मानसरोवर १/शिकार

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मानसरोवर १  (1947) 
द्वारा प्रेमचंद
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शिकार

फटे वस्त्रोंवाली मुनिया ने रानी वसुधा के चाँद-से मुखड़े को ओर सम्मानभरी आँखों से देखकर राजकुमार को गोद में उठाते हुए कहा—हम ग़रीबों का इस तरह कैसे निबाह हो सकता है महारानी! मेरी तो अपने आदमी से एक दिन न पटे। मैं उसे घर में पैठने न दूँ। ऐसी-ऐसी गालियाँ सुनाऊँ कि छठी का दूध याद आ जाय।

रानी वसुधा ने गम्भीर विनोद के भाव से कहा—क्या, वह कहेगा नहीं, तू मेरे बीच में बोलनेवाली कौन है? मेरी जो इच्छा होगी वह करूँगा। तू अपना रोटी-कपड़ा मुझसे लिया कर। तुझे मेरी दूसरी बातों से क्या मतलब? मैं तेरा गुलाम नहीं हूँ।

मुनिया तीन हो दिन से यहां लड़कों को खिलाने के लिए नौकर हुई थी। पहले दो-चार घरों में चौका-बरतन कर चुको थो; पर रानियों से अदव के साथ बातें करना कभी न सोख पाई थी। उसका सूखा हुआ सांवला चेहरा उत्तेजित हो उठा। कर्कश स्वर में बोली --- जिस दिन ऐसो वार्ते मुंह से निकालेगा, मूंछे उखाड़ लूंगी ! सरकार ! वह मेरा गुलाम नहीं है, तो क्या मैं उसकी लौंडी हूँ ? आर वह मेरा गुलाम है, तो मैं उसकी लौंडी हूँ। मैं आप नहीं खातो, उठे खिला देती हूँ; क्योंकि वह मर्द-बचा है, पल्लेदारी में उसे बहुत कसाला करना पड़ता है। आप चाहे फटे पहन , पर उसे फटे-पुराने नहीं पहनने देती। जब मैं उसके लिए इतना करती हूँ, तो मजाल है, कि वह तुझे आँख दिखाये। अपने घर को आदमी इसीलिए तो छाता-छोपता है, कि उससे बर्खा-वूँदों में बचाव हो। अगर यह डर लगा रहे, कि घर न जाने कब गिर पड़ेगा, तो ऐसे घर में कौन रहेगा। उससे तो रूख की छाँह कहाँ अच्छी। कल न जाने कहाँ बैठा गाता-बजाता रहा। दस बजे रात को घर आया। मैं रात भर उससे बोली ही नहीं। लगा पैरों पड़ने, विधियाने, तब मुझे दया आ गई। यही मुझमें एक बुराई है। मुझसे उसको रोनी सूरत नहीं देखो जाती। इसो से वह कभी-कभी बहक जाता है , पर अब मैं पक्की हो गई हूँ। फिर किसी दिन मगड़ा किया, तो या हो रहेगा, या मैं ही रहूंगी। क्यों कियो को धौंस सहूं सरकार। जो बैठकर खाय, वह धौंस सहे ! यहाँ तो बराबर की कमाई करती हूँ। [ २२७ ]वसुधा ने उसी गम्भीर-भाव से फिर पूछा --- अगर वह तुझे बैठकर खिलाता तब तो उसको धौंस सहतो ?

मुनिया जैसे लड़ने पर उतारू हो गई। बोली --- बैठाकर कोई क्या खिलायेगा सरकार ? मर्द बाहर काम करता है, तो हम भी घर में काम करती हैं कि घर के काम में कुछ लगता ही नहीं। बाहर के काम से तो रात को छुट्टी मिल जाती है। घर के काम से तो रात को भी छुट्टी, नहीं मिरती। पुरुष यह चाहे कि मुझे घर में ठकर आफ्, सैर-सपाटा करे, तो मुमसे तो न सहा जाय । --- यह कहती हुई मुनिया राजकुमार को लिये हुए बाहर चली गई।

