मानसरोवर १/रसिक सम्पादक

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मानसरोवर १  (1947) 
द्वारा प्रेमचंद
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रसिक संम्पादक

'नवरस' के सम्पादक पं. चोखेलाल शर्मा की धर्मपत्नी का जब से देहान्त हुआ है, आपको स्त्रियों से विशेष अनुराग हो गया है और रसिकता को मात्रा भी कुछ बढ़ गई है। पुरुषों के अच्छे अच्छे लेख रद्दी में डाल दिये जाते हैं । पर देवियों के लेख कैसे भी हों, तुरन्त स्वीकार कर लिये जाते हैं, और बहुधा लेख को रसोद के साथ लेख को प्रशसा कुछ इन शब्दों में की जाती है— आपका लेख पढ़कर दिल थामकर रह गया, अतीत जीवन आँखों के सामने मूर्तिमान हो गया, अथवा आपके भाव साहित्य-सागर के उज्ज्वल रत्न हैं, जिनकी चमक कभी कम न होगी । और कविताएँ तो हृदय को हिलोरें, विश्ववीणा की अमर तान, अनन्त को मधुर वेदना, निशा का नीरव गान होती थी। प्रशंसा के साथ दर्शनों की उत्कृष्ट अभिलाषा भी प्रकट की जाती थी --- यदि आप कभी इधर से गुजरे, तो मुझे न भूलिएगा। जिसने ऐसी कविता की सृष्टि की है, उसके दर्शनों का सौभाग्य मुझे मिला, तो अपने को धन्य मानूंँगा।

लेखिकाएंँ अनुराग-मय प्रोत्साहन से भरे हुए पत्र पाकर फूली न समाती । जो देश अभागे भिक्षुक की भाति स्तिने ही पत्र-पत्रिकाओं के द्वार से निराश लौट आये थे, उनका यही इतना आदर । पहली ही बार ऐसा सम्पादक अन्मा है, जो गुणों का पारखी है। और सभी सम्पादक अहम्मन्य है, अपने आगे किसी को समझते हो नहीं। जरा-सी सम्पादको क्या मिल गई, मानों कोई राज्य मिल गया। इन सम्पा. दकों को कहीं सरकारी पद मिल जाय तो अन्धेर मचा दें? वह तो कहो कि सरकार इन्हें पूछती नहीं । उसने बहुत अच्छा किया, जो आर्डिनेन्स पास कर दिये । और स्त्रियों से द्वेष करो। यह ससी का दण्ड है। यह भी सम्पादक ही है, कोई घास नहीं छोच्ते और सम्पादक भी एक जगत्-विख्यात पत्र के। नवरस' सम पन्नों में राजा है।

चोखेलालजी के पत्र की प्राहक संख्या बड़े वेग से बढ़ने लगी। हर डाक से धन्यवादों को एक बाढ़-सी आ जाती, और लेखिकाओं में उनकी पूजा होने लगी। [ ३०६ ]
ब्याह, गौना, सूइन, छेदन, जन्म, मरण के समाचार आने लगे। कोई आशीर्वाद मांगती, कोई उनके मुख से सांत्वना के दो शब्द सुनने को अभिलाषा करतो, कोई उनसे घरेलू सकटों में परामर्श पूछतो। और महीने में दस-पांच महिलाएँ उन्हें दर्शन भी दे आती। शर्माजी उनको अवाई का तार या पत्र पाते ही स्टेशन पर जाकर उनका स्वागत करते, बड़े आग्रह से उन्हें एकाध दिन ठहराते, उनकी खूब खातिर करते । सिनेमा के फ्री पास मिले हुए थे हो, खूब सिनेमा दिखाते । महिलाएँ उनके सदभाव मुग्ध होकर विदा होती। मशहूर तो यहाँ तक है कि शर्माजी का कई लेखिकाओं से बहुत ही घनिष्ठ सम्बन्ध हो गया है । लेकिन इस विषय में हम निश्चय-पूर्वक कुछ नहीं कह सकते। हम तो इतना हो जानते हैं कि जो देवियों एक पार यहाँ आ जाती, वह शर्माजी की अनन्य भक्त हो जाती। बेचारा साहित्य को कुटिया का तपस्वी है। अपने विधुर जीवन की निराशाओं को अपने अन्तस्तल में सचित रखकर मूक वेदना में प्रेम-माधुर्य का रस-पान कर रहा है। सम्पादकजो के जोवन में जो कमी आ गई थी, उएको कुछ पूर्ति करना महिलाओं ने अपना धर्म-सा मान लिया। उनके भरे हुए भडार में से अगर एक क्षुधित प्राणी को थोड़ी-सी मिठास दो आ सके, तो उससे भहार की शोभा ही है। कोई देवो पारसल से अचार भेज देतो, कोई लड्डू , एक ने पूजा का उनी भासन अपने हाथों बनाकर भेज दिया। एक देवी महीने में एक बार आकर उनके कपलों की मरम्मत कर देती थीं। दूसरी देवी महीने में दो-तीन बार आकर उन्हें अच्छी-अच्छी ची बनाकर खिला जातो थौं। भव वह किसी एक के न होकर सबके हो गये थे। स्त्रियों के अधिकारों का उनसे कड़ा रक्षक शायद ही कोई मिले। पुरुषों से तो शर्माजी को हमेशा तीन अलोचना ही मिलती थी । श्रद्वामय सहानुभूति का आनन्द तो उन्होंने स्त्रियौ हौ में पाया ।

