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मानसरोवर १/तावान

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मानसरोवर १
प्रेमचंद

बनारस: सरस्वती प्रेस, पृष्ठ २७३ से – २७९ तक

 
तावान

छकौड़ीलाल ने दूकान खोली और कपड़े के थानों को निकाल-निकाल रखने लगा कि एक महिला दो स्वयंसेवकों के साथ उसकी दूकान को छेकने आ पहुँची। छकौड़ी के प्राण निकल गये।

महिला ने तिरस्कार करके कहा --- क्या लाला, तुमने सील तोड़ डाली न! मच्ची बात है, देखें तुम कैसे एक गिरह कपड़ा भी बेच लेते हो। भले आदमी, तुम्हें शर्म नहीं आती कि देश में यह संग्राम छिपा हुआ है और तुम विलायत्तो कपा बेच रहे हो, डूब मरना चाहिए ! औरतें तक घरों से निकल पड़ी है, फिर भी तुम्हें लज्जा नहीं आती। तुम जैसे कायर देश में न होते, तो उसकी यह अधोगति न . होती!

छकौड़ी ने वास्तव में कल कांग्रेस की सील तोड़ डाली थी। यह तिरस्कार सुनकर उसने सिर नीचा कर लिया। उसके पास कोई सफाई न थी, कोई जवाब न था। उसकी दुकान बहुत छोटी थी । लेहने पर कपड़े लाकर बेचा करता था। यही जोविका थी। इसी पर वृद्धा माता, रोगिणी स्त्री और पांच बेटे-बेटियों का निर्वाह होता था। जब स्वराज्य-संग्राम छिड़ा और सभी बाल विलायती कपड़ों पर मुहर लगवाने लगे, तो उसने भी मुहर लगवा ली । दस-पांच थान स्वदेशी कपड़ों के उधार लाकर दूकान पर रख लिये ; पर कपड़ों का मैल न था इसलिए विको कम होती थी। कोई भूला-भटका गाहक आ जाता, तो रुपया-आठ आने को विक्री हो जाती। दिन-भर दूकान में तपस्या-सी करके पहर रात को घर लौट जाता था। गृहस्थो का खर्च इस विक्री में क्या चलता। कुछ दिन कर्ज-वाम लेकर काम चलाया, फिर गहने-पाते की नौबत आई। यहां तक कि अब घर में कोई ऐसी चोजन बची, जिससे दो-चार महीने पेट का भूत सिर से टाला जाता । उधर स्त्री का रोग असाध्य होता जाता था। बिना किसी कुशल डाक्टर को दिखाये काम न चल सकता था। इसी चिन्ता में डूब- उतरा रहा था कि विलायती कपड़े का एक माहक मिल गया, जो एकमुश्त दस रुपये का माल लेना चाहता था। इस प्रलोभन को वह न रोक सका। स्त्री ने सुना, तो कानों पर हाथ रखकर बोली-मैं मुहर तोड़ने को कभी न कहूंगी। डाक्टर तो कुछ अमृत पिला न देगा। तुम नक्कू क्यों बनो। बचना होगा, बच जाऊँगो, मरना होगा, मर जाऊँगी, बेआबरुई तो न होगी । मैं जीकर ही घर का क्या उपकार रह रहो हूँ। और सबको दिक्क कर रही हूँ। देश को स्वराज्य मिळे, लोग सुखी हो, बला से मैं मर जाऊँगी। हजारों आदमी जेल जा रहे हैं, कितने घर तवाह हो गये, तो क्या सबसे ज्यादा प्यारी मेरी हो जान है ?