वसुधा ने थकी हुई, रुआंसी आँखों से खिड़की की ओर देखा। बाहर हरा-भरा पाय था, जिसके रंग-विरगे फूल यहाँ से साफ़ नज़र आ रहे थे, और पीछे एक विशाल मन्दिर आकाश में अपना सुनहला मस्तक उठाये, सूर्य से आखें मिला रहा था। स्त्रियाँ रंग-बिरंगे वस्त्राभूषण पहने पूजन करने आ रही थीं। मन्दिर के दाहिनी तरफ तालाब में कमल प्रभात के सुनहले आनन्द से मुसकिरा रहे थे। और कार्तिक की शीतक रवि-छवि जीवन ज्योति लुटाती थी, पर प्रकृति को यह सुरम्य शोभा वसुधा को कोई हर्ष न प्रदान कर सकी। उसे जान पड़ा --- प्रकृति उसकी दशा पर व्यग्य से मुसकिरा रही है। उसो सरोवर के तट पर केवट का एक टूटा फूटा झोपड़ा किसी अभागिनी वृद्धा की, भाँति रो रहा था। वसुधा की आँखें सजल हो गई। पुष्प और उन्माद के मध्य में खड़ा वह सूना झोपड़ा सबके विलास और ऐश्वर्य से घिरे हुए मन का सजीव चिन था। उसके जी में आया, जाहर झोपड़े के गले लिपट जाऊँ और खूब रोऊँ।

वसुधा को इस घर में आये पांच वर्ष हो गये। पहले उसने अपने भाग्य को सराहा था। माता-पिता के छोटे-से, वच्चे आनन्दहीन घर को छोड़कर, वह एक विशाल भवन में आई थी, जहाँ सम्पत्ति उसके पैरों को चूमती हुई जान पड़ती थी। उस समय सम्पत्ति ही उसकी आँखों में सब कुछ थी। पत्ति-प्रेम गौण-सौ वस्तु थी पर उसका लोभी मन सम्पत्ति पर सन्तुष्ट न रह सका। पति-प्रेम के लिए हाथ फैलने लगा। कुछ दिनों उसे मालम हुआ, मुझे पद-रन भी मिल गया , पर थोड़े ही दिनों में यह भ्रम माता रहा। कुँअर गजराजसिह रूपवान थे, उदार थे, शिक्षित थे, विनोद प्रिय थे और रेम का अभिनय करना जानते थे, बल्वान थे, पर उनके जीवन में प्रेम से कपित होने वाला तार न था। वसुधा का हिला हुमा यौवन और देवताओं को भी
[ २२९ ]'उन दोनों साहकों के पास हमेशा मोटरें भेजी जाती रही हैं। इसलिए मैंने भेज दी। अब भाप हुक्म दे रही है, तो मँगवा लूंगा।'

वसुधा ने फोन से आकर सफर का सामान ठीक करना शुरू किया। उसने उसी आवेश में भाकर अपने भाग्य-निर्णय करने का निश्चय कर लिया था। परित्यक्ता की भांति पड़ो रहकर वह जीवन को समाप्त करना चाहती थी। वह जाकर कुभर साहब से कहेगी-अगर आप यह समझते हैं कि मैं आपको सम्पत्ति की लौंडी बनकर रहूँ, तो यह मुझसे न होगा। आपकी संपत्ति भापको मुबारक हो ! मेरा अधिकार आपको संपत्ति पर नहीं, आपके ऊपर है; अगर आप मुझसे जो भर हटना चाहते हैं, तो मैं आपसे हाथ भर हट जाऊँगी। इस तरह की और कितनी विराग-भरी बातें उसके मन में बगूलों की भांति उठ रही थीं।

डाक्टर साहब ने द्वार पर पुकारा ---

वसुधा ने नम्रता से कहा --- आज क्षमा कीजिए, मैं जरा पोलीभीत जा रही हूँ।

डाक्टर ने आश्चर्य से कहा --- आप पोलीभीत जा रही हैं। आपका ज्वर बढ़ जायगा। इस दशा में मैं आपको जाने की सलाह न दूंगा।

वसुधा ने विरक्त-स्मर में कहा --- बढ़ जायगा, बढ़ बाय; मुझे इसकी चिन्ता नहीं है।

वृद्ध डाक्टर परदा उठाकर अन्दर आ गया और वसुधा के चेहरे को और ताकता हुमा बोला-लाइए मैं टेम्परेचर ले लूँ ; अगर टेम्परेचर बढ़ा होगा, तो मैं आपको हरगिज़ न जाने दंगा।

'टेम्परेचर लेने की प्ररूरत नहीं। मेरा इरादा पक्का हो गया है।'

'स्वास्थ्य पर ध्यान रखना आपका पहला कर्तव्य है।'

वसुधा ने मुसकिराकर कहा --- आप निश्चिन्त रहिए. मैं इतनी जल्द मरी नहीं जा रही है। फिर भगा किसी बीमारी की दवा मौत ही हो, तो आप क्या करेंगे।

डाक्टर ने दो-एक बार और आग्रह किया। फिर विस्मय से सिर हिलाता चला गया।

( २ )