एक दिन सम्पादकजी को एक ऐसी कविता मिली, जिसमें लेखिका ने अपने उप्र प्रेम का रूप दिखाया था । अन्य सम्पादक उसे अश्लील कहते , लेकिन चोखेलाल इधर बहुत उदार हो गये थे। कविता इतने सुन्दर अक्षरों में लिखी थी, लेखिका का नाम इतना मोहक था कि सम्पादकजी के सामने उसका एक कल्पना-चित्र-सा आकर खड़ा होगया। भावुक प्रकृति, कोमल गात, याचना-भरे नेत्र, बिम्ब-अधर, चंपई रंग, भंग-अग में चपलता भरी हुई, पहले गोंद की तरह शुष्क और कठोर, आई होते ही चिपक बाने.

पाली। उन्होंने कविता को दो तीन बार पढ़ा और हर बार उनके मन में सनसनो दौड़ी-
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क्या तुम समझते हो मुझे छोड़कर भाग

जाओगे?

भाग सकोगे?

मैं तुम्हारे गले में हाथ डाल दूँगी;
मैं तुम्हारी कमर में कर-पाश कस दूँगी;
मैं तुम्हारा पाँव पकड़कर रोक लूँगी;
तब उस पर सिर रख दूँगी।
क्या तुम समझते हो, मुझे छोड़कर भाग जाओगे?
छोड़ सकोगे?
मैं तुम्हारे अधरों पर अपने कपोल चिपका दूँगी;
उस प्याले में जो मादक सुधा है––
उसे पीकर तुम मस्त हो जाओगे।
और मेरे पैरों पर सिर रख दोगे।
क्या तुम समझते हो, मुझे छोड़कर भाग जाओगे?

–––'कामाक्षी'

शर्माजी को हर बार इस कविता में एक नया रस मिलता था। उन्होंने उसी क्षण कामाक्षी देवी के नाम यह पत्र लिखा–––

'आपकी कविता पढ़कर मैं नहीं कह सकता, मेरे चित्त की क्या दशा हुई। हृदय में एक ऐसी तृष्णा जाग उठी है, जो मुझे भस्म किये डालती है। नहीं जानता, इसे कैसे शान्त करूँ? बस, यही आशा है कि इसको शीतल करनेवाली सुधा भी वहीं मिलेगी, जहाँ से यह तृष्णा मिली है। मन मतंग की भाँति ज़ंज़ीर तुड़ाकर भाग जाना चाहता है। जिस हृदय से यह भाव निकले हैं, उसमें प्रेम का कितना अक्षय भंडार है, उस प्रेम का, जो अपने को समर्पित कर देने ही में आनन्द पाता है। मैं आपसे सत्य कहता हूँ, ऐसी कविता मैंने आज तक नहीं पढ़ी थी और इसने मेरे अन्दर जो तूफ़ान उठा दिया है, वह मेरी विधुर शान्ति को छिन्न भिन्न किये डालता है। आपने एक ग़रीब की फूस की झोपड़ी में आग लगा दी है। लेकिन मन यह स्वीकार नहीं करता कि यह केवल विनोद क्रीडा है। इन शब्दों में मुझे एक ऐसा हृदय छिपा हुआ ज्ञात होता है, जिसने प्रेम की वेदना सही है, जो लालसा की आग
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में तपा है । मैं इसे अपना परम सौभाग्य समझूँगा, यदि आपके दर्शनों का सौभाग्य पा सका। यह कुटिया अनुराग को भेंट लिये आपका स्वागत करने के लिए तढप रही है।'