पर छकौड़ी इतना पक्का न था। अपना वश चलते वह स्त्री को भाग्य के भरोसे न छोड़ सकता था। उसने चुपके से मुहर तोद डालो और लागत के दामों दस रुपये के कपड़े बेच लिये।

अब डाक्टर को कैसे ले जाय । स्त्री से क्या परदा रखता। उसने जाकर साफ- साफ सारा वृत्तान्त कह सुनाया और डाक्टर को बुलाने चला।

स्त्री ने उसका हाथ पकड़कर कहा --- मुझे डाक्टर की ज़रूरत नहीं, अगर तुमने ज़िद की, तो मैं दवा की तरफ आँख भी न उठाऊँगी।

छकौड़ी और उसकी माँ ने रोगिणो को बहुत समझाया ; पर वह डाक्टर को बुलाने पर राजी न हुई। छकौड़ी ने दसौ रुपये उठाकर घर-कुइयां में फेंक दिये और बिना कुछ खाये पोये, क्रिस्मत को रोता-कता दुकान पर चला आया। उसी वक्त पिकेट करनेवाले था पहुँचे और उसे फटकारना शुरू कर दिया । पमोस के दूकानदार ने कांग्रेस-कमेटी में जाकर चुगली खाई थी।

( २ )

छकौड़ी ने महिला के लिए अन्दर से लोहे को एक टूटी, बेरग कुरसी निकाली और लपककर उनके लिए पान लाया। जब वह पान खाकर कुरसी पर बैठो, तो हमने अपने अपराध के लिए क्षमा मांगी। बोला --- बहनजी, बेशक मुझसे यह अपराध हुआ है , लेकिन मैंने मजबूर होकर मुहर तोड़ी। अबकी मुझे मुआफो दीजिए। फिर ऐसी खता न होगी।

देशसेविका ने थानेदारों के शेष के साथ कहा --- यो अपराध क्षमा नहीं हो सकता। तुम्हें इसका तावान देना पड़ेगा। तुमने काग्रेस के साथ विश्वासघात किया है और इसका तुम्हे दण्ड मिलेगा। आज हो बायकाट-कमेटी में यह मामला पेश होगा।

छकौड़ी बहुत ही विनीत, बहुत हो सहिष्णु था ; लेकिन चिंताग्नि में तपकर

उसका हृदय उस दशा को पहुँच गया था, जब एक चोट भी चिनगारियाँ पैदा करता है। तिनककर बोला-ताचान तो मैं न दे सकता हूँ, न दूंगा। हो, दुकान भले हो बन्द कर हूँ । और दूकान भी क्यों बन्द करें। अपना माल है, जिस जगह चाहूँ, बेच सकता हूँ। अभी जाकर थाने में लिखा दूं, तो बायकाट कमेटी को भागने की रोह न मिले । मैं जितना ही दबता हूँ, उतना हो आप लोग दबाती है।

महिला ने सत्याग्रह-शक्ति के प्रदर्शन का अवसर पाकर कहा-हो, जरूर पुलीस में रपट करो। मैं तो चाहती हूँ। तुम उन लोगों को यह धमकी दे रहे हो, ओ तुम्हारे ही लिए, अपने प्राणों का बलिदान कर रहे हैं। तुम इतने स्वार्थान्ध हो कि अपने स्वार्थ के लिए देश का अनहित करते तुम्हें लज्जा नहीं आती! उस पर मुझे पुलीस की धमकी देते हो। वायकाट-कमेटी जाय या रहे; पर तुम्हें तावान देना पड़ेगा ; अन्यथा दूकान बन्द करनी पड़ेगी।

यह कहते-कहते महिला का चेहरा गर्व से तेजवान हो गया। कई आदमी जमा हो गये और सम-के-सब छकौड़ी को बुरा भला कहने लगे। छकौड़ी को भी मालूम हो गया कि पुलीस की धमकी देकर उसने बहुत बड़ा अविवेक किया है । लज्जा और अपमान से उसकी गरदन झुक गई और मुंह जरा सा निकल आया। फिर उसने गर- दन नहीं उठाई।

सारा दिन गुजर गया और धेले की भी बिक्रो न हुई। आखिर हारकर उसने दुकान बन्द कर दी और घर चला आया।

दूसरे दिन प्रातकाल बायकाट-कमेटो ने एक स्वयसेवक द्वारा उसे सूचना दे दी कि कमेटी ने उसे १०१) का दण्ड दिया है।