रेलगाड़ी से जाने में आखिरी स्टेशन से दस कोस तक जंगलो सुनसान रास्ता तय करना पड़ता था इसलिए कुँअर साहब बराबर मोटर हो पर जाते थे। वसुधा ने
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भी उसी मार्ग से जाने का निश्चय किया था। दस बजते-बजते दोनों मोटरें आई। वसुधा ने ड्राइवरों पर गुस्सा उतारा --- अब अगर मेरे हुक्म के बगैर कहों मोटर ले गये तो मोटर का किराया तुम्हारी तलब से काट लूंगी। अच्छो दिल्लगो है ! घर को रोयें, मन को खायें। इमने अपने आराम के लिए मोटरें रखी हैं, किसी की खुशामद करने के लिए नहीं। जिसे मोटर पर सवार होने का शौक हो, मोटर खरीदे, यह नहीं, कि हलवाई की दुकान देखी और दादे का फातिहा पढ़ने बैठ गये।

वह चली तो दोनों बच्चे कनमनाये ; मगर जब मालूम हुआ. कि अम्मा बड़ो दूर हौवा को मारने जा रही है, तो उनका यात्रा प्रेम ठण्डा पड़ा। वसुधा ने आज सुबह से उन्हें प्यार न किया था। उसने जलन में सोचा~मैं ही क्यों इन्हें प्यार करूँ, क्या मैंने ही इनका ठेका लिया है। वह तो वह भाकर वन करें और मैं यहां इन्हें छाती से लगाये बैठी रहूँ लेकिन चलते समय माता का हृदय पुलक उठा। दोनों को बारी-बारी से गोद में लिया, चूमा, प्यार किया और घंटे-भर में लौट भाने का वचन देकर वह सजल नेत्रों के साथ घर से निकली। मार्ग में भी उसे बच्चों को याद बार-बार आती रही। रास्ते में कोई गांव आ जाता, और छोटे-छोटे बालक मोटर को दौड़ देखने के लिए घरों से निकल आते, और सड़क पर खड़े होकर तालियां बजाते हुए मोटर का स्वागत करते, तो वसुधा का जो चाहता, इन्हें गोद में उठाकर प्यार कर लूँ। मोटर मितने वेग से आगे जा रही थी, उतने ही वेग से उसका मन सामने के वृक्ष-समूहों के साथ पीछे को और उदा जा रहा था। कई बार इच्छा हुई, घर लौट चलूँ। जब उन्हे मेरी रत्ती भर परवाह नहीं है, तो मैं ही क्यों उनकी फिक्र में प्राण दूँ ? जी चाहे आवे, या न आवे , लेकिन एक बार पति से मिलकर उनसे खरी-खरी बात करने के प्रलोभन को वह न रोक सकी। सारी देह थक कर चूर-चूर हो रही थी, ज्वर भी हो आया था, सिर पीड़ा से फटा पड़ता था, पर वह सकल्प से सारी बाधाओं को दवाये आगे बढ़ती जाती थी। यहां तक कि अब वह दस बजे रात को जगल के उस टाक-अंगले में पहुँची, तो उसे तन बदन को सुधि न थी। जोर का ज्वर चढ़ा हुआ था।


( ३ )

शोफर को आवाज़ सुनते ही कुँअर साहब निकल आये और पूछा --- तुम यहाँ कैसे आये भो ? कुशल तो है ? [ २३१ ]शोफर ने समीप आकर कहा --- रानी साहन आई हैं हुजूर ! रास्ते में बुखार हो आया। नेहोश पड़ी हुई हैं।

कुँअर साहब ने वहीं खड़े कठोर स्वर में पूछा ---- तो तुम उन्हें वापस क्यों न ले गये ? क्या तुम्हें मालूम नहीं था, यहां कोई वैद्य-हकीम नहीं है ?

शोफर ने सिटपिटाकर जवाब दिया --- हुजूर, वह किसी तरह मानती ही न था, तो मैं क्या करता?

कुँअर साहब ने डांटा, चुप रहो जी, बातें न बनाओ ! तुमने सामना होगा, शिकार की बहार देखेंगे और पड़े पड़े सोयेंगे । तुमने वापस चलने को कहा ही न होगा।

शोफर --- वह मुझे डाँटती थी हुजूर ?

'तुमने कहा था ?'

'मैंने कहा तो नहीं हुजूर ?'

'बस तो चुप रहो। मैं तुमको भी पहचानता हूँ। तुम्हे मोटर लेकर इसो वक्त लौटना पड़ेगा। और कौन-कौन साथ है ?'