तीसरे ही दिन उत्तर आ गया । कामाक्षी ने बड़े भावुकत्ता पूर्ण शब्दों में कृतज्ञता प्रकट की थी और अपने आने की तिथि बताई थी।

( २ )

आज कामाक्षी का शुभागमन है ।

शर्माजी ने प्रातःकाल हजामत बनवाई, साबुन और बेसन से स्नान किया, महीन खद्दर की धोती, कोकटी का ढोला चुन्नटदार करता, मलाई के रंग की रेशमी चादर । इस ठाट से आकर कार्यालय में बैठे, तो सारा दफ्तर गमक उठा। दफ्तर को भी खूब सफाई करा दी गई थी। बरामदे में गमले रखवा दिये गये थे, मेज़ पर गुलदस्ते सजा दिये गये थे। गाड़ी नौ बजे आती है; अभी साढे आठ हैं, साढ़े नौ बजे तक यहा आ जायेंगी। इस परेशानी में कोई काम नहीं हो रहा है। भार पार पडो की, ओर ताकते हैं। फिर आईने में अपनी सूरत देखकर कमरे में टहलने लगते है । सूछौं' में दो-चार बाल पके हुए नजर मा रहे हैं । पर उन्हें उखाड़ फेंकने का इस समय कोई सावन नहीं है। कोई हरज नहीं । इससे रग कुछ और ज़्यादा जमेगा । प्रेम जय. श्रद्धा के साथ आता है तो वह ऐसा मेहमान हो जाता है, जो उपहार लेकर आया हो। युवकों का प्रेम खर्चीलो वस्तु है । लेकिन महात्माओं या महात्मापन के समीप पहुंचे हुए लोगों का प्रेम- उलटे और कुछ ले आता है। युवक जो रंग बहुमुल्य उपहारों से जमाता है, ये महात्मा या अर्द्ध महात्मा लोग केवल आशीर्वाद से जमा लेते हैं।

ठीक साढ़े नौ बजे चपरासी ने आकर एक कार्ड दिया । लिखा था --- 'कामाक्षी'।

शर्माजी ने उसे देशीजो को लाने की अनुमति देकर एक बार फिर आईने में अपनी सूरत देखी और एक मोटी-सी पुस्तक पढ़ने लगे, मानों स्वाध्याय में तन्मय हो गये हैं। एक क्षण में देवीजी ने कमरे में कदम रखा। शर्माजी को उनके आने की खबर न हुई।

देवीजी डरते डरते समौम मा गो, तब शर्माजी ने चौंककर सिर उठाया, मानों- समाधि से जाग पड़े हों, और खड़े होकर देवीजी का स्वागत किया। मगर यह वह मूर्ति न थी, जिसकी उन्होंने कल्पना कर रखी थी !

एक काली, मोटी, अधेड़, चचल औरत थी, जो शर्माजी को इस तरह घूर रह
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समान उन्हें पी जायगी । शर्माजी का मारा उत्साह, सारा अनुराग ठंडा पड़ गया। यह सारी मन की मिठाइयाँ, जो वह महीनों से खा रहे थे, पेट में शुल की भांति चुभने लगी। कुछ कहते सुनते न बना । केवल इतना बोले-सम्पादकों क जीवन बिलकुल पशुओं का जीवन है। सिर उठाने का समय नहीं मिलता । उस पर कार्याधिश्य से इधर मेरा स्वास्थ्य भी बिगड़ रहा है। रात ही से सिर-दर्द से बेचैन हूँ। आपकी माया खातिर करूं?