( ३ )

छकौड़ी इतना जानता था कि कांग्रेस की शक्ति के सामने वह सर्वथा अशक है। उसको जान से जो धमको निकल गई थी, उस पर घोर पश्चात्ताप हुआ, लेकिन तीर कमान से निकल चुका था। दुकान खोलना व्यर्थ था। वह जानता था. उसकी धेले की भी बिक्री न होगी। १०१) देना उसके बूते से बाहर को बात थी। दो-तोन दिन तो वह चुपचाप बैठा रहा। एक दिन रात को दूकान खोलकर सारी गांठ पर उठा लाया और चुपके-चुपके बेचने लगा। पैसे को चीन घेले में लुटा रहा था और वह भी उधार । जीने के लिए कुछ आधार तो चाहिए ! मगर उसकी यह चाल भी काग्रेस से छिपी न रहो। चौथे हो दिन गोइन्दों ने काग्रेस को खबर पहुँचा दी। उसी दिन तीसरे पहर छकौड़ो के घर को पिकेटिंग शुरू हो गई। अबकी सिर्फ पिकटिंग शुरू न थी, स्यापा भी था । पाँच-छः स्वय- सेविकाएँ और इतने ही स्वयसेवक द्वार पर स्यापा करने लगे।

छकौड़ो आंगन में सिर झुकाये खड़ा था। कुछ अक्ल काम न करती थी, इस विपत्ति को कैसे टालें। रोगिणी स्त्रो सायबान में लेटी हुई थी, वृद्धा माता उसके सिर- हाने बैठी पहा मल रही थी और बच्चे बाहर त्यापे का आनन्द उठा रहे थे।

स्त्री ने कहा --- इन वो पूछते नहीं, खायें क्या ?

छकौड़ी बोला --- किससे पू जब कोई सुने भी ।

'जाकर कांग्रेसवालों से कहो, हमारे लिए कुछ इन्तजाम कर दें, हम अभी कपड़े को जला देंगे, ज्यादा नहीं, २५) ही महोना दे दें।'

'वहाँ भी कोई न सुनेगा।'

'तुम जाओ भो, या यही से कानून बघारने लगे।'

'क्या जाऊँ, उलटे और लोग हँसी उड़ायेंगे। यहाँ तो जिसने दुकान खोली, उसे दुनिया लखपती ही समझने लगती है।'

'तो खड़े-खड़े यह गालियाँ सुनते रहोगे?'

'तुम्हारे कहने से कहो चला जाऊँ ; मगर वहाँ ठठोली के सिवा और कुछ न होगा।'

'हाँ, मेरे कहने से जाओ। जब कोई न सुनेगा, तो हम भी कोई और राह- निकालेंगे।'

उकौड़ी ने मुंह लटकाये कुरता पहना और इस तरह कांग्रेस दफ्तर चला, जैसे कोई मरणासन्न रोगी को देखने के लिए वैद्य को बुलाने जाता है।

( ४ )

कांग्रेस कमेटी के प्रधान ने परिचय के बाद पूछा- तुम्हारे ही ऊपर तो बाय- काट-कमेटी ने १०१) का तावान लगाया है ?

'जी हाँ।'

'तो रुपया कर दोगे।'

'मुझमें तावान देने की सामर्थ्य नहीं है। मापसे मैं सत्य कहता हूँ, मेरे घर में

दो दिन से चूल्हा नहीं जला। घर की जो जमा-जमा थी, वह सब बेचकर खा गया। भब आपने तावान लगा दिया, दूकान बन्द करनी पड़ी। घर पर कुछ मान बेचने लगा। वहाँ स्यापा बैठ गया। अगर आपकी यही इच्छा हो कि हम सब दाने बगैर मर जाय, तो मार डालिए, और मुझे कुछ नहीं कहना है।'

छकौड़ी जो बात कहने घर से चला था, वह उसके मुँह से न निकली। उसने देख लिया कि यहां कोई उस पर विचार करनेवाला नहीं है।

प्रधानजो ने गम्भीर-भाव से कहा --- तावान तो देना ही पड़ेगा। अगर तुम्हें छोड़ दें, तो इसी तरह और लोग भी करेंगे। फिर विलायती कपड़े की रोक-थाम कैसे होगी?