शोफर ने दबी हुई आवाज़ में कहा --- एक मोटर पर विस्तर और कपड़े हैं। एक पर खुद रानी साहब हैं।

'यानी और कोई साथ नहीं है?'

"हुजूर ! में तो हक्म का ताबेदार हूँ।'

'बस, चुप रहो।'

यो झल्लाते हुए कुँअर साहब वसुधा के पास गये और आहिस्ता से पुकारा। जब कोई जवाब न मिला, तो उन्होंने धीरे से उसके माथे पर हाथ रखा। सिर गर्म तवा हो रहा था। उस ताप ने मानों उनकी सारी क्रोध ज्याला को खींच लिया। लपककर मंगले में आये, सोये हुए आदमियों को जगाया, पलंग विठवाया, अचेत वसुधा को गोद में उठाकर कमरे में लाये और लिटा दिया। फिर उसके सिरहाने खड़े होकर उसे व्यथित नेत्रों से देखने लगे। उस धूल से भरे मुस्तमडल और विखरे हुए रज-रंजित देशों में आज उन्होंने आग्रहमय प्रेम की झलक देखी। अब तक उन्होंने वसुधा को विलासिनी के रूप में देखा था, जिसे उनके प्रेम की परवाह न थी, जो अपने बनाव- सिगार ही में मगन थी, आज धूल के पौडर भौर पोमेड में वह उसके नारीत्व का दर्शन कर रहे थे। उसमें कितना आग्रह था, कितनी लालसा थी, अपनी उड़ान के
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आनन्द में डूबी हुई ; अब वह पिजरे के द्वार पर आकर पख फड़फड़ा रहो थी। पिंजरे का द्वार खुलकर क्या उसका स्वागत न करेगा ?

रसोइये ने पूछा --- क्या सरकार अकेले आई हैं ?

कुँअर साहब ने कोमल कण्ठ से कहा --- हाँ जी, और क्या। इतने आदमो है। किसी को साथ न लिया। बाराम से रेलगाड़ीसे आ सकती थी। यहां से मोटर भेज दी जाती। मन ही तो है। कितने जोर का बुखार है कि हाथ नहीं रखा जाता। जरा-सा पानी गर्म करो, और देखो, कुछ खाने को बना लो।

रसोइये ने ठकुरसोहाती की --- सौ कोस की दौड़ बहुत होतो है सरकार। भारत दिन बैठे-बैठे बीत गया।

कुँअर साहब ने वसुधा के सिर के नोचे तकिया सीधा करके कहा-कचूमर तो हम लोगों का निकल जाता है। दो दिन तक कमर नहीं सौधो होती, फिर इनकी क्या बात है। ऐसो बेहूदा सड़क दुनिया में न होगी।

यह कहते हुए उन्होंने एक शीशी से तेल निकाला और वसुधा के सिर में मलने लगे।

( ४ )

वसुधा का ज्वर इकोस दिन तक न उतरा। घर से डाक्टर आये। दोनों बालका मुनिया, नौकर-चाकर, सभी आ गये। जंगल में मगल हो गया।

वसुधा खाट पर पड़े-पड़े कुंभर साहब की शुश्रूषाओं में अलौकिक आनन्द और सन्तोष का अनुभव किया करती। वह जो पहर दिन चढ़े तक सोने के आदो थे, कितने सवेरे उठते, उसके पथ्य और आराम की जरा-जरा-सी बातों का कितना ख्याल रखते। परा देर के लिए स्नान और भोजन करने जाते, फिर आकर बैठ जाते। एक तपस्या सी कर रहे थे। उनका स्वास्थ्य बिगड़ता जाता था, चेहरे पर वह स्वास्थ्य की लाली न थी। कुछ व्यस्त से रहते थे।

एक दिन वसुधा ने कहा --- तुम मान-कल शिकार खेलने क्यों नहीं जाते ? मैं तो शिकार खेलने हो आई थी मगर न जाने किस बुरी साइत से चलो कि तुम्हें इतनी तपस्या करनी पड़ गई। अब मैं बिलकुल अच्छी हूँ। जरा आईने में अपनी सूरत तो देखो।

