मानसरोवर १/मनोवृत्ति

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मानसरोवर १  (1947) 
द्वारा प्रेमचंद

[ ३११ ]'कल मुझे जरा प्रयाग जाना है।'

'ता में भी आपके साथ चलें ? गाड़ी में सुनाती चलूंँगी।'

'कुछ निश्चय नहीं, किस गाहो से जाऊँ।'

'अप लौटेंगे कव तक?'

'यह भी निश्चय नहीं।'

और टेलीफोन पर जाकर बोले --- हेल्लो नं०७७ ।

कामाक्षी ने आध घण्टे तक उनका इन्तजार किया ; मगर शर्माजो एक सज्जन से ऐसी महत्त्व की बातें कर रहे थे, जिसका अन्त हो होने न पाता था।

निराश होकर कामाक्षी देवी विदा हुई और शीघ्र ही फिर आने का वादा कर गई। शर्माजी ने आराम की सांस ली और उस पोधे को उठाकर रद्दी में डाल दिया और जले हुए दिल से आप-ही-आप कहा--देवर न करें कि फिर तुम्हारे दर्शन हो । कितनी बेशर्म है, कुलटा कहाँ लो ! आज इसने सारा मजा किरकिरा कर दिया।

फिर मैनेजर को बुलाकर कहा --- कामाक्षी की कविता नहीं जायगी ।

मैनेजर ने स्तम्भित होकर कहा --- फार्म तो मशोन पर है।

'कोई हरज नहीं । फार्म उतार लीजिए।'

'बड़ी देर होगी।'

'होने दीजिए। वह कविता नहीं जायगी।'


मनोवृत्ति

एक सुन्दरी युवती, प्रातःकाल गांधी पार्क में 'विल्लौर के बैंच पर गहरी नींद में लोई पाई जाय, यह चौंका देनेवाली बात है । सुन्दरिया पाकों में हवा खाने भाती हैं, इसतो हैं. दौड़ती है, फूल-पौधों से खेलती है, किसी का इधर ध्यान नहीं जाता, लेकिन कोई युवती रविश के किनारेवाले पैच पर बेखबर सोये, यह बिलकुल गैर मामूली बात है, अपनी ओर पल-पूर्वक आकर्षित करनेवाली। रविश पर कितने आदमी चहलकदमी कर रहे हैं, बूढ़े भी, जवान भी, सभी एक क्षण के लिए वहाँ हिठक जाते हैं, एक नजर वह दृश्य देखते हैं और तब चले जाते हैं । युवक-वृन्द रहस्यभाव से मुखकिराते हुए, वृद्धजन चिता-भाव से सिर हिलाले हुए और युवतियां लज्जा से आँखें नीची किये हुए
[ ३१२ ]
वसत और हाशिम निकर और बनियाइन पहने नंगे पांव दौड़ रहे हैं। बड़े दिन की छुट्टियों में ओलिम्पियन रेस होनेवाला है, दोनों उसी की तैयारी कर रहे हैं। दोनों इस स्थल पर पहुंचकर रुक जाते हैं और दगी आँखों से युक्तो को देख- कर आपस में खयाल दौड़ाने लगते हैं। वसत ने कहा-इसे और कहीं सोने की जगह ही न मिली।

हाशिम ने जवाब दिया --- कोई वेश्या है।

'लेकिन वेश्याएँ भी तो इस तरह बेशर्मी नहीं करती।'

'वेश्या अगर बेशर्म न हो तो वेश्या नहीं।'

'बहुत-सी ऐसी बातें हैं, जिनमें कुलवधू, और वेश्या दोनों एक व्यवहार करतो है। कोई वेश्या मामूली तौर पर सड़क पर सोना नहीं चाहती।'

'रूप छवि दिखाने का नया आर्ट है।'

'आर्ट का सबसे सुन्दर रूप छिपाव है, दिखाव नहीं । वेश्या इस रहस्य को खूब समझती हैं।'

'उसका छिपाव केवळ आकर्षण बढाने के लिए है।'

‘हो सकता है, मगर केवल यहाँ सो जाना यह प्रमाणित नहीं करता कि यह वेश्या है। उसकी मांग में सेंदुर है।'

'वेश्याएँ अवसर पड़ने पर सौभाग्यवती बन जाती हैं। रात-सर प्याले के दौर चले होंगे । काम-कोहाएँ हुई होगो । अवसाद के कारण, ठण्डक पाकर सो गई होगी।'

'मुझे तो कुल-वधू-सी लगती है।'

'कुल-बधू पार्क में सोने आयेगो ?'