कामाक्षी देवी के हाथ में एक बड़ा-सा पुलिन्दा था। उसे मेज पर पटककर, 'रूमाल से मुंह पोछकर मृदु स्वर में बोलो-यह तो आपने बड़ी बुरी खबर सुनाई। मैं तो एक सहेली से मिलने जा रही थी। सोचा, रास्ते में आपके दर्शन करतो चलू लेकिन जब आपका स्वास्थ्य ठोक नहीं है, तो मुझे यहाँ कुछ दिन रहकर आपका स्वा- एथ्य सुधारना पड़ेगा। मैं आपके सम्पादन-कार्य में भी आपको मदद करूंगी । आपका स्वास्थ्य स्त्री-जाति के लिए बड़े महत्त्व की वस्तु है । आपको इस दशा में छोड़कर मैं अब जा ही नहीं सकती।

शर्माजी को ऐसा जान पड़ा, जैसे उनका रक्त प्रवाह रुक गया है, नाड़ी छूटी जा रहो है । इस चुहल के साथ रहकर तो जीवन ही नरक हो जायगा । चली हैं कविता करने, और कविता भी कैसी ? अश्लीलता में डूबी हुई । अश्लील तो है हो । बिलकुल सडो हुई, गन्दी। एक सुन्दरी युवतो की कलम से वह कविता काम-वाण थी। इस डाइन को कलम से तो वह परनाले का कीचड है। मैं कहता हूँ, इसे ऐसी कविता लिखने का अधिकार हो क्या है ? वह क्यों ऐसी कविता लिन्नतो है ? क्यों नहीं किसी कोने में बैठकर राम-भजन करती ? आप पूछती हैं-मुझे छोड़कर भाग सकोगे ? मैं कहता हूँ ,आपके पास कोई आयेगा ही क्यो ? दूर से ही देखकर न लम्बा हो जायगा। क्या कविता है जिसका न सिर, न पैर, मात्राओं तक का तो इसे ज्ञान नहीं है; और कविता करती है। कविता अगर इन काया में निवास कर सकती है, तो फिर गधा भी गा सकता है, ऊँट भो नाच सकता है । इस रोड को इतना भी नहीं मालूम कि कविता करने के लिए रूप और यौवन चाहिए, नज़ाकत चाहिए। भूतनी-सी तो आपकी सूरत है, रात को कोई देख ले, तो डर जाय और आप उत्तेजक कविता लिखती हैं! कोई कितना ही क्षुधातुर हो, तो क्या गोबर खा लेगा ? और चुडैल इतना बडा पोथा लेती आई है। इसमें भी वहो परनले का गन्दा कीचड़ होगा। [ ३१० ]
उसी मोटो पुस्तक की ओर देखते हुए बोले-नहीं-नहीं, मैं देना चाहता। वह ऐसो कोई बात नहीं है। दो-चार दिन के विश्राम से ठीक हो जायगा । आपकी सहेली आपकी प्रतीक्षा करतो होगी।

'आप तो महाशयजी, सकोच कर रहे हैं। मैं दस पांच दिन के बाद भी चली जाऊँगी, तो कोई हानि न होगी।'

'इसकी कोई आवश्यकता नहीं है देवोजी।'

'आपके मुंह पर तो आपको प्रशसा करना खुशामद होगी। पर जो सजनता मैंने आप में देखो, यद कहीं नहीं पाई। आप पहले महानुभाव हैं, जिन्होंने मेरो रचना का आदर किया। नहीं मैं तो निराश हो चुकी थी। आपके प्रोत्साहन का यह शुभ फल है कि मैंने इतनो कविताएँ रच सालों। आप इनमें से जो चाहें: रख लें।- मैंने एक ड्रामा भी लिखना शुरू कर दिया है। उसै भी शोघ्र ही आपकी सेवा में भेजूंगी। कहिए तो दो-चार कविताएँ सुनाऊँ ? ऐसा अवसर मुझे फिर कब मिलेगा।। यह तो नहीं जानतो कि कविताएँ कैसी हैं ; पर आप सुनकर प्रसन्न होंगे। बिलकुल उसो रग की हैं।'