कुंअर साहब को इतने दिनों शिकार का कभी ध्यान हो न आया था। इसको
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चर्चा हो न होती थी। शिकारियों का आना-जाना, मिलना-जुलना बंद था। एक बार साथ के एक शिकारी ने किसी शेर का जिक्र किया था। कुँअर साहब ने उसको भोर कुछ ऐसी कड़वी आँखों से देखा कि वह सूख-सा गया। वसुधा के पास बैठने, उससे कुछ बातें करके उसका मन बहलाने, दवा और पथ्य बनाने हो में उन्हें आनन्द मिलता था। उनका भोग-विलास जीवन के इस कठोर व्रत में जैसे बुझ गया। वसुधा को एक हथेली पर अंगुलियों से रेखा खींचने में मग्न थे। शिकार' की बात किसी और के मुंह से सुनो होतो, तो फिर उनी आग्नेय नेत्रों से देखते। वसुधा के मुंह से यह चर्चा सुनकर उन्हें दुःख हुआ। वह उन्हें इतना शिकार का आसक सममती है। आमर्ष भरे स्वर में बोले --- हाँ, शिकार खेलने का इपसे अच्छा और कौन अवसर मिलेगा।

वसुधा ने आग्रह किया-मैं तो अब अच्छी हूँ, सच ! देखो ( आईने को ओर दिखाकर ) मेरे चेहरे पर पीलापन नहीं रहा। तुम अलपत्ता बोमार से होते जाते हो। जरा मन बहल जायगा। बीमार के पास बैठने से आदमो सचमुच ओमार हो जाता है।

वसुधा ने तो साधारण-सी बात कही थी, पर कुँअर साहब के हृदय पर वह चिनगारी के समान लगी। इधर वह अपने शिकार के खन्त पर कई बार पछता चुके थे। अगर वह शिकार के पीछे यो न पड़ते, तो वसुधा यहाँ क्यों आतो और क्यों बीमार पढ़ती उन्हें मन-ही-मन इसका बड़ा दुःख था। इस वक्त कुछ न बोले। शायद कुछ बोला ही न गया। फिर वसुधा की हथेली पर रेखाएँ बनाने लगे।

वसुधा ने उसी सरल भाव से कहा --- अब को तुमने क्या-क्या तोहफे जमा किये, जरा मँगाओ, देखूं। उनमें जो सबसे अच्छा होगा, उसे मैं ले लँगी। अब की मैं भी तुम्हारे साथ शिकार खेलने चलेंगी। बोलो, मुझे ले चलोगे न ? मैं --- मानूंगी नहीं। बहाने मत करने लगना।

अपने शिकारी तोहफे दिखाने का कुंअर साहब को मरज था। सैकड़ों ही साले जमा कर रखीं थीं। उनके कई कमरों में फर्श, गद्दे, कोच, कुर्सियां, मोढ़ें, सब खालीं हो के थे। औढ़ना और बिछौना भी खाली ही का था। बाघम्बरों के कई सूट बनवा रखे थे। शिकार में वही सूट पहनते थे। भव की भी बहुत से सींग, सिर, पंजे, खाले जमा कर रखी थीं। वसुधा का इन चीजों से अवश्य मनोरंजन होगा। यह न
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समझे कि वसुधा ने सिहद्वार से प्रवेश न पाकर चोर दरवालो से घुसने का प्रयत्न किया है। जाकर वह चीजें उठवा लाये ; लेकिन आदमियों को परदे की आड़ में खड़ा करके पहले अकेले ही उसके पास गये। डरते थे, कहीं मेरी उत्सुकता वसुधा को बुरी न लगे।

वसुधा ने उत्सुक होकर पूछा --- चीज़ नहीं लाये ?

'लाया हूँ; मगर कही डाक्टर साहब नाराज न हो।'

'डाक्टर ने पढ़ने-लिखने को मना किया था।'

तोहफे. लाये गये। कुँअर साहब एक एक चीज़ निकालकर दिखाने लगे। वसुधा के चेहरे पर हर्ष की ऐसी लाली हफ़्तों से न दिखी थी, जैसे कोई बालक तमाशा देखकर मगन हो रहा हो। बीमारी के बाद हम बच्चों की तरह ज़िद्दी, उतने ही आतुर, उतने ही सरल हो जाते हैं। जिन किताबों में कभी मन न लगा हो ; वह बीमारी के बाद पढी जाती है। वसुधा जैसे उल्लास की गोद में खेलने लगी। चोतों को खालें थी, बाघों की, मृगों की, शेरों। वसुधा हरेक खाल को नई उमग से देखती, जैसे बायस्केप के एक चित्र के बाद दूसरा चित्र भा रहा हो। कुंअर साहब एक-एक तोहफ़े का इतिहास सुनाने लगे। यह जानवर कैसे मारा गया, उ के मारने में क्या-क्या बाधाएँ पड़ी, क्या-क्या उपाय करने पड़े, पहले कहाँ गोली लगी, आदि। वसुधा हरेक की कथा आँखे फाड़-फ्राइकर सुन रही थी। इतना सजीव, स्फूर्तिमय आनन्द उसे आज तक किसी कविता, संगीत या आमोद में भी न मिला था। सबसे सुन्दर एक सिंह की खाल थी। वही उसने छोटी।