'मैं आपसे जो कह रहा हूँ, उस पर आपको विश्वास नहीं आता।'

'मैं जानता हूँ, तुम मालदार आदमी हो।'

'मेरे घर की तलाशी ले लीजिए।'

'मैं इन चकमों में नहीं आता।'

छकौड़ी ने उद्दण्ड होकर कहा --- तो यह कहिए कि आप देश-सेवा नहीं कर रहे हैं, गरीबों का खून चूस रहे हैं । पुलीसवाले कानूनी पहल से लेते हैं, आप गैरकानूनी से लेते हैं। नतीजा एक है । आप भी अपमान करते हैं, वह भी अपमान करते कसम खा रहा हूँ कि मेरे घर में खाने के लिए दाना नहीं है, मेरी स्त्री खाट पर पड़ी-पड़ी मर रही है। फिर भी आपको विश्वास नहीं आता। आप मुझे कांग्रेस का काम करने के लिए नौकर रख लीजिए । २५) महोने दीजिएगा। इससे ज्यादा अपनी रोगी का और क्या प्रमाण हँ। अपर मेरा काम संतोष के लायक न हो, तो एक महीने के बाद मुझे निकाल दीजिएगा। यह समझ लीजिए कि जब मैं आपको गुलामी करने को तैयार हुआ हूँ, तो इसी लिए कि मुझे दुसरा कोई आधार नहीं है । इम व्यापारी लोग, अपना बस चलते, किसी की चाकरी नहीं करते। जमाना बिगड़ा हुआ है, नहीं १० ) के लिए इतना हाथ-पाव न जोड़ता।

प्रधानजी हँसकर बोले --- यह तो तुमने नई चाल चली।

'चाल नहीं चल रहा हूँ, अपनी विपत्ति-कथा कह रहा हूँ।'

'कांग्रेस के पास इतने रुपये नहीं है वह मोटों को खिलाती फिरे ।' 'अब भी आप मुझे मोटा हो कहे जायेंगे।' 'तुम मोटे हो हो।'

'मुझ पर प्ररा भी दया न कीजिएगा ?'

प्रधान ज्यादा गहराई से बोले --- छकौड़ीलालजी, मुझे पहले तो इसका विश्वास नहीं आता कि आपकी हालत इतनी खराब है, और अगर विश्वास आ भी जाय, तो मैं कुछ कर नहीं सकता। इतने महान् आन्दोलन में कितने हो घर तबाह हुए ओर होंगे । हम लोग समो तबाह हो रहे हैं। आप समझते है, हमारे सिर कितनी पड़ी जिम्मेदारी है। आपका तावान मुआफ कर दिया जाया तो कल है आपके बीसियों भाई अपनी मुहरें तोड़ डालेंगे और हम किसी तरह कायल न कर सकेंगे। आप गरीब है। लेकिन आपके सभी भाई तो गरोन नहीं हैं। तब तो सभी अपनी बीवी के प्रमाण देने लगेंगे। मैं किस-किस की तलाशी लेता फिरूंगा। इसलिए जाइए, किसी तरह रुपये का प्रबन्ध कीजिए और दूकान खोलकर कार-पार कीजिए। ईश्वर चाहेगा, तो वह दिन भी आयेगा जब आपका नुक्सान पूरा होगा। ।

( ५ )

छकौड़ी घर पहुंचा, तो अंधेरा हो गया था। अभी तक उसके द्वार पर स्यापा हो। रहा था। घर में जाकर स्त्री से बोला-आखिर वही हुआ, जो मैं कहता था। प्रधान- जो को मेरी बातों पर विश्वास ही नहीं आया ।