उसने अनुमति की प्रतीक्षा न की। तुरन्त पोया खोलकर एक कविता सुनाने लगी। शर्माजो को ऐसा मालूम होने लगा, जैसे कोई भिगो-भिगोकर जूते मार रहा है। कई बार उन्हें मतलो भा गई, जैसे एक हजार गधे कानों के पास खड़े अपना स्वर अलाप रहे हो । कामाक्षी के स्वर में कयल का माधुर्म था। पर शर्माजो को इस समय वह भी अप्रिय लग रहा था। सिर में सचमुच दर्द होने लगा । यह गयी टलेगी भो, या बैठी यो हो सिर खाती रहेगी ? इसे मेरे चेहरे से भो मेरे मनोभावों का ज्ञान नहीं हो रहा है । चक्ष पर आप कविता करने चली हैं ! इस मुंह से तो महादेवी या सुभद्राकुमारी की कविताएँ भी घृणा हो उत्पन्न करेंगी।

आखिर न रहा गया । बोले --- आपकी रचनाओं का क्या कहना, आप यह सप्रह यहीं छोड़ जायें । मैं अवकाश में पढ़ गा । इस समय तो बहुत-सा काम है।

कामाक्षी ने दयाई होकर कहा --- आप इतना दुर्वल स्वास्थ्य होने पर भी इतने . व्यस्त रहते हैं। मुझे आप पर दया आती है।

'आपकी कृपा है।'

'आपको कल अवकाश रहेगा ? जरा मैं द्वामा मुनाना चाहती ?' [ ३११ ]'कल मुझे जरा प्रयाग जाना है।'

'ता में भी आपके साथ चलें ? गाड़ी में सुनाती चलूंँगी।'

'कुछ निश्चय नहीं, किस गाहो से जाऊँ।'

'अप लौटेंगे कव तक?'

'यह भी निश्चय नहीं।'

और टेलीफोन पर जाकर बोले --- हेल्लो नं०७७ ।

कामाक्षी ने आध घण्टे तक उनका इन्तजार किया ; मगर शर्माजो एक सज्जन से ऐसी महत्त्व की बातें कर रहे थे, जिसका अन्त हो होने न पाता था।

निराश होकर कामाक्षी देवी विदा हुई और शीघ्र ही फिर आने का वादा कर गई। शर्माजी ने आराम की सांस ली और उस पोधे को उठाकर रद्दी में डाल दिया और जले हुए दिल से आप-ही-आप कहा--देवर न करें कि फिर तुम्हारे दर्शन हो । कितनी बेशर्म है, कुलटा कहाँ लो ! आज इसने सारा मजा किरकिरा कर दिया।

फिर मैनेजर को बुलाकर कहा --- कामाक्षी की कविता नहीं जायगी ।

मैनेजर ने स्तम्भित होकर कहा --- फार्म तो मशोन पर है।

'कोई हरज नहीं । फार्म उतार लीजिए।'

'बड़ी देर होगी।'

'होने दीजिए। वह कविता नहीं जायगी।'


मनोवृत्ति

एक सुन्दरी युवती, प्रातःकाल गांधी पार्क में 'विल्लौर के बैंच पर गहरी नींद में लोई पाई जाय, यह चौंका देनेवाली बात है । सुन्दरिया पाकों में हवा खाने भाती हैं, इसतो हैं. दौड़ती है, फूल-पौधों से खेलती है, किसी का इधर ध्यान नहीं जाता, लेकिन कोई युवती रविश के किनारेवाले पैच पर बेखबर सोये, यह बिलकुल गैर मामूली बात है, अपनी ओर पल-पूर्वक आकर्षित करनेवाली। रविश पर कितने आदमी चहलकदमी कर रहे हैं, बूढ़े भी, जवान भी, सभी एक क्षण के लिए वहाँ हिठक जाते हैं, एक नजर वह दृश्य देखते हैं और तब चले जाते हैं । युवक-वृन्द रहस्यभाव से मुखकिराते हुए, वृद्धजन चिता-भाव से सिर हिलाले हुए और युवतियां लज्जा से आँखें नीची किये हुए