कुँअर साइब की यह सबसे बहुमूल्य वस्तु थी। इसे अपने कमरे में लटकाने को रखे हुए थे। बोले --- तुम बाधग्वरों में से कोई ले लो। यह तो कोई अच्छी चीज़, नहीं।

वसुधा ने खाल को अपनी ओर खींचकर कहा --- रहने दीजिए अपनी सलाह। मैं खराब ही लूंगी।

कुँअर साहब ने जैसे अपनी आँखों से आंसू पोंछकर कहा --- तुम वही ले लो,. मैं तो तुम्हारे स्खयाल से कह रहा था। मैं फिर वैसा ही मार लूंगा।

'तो तुम मुझे चकमा क्यों देते थे?'

'चकमा कौन देता था ? [ २३५ ]'अच्छा खाओ मेरे सिर को क्रसम, कि यह सबसे सुन्दर खाल नहीं है ?'

कुँअर साहब ने हार की हंसी हँसकर कहा --- कसम क्यों खायें, इस एक खाल के लिए ! ऐसी-ऐसी एक लान खालें हो, तो तुम्हारे ऊपर न्योछावर कर दूं।

जब शिकारी सब खालें लेकर चला गया, तो कुँअर साहब ने कहा --- मैं खाल पर काले ऊन से अपना समर्पण लिखूंगा।

वसुधा ने थकन से पलंग पर लेटते हुए कहा --- अब मैं भी शिकार खेलने चलूंगी।

फिर वह सोचने लगी, वह भो कोई शेर मारेगी और उसकी खाल पतिदेव को भेंट करेगी। उस पर लाल जन से लिखा जायया-प्रियतम !

जिस ज्योति के मन्द पड़ जाने से हरेक व्यापार, हरेक व्यंजन पर अन्धकार-सा -हा गया था, वह ज्योति अब प्रदप्त होने लगी थी।

( ५ )

शिकारों का वृत्तान्त सुनने की वसुधा को चाट सो पड़ गई; कुंअर साहब को कई कई बार अपने अनुभव सुनाने पड़े। उसका सुनने से जी ही न भरता था। अब तक कुअर साहब का ससार मला था, जिसके दुःख-सुख, हानि-लाभ, आशा-निराशा, से वसुधा को सरोकार न था। वसुधा को इस ससार के व्यापार से कोई रुचि न थी। बल्कि अरुचि थी। कुँअर साहब इस पृथक् स सार की बातें उससे छिपाते थे; पर अब वसुधा उनके इस संसार में एक उज्जवल प्रकाश, एक वरदानोवाली देवी के समान अवतरित हो गई थी।

एक दिन वसुधा ने आग्रह किया --- मुझे बन्दूक चलाना सिखा दो।

डाक्टर साहब को अनुमति मिलने में विलम्ब न हुआ। वसुधा स्वस्थ हो गई थी। कुँअर साहा ने शुभ मुहूर्त में उसे दीक्षा दी। उस दिन से जब देखा वृक्षों को छह में खड़ी निशाने का अभ्यास कर रही है और 'कुअर साहब खड़े उसको परीक्षा।

जिस दिन उसने पहली चिड़िया मारी, कुँअर साहब हर्ष से उछल पड़े। नौकरों को इनाम दिये गये ; ब्राह्मणों को दान दिया गया है, इस आनन्द को शुभ स्मृति में उस पक्षी की ममी बनाकर रखी गई।

वसुधा के जीवन में अब एक नया उत्साह, एक नया उल्लास, एक नई आशा थी। [ २३६ ]
पहले की भांति उसका वचित हृदय अशुभ कल्पनाओं से त्रस्त न था। अब उसमें विश्वास था, वल था, अनुराग था।

( ६ )

कई दिनों के बाद वसुधा की साध पूरी हुई। कुंअर साहब उसे साथ लेकर शिकार खेलने पर रालो हुए और शिकार था शेर का और शेर भी वह जिसने इधर एक महीने से आस-पास के गांवों में तहलका मचा दिया था।

