, नम्र, और सहनशील मौलवी को रक्खा। यह हज़रत लड़कों से बहुत प्रेम से बोलते और कभी उनकी तरफ़ कड़ी आंख से भी न देखते। लड़के उनका यह स्वभाव देख कर ढीठ होगये। आपस में लड़ाई दंगा मचाते और लिखने की तख़तियां लड़ाया करते। जब मैं दूसरी बार फिर वहां गया तो मैंने देखा कि वही पहले वाला मौलवी बालकों को पढ़ा रहा है। पूछने पर विदित हुआ कि दूसरे मौलवी की नम्रता से उकता जाने पर लोग पहले मौलवी को मना कर लाये थे।


एक बार मैं बलख़ से कुछ यात्रियों के साथ आ रहा था। हमारे साथ एक बहुत बलवान नवयुवक था जो डींग मारता चला आता था कि मैंने यह किया और वह किया। निदान हम को कई डाकुओं ने घेर लिया। मैंने पहलवान से कहा अब क्या खड़े हो कुछ अपना पराक्रम दिखाओ। लेकिन लुटेरों को देखते ही उस मनुष्य के होश उड़ गये। मुख फीका पड़ गया। तीर कमान हाथ से छूट कर गिर पड़ा और वह थर थर कांपने लगा। जब उसकी यह दशा देखी तो अपने असबाब वहीं छोड़ कर हम लोग भाग खड़े हुए। यों किसी तरह प्राण बचे।

जिसे युद्ध का अनुभव हो वही समर में अड़ सकता है। इस के लिये बल से अधिक साहस की ज़रूरत है।

[८] आठवें प्रकरण में सादी ने सदाचार और सद्‌व्यवहार के नियम लिखे हैं। कथाओं का आश्रय न लेकर खुले खुले उपदेश किये हैं। इस लिये सामान्य रीति से यह अध्याय विशेष रोचक न हो सकता था, किन्तु इस कमी को सादी ने रचना सौन्दर्य से पूरा किया है। छोटे छोटे वाक्यों में सूत्रों की भांति अर्थ भरा हुआ है। यह प्रकरण मानों सादी के उपदेशों का निचोड़ है। यह वह उपवन है जिसमें राजनीति, सदाचार, मनोविज्ञान, समाजनीति, सभाचातुरी में रङ्ग-बिरङ्गे पुष्प लहलहा रहे हैं। इन फूलों में छिपे हुए कांटे भी हैं, जिन में यह अद्भुत गुण है कि वह वहीं चुभते हैं जहां चुभना चाहिये—गेरुवे वाने की आड़ में, छिपी हुई स्वार्थान्धता में, उपाधियों के नीचे छिपी हुई मूर्खता में, उन हाथों में जो सलाम को उठते हैं, लेकिन दोनों के उठाने को नहीं उठते, उन हृदयों में, जहां सारे संसार की अभिलाषाओं के लिए स्थान है किन्तु प्रेम और दया के लिए नहीं। संसार में कुछ ऐसे उपदेशक होते हैं जो धन को अत्याचार का यंत्र और धनी को समाज का शत्रु समझते हैं। उनमें एक प्रकार की ईर्षा होती है जो सुख और सम्पत्ति को देख कर तृणवत् जल उठती है। ऐसे उपदेशकों को cynic षरछिद्रान्वेषी कहते हैं। सादी cynic नहीं है। वह ईर्षालु हृदय से उपदेश नहीं करता। उसका हृदय शीतल, कोमल और मधुर है। वह धन का भूका नहीं, लेकिन धन की निन्दा भी नहीं करता। वह ऐश्वर्य्य का अभिलाषी नहीं लेकिन उसका निरादर भी नहीं करता है। उसमें बड़ा प्रशंसनीय गुण यह है कि वह अपने उपदेशों में आदर्श के साथ साथ व्यवहारिक दृष्टि भी रखता है।


धन जीवन के सुख के लिए है; किन्तु जीवन धन संग्रह करने के लिए नहीं है। मैं ने एक बुद्धिमान से पूछा, "संसार में भाग्यवान कौन है, और कौन भाग्यहीन?" बोला "जिसने भोगा और यश कमाया वह भाग्यवान है, किन्तु जिसने धन कमाया और छोड़ कर मर गया वह भाग्यहीन है।"


उन दो मनुष्यों ने वृथा कष्ट उठाया और वृथा परिश्रम किया। एक तो वह जिसने धन संग्रह किया और उसे भोगा नहीं, दूसरा वह जिसने विद्या पढ़ी किन्तु उसका उपयोग न किया।


दुष्टों पर दया करना, सज्जनों पर अत्याचार है।


नृपतियों की मित्रता और बालकों की मीठी मीठी बातों पर भरोसा नहीं करना चाहिये।


यदि कोई निर्बल शत्रु तुम्हारे साथ मित्रता करे तो तुम को उससे अधिक सचेत रहना चाहिये। जब मित्र की सच्चाई का ही भरोसा नहीं तो शत्रुओं की खुशामद का क्या विश्वास!