'हो सकता है, पर से रूठकर आई हो।'

'चलकर पूछ ही क्यो न लें।'

'निरे अहमक हो । बगैर परिचय के आप किसी को जगा कैसे सकते हैं ?'

'अजी, चलकर परिचय कर लेंगे। उलटे और एहसान जतायेंगे।' और जो कहीं भिड़क दे ?'

'झिड़कने की कोई बात भी हो। उससे सौजन्य और सहायता में डूबी हुई बाते करेंगे। कोई युक्तो ऐसी बातें सुनकर चिढ़ नहीं सकती। अजी, गतयौवनाएं
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तो रस भरी बातें सुनकर फूल हो उठती हैं। यह तो नवयौवना है। मैंने रूप यौवन-का ऐसा सुन्दर संयोग नहीं देखा था।'

'मेरे हृदय पर तो यह रूप जीवन-पर्यन्त के लिए अंकित हो गया। शायद कभी न भूल सकू।'

'मैं तो फिर भी यही कहता हूँ कि कोई वेश्या है।'

'रूप की देवी वेश्या भी हो, तो उपास्यं है।'

'यही खड़े-खड़े कवियों की-सी बातें करोगे, जरा यहाँ तक चलते क्यों नहीं। तुम केवल खड़े रहना, पाश तो मैं डालूंँगा।'

'कोई कुल-वधू है।'

'कुल-वधू पार्क में आकर सोये, तो इसका इसके सिवा कोई अर्थ नहीं कि आकर्षित करना चाहती है और यह वेश्या मनोवृत्ति है।'

'आजकल की युवतियां भी तो फार्वर्ड होने लगी हैं।'

'फार्वर्ड युवतियाँ युवकों से आँखें नहीं चुराती।'

'हाँ, लेकिन है कुल-वधू, कुल-वधू से किसी तरह की बातचीत करना मैं बेहूदगी सममता हूँ।'

'तो चलो, फिर दौड़ लगायें।'

'लेकिन दिल में तो वह मूर्ति दौड़ रही है।'

'तो आभो वैठे। अब वह उठकर जाने लगे, तो उसके पीछे चलें। मैं हूँ, वेश्या है।'

'और मैं कहता हूँ, कुल-वधू है।'

'तो दस-दस की बाभी रही।'

दो वृद्ध पुरुष धीरे-धीर मौन की ओर ताकते आ रहे हैं, मानों खोई बवानी हूँढ़ रहे हों। एक को कमर झुकी, बाल काले, शरीर स्थूल ; दूसरे के बाल पके हुए पर कमर सोधो, इकहरा शरीर । दोनों के दांत टूटे; पर नकली दाँत लगाये, दोनों की आंखों पर ऐनक । मोटे महाशय कोल हैं, छरहरे महोदय शक्टर ।

वकील --- देखी, यह बीसवीं सदी की करामात !

डाक्टर --- जी हां, देसी, हिन्दुस्तान दुनिया से भला तो नहीं है !

'लेकिन आप इसे शिष्टता तो नहीं कर सकते ?'

'शिष्टता की दुहाई देने का अब समय नहीं।' [ ३१४ ]'है किसो गले घर को लड़को।'

'वेश्या है साहब, आप इतना भी नहीं समझते ?'

'वेश्या इतनी फूहड़ नहीं होती।'

'और भले पर छौ लड़कियों फूहड़ होती हैं ?

'नई आजादी है, नया नशा है।'

"हम लोगों को तो बुरी-भली घट गई। जिनके सिर आयेगी वह झेलेंगे।'

'जिन्दगी जहन्नुम से पक्षता हो जायगी।'

'अफसोस, लवानी रुखसत हो गई।'

'मगर भाख तो नहीं बन सत हो गई, वह दिल तो नहीं रखपत हो गया।'

'बस, आँख से देखा सरो, दिल जलाया करो।'

'मेरा तो फिर जवान होने को जी चाहता है। सच पूछो तो आजकल के सीवन में ही ज़िन्दगी की बहार है। हमारे रक्कों में तो कहीं कोई सुरत ही नजर न आतो थी । आज तो जिधर जाओ, हुस्न-ही-हुस्न के पालवे हैं।'

'सुना, युवतियों को दुनिया में जिस चीज से सबसे ज़्याश नफरत है,वह बूढे मर्द हैं।'

इसजा कायल नहीं। पुरुष का जौहर उसको जवानी नहीं, उसका शक्ति- सम्पन्न होना है। कितने हो बूढे जवानो से ज्यादा अड़ियल होते हैं। मुझे तो आये दिन इसके तजरबे होते हैं। मैं हो अपने को किधी जवान से कम नहीं समझता।'