चारों तरफ अन्धकार था, ऐसा सचन कि पृथ्वो उसके भार से कराहतो हुई जान पड़ती थी। कुंअर साइव और वसुधा एक ऊँचे पचान पर बन्दूकें लिये, दम साधे थे। यह बहुत भयंकर जन्तु था। अभी पिछली रात को वह एक सोते आदमो को खेत में मचान पर से खौचकर ले भागा था। उसको चालाकी पर लोग दाँतों अंगुली दबाते थे। मचान इतना ऊँचा था कि चौता उछलकर न पहुँच सकता था। हाँ, उसने यह देख लिया कि वह आदमो मचान पर बाहर की तरफ सिर किये सो रहा है। दुष्ट को एक चाल सूझी। वह पास के गांव में गया और वहाँ से एक लषा माँस उठा लाया। बस के एक सिरे को उपने दांतों से कुचला और जब उसकी। चीसी बन गई, तो उसे न जाने भागले पजों मा दाँतों से उठाकर सोनेवाले आदमी के बालों में फिराने लगा। यह जानता था बाल बौस के रेशों में फंस जायेंगे। एक झटके में वह अभागा आदमी नीचे आ रहा। इसी मानुस-मक्षो चोते की घात में दोनों शिकारी बैठे हुए थे। नीचे कुछ दूर पर भैपा बांध दिया गया था और शेर के आने की राह देखी जा रही थी। कैंसर साहब शात थे; पर बसुधा को छाती धक रही थी। जरा-सा पत्ता भो-खड़कता, तो वह चौंक पहतो और वन्दक सौधो करने के बदले चौंककर कुंअर साहब से चिमट जाती। कुँअर साहव बीच-बीच में उसको हिम्मत घंधाते जाते थे।

'ज्योहो भैसे पर आया, मैं उसका काम तमाम कर दूंगा। तुम्हारी गोलो को नौबत हो न आने पावेगी।'

वसुधा ने सिहरकर कहा --- और जो कहों निशाना चूक गया तो उछलेगा ?

'तो फिर दूसरो गोली चलेगी। तोनों बन्दकं तो भरो तैयार रखो हैं। तुम्हारा जो घबड़ाता तो नहीं ?

'बिलकुल नहीं। मैं तो चाहती हूँ. पहला मेरा निशाना होता' [ २३७ ]पत्ते खड़खड़ा उठे। वसुधा चौंकर पति के कन्धों से लिपट गई। कुअर साहा ने उसकी गर्दन में हाथ डालकर कहा- दिल मजबूत करो प्रिये। बसुधा ने लजित होकर कहा --- नहीं-नहीं, मैं डरती नहीं जरा चौंक पड़ी थी।

सहसा भैंसे के पास दो चिनगारिया-सी चमक उठी। कुँअर साहब ने धीरे से वसुधा का हाथ दबाकर शेर के आने की सूचना दी और सतर्क हो गये। जब शेर भैसे पर आ गया, तो उन्होंने निशाना मारा। खाली गया। दूसरा फैर किया। चीता जख्मी तो हुआ ; पर गिरा नहीं। क्रोध से पागल होकर इतने जोर से गरजा कि बसुधा का कलेजा दहल उठा। कुंअर साहब तीसरा पैर करने जा रहे थे कि चीने ने मचान पर जस्त मारी। उसके अगले पंजों के धक्के से मचान ऐसा हिला कि कुँअर साहब हाथ में बन्दुक लिये झोंके से नीचे गिर पड़े। कितना भीषण अवसर था ! अगर एक पल का भी विलम्ब होता. तो कुँअर साहब की खैरियत न थी। शेर को जलती हुई आँखें वसुधा के सामने चमक रही थीं। उसको दुर्गन्धमय सांस देह में लग रही थी। हाथ- पाव फुले हुए थे ! आत भीतर को सिकुड़ी जा रही थी ; पर इस खतरे ने जैसे उसकी नाड़ियों में बिजली भर दी। उसने अपनी बन्दुक सँभाली। शेर के और उसके बीच में दो हाथ से ज्यादा अन्तर न था। वह उचककर आया ही चाहता था कि वसुधा ने बन्दुक को नली उसको आँखों में डालकर बन्दुक छोड़ी। धाय ! शेर के पजे ढीले पड़े । नीचे गिर पड़ा। अब समस्या और भीषण थी। शेर से तोन हो चार कदम पर कुँअर साहब गिरे थे। शायद चोट ज्यादा आई हो। शेर में अगर अभी दम है, तो वह उन पर कहर बार करेगा। वसुधा के प्राण आँखों में थे और कला- इयों में। इस वक कोई उसकी देह में भाला भी चुभा देता, तो उसे खबर न होती। वह अपने होश में न थी। उसको मूर्छा ही चेतना का काम कर रही थी। उसने बिजली की बत्ती जलाई। देखा शेर उठने की चेष्टा कर रहा है। दूसरी गोली खिर पर मारी और उसके साथ ही रिवाल्वर लिये नीचे कूदी। शेर ज़ोर से गुर्राया। वसुधा ने उसके मुंह के सामने रिवाल्वर खाली कर दिया। कुँअर साहब सँभलकर सहे हो गये। दौड़कर उसे छाती से चिपटा लिया। अरे ! यह क्या ! वसुधा बेहोश यो। भय उसके प्राणों को मुठी में लिये उसकी भात्म-रक्षा कर रहा था। भय के