यदि किन्हीं दो दुश्मनों के बीच में कोई बात कहो तो उस भांति कहो कि अगर वे फिर मित्र हो जायें तो तुम्हें लज्जित न होना पड़े।


जो मनुष्य अपने मित्र के शत्रुओं से मित्रता करता है वह अपने मित्र का शत्रु है।


जब तक धन से काम निकले तब तक जान को जोखिम में न डालो। जब कोई उपाय न रहे तो म्यान से तलवार खींचो।


शत्रु की सलाह के विरुद्ध काम करना ही बुद्धिमानी है। अगर वह तुम्हें तीर के समान सीधी राह दिखावे तो भी उसे छोड़ दो और टेढ़ी राह जाओ।


न तो इतनी कड़ाई करो कि लोग तुम से डरने लगें, और न इतनी नम्रता कि लोग सिर चढ़ें।


दो मनुष्य राज्य और धर्म के शत्रु हैं, निर्दयी राजा और मूर्ख साधु।


राजा को उचित है कि अपने शत्रुओं पर इतना क्रोध न करे कि जिससे मित्रों के मन में भी खटका हो जाय।


जब शत्रु की कोई चाल काम नहीं करती तब वह मित्रता उत्पन्न करता है; मित्रता के बहाने से वह उन सब कामों को कर सक्ता जो वह दुश्मन रह कर न कर सका।


साँप के सिर को अपने बैरी के हाथ से कुचलवाओ। या तो साँप ही मरेगा या दुश्मन ही से गला छूटेगा।


जब तक तुम्हें पूर्ण विश्वास न हो कि तुम्हारी बात पसन्द आवेगी तब तक बादशाह के सामने किसी की निन्दा मत करो; अन्यथा तुम्हें स्वयं हानि उठानी पड़ेगी।


जो व्यक्ति किसी घमण्डी आदमी को उपदेश करता है, वह ख़ुद नसीहत का मुहताज है।


जो मनुप्य सामर्थ्यवान् हो कर भी भलाई नहीं करता उसे सामर्थ्यहीन होने पर दुःख भोगना पड़ेगा।अत्याचारी का विपद में कोई साथी नहीं होता।


किसी के छिपे हुए ऐब मत खोलो; इससे तुम्हारा भी विश्वास उठजायगा।


विद्या पढ़कर उसका अनुशीलन न करना, ज़मीन जोत कर बीज न डालने के समान है।


जिसकी भुजाओं में बल नहीं है, यदि वह लोहे की कलाई वाले से पंजा ले तो यह उसकी मूर्खता है


दुर्जन लोग सज्जनों को उसी तरह नहीं देख सक्ते जिस तरह बाज़ारी कुत्ते शिकारी कुत्तों को देखकर दूर से गुर्राते हैं, लेकिन पास जाने की हिम्मत नहीं करते।


गुणहीन गुणवानों से द्वेष करते हैं।


बुद्धिमान लोग पहला भोजन पच जाने पर फिर खाते हैं; योगी लोग उतना खाते हैं जितने से जीवित रहें, जवान लोग पेट भर खाते हैं, बूढ़े जब तक पसीना न आजाय खाते ही रहते हैं, किन्तु कलन्दर इतना खा जाते हैं कि सांस की भी जगह नहीं रहती।


अगर पत्थर हाथ में हो और साँप नीचे तो उस समय सोच विचार नहीं करना चाहिये।


अगर कोई बुद्धिमान मूर्खों के साथ वादविवाद करे तो उसे प्रतिष्ठा की आशा न रखनी चाहिये।


जिस मित्र को तुम ने बहुत दिनों में पाया है उससे मित्रता निभाने का यत्न करो।


विवेक इन्द्रियों के अधीन है जैसे कोई सीधा मनुष्य किसी चंचल स्त्री के अधीन हो।


बुद्धि, बिना बल के छल और कपट है, बल बिना बुद्धि के मूर्खता और क्रूरता है।


जो व्यक्ति लोगों का प्रशंसापात्र बनने की इच्छा से वासनाओं का त्याग करता है, वह हलाल को छोड़कर हराम की ओर झुकता है।


दो बातें असम्भव है, एक तो अपने अंश से अधिक खाना, दूसरे मृत्यु से पहले मरना।


  1. *मित्र का एक अभिमानी बादशाह था जिसे मूसा नबी ने नील नदी में डुबा दिया।
  2. *उदारता में अरब का हरिश्चन्द्र है।