'यह सब सही है ; पर बूढ़ो का दिल कमजोर हो जाता है। अगर यह बात न होती, तो इस रमणी को इस तरह देखकर हम लोग यो न चले जाते । मैं तो आँखों भर देख भी न सका। डर जा रहा था कि वो उसकी आँखें खुल जाये और वह मुझे तारते देख ले तो दिल में क्या समझे।'

'खुश होतो कि बूढ़े पर भी उसका जादू चल गया।'

'अजी, रहने भी दो।'

'आप कुछ दिनों 'योझासा' का सेवन कीजिए।'

'चन्द्रोदय खाकर देख चुका । सब लूटने को पाते हैं।'

'मकी-ग्लैंड लगवा लीजिए न ?'

'आप इस युवती से मेरी बातें पक्की करा दें। मैं तैयार हूँ।'

'हां, यह मेरा जिम्मा , बगर भाई हमारा हिस्सा भी रहेगा।' [ ३१५ ]'अर्थात् ?'

'अर्थात् यह कि कभी-कभी मैं भी आपके घर आकर अपनी आखें ठंडी कर दिया करूंगा।'

'अगर आप इस इरादे से आयें, तो आपका दुश्मन हो जाऊँ।'

'ओ हो, भाप तो मंकी-ग्लैंड का नाम सुनते ही जवान हो गये।'

'मैं तो समझता हूँ, यह भी डाक्टरों ने लूटने का एक लटका निकाला है । सच।'

'अरे साहब, इस रमणी के स्पर्श में जवानी है, आप है किस फेर में ! उसके एक-एक अंग में, एक-एक चितवन में, एक-एक मुस्कान में, एक-एक विलास में, जवानी भरी हुई है । न सौ मंकी-ग्लैंड न एक रमणी का पाहु-पाश ।'

'अच्छा कदम बढ़ाइए, मुवक्किल पार बैठे होंगे।'

'यह सुरत याद रहेगी।'

'फिर आपने याद दिला हो।'

'वह इस तरह सौई है, इसलिए कि लोग उसके रूप को, उसो भंग-विन्यास कों, उसके बिखरे हुए फेशों को, उसकी खुली हुई गर्दन को देखें और अपनी छाती पीटें । इस तरह चले जाना, उसके साथ अन्याय है । वह बुला रही है, और आप भागे जा रहे हैं।'

'हम जिस ता दिल से प्रेमकार सकते है, जवान कभी कर ही नहीं सकता।'

'बिलकुल ठीक ! मुझे तो ऐसी औरतों से साविञ्च पा चुका है, जो रसिक बूढ़ों झो खोजा करती हैं । जवान तो छिछोरे, उच्छृसन्य, अस्थिर और गर्वीले होते हैं । वे प्रेम के बदले में कुछ चाहते हैं। यहां निःस्वार्थ भाव से आत्म-समर्पण करते हैं।'

'आपकी बातों से दिल में गुदगुदी हो गई।'

'मगर एक बात याद रखिए, कहीं उसका कोई जवान प्रेमी मिल गयो, ती ?'

'तो मिला करे, यहाँ ऐसों से नहीं डरते।'

'आपकी शादी को कुछ बात-चीत थी तो?'

'हां, थी, मगर अपने ही लड़के जब दुश्मनी पर कमर बाधे, तो क्या हो । मेरा था लड़का यशवन्त तो मुझे बन्दुक दिखाने लगा । यह जमाने की खूबी है।'

अक्टूबर को धूप तेज हो चली थी। दोनों मित्र निकल गये ।

( ३ )

दो देवियां- एक वृद्धा, दुसरी नवयौवना पार्क के फाटक पर मोटर से उतरी और पार्क में हवा खाने आई। उनको निगाह भी उस नींद की माती युक्ती पर पड़ी। [ ३१६ ]वृद्धा ने कहा --- बड़ी बेशर्म है।

नवयौवना ने तिरस्कार-भाव से उसकी और देखकर कहा --- ठाठ तो भते पर को देवियों के हैं।

'बस ठाठ ही देख लो। इसी से मर्द करते है --- स्त्रियों को आजादी न मिलना चाहिए।

'मुझे तो कोई वेश्या मालूम होती है।'

'वेश्या हो सही ; पर उसे इतनी बेशर्मी करके स्त्री-समाज कोलज्जित करने का क्या अधिकार है।'

'कैसे मजे से सो रही है, मानों अपने घर में है।'

'बेहयाई है, मैं परदा नहीं चाहती, पुरुषों की गुलामी नहीं चाहती, लेकिन औरतों में जो गौरवशीलता और सहजता है, उसे नहीं छोड़ना चाहती। मैं किसी युवती को सड़क पर सिगरेट पीते देखती हूँ, तो मेरे बदन में भाग ला जातो है। उसी तरह आधी छाती का शाम्पर भी मुझे नहीं सोहाता । च्या अपने धर्म को लाज छोड़ देने ही से साबित होगा कि हम बहुत फाई हैं ? पुरुष अपनी छाती या पीठ खोले तो नहीं घूमते ?'