शान्त होते ही मूर्च्छा आ गई। [ २३८ ]

( ४ )

तीन घटों के बाद वसुधा को मूर्च्छा टूटी। उसको चेतना अब भी भय-प्रद परिस्थितियों में विचर रही थी। उसने धीरे से डरते-डरते माखें खोली। कुँअर साहब ने पूछा --- कैसा जी है प्रिये !

वसुधा ने उनकी रक्षा के लिए दोनों हार्थों का घेरा बनाते हुए कहा --- वहाँ से हट जाओ। ऐसा न हो, झपट पड़े।

कुँअर साहब ने हँसकर कहा --- शेर का का ठण्डा हो गया। वह बरामदे में पड़ा है। ऐसे डील-ौल का और इतना भयकर सिंह मैंने नहीं देखा। वसुधा --- तुम्हें चोट तो नहीं आई?

कुँअर --- बिलकुल नहीं। तुम कूद क्यों पड़ी। पैरों में बड़ी चोट आई होगी। तुम जीतो कैसे बचों, यह आश्चर्य है। मैं तो इतनो ऊँचाई से कमो न कह सकता।

वसुधा ने चकित होकर कहा --- मैं ! मैं कहाँ कूदी ? शेर मचान पर आया, इतना याद है। इसके बाद क्या हुआ मुझे कुछ याद नहीं।

कुंअर को भी विस्मय हुआ-वाह ! तुमने उस पर दो गोलियां चलाई। जब वह नीचे गिरा, तो तुम भी कूद पड़ी और उसके मुंह में रिवाल्वर को नलो ढूंस दो। वह वहीं ठण्डा हो गया। बड़ा चेहया जानवर था; अगर तुम चूक जातो, तो वह नीचे आते हो मुझ पर पर चोट करता। मेरे पास तो छुरी भो न थो। बन्धक हाथ से छुटकर दूसरी तरफ गिर गई थी। अंधेरे में कुछ सुझाई न देता था। तुम्हारे ही प्रसाद से इस वक्त मैं यहाँ खदा हूँ। तुमने मुझे प्राणदान दिया।

दूसरे दिन प्रातः काल यहां से कूच हुआ।

सो घर वसुधा को फाहे साता था, उसमें आज साकर ऐसा भानन्द माया, जैसे किसी बिछुड़े मित्र से मिली हो। हरेक वस्तु उसका स्वागत करती हुई मालूम होता यो। जिन नौकरों और लौंडियों से वह महीनों से सोधे मुंह न बोलो थो, उनसे वह भाज हंस हंसकर फुशल पूठती और गले मिकती थो, जैसे अपनो पिछलो इखाइयों को पटौती कर रही हो।

सन्ध्या का सूर्य आकाश के स्वर्ण-सागर में अपनी नौका सेता हुआ वजा जा रहा था। वसुधा तिकी के सामने कुरसी पर बैठकर सामने का दृश्य देखने लपो। उस
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दृश्य में आज जीवन था, विकास था, उन्माद था। केवट का वह सूना झोपड़ा भो आज कितना सुहावना ला रहा था। प्रकृति में मोहिनी भरी हुई थी।

मन्दिर के सामने मुनिया राजकुमारों को खिला रही थी। वसुधा के मन में आज कुलदेव के प्रति श्रद्धा जागृत हुई, जो बरसों से पड़ी सो रही थी। उसने पूजा के सामान मँगवाये और पूजा करने चली। आनन्द से भरे भण्डार से अब वह दान भी कर सकती थी। जलते हुए हृदय से ज्वाला के सिवा और क्या निकलती।

उसी वक्त कुँअर साहब आकर बोले --- अच्छा, पूजा करने जा रही हो ? मैं भी वहीं जा रहा था। मैंने एक मनौती मान रखी है।

वसुधा ने मुसकिराती हुई आँखों से पूछा --- कैसी मनौती है ?

कुंअर साहब साहब ने हसकर कहा यह न बताऊंगा।