स्त्री का मुरझाया हुआ वदन उत्तेजित हो उठा। सठ खड़ी हुई और बोली --- अच्छी बात है, हम उन्हें विश्वास दिला देंगे। मैं अब कांग्रेस दफ्तर के सामने ही- मऊँगी। मेरे बच्चे उसी दफ्तर के सामने भूख से विकल हो होकर तड़पेंगे। काप्रेस, हमारे साथ सत्याग्रह करती है, तो हम भी उसके साथ सत्याग्रह करके दिखा दें। मैं इस मरी हुई दशा में भी काग्रेस को तोड़ डालूंगी। जो अभी इतने निर्दयी हैं, वह इछ अधिकार पा जाने पर क्या न्याय करेंगे ? एक इक्का बुला लो, खाट को प्रात नहीं । वहीं सड़क किनारे मेरी जान निकलेगी। जनता ही के बल पर तो वह कूद रहे है। मैं दिखा देगो, जानता तुम्हारे साथ नहीं, मेरे साथ है।

इस अग्नि-कुण्ड के सामने छकौड़ी को गर्मी शान्त हो गई। कांग्रेस के साथ इस रूप में सत्याग्रह करने को कल्पना ही से वह कांप उठा। सारे शहर में हलचल पड़ लायगी, हतारों आदमी भाकर यह दशा देखेंगे । संभव है, कोई हंगामा हो हो जाय। यह सभी बात इतनी भयकर थी कि छकौड़ी का मन कातर हो गया। उसने स्त्री को

शान्त करने की चेष्टा करते हुए कहा-इस तरह चलना उचित नहीं है अम्बे ! मैं एक बार प्रधानजी से फिर मिलूंगा । अब रात हुई, स्यापा भी पन्द हो जायगा । कल देखी जायगी । अभी तो तुमने पथ्य भी नहीं लिया। प्रधानजी बेचारे बड़े असमजस में पड़े हुए है। कहते हैं, अगर आपके साथ रिआयत करूं, तो फिर कोई शासन ही न रह जायगा। मोटे-मोटे आदमी भो मुहरें तोड़ डालेंगे और जब कुछ कहा जायगा, तो आपकी नजीर पेश कर देंगे।

अम्बा एक क्षण अनिश्चित दशा में खड़ी छौड़ी का मुंह देखती रही, फिर धीरे से खाट पर बैठ गई । उसको उत्तेजना गहरे विचार में लीन हो गई। काग्रेस की और अपनी जिम्मेदारी का खयाल आ गया। प्रधानजी के कथन में कितना सत्य था, यह उससे छिपा न रहा।

उसने छौड़ी से कहा- तुमने आकर यह बात न कही थी।

छकौड़ी बोला-उस वक मुझे इसकी याद न थी।

'यह प्रधानजी ने कहा है, या तुम अपनी तरफ से मिला रहे हो?'

'नहीं, उन्होंने खुद कहा, मैं अपनी तरफ से क्यों मिलाता ?' 'बात तो उन्होंने ठीक हो कही ।'

'हम तो मिट जायेंगे।'

'हम तो यो ही मिटे हुए हैं।'

'रुपये कहाँ से आयेंगे। भोजन के लिए तो ठिकाना हो नहीं, दंड कहाँ से दें?'

और कुछ नहीं है, घर तो है। इसे रेहन रख दो। और अब विलायती कपड़े भूलकर भी न बेचेना। सड़ जायँ, कोई परवाह नहीं। तुमने सील तोड़कर यह आफत सिर ली। मेरी दवा-दारू की चिन्ता न करो। ईश्वर की जो इच्छा होगी, वह होगा। बाल-बच्चे भूखों मरते हैं, मरने दो। देश में करोड़ों आदमी ऐसे हैं, जिनकी दशा हमारी दशा से भी खराब है। हम न रहेंगे, देश तो सुखी होगा।

छकौड़ी जानता था, मम्बा जो कहती है, वह करके रहती है, कोई रन नहीं सुनती। वह सिर झुकाये, अम्वा पर मुंमलाता हुआ घर से निकलकर महाजन के बर की ओर चला।