'इसी बात पर पाजी, जव में भापको आड़े हार्थों लेतो हूँ, तो आप बिगड़ने लगती है। पुरुष स्वाधीन है, वह दिल में समझता है कि मैं स्वाधीन हूँ। यह स्वाधीनता का स्वांग नहीं सरता । स्त्री अपने दिल में समस्ती रहती है कि वह स्वाधीन नहीं है। इसलिए वह अपनी स्वाधीनता का ढोंग करती है । जो बलवान है, वे करते नहीं । लो दुर्बल है, वही अकए दिखाते हैं । क्या आप उन्हें अपने मासू पोछने के लिए इतना अधिकार भी नही देना चाहती!'

'मैं तो कहती हूँ, स्त्री अपने को छुपाकर पुरुष को जितना नचा सकती है, अपने को खोल्कर नहीं नचा सक्ती।'

'स्नो ही पुरुष के आकर्षण की पिक क्यों करे? पुरुष क्यों स्त्री से पर्दा नहीं करता!'

'अब मुंँह न खुल्वाओ मौनू । इस छोकरी को नगाकर कह दो-माकर पर में सोये । इतने आदमी आ-जा रहे हैं और यह निर्लज्जा टाँग फैनाये पड़ी है। यहाँ इसे नींद जैसे आ गई ?'

'रात कितनी गर्मी थी बाईजी ! टप्डक पाकर बेचारी को आंँख लग गई है।' [ ३१७ ]'रात-भर यहीं रही है, कुछ-कुछ बदती हूँ।'

मोनू युवती के पास जाकर उसका हाथ पकड़कर हिलाती है—यहाँ क्यों सो रही हो देवीजी, इतना दिन चढ़ आया, उठकर घर जाओ।

युवती आंखें खोल देती है --- ओ हो, इतना दिन चढ़ आया क्या में सो गई थी मेरे सिर में चमकार था जाया करता है । मैंने समझा, शायद हवा से कुछ लाभ हो। यहाँ आई , पर ऐसा चक्कर आया कि मैं इस बेश्च पर बैठ गई, फिर मुझे कुछ होश न रहा। अब भी मैं खड़ी नहीं हो सकती । बालम होता है, गिर पडूंगी। बहुत हवा की; पर कोई फायक्षा नहीं होता। आप डाक्टर श्यामनाथ को जानती होगी, वह मेरे ससुर है।

युवती ने आश्चर्य से कहा --- अच्छा। वह तो अभी इधर ही से गये हैं।

'सच ! लेकिन मुझे पहचान कैसे सकते हैं ? सभी मेरा गौना नहीं हुआ है।'

'तो क्या आप उनके लड़के वसन्तलाल की धर्मपत्नी है?'

युवती ने नाम से सिर झुकार स्वीकार किया। मोनू ने हंसकर कहा --- वसन्त- बल भी तो अभी इधर से गये हैं। मेरा उनसे युनिवर्सिटी का परिचय है।

'अच्छा ! लेकिन मुझे उन्होंने देखा कहीं है।'

'तो मैं दौलकर डॉक्टर साहब को खबर दे ?'

'जी नहीं, मैं थोड़ी देर में बिलकुल अच्छी हो जाऊँगी।'

'वसन्तलाल भी वह खड़ा है, उसे बुला दूँ ?'

'जी नहीं, किसी को न बुलाइए।'

'तो चलो, अपनी मोटर पर तुम्हें तुम्हारे घर पहुंचा है।'

'आपकी बड़ी रुपा होगी।'

'किस मुहल्ले में ?'

'बेगमगज, मि० जयरामदास के घर ?'

'मैं आज ही मि० वसन्तलाल से कहूँगी ।'

'मैं क्या जानती थी कि वह इस पार्क में आते हैं।'

'मगर कोई आदमी तो साथ ले लिया होता ?'

'किस लिए ? कोई ज़रुरत न थी।'